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Books - धर्म संस्कृति के अग्रदूत

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Language: HINDI
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मरुस्थल में खिला एक सुन्दर फूला—साधु वास्वानी

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सन् 1922 में सिंध प्रान्त के थावरदास लीलाराम वास्वानी ने प्राचार्थ पद से इस्तीफा दे दिया। कारण था वर्तमान जीवन क्रम से निर्वेद और वैराग्य। उदासीनता का जन्म जीवन की एक मात्र अवलम्ब वृद्धा माता के देहान्त से पैदा हुआ। मां-बाप तो सभी के स्वर्गवासी होते हैं दुःख भी सभी को होता है—परन्तु मात्र इसी कारण से कोई अच्छा पद और सम्मान नहीं छोड़ देता। वास्वानी के प्राचार्य पद से त्याग पत्र की घटना का दूसरा और पहले से भी बड़ा कारण था मां को दिया एक वचन। जिसमें उन्होंने अपना सारा जीवन देश सेवा के लिये अर्पित कर देने का वायदा किया था।

अपने पुत्र के हृदय में बसने वाले प्रेम और श्रद्धा से मां अच्छी तरह परिचित थी। वह जानती थी कि मेरा अभाव थावरदास को जीवन से एक दम वितृष्ण और विरक्त बना देगा। ऐसी स्थिति में कहीं वह आत्महत्या या जीवन से पलायन ही न कर जाय—इसलिए उसे एक काम में लगा देना उपयुक्त है। इसमें वह अपनी प्रतिभा और योग्यता को अच्छी तरह किसी महत्कार्य की पूर्ति में नियोजित कर सके।

अनपेक्षित सी लगने वाली किन्तु अनिवार्य घटनायें जब घटती हैं तो भावुक हृदय इस प्रकार उद्विग्न हो उठते हैं जैसे यह सब आकस्मिक और बड़े भयंकर रूप में हुआ हो। ऐसे लोगों का जीवन और जगत् से विरक्त निराश हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। इस अवसर पर उन भावुक मन व्यक्तियों को कोई भावात्मक सम्बल मिल जाय तो वे अपने माध्यम से देश और समाज की महती सेवा तथा मानवता का महान उपकार कर सकते हैं। टी.एल. वास्वानी की समझदार और दूरदर्शी माता ने भले ही अपने पुत्र से वह वचन केवल उनकी जीवन रक्षा के लिये ही लिया हो। परन्तु समाज को उनसे जो कुछ मिला—उसके लिए संसार उनकी माता का भी बहुत कृतज्ञ है।

टी.एल. वास्वानी का जन्म मरुस्थली इलाके से घिरे हुए सिंध प्रान्त के हैदराबाद जिले में 25 नवम्बर 1879 ई. को हुआ। घर की गरीबी और समर्थ अभिभावक का अभाव उनके मार्ग में बाधा तो बनी परन्तु मां और पुत्र दोनों ने हार नहीं मानी। दृढ़ संकल्प और तन्मय—श्रम के आधार पर मां ने सहयोग दिया और पुत्र ने विकास का लक्ष्य अपनाया। परिस्थितियां कितने ही अवरोध उत्पन्न करें परन्तु मानवीय पुरुषार्थ और संकल्प बल के आगे उनकी कहां चलती है। भले ही भूखे रहकर दिन गुजारना पड़ा हो परन्तु ममतामयी मां ने सुखी भविष्य की आशा से अपने पुत्र की शिक्षा दीक्षा का प्रबन्ध किया। और उच्च शिक्षा का मूल्य तथा महत्व समझ कर साधु वास्वानी भी अपनी मां का स्वप्न साकार करने के लिए डटे रहे।

