
संन्यास जीवन के सार्थक प्रयोक्ता - स्वामी केशवानन्द
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पन्द्रह सोलह वर्ष के एक अनाथ किशोर ने अपने हम उम्र बच्चों को पढ़ते लिखते देखा तो स्वयं भी पढ़ने की इच्छा हुई उस समय किशोर गायें चराने का काम किया करता था। पिता पहले ही चल बसे थे—छः वर्ष की आयु में मां भी उसी राह पर चल दी। घर में अकेला रह गया किशोर पेट पालने के लिये गांव वालों के गाय भैंस बछड़े बछड़ियां चराने लगा।
विद्याध्ययन की इच्छा के बलवती होने पर किशोर ने अपना जन्म स्थान छोड़ दिया और इधर-उधर भटकने लगा। देश में तो स्कूलों की ही भरमार थी। ऐसी शिक्षण संस्था कहां मिलती जो विद्यार्थी के भरण पोषण का भी दायित्व निवाहे। विद्या की प्यास लेकर किशोर यत्र-तत्र भटकता रहा और पंजाब के फाजिल्का क्षेत्र में जा पहुंचा।
यहीं संयोग से महन्तकुशलदास जी से सम्पर्क में आया और शिक्षा प्राप्ति के लिए साधु बन गया। महन्त कुशलादास ने उन्हें नाम दिया—केशवानन्द। साधु बनने का प्रस्ताव उनके गले तो नहीं उतरता था परन्तु विद्या के प्रति प्रेम इस दीक्षा को स्वीकार करने के लिए विवश कर रहा था।
शिक्षा प्राप्ति करने के लिए साधु वेष ग्रहण कर केशवानन्द जी पढ़ने लगे। कई महीने तक परिश्रम करने के बाद भी वे थोड़ा सा ही ज्ञान प्राप्त कर सके। इसका कारण उनमें लगन और अध्ययनशीलता का अभाव नहीं था, वरन योग्य शिक्षक की कमी थी। फाजिल्का के आश्रम में कोई खास शैक्षणिक प्रगति नहीं कर सके इसलिए वे 1905 में इलाहाबाद चले आये।
उस वर्ष प्रयाग में कुम्भ का मेला लगा था। केशवानन्द जी ने साथी साधु-महात्माओं के सामने अपना विचार और इच्छा व्यक्त की। सन्त महात्माओं ने उन्हें हरिद्वार के गुरुकुलों में जाने की सलाह दी। सबकी सलाह से वे कुछ दिनों के लिए हरिद्वार रहकर पढ़ते रहे और बाद में अमृतसर चले आये। वहां एक आश्रम में रहकर उन्होंने संस्कृत का साधारण ज्ञान प्राप्त किया। अब उन्हें स्वयं ही अध्ययन करने की योग्यता पर विश्वास हो गया था।
सन् 1908 में उनके गुरु स्वामी कुशलदास जी का देहान्त हो गया। स्वामी जी के सभी शिष्य साधुओं में केशवानन्द जी ही अधिक पढ़े लिखे थे इसलिए उन्हें ही आश्रम के अधिपति पद पर बिठाया गया। अभी तक तो स्वामी केशवानन्द अपने ही विकास की बात सोचते थे। उन्हें जब महन्त बनाया गया तो इस पद की गौरव-गरिमा को समझ कर उसे सार्थक बनाने का विचार भी स्वाभाविक ही जन्मा।
स्वामी जी ने साधु पद के महान उत्तरदायित्व को समझा। यह जीवन अकर्मण्य बनकर समाज पर भार रूप बनकर पूजा पाठ करने के लिए ही नहीं अपनाया जाता है। वरन् इसकी एक महान् जिम्मेदारी है, जो सामान्य व्यक्ति से कहीं अधिक सेवा करने के लिए उत्तरदायित्व का बोध कराती है। साधु और संन्यासी जीवन की यही आदि परम्परा है। जिसे आज का साधु समाज अपनाना तो दूर उसे समझना भी नहीं चाहता। उन्हें तो केवल आश्रम में रहकर आराम से खाना-पीना और मौज मजे करना ही अच्छा लगता है। केशवानन्द जी ने इस लोक से हटकर कुछ करने का निश्चय किया।
