
अध्यात्म धर्म के सच्चे प्रतिनिधि—संत तुकाराम
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अकाल का यह चौथा वर्ष था। चार वर्ष से वर्षा ऋतु में भी सूर्य उसी तरह चमकता था जैसे चैत-वैशाख में। सुबह से ही सूरज की तीखी किरणें लोगों के चेहरों को झुलसाती और पेट की भूख तन को निचोड़े डालती थी जैसे पानी में भिगोये कपड़े को सुखाने के पूर्व धोबी निचोड़ देता है। किसान नंगे आकाश की ओर सूनी आंखों से ताकते रह जाते—शायद कोई बदली उठे और बरसने लगे पर बदली तो क्या धुंआ भी उठता नहीं दिखाई देता था। धुंआ उठे भी तो कैसे, किसी के घर में अनाज के थोड़े से दाने होते तो कोई पकाता भी। लोग गांव से निकल कर आस-पास के जंगलों में जाते और कन्द-मूल ढूंढ़ते। कहीं मिल जाते तो उन्हें ही अपने कमजोर दांतों से हौले-हौले चबा लेते।
पूना के पास देहू नाम का एक गांव, उस गांव में थी एक साहूकार की दुकान। साहूकार कहीं दूर देश से थोड़ा अनाज लाया एक ही दिन में सारा अनाज बिक गया। बिक क्या गया—लोगों के पास कुछ था तो उसे लेकर पहुंच गये साहूकार के पास और जितना हिस्से में आया उतना अनाज उठा लाये। साहूकार भी कितना उदारमना था। उसने अकाल के इन दिनों में अपने घर भरने की बात नहीं सोची थी, बात सोची थी कि गांव के प्रत्येक व्यक्ति तक उसके हिस्से का अनाज पहुंच जाये। चाहता तो वह ऐसे समय में खूब पैसा लूट सकता था। पर उसके सामने अपनी सम्पन्नता का आकर्षण फीका पड़ गया था भूख से बिलबिलाती आंखों का सूनापन देखकर उसने गांव भर में कहलवा दिया था कि साहूकार के यहां अनाज आया है। सभी लोग पहुंच जायें और अनाज ले जायें।
जिनके पास कुछ था, वे तो कुछ लेकर पहुंच गये थे। जिनके पास कुछ नहीं था उन्हें साहूकार की दुकान पर जाने में संकोच हो रहा था, पर भूख हर तरह का संकोच तोड़ देती है, उसकी आंच में कांच की तरह स्वाभिमान भी चटख जाता है। सो जिनके पास कीमत चुकाने के लिए नहीं था वे भी साहूकार की दुकान पर पहुंच गये और साहूकार ने उन्हें निराश भी नहीं किया। इस प्रकार आनन-फानन में दुकान का सारा अनाज उठ गया। तब एक स्त्री आती है—साहूकार की ओर निहारती है। उसकी आवाज भी नहीं निकल रही है। पेट में अन्न नहीं है तो बोलकर कहे भी कैसे? और साहूकार की आंखों में विवशता तैर आती है।
उस विवशता को देखकर स्त्री की आंखों की याचना और भी घनीभूत हो उठी। साहूकार अपनी जगह से उठा—शायद बिखरे हुए दाने समेट कर थोड़ा-अजान जुट जाय। लेकिन समेटा तो पहले ही जा चुका था। साहूकार जब खाली हाथ दुकान पर आता है तो देखता है स्त्री मर चुकी है। कितनी कारुणित स्थिति उत्पन्न हुई होगी उस समय—कहा नहीं जा सकता। और साहूकार के अन्तःकरण से एक अभंग फूट पड़ता है—‘मुझे शर्म आ रही है। एक स्त्री अन्न की आशा में आई थी—मेरे यहां अनाज नहीं है और मुझ से आशा टूट जाने के कारण वह मर गई है।
