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Books - गायत्री महात्म्य

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Language: HINDI
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महापुरुषों द्वारा गायत्री महिमा का गान

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हिन्दू-धर्म में अनेक मान्यताएं प्रचलित है। विविध सिद्धान्तों के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी मतभेद भी हैं। पर गायत्री-मन्त्र की महिमा एक ऐसा तत्व है जिसे सभी शास्त्रों ने, सभी सम्प्रदायों ने, सभी ऋषियों ने एक स्वर से स्वीकार किया है।

अथर्ववेद —19-71-1 में गायत्री की स्तुति की गई है, जिसमें उसे आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली कहा गया है।

विश्वामित्र का कथन है — गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मन्त्र नहीं है। सम्पूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप, गायत्री-मन्त्र की एक कला के समान भी नहीं हैं।

भगवान मनु का कथन है — ‘ब्रह्माजी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री-मन्त्र निकाला।’ गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मन्त्र नहीं है। जो मनुष्य नियमित रूप से तीन वर्ष तक गायत्री का जप करता है वह ईश्वर को प्राप्त करता है। जो द्विज दोनों सन्ध्याओं में गायत्री जपता है वह वेद पढ़ने के फल को प्राप्त करता है। अन्य कोई साधना करे या न करे केवल गायत्री-जप से ही सिद्धि पा सकता है। नित्य एक हजार जप करने वाला पापों से वैसे ही छूट जाता है जैसे केंचुली से सर्प छूट जाता है। जो द्विज गायत्री की उपासना नहीं करता वह निन्दा का पात्र है।

योगिराज याज्ञवल्क्य कहते हैं — ‘गायत्री और समस्त वेदों को तराजू में तोला गया। एक ओर षटअंगों समेत वेद और दूसरी ओर गायत्री को रखा गया। वेदों का सार उपनिषद् है, उपनिषदों का सार व्याहृतियों समेत गायत्री है। गायत्री वेदों की जननी है, पापों का नाश करने वाली है, इससे अधिक पवित्र करने वाला अन्य कोई मन्त्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, केशव से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, गायत्री से श्रेष्ठ मन्त्र न हुआ न आगे होगा। गायत्री जान लेने वाला समस्त विद्याओं का वेत्ता और श्रेष्ठ श्रोत्रिय हो जाता है। जो द्विज गायत्री परायण नहीं वह वेदों का पारंगत होते हुए भी शुद्र के समान है, अन्यत्र किया हुआ उसका श्रम व्यर्थ है। जो गायत्री नहीं जानता ऐसा व्यक्ति ब्राह्मणत्व से च्युत और पापयुक्त हो जाता है।

पाराशरजी कहते हैं —‘समस्त जप सूत्रों तथा वेद-मन्त्रों में गायत्री-मन्त्र परम श्रेष्ठ है। वेद और गायत्री की तुलना में गायत्री का पलड़ा भारी है। भक्तिपूर्वक गायत्री जपने वाला परममुक्त होकर पवित्र बन जाता है। वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास पढ़ लेने पर भी जो गायत्री से हीन है उसे ब्राह्मण न समझना चाहिए।

शंख ऋषि का मत है —‘नरकरूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़कर बचाने वाली गायत्री ही है। उससे उत्तम वस्तु स्वर्ग और पृथ्वी पर कोई नहीं है। गायत्री का ज्ञाता निस्संदेह स्वर्ग को प्राप्त करता है।’

शौनिक ऋषि का मत है —‘अन्य उपासनाएं करे चाहे न करे, केवल गायत्री-जप से द्विज जीवन-मुक्त हो जाता है। सांसारिक और पारलौकिक समस्त सुखों को पाता है। संकट के समय दस हजार जप करने से विपत्ति का निवारण होता है।

अत्रि ऋषि कहते हैं —गायत्री आत्मा का परम शोधन करने वाली है। उसके प्रभाव से कठिन दोष और दुर्गुणों का परिमार्जन हो जाता है। जो मनुष्य गायत्री-तत्व को भली प्रकार समझ लेता है उसके लिए संसार में कोई सुख शेष नहीं रह जाता।

महर्षि व्यासजी कहते हैं—‘जिस प्रकार पुष्पों का सार शहद, दूध का सार घृत है उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री है। सिद्ध की हुई गायत्री कामधेनु के समान है। गंगा शरीर के पापों को निर्मल करती है, गायत्री रूपी ब्रह्मगंगा से आत्मा पवित्र होती है। जो गायत्री को छोड़कर अन्य उपासनाएं करता है वह पकवान् को छोड़कर भिक्षा मांगने वाले के समान मूर्ख है। काम्य सफलता तथा तप की सिद्धि के लिए गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।’

