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Books - गायत्री सर्वतोन्मुखी समर्थता की अधिष्ठात्री

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Language: HINDI
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गायत्री- साधना का उद्देश्य

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नये विचारों से पुराने विचार बदल जाते हैं। कोई व्यक्ति किसी बात को गलत रूप से समझ रहा हो तो उसे तर्क, प्रमाण और उदाहरणों के आधार पर नई बात समझाई जा सकती है। यदि वह अत्यन्त ही दुराग्रही, मूढ़ उत्तेजित या मदान्ध नहीं है, तो प्रायः सही बात को समझने में विशेष कठिनाई नहीं होती। सही बात समझ जाने पर प्रायः गलत मान्यता बदल जाती है। स्वार्थ या मान- रक्षा के कारण कोई अपनी पूर्व मान्यता की वकालत करता रहे यह बात दूसरी है, पर मान्यता और विश्वास क्षेत्र में उसका विचार परिवर्तन अवश्य हो जाता है। ज्ञान द्वारा अज्ञान को हटा दिया जाना कुछ विशेष कठिन नहीं है।

परन्तु स्वभाव, रुचि, इच्छा, भावना और प्रकृति के बारे में यह बात नहीं है। इन्हें साधारण रीति से नहीं बदला जा सकता है। यह जिस स्थान पर जमी होती है वहाँ से आसानी के साथ नहीं हटती। चूंकि मनुष्य चौरासी लाख कीट- पतंगों, जीव- जन्तुओं की क्षुद्र योनियों में भ्रमण करता हुआ नर- देह में आता है। इसलिये स्वभावतः उसके पिछले जन्म- जन्मांतरों के पाशविक नीच संस्कार बड़ी दृढ़ता से अपनी जड़ मनोभूमि में जमाये होते हैं। मस्तिष्क में नाना प्रकार के विचार आते और जाते हैं, उनमें परिवर्तन होता रहता है, पर उसका विशेष प्रभाव इस मनोभूमि पर नहीं पड़ता। अच्छे उपदेश सुनने, अच्छी पुस्तक पढ़ने एवं गम्भीरता पूर्वक स्वयं आत्म- चिन्तन करने मनुष्य भलाई और बुराई के, धर्म- अधर्म के अन्तर को भली प्रकार समझ जाता है। उसे अपनी भूलें, बुराइयाँ, त्रुटियाँ और कमजोरियाँ भली प्रकार प्रतीत हो जाती है। बौद्धिक स्तर पर वह सोचता है और चाहता है कि इन बुराइयों से उसे छुटकारा मिल जाय, कई बार तो वह अपनी काफी भर्त्सना भी करता है। इतने पर भी वह अपनी चिर संचित कुप्रवृत्तियों से, बुरी आदतों से अपने को अलग नहीं कर पाता।