और लोग साधु की महान् परम्परा निभायें या न निभायें, मुझे तो उस कर्त्तव्य का पालन करना ही है। इस निश्चय के साथ उन्होंने सेवा क्षेत्र तलाश किया। उन्होंने स्वयं के जीवन में अशिक्षा और अज्ञान का दुष्परिणाम भोगा था। आज भी भारत की अधिकांश जनता निरक्षर ही है। शिक्षा और ज्ञान का लाभ सामान्य से सामान्य व्यक्ति को भी मिलना चाहिए इस विचार से उन्होंने अपने आश्रम में एक पुस्तकालय खोला अन्य साथी साधु महात्माओं को ज्ञानार्जन कर समाज सेवा की दिशा में प्रेरणा दी। कुछ दिनों बाद उन्होंने आश्रम में ही संस्कृत पाठशाला भी खोली।
दो वर्ष तक सफलता पूर्व स्थानीय प्रयास चलाकर स्वामी केशवानन्द देश यात्रा के लिए निकल पड़े। इस यात्रा का उद्देश्य था देश वासियों की स्थिति का निरीक्षण और सेवा करने योग्य क्षेत्र की तलाश। उन्होंने पांच सात वर्ष तक देश भर का भ्रमण किया। और देखा कि सर्व साधारण जन अभाव, गरीबी, अशिक्षा, दासता तथा अन्य कई प्रकार की समस्याओं का शिकार बने हुए हैं। इन समस्याओं के निराकरण के उन्होंने दो ठोस और अचूक उपाय ढूंढ़ निकाले—स्वतन्त्रता आन्दोलन और शिक्षा का प्रचार।
अबोध-सामाजिक विकास और राष्ट्रोत्थान में सबसे बड़ी बाधा थी विदेशी-दासता। संसार के कई देशों का इतिहास पलट कर उन्होंने पाया कि पराधीन राष्ट्रों ने किसी क्षेत्र में प्रगति नहीं की है। स्वराज्य और स्वतन्त्रता राष्ट्रीय प्रगति की मूलभूत आवश्यकता है। इसलिए केशवानन्द जी स्वाधीनता संग्राम में भी कूद पड़े।
इसके पूर्व सन् 1920 में उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा के नाम से एक उत्साही युवकों का दल तैयार किया था। जो मात्र साक्षरता ही नहीं अध्ययन और ज्ञान वर्धन की प्रवृत्तियों को भी प्रोत्साहित करता था। इस दल का एक पुस्तकालय भी था, जहां चुनी हुई विचारोत्तेजक देश विदेश की मूल और अनुवादित कृतियां रखी हुई थीं। स्वामी जी इस दल की गति-विधियों के साथ-साथ सहयोग आन्दोलन में भी भाग लेने लगे थे। इस कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। लम्बे समय तक कारावास में रहने के कारण नागरी प्रचारिणी सभा की व्यवस्था विश्रृंखलित हो गयी।
जेल से छूटने पर उन्होंने अपनी संस्था की यह दशा देखी तो बड़ी निराशा हुई। युवकों द्वारा सभा के पुस्तकालय की सभी पुस्तकें आश्रम में जमा करवा दी गयी थीं। स्वामी जी ने इन नयी परिस्थितियों की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुई निराशा पर तुरन्त काबू पा लिया और एक नये पुस्तकालय की स्थापना की। अब की बार वाचनालय अपने निजी मकान में बनवाया गया था। स्थायी रूप से यह लाइब्रेरी चलती रहे इसके लिए उन्होंने वाचनालय भवन और जमीन आदि सब हिन्दी साहित्य सम्मेलन के नाम कर दी। इसका आशय यह नहीं कि वह वाचनालय के सभी उत्तरदायित्वों से मुक्त होना चाहते थे। बल्कि वे तो अब अगला कदम उठाने का विचार कर रहे थे।
