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Books - धर्म संस्कृति के अग्रदूत

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अमर शहीद-स्वामी श्रद्धानंद

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अमृतसर के हत्याकांड से देश के नागरिकों में उत्तेजना फल चुकी थी। लोग प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ कर दिखाना चाहते थे। गोरी सरकार भी जन भावनाओं को कुचलने के लिये पूर्ण रूप से तत्पर थी। दिल्ली नगर में जुलूसों पर प्रतिबन्ध होते हुये स्वामी श्रद्धानन्द के नेतृत्व में हजारों व्यक्ति लाल किले के सामने एकत्र हो गये थे। सैकड़ों घुड़सवार सैनिक इधर उधर घूम रहे थे।
कमिश्नर ने भीड़ को तितर-बितर होने का आदेश दिया। उसी क्षण स्वामी श्रद्धानन्द ने गरजते स्वर में कहा—‘‘जो जहां खड़ा है, खड़ा रहे। अपना स्थान किसी को छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। सरकारी प्रतिबन्ध हम लोगों को धर्म का पालन से विचलित नहीं कर सकते।’’
कमिश्नर स्तब्ध रह गया उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि भारत की जनता मृत्युंजयी है। उसने देखा कि लोग टस से मस नहीं हुए। थोड़ी देर वहीं खड़े रहे और बाद को स्वामी जी के आदेश से जुलूस घण्टा घर की ओर बढ़ा। घुड़सवार सैनिक भी साथ थे। घण्टा घर पर गोरखा सैनिकों की एक टुकड़ी संगीन आगे किये रास्ता रोके खड़ी थी। जुलूस आगे बढ़ता जा रहा था। स्वामी जी ने संगीनों की तनिक भी चिन्ता न की। एक फौजी गोरे ने उनके सामने बन्दूक तान ली। फिर भी वे डरे नहीं। उन्होंने अपनी चौड़ी छाती उसके सामने खोलते कहा—देखते क्या हो! चलाओ बन्दूक। जुलूस पीछे नहीं हटेगा।’
स्वामी श्रद्धानन्द आगे बढ़े। उसके पीछे हजारों नगर निवासी कदम से कदम मिलाकर गोरी सरकार के विरुद्ध अपना विरोध करने के लिए बढ़ते चले जा रहे थे। दूसरे ही क्षण संगीनों के कुंदे नीचे झुक गये थे और रास्ता साफ।
ऐसे देशभक्त और तेजस्वी संन्यासी का प्रारम्भिक जीवन भोग विलास के प्रसाधनों के मध्य बीता था। संन्यास के पूर्व का नाम मुन्शीराम था वह राजाओं का जमाना था। इसके पिता पुलिस विभाग में उच्च पदाधिकारी थे। पैसे की अधिकता के कारण राजा और रईसों के बेटे जिस तरह बिगड़ते हैं, उसी तरह मुन्शीराम मांस मदिरा से लेकर भोग विलास तक की सारी रंगीनियों का आनन्द ले चुके थे। कुसंग एक व्यक्ति को कहां से कहां पहुंचा सकता है। यह मुन्शीराम के जीवन की खुली पुस्तक में आसानी से देखा जा सकता है। भौतिकवाद की चकाचौंध से वह नास्तिक बन चुके थे। फिर भी उन्होंने अपना मस्तिष्क नहीं खोया था। वह सद्भाव की खोज के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे।
एक दिन उनकी भेट आर्य समाज के प्रवर्त्तक स्वामी दयानन्द से हुई। कई दिन तक उनका वाद-विवाद चलता रहा। उनकी युक्ति संगत बातों से वह बहुत प्रभावित हुए। और उनका परमेश्वर पर अटूट विश्वास जमने लगा।
आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानन्द ने की पर उसे पुष्पित और पल्लवित करने का बहुत कुछ श्रेय स्वामी श्रद्धानन्द को है। उन्होंने मिशनरी भावना से कार्य कर अपना तन, मन, धन, लोक मंगल के लिये उत्सर्ग कर दिया था। गुरुकुल-शिक्षा-पद्धति स्वामी दयानन्द का स्वप्न था और उसे साकार किया श्रद्धानन्द ने। इन्होंने प्रतिज्ञा की—‘जब तक गुरुकुल की स्थापना हेतु तीस हजार रुपये एकत्रित न कर लूंगा तब तक घर में प्रवेश नहीं करूंगा।
स्वामी जी का यह संकल्प कोई साधारण संकल्प न था। इसके लिये उन्होंने घर जाकर चन्दा वसूल किया और सड़क पर खड़े होकर लोगों को इस शिक्षा पद्धति का उद्देश्य समझाया। स्वामी जी जिस कार्य को अपने हाथ में लेते थे उसे पूर्ण करके ही मानते थे। आखिर वह दिन आ ही गया जब कांगड़ी के भयानक जंगलों में स्वामी जी के अथक प्रयत्नों और आत्म त्याग के बल से नये तीर्थ की स्थापना हुई। भारत के वाइसराय ही नहीं वरन् ब्रिटेन के प्रधानमंत्री राम्जे मैकडोनल्ड तक शिक्षा क्षेत्र में किये गये इस अनूठे प्रयोग को देखने के लिए आतुर हो उठे।
मातृभाषा हिन्दी को शिक्षा का माध्यम बनाने वाले वह प्रथम व्यक्ति थे। उन्होंने बड़े-बड़े शिक्षा शास्त्रियों के दिल से इस बात को निकाल दिया कि हिन्दी के माध्यम से विज्ञान की उच्च शिक्षा नहीं हो सकती। गुरुकुल के अनेक स्नातकों द्वारा विज्ञान, दर्शन तथा इतिहास विषय के मौलिक ग्रन्थों की रचना की गई, साथ ही पारिभाषिक शब्दों का निर्माण किया गया।
स्वामी जी शिक्षा को केवल पुरुषों तक ही सीमित करने के पक्षपाती नहीं थे। वे चाहते थे कि भारतीय जनसंख्या का अर्ध अंग भी विकसित हो जाये। इसलिये उन्होंने आर्य कन्या पाठशालाओं की स्थापना हेतु भी पूरा-पूरा ध्यान दिया। जल्दी ही गुरुकुलों और महाविद्यालयों का जाल पूरे देश में फैल गया और उनके ही प्रयास से हिन्दी को राष्ट्रभाषा का महत्वपूर्ण पद मिला।
स्वामीजी 18 वर्षों तक गुरुकुल के आचार्य पद पर कार्य करते रहे। कितने ही अभिभावकों ने अपने बच्चों को ब्रह्मचर्य प्रधान राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति से प्रभावित होकर गुरुकुल में भेजा और कितने ही व्यक्ति तो यह देखने आते थे कि यहां विदेशी शासन को उखाड़ने के लिये कौन-सी योजनायें तैयार की जा रही हैं।
स्वामी जी के विशाल शरीर में विशाल आत्मा निवास करती थी। अनेक क्षेत्रों में उनके महत्वपूर्ण योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। आदर्शवादी सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार हेतु उन्होंने सन् 1889 में ‘सद् धर्म प्रचारक’ तथा 9998 में ‘श्रद्धा’ नामक साप्ताहिक पत्रों का प्रकाशन किया। स्वतन्त्रता संग्राम के समय 1919 में विजय और 1918 में ‘दैनिक अर्जुन’ का प्रकाशन आरम्भ कर उन्होंने राष्ट्रीयता की भावना को जन-जन तक पहुंचाया।
गुरुकुल के विद्यार्थियों को केवल पुस्तकीय ज्ञान ही नहीं कराया जाता था। समय मिलने पर अनेक विद्यार्थी दक्षिण में हिन्दी का प्रचार करने जाते थे। उनकी इन्हीं सेवाओं को देखकर सन् 1913 में भागलपुर में जब हिन्दी साहित्य सम्मेलन का चौथा वार्षिक अधिवेशन हुआ तो स्वामी जी को उसका अध्यक्ष चुना गया।