यह अभंग मराठी साहित्य की अमूल्य निधि है। इस अभंग के रचनाकार की वाणी महाराष्ट्रीय तथा मराठी साहित्य के मर्मज्ञों के लिए वेदवाणी बन गई। उक्त अभंग के स्रष्टा थे साहूकार सन्त तुकाराम जिनकी देहू में अनाज की दुकान थी। और 1628 से महाराष्ट्र में अकाल चला आ रहा था। तुकाराम अपनी सारी सम्पत्ति इसी अकाल की भेंट चढ़ा चुके थे। उन्होंने गाया है—अकाल के कारण लोगों का धन निःशेष हुआ, उनका आत्मसम्मान खो गया, एक स्त्री अन्न-अन्न करती हुई भूख से तड़फड़ा दम तोड़ गई और शर्म से मेरा माथा जमीन में गढ़ गया। मैं भी क्या करूं, मैं इस दुःख से ऊब गया हूं। सारा व्यवसाय ही चौपट हो गया हौ।’’ तुकाराम को व्यवसाय के चौपट हो जाने का रंज नहीं था, रंज था, लोगों को भूख से तड़प-तड़प कर मरते देखने का।
तत्कालीन समाज में घर परिवार के उत्तरदायित्वों से विरक्त होकर वैराग्य और भक्ति के गीत गाना ही साधु संन्यासियों का आदर्श था। किन्तु तुकाराम समाज में रहे, समाज के कठोर यथार्थ से सामना किया और कठिन परिस्थितियों—तोड़ डालने वाली विपत्तियों को उन्होंने सहा और सन्त परम्परा में एक नई कड़ी जोड़ी। इस प्रकार कठिन परिस्थितियों और विकट-प्रतिकूलताओं में भी पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों को भली प्रकार निभाते हुए सन्त परम्परा के आदर्शों का अनुकरण करने वाले सन्त तुकाराम का जन्म महाराष्ट्र में पूना के पास देहू नामक गांव में हुआ था। साहूकारी पैतृक व्यवसाय था—अच्छी तरह परिवार चलता था। गांव में भी खुशहाली थी। बड़ा भाई पिता के कारोबार में हाथ बटाता था सो तुकाराम को प्रारम्भ में पारिवारिक चिन्ताओं से मुक्त ही रहना पड़ा। अपने समय का उपयोग वे गीता, रामायण के अध्ययन में करते थे और जब भी सुनते कि गांव में कोई महात्मा आया है तो तुरन्त जा पहुंचते उसके पास। परिवार के लोगों को तुकाराम की साधु संगति से चिन्तित होना स्वाभाविक था। वे सोचते कहीं बेटा घर बार छोड़कर किसी दिन खुद भी साधु न हो जाय। कभी वे टोक कर तुकाराम की मनःस्थिति का परिचय भी लेते तो तुकाराम कहते—‘‘मैं तो गीता, रामायण पर महात्माओं से चर्चा करने जाता हूं। गीता में तो भगवान ने अर्जुन को संन्यासी होने से रोक कर सांसारिक कर्तव्यों में प्रवृत्त किया था। फिर उसके उपदेश का मुझ पर विपरीत प्रभाव कैसे हो सकता है।’’
सुनकर कुछ देर के लिए तो घर वालों का समाधान हो जाता पर पीछे फिर वही आशंका होने लगती। तुकाराम अपनी निष्ठा को प्रमाणित करते हुए घर वालों को आश्वस्त नहीं कर सके और परिजनों को आश्वस्त करने का अवसर भी आया तो ऐसे समय जबकि उनकी निष्ठा का दर्शन करने वाले माता-पिता ही नहीं रहे थे। तब तुकाराम ने किशोरावस्था में पदार्पण ही किया था कि उनके माता-पिता दोनों का ही देहान्त हो गया। परिवार की जिम्मेदारी बड़े भाई पर आ पड़ी। कारोबार इतना फैला हुआ था कि उसे सम्हालना भी बड़ा श्रम साध्य था पर बड़े भाई के स्वभाव में वैसी श्रमशीलता भी नहीं थी और नहीं थी दायित्वों को अनुभव करने की क्षमता।