सन् 1926 में स्वामी केशवानन्द द्वारा संस्थापित अवोहर-साहित्य सदन कार्यशील हो गया। अच्छी पुस्तकों और साहित्यिक कृतियों की आवश्यकता हर काल में रहती है। महापुरुषों के विचार, व्यक्तित्व का सान्निध्य लाभ हर कोई आसानी से उठा सके इसके लिए पुस्तकालय ही अत्युपयोगी होते हैं। मात्र शिक्षित होना ही पर्याप्त नहीं है। प्राप्त शिक्षा के प्रकाश में अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का निर्धारण कर उनका निष्ठा पूर्वक पालन करना ही शिक्षा की सार्थकता है। पुस्तकालय इस दिशा में भारी सहायक सिद्ध होते हैं। शिक्षितों में स्वाध्याय की प्रवृत्ति के साथ-साथ अशिक्षितों में शिक्षा की भी एक अप्रत्यक्ष प्रेरणा जागती है।
स्वामी जी का अगला कदम था शिक्षा का प्रचार। बिना पढ़े लिखे लोगों को सद्ज्ञान और अपने अस्तित्व, महत्व तथा मूल्य से परिचित कराने का एक मात्र उपाय शिक्षा ही तो है। मनुष्य और पशु के अन्तर को स्पष्ट करने वाली बौद्धिक चेतना शिक्षा के माध्यम से ही तो विकसित होकर उसके गौरव के अनुरूप जीवन की प्रेरणा देती है। इसके लिए उन्होंने अपना प्रथम प्रयास राजस्थान के एक ऐसे गांव में किया, जहां मीलों के क्षेत्र में एक भी विद्यालय नहीं था।
सन् 1916 में स्वामी जी ने राजस्थान के सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्र संगरिया में एक छोटा सा स्कूल खोलने का निश्चय किया। उस समय उनके पास न तो सहयोगियों की कोई सेना थी और न ही अर्थ शक्ति। साधनों के नाम पर उनके पास केवल संकल्प बल था जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी मनुष्य को अजय और सफल बनाता है। इस शक्ति के बल पर ही वे अत्यल्प सामर्थ्य और साधनों से अपना लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में बढ़े।
कोई व्यक्ति एकाकी ही परामर्श प्रयोजनों के लिये जुटता है तो अन्य कई और भी उत्साही लोग उसके सहयोगी और अनुयायी बन कर आगे आते हैं। स्वामी केशवानन्द जी ने एक टूटे मकान में जैसे ही अपनी छोटी सी पाठशाला खोली तो गांव के लोगों ने पर्याप्त सुविधा साधन जुटाने का उत्साह दिखाया। गांव के ही एक स्थानीय व्यक्ति ने चौदह बीघा जमीन विद्यालय भवन के लिये दान कर दी। वहां के निवासियों ने दौड़ धूप कर इमारत बनवाने के लिये चंदा एकत्रित किया और स्कूल खुलने के एक वर्ष बाद ही विद्यालय का निजी भवन तैयार हो गया।
तत्कालीन सामाजिक कुरीतियां भी उनके मार्ग में बाधा बनकर आयीं। स्वामी जी सभी जाति के बच्चों को अपने विद्यालय में प्रवेश देते थे। यह बात ऊंच-नीच का भेदभाव मानने वाले पण्डितों और रूढ़िवादी ग्रामवासियों को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजना बन्द कर दिया और इस विद्यालय को ढेड़ियों (चमारों) का स्कूल कह कर बहिष्कृत करने लगे। स्वामी जी इस विरोध और असहयोग से अप्रभावित रहकर लोगों को अपने पक्ष में करने के लिये यत्नशील रहे। जनमानस में सही दृष्टिकोण विकसित करने का प्रयास कभी निष्फल नहीं जाता। स्वामी जी को अन्ततः सफलता मिली ही। शीघ्र ही ग्रामीण कठमुल्ला पण्डितों के अनुचित तर्कों और आदेशों को अमान्य करने के लिये तैयार हो गए।