नशेबाज, चोर, दुष्ट, दुराचारी प्रकृति के मनुष्य यह भली भांति जानते हैं कि हम गलत मार्ग अपनाये हुये हैं वे बहुधा यह सोचते रहते हैं कि- काश, इन बुराइयों से हमें छुटकारा मिल जाता, पर उनकी इच्छा एक निर्मल कल्पना मात्र रह जाती है, उनके मनोरथ निष्फल ही होते रहते हैं। बुराइयाँ छूटती नहीं जब भी प्रलोभन का अवसर आता है, तब मनोभूमि में जड़ जमाये हुए पड़ी हुई कुवृत्तियाँ आँधी तूफान की तरह उमड़ पड़ती हैं और वह व्यक्ति आदत से मजबूर होकर बुरे कार्यों को फिर कर बैठता है। विचार और संस्कार इन दोनों की तुलना में संस्कार की शक्ति अत्यधिक प्रबल है। विचार एक नन्हा सा शिशु है, तो संस्कार परिपुष्ट- प्रौढ़। दोनों के युद्ध में प्रायः ऐसा ही परिणाम देखा जाता है कि शिशु की हार होती है और प्रौढ़ की जीत। यद्यपि कई बार मनस्वी व्यक्ति, श्रीकृष्ण द्वारा पूतना और राम द्वारा ताड़का- बध का उदाहरण उपस्थित करके अपने विचार बल द्वारा कुसंस्कारों पर विजय प्राप्त करते हैं। पर आमतौर से लोग कुसंस्कारों के चंगुल में, जाल में फँसे पक्षी की तरह उलझे हुए देखे जाते हैं। अनेकों धर्मोपदेशक, ज्ञानी, विद्वान, नेता सम्भ्रान्त महापुरुष समझे जाने वाले व्यक्तियों का निजी चरित्र जब कुकर्मयुक्त देखा जाता है, तो यही कहना पड़ता है कि इनकी इतनी बुद्धि प्रौढ़ता भी अपने कुसंस्कारों पर इन्हें विजय न दिला सकी। कई बार तो अच्छे- अच्छे ईमानदार और तपस्वी मनुष्य किसी विशेष प्रलोभन के अवसर पर डिग जाते हैं, जिसके लिए पीछे उन्हें पश्चात्ताप करना पड़ता है ।। चिर- संचित पाशविक वृत्तियों का भूकम्प जब आता है तो सदाशयता के आधार पर चिर प्रयत्न से बनाये हुए सुचरित्र की दीवार हिल जाती है।

उपरोक्त पंक्तियों का तात्पर्य यह नहीं है कि विचार- शक्ति निरर्थक वस्तु है और उसके द्वारा कुसंस्कारों को जीतने में सहायता नहीं मिलती। इन पंक्तियों में यह कहा जा रहा है कि साधारण मनोबल की सदिच्छायें मनोभूमि के परिमार्जन करने में बहुत अधिक समय में मन्द प्रगति से धीरे- धीरे आगे बढ़ती हैं, अनेकों बार उन्हें निराशा और असफलता का मुँह देखना पड़ता है, इस पर भी यदि सद्विचारों का कार्य जारी रहे तो अवश्य ही कालान्तर में कुसंस्कारों पर विजय प्राप्त की जा सकती है अध्यात्म विद्या के आचार्य इतने आवश्यक कार्य को इतने विलम्ब में अत्यधिक गम्भीरता, सूक्ष्म दृष्टि और मनोयोग पूर्वक विचार करके मानव अन्तःकरण में रहने वाले पाशविक संस्कारों का पारदर्शी विश्लेषण किया है और वे इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि मनःक्षेत्र के जिस स्तर पर विचारों के कम्पन क्रियाशील रहते हैं, उससे कहीं अधिक गहरे स्तर पर संस्कारों की जड़ें होती हैं।

जैसे कुआँ खोदने पर भी जमीन में विभिन्न जाति की मिट्टियों के पर्त निकलती हैं वैसे मनोभूमि के भी कितने ही पर्त है, उनके कार्य, गुण और क्षेत्र भिन्न- भिन्न हैं। ऊपर वाले दो पर्त -(१) मन, (२) बुद्धि हैं। मन में इच्छाऐं, वासनायें, कामनायें पैदा होती हैं, बुद्धि का काम विचार करना, मार्ग ढूँढ़ना और निर्णय करना है। यह दोनों पर्त मनुष्य के निकट सम्पर्क में है, इन्हें स्थूल मनःक्षेत्र कहते हैं समझने से तथा परिस्थति को परिवर्तन से इनमें आसानी से हेर- फेर हो जाता है।