भारद्वाज ऋषि कहते हैं —‘ब्रह्मा आदि देवता भी गायत्री का जप करते हैं। वह ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाली है। अनुचित काम करने वालों के दुर्गुण गायत्री के कारण छूट जाते हैं। गायत्री से रहित व्यक्ति शूद्र से भी अपवित्र है।’

चरक ऋषि कहते हैं —‘जो ब्रह्मचर्यपूर्वक गायत्री की उपासना करता है और आंवले के ताजे फलों का सेवन करता है वह दीर्घजीवी होता है।’

नारदजी की उक्ति है —‘गायत्री भक्ति का ही रूप है। जहां भक्ति-रूप गायत्री है वहां श्री नारायणजी का निवास होने में कोई सन्देह नहीं रखना चाहिए’

वशिष्ठजी का मत है —‘मन्दगति, कुमार्गगामी और अस्थिर मति भी गायत्री के प्रभाव से उच्च पद को प्राप्त करते हैं फिर सद्गति होना निश्चित है। जो पवित्रता और स्थिरतापूर्वक गायत्री की उपासना करते हैं वे आत्म-लाभ करते हैं।

गौतम ऋषि का मत है कि —‘योग का मूल आधार गायत्री है। गायत्री से ही सम्पूर्ण योगों की साधना होती है।’

महर्षि उद्दालक कहते हैं —‘गायत्री में परमात्मा का प्रचण्ड तेज भरा हुआ है। जो इस तेज को धारण करता है उसका वैभव अतुलनीय हो जाता है।’

देव-गुरु बृहस्पतिजी का मत है —देवत्व और अमृत्व की आदि जननी गायत्री है। इसे प्राप्त करने के पश्चात और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता।

शृंगी ऋषि की उक्ति है —‘ज्ञान-विज्ञान का आदि स्रोत गायत्री है। जो इसमें है उससे अधिक संसार में और कुछ नहीं है।’

उपरोक्त अभिमतों से मिलते-जुलते अभिमत प्रायः सभी ऋषियों के हैं। इससे स्पष्ट है कि कोई भी ऋषि अन्य विषयों में चाहे आपस का मतभेद रखते रहे हों पर गायत्री के बारे में उन सब में समान श्रद्धा रहती थी और वे सभी उपासना में उसका प्रथम स्थान रखते थे। शास्त्रों में, धर्म ग्रन्थों में, स्मृतियों में, पुराणों में गायत्री की महिमा तथा साधना पर प्रकाश डालने वाले सहस्रों श्लोक भरे पड़े हैं। इन सबका संग्रह किया जाय तो एक बड़ा भारी गायत्री-पुराण ही बन सकता है।

वर्तमान शताब्दी के आध्यात्मिक तथा दार्शनिक महापुरुषों ने भी गायत्री के महत्व को उसी प्रकार स्वीकार किया है जैसा कि प्राचीन काल के तत्वदर्शी ऋषियों ने किया था। आज का युग बुद्धि और तर्क का, प्रत्यक्षवाद का युग है। इस शताब्दी के प्रभावशाली गण्यमान्य व्यक्तियों की विचारधारा केवल धर्मग्रन्थों या परम्पराओं पर आधारित नहीं रही। उन्होंने बुद्धिवाद, तर्कवाद और प्रत्यक्षवाद को अपने विचार और कार्यों में प्रधान स्थान दिया है। ऐसे महापुरुषों को भी गायत्री-तत्व सब दृष्टिकोणों से परखने पर खरा सोना प्रतीत हुआ है। नीचे उनमें से कुछ के विचार देखिए—

महात्मा गांधी कहते हैं —‘गायत्री-मन्त्र का निरन्तर जप रोगियों को अच्छा करने और आत्माओं की उन्नति के लिए उपयोगी है। गायत्री का स्थिर चित्त और शांत हृदय से किया हुआ जप आपत्ति-काल के संकटों को दूर करने का प्रभाव रखता है।’

लोकमान्य तिलक कहते हैं —‘जिस बहुमुखी दासता के बन्धनों में भारतीय प्रजा जकड़ी हुई है उसका अन्त राजनैतिक संघर्ष करने मात्र से न हो जायगा। उसके लिए आत्मा के अन्दर प्रकाश उत्पन्न होना चाहिये जिससे सत् और असत् का विवेक हो, कुमार्ग को छोड़कर श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले। गायत्री मन्त्र में यही भावना विद्यमान है।’