माता-पिता तुकाराम पर शंका किया करते थे कि कहीं घरबार छोड़कर संन्यासी न हो जाय। उनके बारे में तो वह शंका सही नहीं निकली। घरबार छोड़कर चले गये उनके बड़े भाई। अब बड़े भाई की पत्नी और उसके बच्चों सहित घर के अन्य सदस्यों और अपने स्त्री-बच्चों का भार भी तुकाराम के कन्धों पर आ गया। तुकाराम ने उस उत्तरदायित्व को बड़ी कुशलता से सम्हाला और कारोबार भी भली भांति चलाने लगे। आकस्मिक रूप से इतने बड़े परिवार का बोझ कंधों पर आ जाने से सामान्य मनोबल का व्यक्ति घबरा उठता है परन्तु तुकाराम ने बिना घबराये ही इन बड़ी जिम्मेदारियों को अपने ऊपर ले लिया।
लेकिन परीक्षा अभी बाकी थी। धर्म और अध्यात्म दर्शन का स्वाध्याय निष्कर्ष और साधु संगति का प्रभाव कितना गहरा होता है—इसकी परख अभी भी शेष थी। आस्तिकतावादी आस्था के अनुसार सुख और दुःख दोनों का स्वागत करने की मनःस्थिति अभी विकसित हुई है या नहीं—भगवान शायद यह देखना चाहता था। तुकाराम ने तो सीख रखा था—
सुख सपना दुःख बुदबुदा, दोनों एक समान ।
सबका आदर कीजिये जो भेजे भगवान ।।
और इस सीख को उन्होंने अपने आचरण में भी उतारा था। कारोबार ठीक चल रहा था कि सन् 1628 में उस क्षेत्र में पहली बार बारिश नहीं आई। लोगों के हाथ तंग हो गये। अबकी बार नहीं तो अगली बार ऋण चुका दिया जायेगा—इस आशा में तुकाराम पूर्ववत् ग्राहकों से व्यवहार करते रहे। किन्तु अगली बार भी वर्षा नहीं हुई और उसके अगली बार भी नहीं। इस तरह तीन साल गुजर गये। पास की सम्पत्ति चुकने लगी, लोगों से उधार पटाने के लिए तकाजा भी करे तो कैसे, मानवीय आदर्शों से संस्कारित मन इसकी अनुमति नहीं देता था। तीसरे वर्ष गांव में बीमारी भी फैली। उस बीमारी की चपेट में तुकाराम की पत्नी भी आ गई। वह दमे की मरीज तो पहले से ही थी सो पिछली और नई बीमारी के सम्मिलित आक्रमण ने तुकाराम को विरविरही बना दिया।
पत्नी का देहान्त हुए अभी अधिक समय भी नहीं हुआ था कि तुकाराम के बच्चे भी चल बसे। उनके लिए सारी दुनिया सूनी हो गई। निराशा और एकाकीपन के ऐसे क्षणों में अक्सर लोग आत्महत्या कर लेते हैं अथवा पलायनवादी बैरागी बाना धारण कर लेते हैं। पर तुकाराम दूसरी मिट्टी कि बने थे। उन्होंने न तो पलायनवाद का रास्ता अपनाया और न खोई हुई वस्तुओं को प्राप्त करने तथा नया परिवार बसाने की आतुरता दर्शाई बल्कि अकाल से पीड़ित जनसमुदाय की सेवा का धर्म मार्ग ही उन्होंने अपनाया। यद्यपि उनके सामने अपने स्वयं के परिवार को कोई जिम्मेदारी नहीं थी किन्तु बड़े भाई का परिवार तो था ही। उसके निर्वाह की व्यवस्था तुकाराम को अपना कर्तव्य लगा और कारोबार ठप्प पड़ जाने पर भी तुकाराम उसके लिए प्रयत्न करते रहे।
अकाल के दिनों में उन्होंने उच्च कहे जाने वाले वर्ग की नैतिकता को भी निकट से देखा जो केवल दूसरों को उपदेश देने के लिए प्रयुक्त की जाती है। उन्होंने गाया है कि लोग तिलक और टोपी तो इस तरह दिखाते हैं जैसे वे दुनिया में एक ही गोस्वामी हैं जबकि भीतर विषय वासना ठूंस-ठूंस कर भरी पड़ी है।