इस स्थूल क्षेत्र से गहरे पर्त को सूक्ष्म मनः क्षेत्र कहते हैं। इसके प्रमुख भाग दो हैं : (१) चित्त, (२) अहंकार ।। चित्त में संस्कार आदत, रूचि, स्वभाव, गुण की जड़ें रहती हैं। अहंकार ‘‘ अपने सम्बन्ध में मान्यता’’ को कहते हैं। अपने को जो व्यक्ति धनी- दरिद्र, ब्राह्मण- शूद्र, पापी- पुण्यात्मा, अभागा- सौभाग्यशाली, स्त्री- पुरूष, मूर्ख- बुद्धिमान, तुच्छ- महान, जीव- ब्रह्म, बद्ध- मुक्त आदि जैसा भी कुछ मान लेता है। वह वैसे ही अहंकार वाला माना जाता है। इन मन, बुद्धि, चित्त अहंकार मे अनेकों भेद उपभेद  हैं और उनके गुण कर्म अलग अलग हैं, उनका वर्णन इन पंक्तियों में नहीं किया जा सकता। यहाँ तो उनका संक्षिप्त परिचय देना इसलिये आवश्यक हुआ कि कुसंस्कारों के निवारण के बारे में कुछ बातें भली प्रकार जानने में पाठकों को सुविधा हो।

जैसे मन और बुद्धि का जोड़ा है, वैसे ही चित्त और अहंकार का जोड़ा है। मन में नाना प्रकार की इच्छायें, कामनायें रहती हैं पर बुद्धि उनका निर्णय करती है। कौन सी इच्छा प्रकट करने योग्य है कौन सी दबा देने योग्य? इसे बुद्धि जानती है और वह सभ्यता, लोकाचार, सामाजिक नियम, धर्म, कर्तव्य सम्भव , असम्भव आदि का ध्यान रखते हुए अनुपयुक्त इच्छाओं को भीतर दबाती रहती हैं। जो इच्छा कार्य रूप में लाये जाने योग्य जँचती हैं, उन्हीं के लिए बुद्धि अपना प्रयत्न आरम्भ करती है। इस प्रकार यह दोनों मिल कर मस्तिष्क क्षेत्र में अपना तानाबाना बुनते रहते हैं।

अन्तःकरण क्षेत्र में चित्त और अहंकार का जोड़ा अपना कार्य करता है। जीवात्मा अपने आप को जिस श्रेणी का जिस स्तर का अनुभव करता है चित्त में उस श्रेणी के, उसी स्तर के पूर्व संचित संस्कार सक्रिय और परिपुष्ट रहते हैं। कोई व्यक्ति अपने को शराबी, पाप वाला, कसाई, अछूत समाज का निम्न वर्ग मानता है, तो उसका यह अहंकार उसके चित्त को उसी जाति के संस्कारों की जड़ जमाने और स्थिर रखने के लिये प्रस्तुत रखेगा। जो गुण कर्म स्वभाव इस श्रेणी के लोगों में होते हैं, वे सभी उसके चित्त में संस्कार रूप से जड़ जमा कर बैठ जायेंगे। यदि उसका अहंकार अपराधी या शराबी की मान्यता का परित्याग कर सके लोक सेवी, महात्मा, सच्चरित्र एवं उच्च होने की अपनी मान्यता स्थिर कर ले तो अति शीघ्र उसकी पुरानी आदतें, आकांक्षायें अभिलाषायें बदल जायेंगी और वह वैसा ही बन जायगा, जैसा कि अपने सम्बन्ध मे उसका विश्वास है, शराब पीना बुरी बात है इतनी मात्र समझाने से उसकी लत छूटना मुश्किल है, क्योंकि हर कोई जानता है कि क्या बुराई है क्या भलाई। ऐसे विचार तो उसके मन में पहले भी अनेकों बार आ चुके होते हैं। लत तभी छूट सकती है, जब वह अपने अहंकार को प्रतिष्ठित नागरिक की मान्यता में बदले और यह अनुभव करें कि यह आदतें मेरे गौरव के ,, स्तर के, व्यवहार के अनुपयुक्त हैं। अंतःकरण की एक ही पुकार से, एक ही हुंकार से, एक ही चीत्कार से चित्त में जमे हुए कुसंस्कार उखड़ कर एक ओर गिर पड़ते हैं और उनके स्थान पर नये, उपयुक्त, आवश्यक, अनुरूप संस्कार कुछ ही समय में जम जाते हैं। जो कार्य मन और त्रुटि द्वारा अत्यन्त कष्टसाध्य मालूम पड़ता था वह अहंकार परिवर्तन की एक चुटकी में ठीक हो जाता है।