महामना मदनमोहन मालवीयजी ने कहा था —ऋषियों ने जो अमूल्य रत्न हमें दिए हैं उनमें से एक अनुपम रत्न गायत्री से बुद्धि पवित्र होती है। ईश्वर का प्रकाश आत्मा में आता है। इस प्रकार से असंख्य आत्माओं को भव-बन्धन से त्राण मिला है। गायत्री में, ईश्वर-परायणता में श्रद्धा उत्पन्न करने की शक्ति है। साथ ही वह भौतिक अभावों को दूर करती है। गायत्री की उपासना करना ब्राह्मणों के लिए तो अत्यन्त आवश्यक है। जो ब्राह्मण गायत्री-जप नहीं करता वह अपने कर्तव्य धर्म छोड़ने का अपराधी होता है।

रवीन्द्रनाथ टैगौर कहते हैं —‘भारतवर्ष को जगाने वाला जो मन्त्र है वह इतना सरल है कि एक ही श्वास में उसका उच्चारण किया जा सकता है। वह है—गायत्री मन्त्र। इस पुनीत मन्त्र का अभ्यास करने में किसी प्रकार के तार्किक ऊहापोह, किसी प्रकार के मतभेद अथवा किसी प्रकार के बखेड़े की गुंजायश नहीं है।’

योगी अरविन्द घोष ने कई जगह गायत्री-जप करने का निर्देश किया है। उन्होंने बताया है कि गायत्री में ऐसी शक्ति सन्निहित है जो महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है। इन्होंने कइयों को साधना के तौर पर गायत्री का जप बताया है।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस का उपदेश है —‘मैं लोगों से कहता हूं कि लम्बे-लम्बे साधन करने की उतनी जरूरत नहीं है। इस छोटी सी गायत्री की साधना करके देखो। गायत्री का जप करने से बड़ी-बड़ी सिद्धियां मिल जाती हैं। यह मन्त्र छोटा है पर इसकी शक्ति भारी है।’

स्वामी विवेकानन्द का कथन है —‘राजा से वही वस्तु मांगी जानी चाहिये जो उसके गौरव के अनुकूल हो। परमात्मा से मांगने योग्य वस्तु सद्बुद्धि है। जिस पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं उसे सद्बुद्धि प्रदान करते हैं। सद्बुद्धि से सत् मार्ग पर प्रगति होती है और सत् कर्म से सब प्रकार के सुख मिलते हैं। जो सत् की ओर बढ़ रहा है उसे किसी प्रकार के सुख की कमी नहीं रहती। गायत्री सद्बुद्धि का मन्त्र है। इसलिये उसे मन्त्रों का मुकुटमणि कहा गया है।’

जगद्गुरु शंकराचार्य जी का कथन है —‘गायत्री की महिमा का वर्णन करना मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर है। बुद्धि का शुद्ध होना इतना बड़ा कार्य है जिसकी समता संसार के और किसी काम से नहीं हो सकती। आत्मबल प्राप्त करने की दिव्य दृष्टि शुद्ध बुद्धि से प्राप्त होती है उसका प्रेरक गायत्री-मन्त्र है। उसका अवतार दुरितों को नष्ट करने और ऋत के अभिवर्धन के लिए हुआ है।’

स्वामी रामतीर्थ ने कहा है —‘राम को प्राप्त करना सबसे बड़ा काम है। गायत्री का अभिप्राय बुद्धि को काम रुचि से हटा कर राम-रुचि में लगा देना है। जिसकी बुद्धि पवित्र होगी वही राम को प्राप्त करने का काम कर सकेगा। गायत्री पुकारती है कि बुद्धि में इतनी पवित्रता होनी चाहिये कि वह काम को राम से बढ़कर न समझे।’

महर्षि रमण का उपदेश है —‘योग-विद्या के अन्तर्गत मन्त्र-विद्या बड़ी प्रबल है, मन्त्रों की शक्ति से अद्भुत सफलताएं मिलती हैं। गायत्री मन्त्र ही है, जिससे आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के लाभ मिलते हैं।’

स्वामी शिवानन्दजी कहते हैं —‘ब्रह्म मुहूर्त में गायत्री का जप करने से चित्त शुद्ध होता है और हृदय में निर्मलता आती है। शरीर निरोग रहता है, स्वभाव में नम्रता आती है, बुद्धि सूक्ष्म होने से दूरदर्शिता बढ़ती है और स्मरण शक्ति का विकास होता है। कठिन प्रसंगों में गायत्री द्वारा दैवी सहायता मिलती है। उसके द्वारा आत्म-दर्शन हो सकता है।’