कराची के डी.जे. सिंध कॉलेज से उन्होंने एम.ए. पास किया। उस समय अंग्रेजी भाषा पर उनका अद्भुत अधिकार था कॉलेज पत्रिकाओं तथा अन्य पत्रों में भी  उनके अंग्रेजी निबन्ध प्रकाशित होते रहते थे जिसे देखकर उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक तक आश्चर्य चकित रह जाते थे। स्वयं और मां के निर्वाह से लेकर अध्ययन करने तक का प्रबन्ध टी.एल. वास्वानी ने जिस कुशलता के साथ किया था उसे देखते हुए उनकी लक्ष्य निष्ठा का महत्व अवश्य ही स्वीकार करना होगा। अपना कार्य ईमानदारी और अव्यवस्थित ढंग से किया जाय तो परिस्थितियां प्रतिकूल होने पर भी वे समस्यायें बोझ नहीं बनतीं। आसानी से उन्हें सुलझाया जा सकता है।

एम.ए. पास कर लेने के बाद ही उन्हें तुरन्त सिंध कॉलेज में दर्शन शास्त्र तथा अंग्रेजी का प्रोफेसर नियुक्त कर दिया गया। मां के लिए तो यह सर्वाधिक खुशी का समय था। जिस अभिलाषा की पूर्ति के लिए वह इतने दिनों से कष्टपूर्ण घड़ियों को जी रही थी वह साध पूरी हो गयी परन्तु शिक्षक वास्वानी को तो अभी बहुत प्राप्तव्य शेष था। अपनी दार्शनिक प्रतिभा को निखारने के लिए वे यहां से वहां भटकते रहे। कलकत्ता और उत्तर भारत के कई कॉलेजों में लम्बे समय तक शिक्षक रहे। इस कार्यावधि में उन्होंने कई विद्यार्थियों को दीक्षित किया। डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसी विभूति उनके शिष्यों में से रहे हैं।

टी.एल. वास्वानी का सर्वाधिक लगाव धर्म और दर्शन से रहा। भारत ही नहीं विश्व के भी अन्य कई धर्मों और संस्कृतियों का उन्होंने गहन अध्ययन किया। विश्व की सभी संस्कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन कर उन्हें सर्वश्रेष्ठ वरेण्यं की प्राप्ति भारतीय धर्म और संस्कृति के तत्वों में हुई। इसलिए उन्होंने हिन्दू धर्म और दर्शन का और भी गहन अध्ययन चिन्तन किया। अपने समय के वे अधिकारी भारतीय दार्शनिक रहे हैं।

1909 में जब बर्लिन में विश्व धर्म सम्मेलन हुआ तो भारत से भी प्रतिनिधि भेजे जाने का निश्चय किया गया। उस समय विश्व सम्मेलन के भारतीय संयोजकों ने अपने प्रतिनिधि के रूप में टी.एल. वास्वानी को ही सर्वाधिक योग्य समझा और उन्हें ही भेजा गया। यद्यपि उस समय उनकी आयु तीस वर्ष मात्र थी। अन्य देशों के प्रतिनिधियों में उनका बाह्य व्यक्तित्व भी काफी हल्का था। जब उन्होंने धर्म सम्मेलनों में भारतीय तत्वज्ञान और धर्म पर सारगर्भित भाषण दिया तो वे सभी प्रतिनिधियों में अद्वितीय बन गये। श्रोताओं तथा आयोजकों पर उनका अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा। यूरोप भर में उनका यश चतुर्दिक फैल गया। संसार भर के समाचार पत्रों ने उनको सबसे छोटा किन्तु सबसे अधिक प्रतिभाशाली दार्शनिक कहा। वस्तुतः आयु का मनुष्य की योग्यता ज्ञान और बौद्धिक विकास से कोई सम्बन्ध है ही नहीं। हमारे पौराणिक इतिहास में एकलव्य, अभिमन्यु, प्रह्लाद, शुकदेव, अष्टावक्र आदि प्रतिभाओं तथा विद्वानों ने अल्पायु में ही अपने क्षेत्र में प्रगति कर ली थी।

जो लोग अभी उम्र ही क्या है—यह कहकर अपने बच्चों की प्रतिभा को उपेक्षित और विशेषताओं को निरुत्साहित करते हैं—वे सचमुच ही गलती पर हैं। टी.एल. वास्वानी की इस सफलता को प्रेक्षकों ने शिकागो धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानन्द की घटना की पुनरावृत्ति कहा। संसार के कई देशों ने उन्हें अपने यहां भाषण देने के लिए निमन्त्रित किया। भारतीय संस्कृति की दिग्विजय यात्रा से लौटकर टी.एल. वास्वानी लाहौर कॉलेज में प्राचार्य हो गये। बाद में वे कूच बिहार कॉलेज में भी प्रिंसीपल रहे।