समाज के शीर्षस्थ व्यक्तियों की इस दोहरी नैतिकता को ढोंग बताते हुए तुकाराम ने न केवल ऐसे लोगों की आलोचना ही की वरन् समाज में नैतिकता और आदर्शवादिता की प्रतिष्ठा के लिए जन जागृति का कार्य भी किया। अकाल खत्म हो जाने पर उनका कारोबार भी धीरे-धीरे सम्हल गया किन्तु तुकाराम पूर्ववत् अपने गांव वालों की सेवा में, उनका नैतिक स्तर ऊंचा उठाने में लगे रहे। जीवन के उत्तरार्ध में परिवार के बड़े बच्चे घर-गृहस्थी और कारोबार सम्भालने योग्य हो गये तो तुकाराम परिवार के सीमित दायरों से बाहर आकर समाज को ही अपना परिवार बनाने के लिए बाहर आ गये। कहते हैं उन्हें इसी विजनवास में आत्म साक्षात्कार हुआ। उस समय उनकी स्थिति सिद्धि अवधूतों की सी थी—‘‘आकाश मण्डप है, पृथ्वी आसन है, मन जहां रमता है—वहां क्रीड़ा करता है। देह को सेवा के लिए कम्बल और कमण्डल पर्याप्त है। हवा के निमित्त से समय भी ध्यान में आता है। हरिकथा के भजन में मनचाहा विस्तार किया जा सकता है और उसके विविध प्रकार बनाकर रुचि से खाये जा सकते हैं यहां अपने ही मन से संवाद हो सकता है तो अपने से ही विवाद किया जा सकता है।’’
इस स्थिति को प्राप्त होने पर भी तुकाराम समाज सेवा से विमुख नहीं हुए। समाज को शिक्षा देने और लोकशिक्षण का कार्य करने में वे पहले की भी अपेक्षा अधिक लगे रहते। उनके हृदय में संतप्त और संत्रस्त मानवता के लिए जो पीड़ा थी और उपचार था वह अभंगों के रूप में व्यक्त होता रहा। यद्यपि उनके द्वारा समाज का मार्गदर्शन होते देख तथाकथित उच्च वर्ग नाराज भी हुआ किन्तु तुकाराम अपने आचरण और उपदेश से तथा अपनी ईमानदारी और परदुखकातरता से विरोधियों को भी जीतते रहे। पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए सन्त परम्परा का सच्चा अनुकरण करते रहे। सन् 1649 में उनका पटरपुरा में देहान्त हो गया। आज भी फाल्गुन मास में उनकी निधन तिथि पर वहां एक बड़ा मेला लगता है। लोग दूर-दूर से संत तुकाराम श्रद्धांजलि अर्पित करने आते हैं।
पूना के पास देहू नाम का एक गांव, उस गांव में थी एक साहूकार की दुकान। साहूकार कहीं दूर देश से थोड़ा अनाज लाया एक ही दिन में सारा अनाज बिक गया। बिक क्या गया—लोगों के पास कुछ था तो उसे लेकर पहुंच गये साहूकार के पास और जितना हिस्से में आया उतना अनाज उठा लाये। साहूकार भी कितना उदारमना था। उसने अकाल के इन दिनों में अपने घर भरने की बात नहीं सोची थी, बात सोची थी कि गांव के प्रत्येक व्यक्ति तक उसके हिस्से का अनाज पहुंच जाये। चाहता तो वह ऐसे समय में खूब पैसा लूट सकता था। पर उसके सामने अपनी सम्पन्नता का आकर्षण फीका पड़ गया था भूख से बिलबिलाती आंखों का सूनापन देखकर उसने गांव भर में कहलवा दिया था कि साहूकार के यहां अनाज आया है। सभी लोग पहुंच जायें और अनाज ले जायें।
