
जप का महत्त्व
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मनुष्य मात्र के लिये स्वभावतः कुछ बातें परमावश्यक होती हैं। उनमें भोजन, वस्त्र, आवागमन आदि प्रधान हैं। इन सब कार्यों की पूर्ति हम, अपनी शारीरिक शक्ति द्वारा ही करते हैं और शक्ति का संचालन बुद्धि द्वारा होता है ।। इसलिये हमारी बुद्धि का सदैव विकास होता रह और दुर्बुद्धि न बन कर सद्बुद्धि ही बनी रहे इसके लिये हमको सदैव सचेष्ट रहना चाहिए। गायत्री की साधना इसके लिये सर्वश्रेष्ठ विधान है।
हर प्राणी को सुख शान्ति का जीवन यापन करने के लिये नित्य नियमित प्रार्थना करनी अति आवश्यक और वांछनीय है। वैसे प्रार्थना का एक नियत समय व नियत स्थान होना उत्तम है, पर जिसका हृदय अपने इष्टदेव में पूर्णतः तल्लीन हो गया है वह किसी समय और कहीं भी प्रार्थना कर सकता है जैसा कि स्वयं विष्णु भगवान ने नारद से कहा था-
नाहं बसामि बैकुण्ठे योगिनाम् हृदयेच ।।
मद्भक्ताःयत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारदा ॥
अर्थात् ‘न मैं बैकुण्ठ में रहता हूँ न योगियों के हृदय में, मेरा वास वही है, जहाँ मेरे भक्त मेरा गुणगान करते हैं ।’
वर्तमान समय के अधिकांश शिक्षित तो नहीं किन्तु साक्षर व्यक्ति पाश्चात्य सभ्यता के वशीभूत होकर प्रमादी बन गये हैं। वे ‘कालहि, कर्महि, ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय’ वाली उक्ति के अनुसार गुण- कीर्तन, प्रार्थना आदि से विमुख होकर ‘आत्म चिन्तन’ का दावा करते हैं,उनका यह कथन पंगु द्वारा गिरी लाँघने के समान ही हास्यास्पद है। आत्मचिन्तन का लक्ष्य तो सर्वश्रेष्ठ है, पर उसे जवानी जमाखर्च द्वारा प्राप्त नहीं किय जा सकता ।। नाम गुण कीर्तन, प्रार्थना आदि इसी ब्रह्मज्ञान की सीढ़ियों की तरह हैं। इनके द्वारा ही साधारण मनुष्यों की आत्मशुद्धि हो सकती है और क्रमशः वे आत्मचिन्तन के अधाकारी बन सकते हैं।
आज द्वेष, कलह का सर्वत्र राज्य है। सहोदर भाई, पिता- पुत्र, यहाँ तक कि अनेकों पति- पत्नी तक का संयुक्त जीवन सुखद नहीं जान पड़ता। कारण है अपने- अपने कर्तव्य से च्युत होना। वैसे तो इतिहास के सभी युगों में मानव- समाज में कोई न कोई त्रुटियाँ रही हैं, जिनके कारण उनको संकट सहन करने पड़े हैं पर वर्तमान समय में तो मनुष्यों के स्वार्थ युक्त संघर्ष की अवस्था एक असाध्य रोग की तरह हो गई है। इस विपन्नावस्था से छुटकारा पाने के लिये कोई विशेष औषधि ही काम दे सकती है और हमारे मतानुसार वह औषधि केवल गायत्री जप ही हो सकता है उससे मनुष्यों की बुद्धि शुद्ध होकर उनको जीवन- लक्ष्य की सच्ची राह दिखाई पड़ने लगेगी ।।
सर्व- सिद्धि दात्री, सर्व कष्ट भंजन, वेद जननी, परम पवित्र गायत्री की गुण गरिमा को अंकित करना सूर्य को दीपक दिखाना है। गायत्री की महिमा भारतीय समाज में अति प्राचीन युगों से भली प्रकार विदित है। पर आज भौतिकता की बाढ़ ने, आसुरी भावों की बुद्धि ने अधिकांश लोगों को उससे विमुख कर दिया है। अब अगर हम आत्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होकर अपना उत्थान करना चाहते हैं तो हमको नित्य प्रति गायत्री माता का जप और उसके अर्थ का चिन्तन करना एक मात्र उपाय है। हमको चाहिए कि विश्व- कल्याण के सर्वोच्च लक्ष्य तक न पहुँच सकें तो कम से कम अपने तुच्छ स्वार्थ- भाव से मुक्ति पाने के लिये ही कम से कम १०८ बार या यथासम्भव जितना भी अधिक हो सके अपनी परम हितदात्री माता गायत्री का जप करना अपना परम कर्तव्य समझें ।।