स्वामी जी सच्चे देशभक्त थे। विदेशी शासन उनकी आंखों में कांटे की तरह खटकता रहता था। गांधीजी ने जब असहयोग आन्दोलन का सूत्रपात किया तो स्वामीजी ने अपना पूरा-पूरा सहयोग दिया।
स्वामीजी को अमृतसर कांग्रेस-अधिवेशन का स्वागताध्यक्ष बनाया गया तो उन्होंने कांग्रेस मंच से प्रथम बार हिन्दी में भाषण दिया था और राजनेताओं का ध्यान अछूत उद्धार की ओर आकर्षित किया।
स्वामी जी ने दलितोद्धार सभा की स्थापना कर अस्पृश्यता निवारण का कार्य शुरू कर दिया। वे चाहते थे कि हिन्दुओं के बीच से छुआछूत की भावना को निकाल फेंका जाय। मन्दिर और कुएं समानता के अधिकारों के साथ अछूतों के लिये खोल दिये जायें। स्वामीजी निर्भीक थे। वह इससे होने वाले प्रत्येक परिणाम को भुगतने के लिये तैयार थे।
स्वामीजी सभी धर्मों के प्रति समान आस्था रखते पर उनका यह विश्वास था कि यदि मुसलमान और ईसाई प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्मानुयायी बना सकते हैं। तो प्रत्येक व्यक्ति को आर्य भी बनाया जा सकता है। स्वामी श्रद्धानन्द अपने इसी विश्वास को क्रियान्वित कर रहे थे। एक बार उन्हें जनता के आग्रह पर दिल्ली की जामामस्जिद में भाषण देने हेतु आमन्त्रित किया गया। इस्लाम के इतिहास में वह प्रथम अवसर था जब मुसलमान के अतिरिक्त अन्य किसी धर्मानुयायी को मस्जिद की धर्मवेदी पर भाषण करने का सुअवसर प्रदान किया गया हो। स्वामी जी ने ऋगवेद के मन्त्रों के सस्वर पाठ से अपना व्याख्यान शुरू किया और शांति पाठ से समाप्त।
स्वामीजी स्पष्टवादी और अति साहसी थे। वे जिस कार्य को अपने हाथ में लेते पूर्ण करके ही मानते थे। अपने दोषों को दूसरे के सम्मुख रखने में उन्हें तनिक भी संकोच न होता था। अत्याचार का विरोध करना उनकी प्रमुख विशेषता थी। सिद्धान्त का प्रश्न जब भी सामने आया वह कभी झुके नहीं। भरे यौवन में पत्नी की मृत्यु हो जाने पर भी उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया। इस युग में जबकि छोटी छोटी बातों को लोगों को जाति से अलग कर दिया जाता था। स्वामी जी ने अपनी संतान का विवाह जाति-पांति के बन्धनों को तोड़कर किया। गुरुकुल हो या बाहरी क्षेत्र उन्हें प्रतिक्रियावादी शक्तियों से सदैव संघर्ष करना पड़ा।
स्वामीजी उन समाज सुधारकों से बिल्कुल अलग थे जिनकी कथनी और करनी में वैषम्य होता है। उन्होंने आर्य समाज मंच से अपने प्रथम भाषण में ही स्पष्ट कह दिया था जो वैदिक धर्म के अनुकूल अपने जीवन को नहीं ढाल रहे हैं, उन्हें उपदेशक बनने का कोई अधिकार नहीं है।’
भारत के नव निर्माण में उनके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। उन्होंने प्रत्येक कार्य क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी थी और एक दिन अपने सिद्धान्तों के लिये बलिदान हो गये। उन्हें एक धर्मोन्मादी मुसलमान ने गोली से मार डाला फिर भी वे भारतीय महापुरुषों के आकाश में उज्ज्वल नक्षत्र की तरह सदा अजर अमर बनकर प्रकाशवान् बने ही रहेंगे।
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