जिनके पास कुछ था, वे तो कुछ लेकर पहुंच गये थे। जिनके पास कुछ नहीं था उन्हें साहूकार की दुकान पर जाने में संकोच हो रहा था, पर भूख हर तरह का संकोच तोड़ देती है, उसकी आंच में कांच की तरह स्वाभिमान भी चटख जाता है। सो जिनके पास कीमत चुकाने के लिए नहीं था वे भी साहूकार की दुकान पर पहुंच गये और साहूकार ने उन्हें निराश भी नहीं किया। इस प्रकार आनन-फानन में दुकान का सारा अनाज उठ गया। तब एक स्त्री आती है—साहूकार की ओर निहारती है। उसकी आवाज भी नहीं निकल रही है। पेट में अन्न नहीं है तो बोलकर कहे भी कैसे? और साहूकार की आंखों में विवशता तैर आती है।
उस विवशता को देखकर स्त्री की आंखों की याचना और भी घनीभूत हो उठी। साहूकार अपनी जगह से उठा—शायद बिखरे हुए दाने समेट कर थोड़ा-अजान जुट जाय। लेकिन समेटा तो पहले ही जा चुका था। साहूकार जब खाली हाथ दुकान पर आता है तो देखता है स्त्री मर चुकी है। कितनी कारुणित स्थिति उत्पन्न हुई होगी उस समय—कहा नहीं जा सकता। और साहूकार के अन्तःकरण से एक अभंग फूट पड़ता है—‘मुझे शर्म आ रही है। एक स्त्री अन्न की आशा में आई थी—मेरे यहां अनाज नहीं है और मुझ से आशा टूट जाने के कारण वह मर गई है।
यह अभंग मराठी साहित्य की अमूल्य निधि है। इस अभंग के रचनाकार की वाणी महाराष्ट्रीय तथा मराठी साहित्य के मर्मज्ञों के लिए वेदवाणी बन गई। उक्त अभंग के स्रष्टा थे साहूकार सन्त तुकाराम जिनकी देहू में अनाज की दुकान थी। और 1628 से महाराष्ट्र में अकाल चला आ रहा था। तुकाराम अपनी सारी सम्पत्ति इसी अकाल की भेंट चढ़ा चुके थे। उन्होंने गाया है—अकाल के कारण लोगों का धन निःशेष हुआ, उनका आत्मसम्मान खो गया, एक स्त्री अन्न-अन्न करती हुई भूख से तड़फड़ा दम तोड़ गई और शर्म से मेरा माथा जमीन में गढ़ गया। मैं भी क्या करूं, मैं इस दुःख से ऊब गया हूं। सारा व्यवसाय ही चौपट हो गया हौ।’’ तुकाराम को व्यवसाय के चौपट हो जाने का रंज नहीं था, रंज था, लोगों को भूख से तड़प-तड़प कर मरते देखने का।
तत्कालीन समाज में घर परिवार के उत्तरदायित्वों से विरक्त होकर वैराग्य और भक्ति के गीत गाना ही साधु संन्यासियों का आदर्श था। किन्तु तुकाराम समाज में रहे, समाज के कठोर यथार्थ से सामना किया और कठिन परिस्थितियों—तोड़ डालने वाली विपत्तियों को उन्होंने सहा और सन्त परम्परा में एक नई कड़ी जोड़ी। इस प्रकार कठिन परिस्थितियों और विकट-प्रतिकूलताओं में भी पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों को भली प्रकार निभाते हुए सन्त परम्परा के आदर्शों का अनुकरण करने वाले सन्त तुकाराम का जन्म महाराष्ट्र में पूना के पास देहू नामक गांव में हुआ था। साहूकारी पैतृक व्यवसाय था—अच्छी तरह परिवार चलता था। गांव में भी खुशहाली थी। बड़ा भाई पिता के कारोबार में हाथ बटाता था सो तुकाराम को प्रारम्भ में पारिवारिक चिन्ताओं से मुक्त ही रहना पड़ा। अपने समय का उपयोग वे गीता, रामायण के अध्ययन में करते थे और जब भी सुनते कि गांव में कोई महात्मा आया है तो तुरन्त जा पहुंचते उसके पास। परिवार के लोगों को तुकाराम की साधु संगति से चिन्तित होना स्वाभाविक था। वे सोचते कहीं बेटा घर बार छोड़कर किसी दिन खुद भी साधु न हो जाय। कभी वे टोक कर तुकाराम की मनःस्थिति का परिचय भी लेते तो तुकाराम कहते—‘‘मैं तो गीता, रामायण पर महात्माओं से चर्चा करने जाता हूं। गीता में तो भगवान ने अर्जुन को संन्यासी होने से रोक कर सांसारिक कर्तव्यों में प्रवृत्त किया था। फिर उसके उपदेश का मुझ पर विपरीत प्रभाव कैसे हो सकता है।’’