मां का देहान्त हो जाने के बाद वे अपनी मां की अन्तिम इच्छा पूरी करने की ओर केन्द्रित हुए। उस समय की सर्वोपरि देश सेवा यह लगी कि ऐसा वातावरण तैयार करने में सहयोग दिया जाय, जिसमें राष्ट्र के करोड़ों जन अपने जन्म सिद्ध अधिकार को समझ सकें और उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करें। बिहार कॉलेज से वे वापिस सिंध क्षेत्र में लौट आये। उस समय वहां स्वराज्य आन्दोलन की आंधी तो क्या मन्द बयार भी नहीं चली थी। देश भर में महात्मा गांधी के सत्याग्रह की हवा बह रही थी, सिन्धु प्रांत उससे अछूता ही था। टी.एल. वास्वानी जी ने सिंधवासियों को अपनी लेखनी और वाणी दोनों से इस दिशा में उकसाया। स्वयं भी सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेकर ब्रिटिश नौकरशाही के खिलाफ आवाज बुलन्द की। लोगों में स्वतन्त्रता और राष्ट्रीयता की भावनायें जागृत कीं। अंग्रेज सरकार ने वास्वानी को बहुत बड़ी विपत्ति और शत्रु के रूप में देखा। उन्हें तुरन्त गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।

राष्ट्रीयता की आंधी जब चल निकली तो वास्वानी देश की आत्मा की ओर देखने लगे। उन्हें विश्वास था कि जागरण और क्रियाशीलता की वर्तमान स्थिति में भारतीय जनता को अपना अधिकार प्राप्त करने से दुनिया की कोई भी शक्ति नहीं रोक सकेगी। वास्वानी जी ने इस सम्भावना के बाद के लक्ष्य पर अपनी दृष्टि स्थिर की। उनके सामने दुःख दैन्य की पीड़ा से कराहता भारत का चित्र घूम गया। बेशक स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद देश वासियों को अपने भाग्य निर्माण का हक मिल जायेगा। परन्तु यह कार्य पूरा किस आधार पर होगा। किसी भी राजनेता के सम्मुख अभी यह प्रश्न विचारणीय रूप में नहीं उठा था।

सृजनशील मस्तिष्क ने निर्णय दिया कि विदेशी दासता से खण्डहर बने भारतीय समाज का नया स्वरूप एक नये आधार पर ही तैयार किया जा सकता है। और उसके लिए अभी से प्रयत्न किए जायें तो ही वह महल बन सकेगा अन्यथा एकदम मुक्त और स्वतन्त्र हुआ जनमानस नयी स्थिति और शक्ति प्राप्त करते ही लड़खड़ा जाएगा। बीमार और रोगी मनुष्य को पूर्ण आहार एकदम नहीं पचता, उसके लिए रोग चिकित्सा और पथ्य ही आवश्यक है। चिकित्सा के रूप में राष्ट्रीयता का भाव और पथ्य के लिए दुरवस्था को दूर करने वाला समग्र शिक्षण।

उस समय भले ही उनके शिक्षण का उद्देश्य फलित न हुआ हो परन्तु वह देश के नये काया कल्प का आधार तो बनना ही था। साधु वास्वानी ने भारतीय जनता के शिक्षण का विचार कार्यरूप में परिणत करने के लिए उत्तर प्रदेश राजपुर में शांति आश्रम की स्थापना की। शांति आश्रम की व्यवस्था और दिनचर्या का नियोजन उन्होंने अध्यात्म और संस्कृति की गौरव गरिमा तथा आदर्शों को दृष्टिगत रखते हुए किया। राजपुर का यह आश्रम काफी लोकप्रिय हुआ, महात्मा गांधी, डा. राजेन्द्र प्रसाद, पं. नेहरू महापुरुषों ने आश्रम जीवन को देखा और सराहा था।