सेवा कार्यों के सत्परिणाम की प्रतीक्षा धैर्य पूर्वक ही करनी पड़ती है। उतावली और तत्काल प्रगति की बात लोक सेवा के क्षेत्र में तो नहीं ही बनती ग्रामवासियों का विरोध शान्त हो जाने के बाद संगरिया स्कूल का कार्यक्षेत्र बढ़ने लगा। यह प्रतिकूल परिस्थिति मानो स्वामी जी तथा उनके सहयोगियों की परीक्षा लेने आयी थी। धैर्य और लगन, निष्ठा के बल पर वे इस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए और इसके पुरष्कार में संस्था विकास की दिशा में अग्रसर होने लगी।
1925 तक विद्यालय में 120 छात्र शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। तथा संगरिया क्षेत्र में संस्थान की 12 शालायें कार्यरत हो गयी थीं। कार्यक्षेत्र बढ़ जाने पर आर्थिक साधनों की भी आवश्यकता हुई। संस्था के पास आय का कोई स्रोत तो था नहीं। सारा कार्य गांववासियों के सहयोग से चलता था। एक बार अर्थाभाव के कारण विद्यापीठ बन्द हो जाने की नौबत आयी। बड़ी मुश्किल से स्थिति को टाला जा सका। गांव के प्रतिष्ठित तथा सम्पन्न लोगों ने अवसर पर अगाध सहयोगी भाव का परिचय दिया और घर-घर से चंदा एकत्रित कर स्कूल चलाया।
सर्व साधारण को इतना गहरा प्रभावित करने की शक्ति स्वामी जी के उस व्यक्तित्व में थी, जो व्यर्थ के बाह्याडम्बर और शान-शौकत से कोसों दूर था। सादगी और सज्जनता ही मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावोत्पादक बनाते हैं न कि लच्छेदार भाषण और स्वयं को विशिष्ट बनाने की झूठी महत्वाकांक्षा, अपने लिये—साधारण सी आवश्यकताओं के लिये ही धन का प्रयोग तथा सेवा कार्यों में सही स्थान पर समुचित व्यय। इस नीति ने स्वामी जी को लोकाराधन का पात्र बना दिया। बीमार रहने पर भी, वे मूल्यवान पथ्य और अनाप-शनाप औषधियां नहीं लेते थे। कोई आगन्तुक व्यक्ति जबरन इसलिए कुछ भी दे जाता तो उसे भी दीन-हीन छात्रों के लिये खर्च कर देते।
शिक्षा प्रसार के साथ शिक्षा पद्धति में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन का श्रेय उन्हें प्राप्त है। मात्र किताबी ज्ञान को महत्व देने वाली संस्थायें ही उन्होंने खड़ी नहीं कीं। वरन् जीविका-उपार्जन और उद्योग शिल्पों का प्रशिक्षण देने की उन्होंने संस्थायें भी खोलीं। सन् 1944 से उनके विद्यापीठ में शिल्प और उद्योग-धन्धों को भी पाठ्यक्रम में समाविष्ट किया गया। ज्ञान, व्यवहार और निर्वाह की सर्वांग शिक्षा पद्धति के कारण कई युवक इस विद्यापीठ में भर्ती हुए। अगले चार वर्षों में दो हजार से भी अधिक छात्रों ने वहां शिक्षा प्राप्त की और सीधे जीवन क्षेत्र में तैयारी के साथ प्रवेश किया। अब तो इस विद्यालय में कई रचनात्मक कार्य बिना किसी बाहरी सहायता के सम्पन्न होने लगे हैं।
संसद में पहुंच कर स्वामी जी देशभक्ति एवं जनसेवा के सिद्धांतों के लिए अन्तिम समय तक संघर्ष करते रहे। शिक्षा जगत् में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले स्वामी केशवानन्द का देहान्त 13 सितम्बर 1972 को हुआ। स्वामी केशवानन्द साधु की महान और गौरवशाली परम्परा मर्यादा के आदर्श प्रतीक थे।