सुनकर कुछ देर के लिए तो घर वालों का समाधान हो जाता पर पीछे फिर वही आशंका होने लगती। तुकाराम अपनी निष्ठा को प्रमाणित करते हुए घर वालों को आश्वस्त नहीं कर सके और परिजनों को आश्वस्त करने का अवसर भी आया तो ऐसे समय जबकि उनकी निष्ठा का दर्शन करने वाले माता-पिता ही नहीं रहे थे। तब तुकाराम ने किशोरावस्था में पदार्पण ही किया था कि उनके माता-पिता दोनों का ही देहान्त हो गया। परिवार की जिम्मेदारी बड़े भाई पर आ पड़ी। कारोबार इतना फैला हुआ था कि उसे सम्हालना भी बड़ा श्रम साध्य था पर बड़े भाई के स्वभाव में वैसी श्रमशीलता भी नहीं थी और नहीं थी दायित्वों को अनुभव करने की क्षमता।
माता-पिता तुकाराम पर शंका किया करते थे कि कहीं घरबार छोड़कर संन्यासी न हो जाय। उनके बारे में तो वह शंका सही नहीं निकली। घरबार छोड़कर चले गये उनके बड़े भाई। अब बड़े भाई की पत्नी और उसके बच्चों सहित घर के अन्य सदस्यों और अपने स्त्री-बच्चों का भार भी तुकाराम के कन्धों पर आ गया। तुकाराम ने उस उत्तरदायित्व को बड़ी कुशलता से सम्हाला और कारोबार भी भली भांति चलाने लगे। आकस्मिक रूप से इतने बड़े परिवार का बोझ कंधों पर आ जाने से सामान्य मनोबल का व्यक्ति घबरा उठता है परन्तु तुकाराम ने बिना घबराये ही इन बड़ी जिम्मेदारियों को अपने ऊपर ले लिया।
लेकिन परीक्षा अभी बाकी थी। धर्म और अध्यात्म दर्शन का स्वाध्याय निष्कर्ष और साधु संगति का प्रभाव कितना गहरा होता है—इसकी परख अभी भी शेष थी। आस्तिकतावादी आस्था के अनुसार सुख और दुःख दोनों का स्वागत करने की मनःस्थिति अभी विकसित हुई है या नहीं—भगवान शायद यह देखना चाहता था। तुकाराम ने तो सीख रखा था—
सुख सपना दुःख बुदबुदा, दोनों एक समान ।
सबका आदर कीजिये जो भेजे भगवान ।।
और इस सीख को उन्होंने अपने आचरण में भी उतारा था। कारोबार ठीक चल रहा था कि सन् 1628 में उस क्षेत्र में पहली बार बारिश नहीं आई। लोगों के हाथ तंग हो गये। अबकी बार नहीं तो अगली बार ऋण चुका दिया जायेगा—इस आशा में तुकाराम पूर्ववत् ग्राहकों से व्यवहार करते रहे। किन्तु अगली बार भी वर्षा नहीं हुई और उसके अगली बार भी नहीं। इस तरह तीन साल गुजर गये। पास की सम्पत्ति चुकने लगी, लोगों से उधार पटाने के लिए तकाजा भी करे तो कैसे, मानवीय आदर्शों से संस्कारित मन इसकी अनुमति नहीं देता था। तीसरे वर्ष गांव में बीमारी भी फैली। उस बीमारी की चपेट में तुकाराम की पत्नी भी आ गई। वह दमे की मरीज तो पहले से ही थी सो पिछली और नई बीमारी के सम्मिलित आक्रमण ने तुकाराम को विरविरही बना दिया।