हर प्राणी को सुख शान्ति का जीवन यापन करने के लिये नित्य नियमित प्रार्थना करनी अति आवश्यक और वांछनीय है। वैसे प्रार्थना का एक नियत समय व नियत स्थान होना उत्तम है, पर जिसका हृदय अपने इष्टदेव में पूर्णतः तल्लीन हो गया है वह किसी समय और कहीं भी प्रार्थना कर सकता है जैसा कि स्वयं विष्णु भगवान ने नारद से कहा था-
नाहं बसामि बैकुण्ठे योगिनाम् हृदयेच ।।
मद्भक्ताःयत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारदा ॥
अर्थात् ‘न मैं बैकुण्ठ में रहता हूँ न योगियों के हृदय में, मेरा वास वही है, जहाँ मेरे भक्त मेरा गुणगान करते हैं ।’
वर्तमान समय के अधिकांश शिक्षित तो नहीं किन्तु साक्षर व्यक्ति पाश्चात्य सभ्यता के वशीभूत होकर प्रमादी बन गये हैं। वे ‘कालहि, कर्महि, ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय’ वाली उक्ति के अनुसार गुण- कीर्तन, प्रार्थना आदि से विमुख होकर ‘आत्म चिन्तन’ का दावा करते हैं,उनका यह कथन पंगु द्वारा गिरी लाँघने के समान ही हास्यास्पद है। आत्मचिन्तन का लक्ष्य तो सर्वश्रेष्ठ है, पर उसे जवानी जमाखर्च द्वारा प्राप्त नहीं किय जा सकता ।। नाम गुण कीर्तन, प्रार्थना आदि इसी ब्रह्मज्ञान की सीढ़ियों की तरह हैं। इनके द्वारा ही साधारण मनुष्यों की आत्मशुद्धि हो सकती है और क्रमशः वे आत्मचिन्तन के अधाकारी बन सकते हैं।
आज द्वेष, कलह का सर्वत्र राज्य है। सहोदर भाई, पिता- पुत्र, यहाँ तक कि अनेकों पति- पत्नी तक का संयुक्त जीवन सुखद नहीं जान पड़ता। कारण है अपने- अपने कर्तव्य से च्युत होना। वैसे तो इतिहास के सभी युगों में मानव- समाज में कोई न कोई त्रुटियाँ रही हैं, जिनके कारण उनको संकट सहन करने पड़े हैं पर वर्तमान समय में तो मनुष्यों के स्वार्थ युक्त संघर्ष की अवस्था एक असाध्य रोग की तरह हो गई है। इस विपन्नावस्था से छुटकारा पाने के लिये कोई विशेष औषधि ही काम दे सकती है और हमारे मतानुसार वह औषधि केवल गायत्री जप ही हो सकता है उससे मनुष्यों की बुद्धि शुद्ध होकर उनको जीवन- लक्ष्य की सच्ची राह दिखाई पड़ने लगेगी ।।
सर्व- सिद्धि दात्री, सर्व कष्ट भंजन, वेद जननी, परम पवित्र गायत्री की गुण गरिमा को अंकित करना सूर्य को दीपक दिखाना है। गायत्री की महिमा भारतीय समाज में अति प्राचीन युगों से भली प्रकार विदित है। पर आज भौतिकता की बाढ़ ने, आसुरी भावों की बुद्धि ने अधिकांश लोगों को उससे विमुख कर दिया है। अब अगर हम आत्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होकर अपना उत्थान करना चाहते हैं तो हमको नित्य प्रति गायत्री माता का जप और उसके अर्थ का चिन्तन करना एक मात्र उपाय है। हमको चाहिए कि विश्व- कल्याण के सर्वोच्च लक्ष्य तक न पहुँच सकें तो कम से कम अपने तुच्छ स्वार्थ- भाव से मुक्ति पाने के लिये ही कम से कम १०८ बार या यथासम्भव जितना भी अधिक हो सके अपनी परम हितदात्री माता गायत्री का जप करना अपना परम कर्तव्य समझें ।।