अहंकार तक सीधी पहुँच साधना के अतिरिक्त और किसी मार्ग से नहीं हो सकती ।। मन और बुद्धि को शान्त मूर्छित तन्द्रिय  अवस्था में छोड़ कर सीधे अहंकार तक प्रवेश पाना ही साधना का उद्देश्य है। गायत्री साधना का विधान भी इस प्रकार का है। उसका सीधा प्रभाव अहंकार पर पड़ता है। ‘मैं ब्राह्मीशाक्ति का आधार हूँ, ईश्वरीय स्फुरणा- गायत्री मेरे रोम- रोम में ओत- प्रोत हो रही है, मैं उसे अधिकाधिक मात्रा में अपने अन्दर करके ब्राह्मीभूत हो रहा हूँ। यह मान्यतायें मानवीय अहंकार को पाशविक स्तर से बहुत ऊँचा उठा ले जाती हैं और उसे देवभाव में अवस्थित करती हैं। मान्यता कोई साधरण वस्तु नहीं है। गीता कहती है- ‘यो यच्छद्र स एवं सः’ ,, जो अपने सम्बन्ध में श्रद्धा जैसी मान्यता रखता है, वस्तुतः वह वैसा ही होता है। गायत्री- साधना अपने साधक में दैवी आत्म- विश्वास, ईश्वरीय अहंकार प्रदान करती है और वह कुछ ही समय में वस्तुतः वैसा ही हो जाता है। जिस स्तर पर उसकी आत्म मान्यता है उसी स्तर पर चित्त- वृत्तियाँ रहेंगी वैसी ही आदतें, इच्छाएँ, रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ, क्रियायें उसमें दीख पड़ेंगी। जो दिव्य मान्यता से ओत- प्रोत है, निश्चय ही उसकी इच्छाएं, आदतें और क्रियायें वैसी ही होंगी। यह साधना प्रतिक्रिया मानव अन्तःकरण का काय- कल्प कर देती है। जिस आत्म- सुधार के लिये उपदेश सुनना और पुस्तक पढ़ना विशेष सफल नहीं होता था, वह कार्य साधना द्वारा सुविधापूर्वक पूरा हो जाता है। यही साधना का रहस्य है।

उच्च मनःक्षेत्र (सुपर मेण्टल) ही ईश्वरीय दिव्यशक्तियों के अवतरण का उपयुक्त स्थान है। हवाई जहाज वहीं उतरता है जहाँ अड्डा होता है। ईश्वरीय दिव्य शक्ति मानव प्राणी के इसी उच्च मनःक्षेत्र में उतरती है। यदि वह साधना द्वारा निर्मल ही बना लिया गया है तो अति सूक्ष्म दिव्य शक्तियों को अपने में नहीं उतारा जा सकता। साधना, साधक के उच्च मनःक्षेत्र को उपयुक्त हवाई अड्डा बनाती है, जहाँ वह दैवी शक्ति उतर सके।

यह अपरा प्रकृति को परा प्रकृति में रूपान्तरित करने का विज्ञान है। मनुष्य की पाशविक वृत्तियों के स्थान पर ईश्वरीय सत् शक्ति को प्रतिष्ठित करना आध्यात्म विज्ञान का कार्य है। तुच्छ को महान, सीमित को असीम, अणु को विभु, बद्ध को मुक्त, पशु को देव बनाना साधना का उद्देश्य है। इस परिवर्तन के साथ- साथ वे सामर्थ्यें भी मनुष्य में आ जाती हैं, जो उस सत्- शक्ति में सन्निहित है और जिन्हें ऋद्धि, सिद्धि आदि नामों से पुकारते हैं। साधना आध्यात्मिक कायाकल्प की एक वैज्ञानिक प्रणाली है और निश्चय ही अन्य साधना- विधियों में गायत्री साधना का स्थान सर्वश्रेष्ठ है।


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