कालांतर में वास्वानी जी पुनः सिंध को चले गये और वहां पर मीरा संस्था की स्थापना की। इस संस्था की शाखाएं प्रान्त भर में फैल गयी। वास्वानी जी ने मीरा के पदों से लोगों में धार्मिक आस्था को जागृत किया। कलम और वाणी से सेवा तथा प्रेम का व्यावहारिक स्वरूप समझाया। देश के नव निर्माण की उन्होंने एक ऐसा पृष्ठभूमि तैयार की जिसे यदि मूर्तरूप दिया जा सकता तो आज भारत का स्वरूप ही कुछ और होता।

सन् 1933 से 47 तक मीरा शिक्षण संस्था की शाखाओं का जाल बिछ गया। इस संस्था की शाखाओं में विद्यार्थियों को शारीरिक नैतिक, बौद्धिक और मानसिक रूप से सशक्त समर्थ और आत्म निर्भर बनाने के लिए तैयार किया जाता था। नियमित अनुशासित और व्यवस्थित दिनचर्या में विद्यार्थी अपना दैनंदिन आवश्यकताओं के सम्बन्ध में स्वावलम्बी तथा चरित्र गठन में आत्मसम्मानी और दृढ़ बनता था।

टी.एल. वास्वानी ने भी लोकरुचि और श्रद्धा को ध्यान में रखते हुए काषाय धारण कर लिए थे। कृष्ण रूप में भारत का ग्वाल बाल और मजदूर किसान से लेकर राज पुरुष तक उनका आराध्य बन गया। पुनर्निर्माण का स्वप्न किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष से तो पूरा नहीं होना था। उसके लिए तो भारत का जन-जन उपास्य बनाना था।

1947 में देश आजाद हुआ। राजनेताओं की समझौतावादी नीति और तत्पर उत्सुकता ने भारत को तीन टुकड़ों में बांट दिया, विभाजित पंजाब, सिन्ध और बंगाल में धर्मोन्मादी दूसरे धर्मानुयायी के रक्त पिपासु बन गये। कल तक जो अति आत्मीय पड़ोसी-स्वजन था, वही एक रात में अकारण बैरी बन गया। मुस्लिम बहुत क्षेत्रों से हिंदू लाखों की संख्या में अपनी सम्पत्ति स्वजन छोड़कर भाग आये। उस समय साधु वास्वानी ने लोगों को सांत्वना देने धैर्य बंधाने और सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने के लिए अपूर्व साहस और शौर्य का परिचय दिया।

अन्ततः साधु वास्वानी को भी सिंध छोड़ देना पड़ा। कुछ मास तक बम्बई में रहकर पूना आ गये और यहीं अपना स्थायी निवास बना लिया। स्वातंत्र्योत्तर काल में जिस स्थिति की उन्हें आशंका थी, प्रकारान्तर से वही होने के कारण वे कुछ समय तक निराश अवश्य रहे। व्यथा वेदना जब कुछ कम हुई तो उन्होंने बीती सो बीती प्रयत्न करना ही धर्म है यह सोचकर पुनः मीरा शिक्षण संख्या का दूसरा सत्र आरम्भ किया। 1948 में मीरा शिक्षण केन्द्र का पूना में उद्घाटन हुआ। यह संस्था बड़ी लोक प्रिय हुई।

उन्होंने मीरा नामक पत्रिका भी निकाली। इस पत्रिका में तत्वज्ञान अध्यात्म, धर्म और संस्कृति के तथ्यों को प्रभावपूर्ण सरल और सुबोध ढंग से उद्घाटित किया जाता था। 19 जनवरी 1966 को उनका देहान्त हो गया। जीवन भर चतुर्दिक अपने व्यक्तित्व का सौरभ बिखेर कर मरुस्थल में पैदा हुआ—विपन्न परिस्थितियों में जन्मा यह फूल मुरझा गया। परन्तु अपने चारों ओर सौन्दर्य की सृष्टि करने के बाद।

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