पत्नी का देहान्त हुए अभी अधिक समय भी नहीं हुआ था कि तुकाराम के बच्चे भी चल बसे। उनके लिए सारी दुनिया सूनी हो गई। निराशा और एकाकीपन के ऐसे क्षणों में अक्सर लोग आत्महत्या कर लेते हैं अथवा पलायनवादी बैरागी बाना धारण कर लेते हैं। पर तुकाराम दूसरी मिट्टी कि बने थे। उन्होंने न तो पलायनवाद का रास्ता अपनाया और न खोई हुई वस्तुओं को प्राप्त करने तथा नया परिवार बसाने की आतुरता दर्शाई बल्कि अकाल से पीड़ित जनसमुदाय की सेवा का धर्म मार्ग ही उन्होंने अपनाया। यद्यपि उनके सामने अपने स्वयं के परिवार को कोई जिम्मेदारी नहीं थी किन्तु बड़े भाई का परिवार तो था ही। उसके निर्वाह की व्यवस्था तुकाराम को अपना कर्तव्य लगा और कारोबार ठप्प पड़ जाने पर भी तुकाराम उसके लिए प्रयत्न करते रहे।
अकाल के दिनों में उन्होंने उच्च कहे जाने वाले वर्ग की नैतिकता को भी निकट से देखा जो केवल दूसरों को उपदेश देने के लिए प्रयुक्त की जाती है। उन्होंने गाया है कि लोग तिलक और टोपी तो इस तरह दिखाते हैं जैसे वे दुनिया में एक ही गोस्वामी हैं जबकि भीतर विषय वासना ठूंस-ठूंस कर भरी पड़ी है।
समाज के शीर्षस्थ व्यक्तियों की इस दोहरी नैतिकता को ढोंग बताते हुए तुकाराम ने न केवल ऐसे लोगों की आलोचना ही की वरन् समाज में नैतिकता और आदर्शवादिता की प्रतिष्ठा के लिए जन जागृति का कार्य भी किया। अकाल खत्म हो जाने पर उनका कारोबार भी धीरे-धीरे सम्हल गया किन्तु तुकाराम पूर्ववत् अपने गांव वालों की सेवा में, उनका नैतिक स्तर ऊंचा उठाने में लगे रहे। जीवन के उत्तरार्ध में परिवार के बड़े बच्चे घर-गृहस्थी और कारोबार सम्भालने योग्य हो गये तो तुकाराम परिवार के सीमित दायरों से बाहर आकर समाज को ही अपना परिवार बनाने के लिए बाहर आ गये। कहते हैं उन्हें इसी विजनवास में आत्म साक्षात्कार हुआ। उस समय उनकी स्थिति सिद्धि अवधूतों की सी थी—‘‘आकाश मण्डप है, पृथ्वी आसन है, मन जहां रमता है—वहां क्रीड़ा करता है। देह को सेवा के लिए कम्बल और कमण्डल पर्याप्त है। हवा के निमित्त से समय भी ध्यान में आता है। हरिकथा के भजन में मनचाहा विस्तार किया जा सकता है और उसके विविध प्रकार बनाकर रुचि से खाये जा सकते हैं यहां अपने ही मन से संवाद हो सकता है तो अपने से ही विवाद किया जा सकता है।’’
इस स्थिति को प्राप्त होने पर भी तुकाराम समाज सेवा से विमुख नहीं हुए। समाज को शिक्षा देने और लोकशिक्षण का कार्य करने में वे पहले की भी अपेक्षा अधिक लगे रहते। उनके हृदय में संतप्त और संत्रस्त मानवता के लिए जो पीड़ा थी और उपचार था वह अभंगों के रूप में व्यक्त होता रहा। यद्यपि उनके द्वारा समाज का मार्गदर्शन होते देख तथाकथित उच्च वर्ग नाराज भी हुआ किन्तु तुकाराम अपने आचरण और उपदेश से तथा अपनी ईमानदारी और परदुखकातरता से विरोधियों को भी जीतते रहे। पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए सन्त परम्परा का सच्चा अनुकरण करते रहे। सन् 1649 में उनका पटरपुरा में देहान्त हो गया। आज भी फाल्गुन मास में उनकी निधन तिथि पर वहां एक बड़ा मेला लगता है। लोग दूर-दूर से संत तुकाराम श्रद्धांजलि अर्पित करने आते हैं।