काली कमली वाले बाबा विशुद्धानन्दजी कहते थे —गायत्री ने बहुतों को सुमार्ग पर लगाया है। कुमार्गगामी मनुष्य की पहले तो गायत्री की ओर रुचि ही नहीं होती। यदि ईश्वर-कृपा से हो भी जाय तो वह कुमार्गगामी नहीं रहता। गायत्री जिसके हृदय में वास करती है उसका मन ईश्वर की ओर जाता है। विषय विकारों की व्यर्थता उसे भली प्रकार अनुभव होने लगती है। कई महात्मा गायत्री का जप करके परम सिद्ध हुए हैं। परमात्मा की शक्ति ही गायत्री है। जो गायत्री के निकट जाता है वह शुद्ध होकर रहता है। आत्म–कल्याण के लिए मन की शुद्धि आवश्यक है। मन की शुद्धि के लिये गायत्री-मन्त्र अद्भुत है। ईश्वर-प्राप्ति के लिये गायत्री-जप को प्रथम सीढ़ी समझना चाहिये।

दक्षिण भारत के प्रसिद्ध आत्मज्ञानी टी. सुब्बाराव कहते हैं —‘सविता नारायण की देवी प्रकृति को सावित्री कहते हैं। आदि शक्ति होने के कारण इसको गायत्री कहते हैं। गीता में इसका वर्णन ‘आदित्य वर्ण’ कहकर किया गया है। गायत्री की उपासना करना योग का सबसे प्रथम अंग है।’

श्री स्वामी करपात्री जी का कथन है —‘जो गायत्री के अधिकारी हैं उन्हें नित्य नियमित रूप से उसका जप करना चाहिये। द्विजों के लिए गायत्री का जप एक अत्यन्त आवश्यक धर्मकृत्य है।’

गीता-धर्म के व्याख्याता श्री स्वामी विद्यानन्द जी कहते हैं —‘गायत्री बुद्धि को पवित्र करती है। बुद्धि की पवित्रता से बढ़कर जीवन में और दूसरा लाभ नहीं है। इसलिए गायत्री एक बहुत बड़े लाभ की जननी है।’

सर राधाकृष्णन् कहते हैं —‘यदि हम इस सार्वभौमिक प्रार्थना गायत्री पर विचार करें तो हमें मालूम होगा कि यह हमें वास्तव में कितना ठोस लाभ देती है। गायत्री हम में फिर से जीवन का स्रोत उत्पन्न करने वाली आकुल प्रार्थना है।’

प्रसिद्ध आर्य समाजी महात्मा सर्वदानन्द जी का कथन है —‘गायत्री-मन्त्र द्वारा प्रभु का पूजन सदा से आर्यों की रीति रही है। ऋषि दयानन्द ने भी उसी शैली का अनुसरण करके संख्या का विधान तथा वेदों के स्वाध्याय का प्रयत्न करना बताया है। ऐसा करने से अन्तःकरण की शुद्धि तथा बुद्धि निर्मल होकर मनुष्य जा जीवन अपने तथा दूसरों के लिए हितकर हो जाता है। जितना भी इस शुभ कर्म में श्रद्धा और विश्वास हो उतना ही अविद्या आदि क्लेशों का ह्रास होता है। जो जिज्ञासु गायत्री मन्त्र को प्रेम और नियम पूर्वक उच्चारण करते हैं उनके लिए वह संसार-सागर में तरने की नाव और आत्म-प्राप्ति की सड़क है।

आर्यसमाज के जन्म दाता श्री स्वामी दयानन्द जी सरस्वती — गायत्री के श्रद्धालु उपासक थे। ग्वालियर के राजासाहब से स्वामी जी ने कहा था कि भगवान सप्ताह की अपेक्षा गायत्री पुरश्चरण अधिक श्रेष्ठ है। जयपुर के सच्चिदानन्द, हीरालाल रावल, घोड़लसिंह आदि को गायत्री-जप की विधि सिखाई थी। मुलतान में उपदेश के समय स्वामी जी ने गायत्री-मन्त्र का उच्चारण किया और कहा कि—यह मन्त्र सबसे श्रेष्ठ है। चारों वेदों का मूल यही गुरु-मन्त्र है। आदिकाल में सभी ऋषि मुनि इसी का जप किया करते थे। स्वामीजी ने कई स्थानों पर विशाल गायत्री अनुष्ठानों का आयोजन कराया था, जिनमें 40 तक की संख्या में विद्वान ब्राह्मण बुलाये गये। यह जब 15 दिन तक चले थे।

इस प्रकार वर्तमान शताब्दी के अनेकों गण्यमान्य बुद्धिवादी महापुरुषों के अभिमत हमारे पास संग्रहीत हैं। उन पर विचार करने से इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि गायत्री उपासना कोई अन्धविश्वास जन्य परम्परा नहीं है, वरन् उसके पीछे आत्मोन्नति करने वाले ठोस तत्वों का बल है। इस महान् शक्ति को अपनाने का जिसने भी प्रयत्न किया है उसे लाभ ही मिला है। गायत्री-साधना कभी भी निष्फल नहीं जाती।

गायत्री भूलोक की कामधेनु है। यह आत्मा की समस्त क्षुधा-पिपासाओं को शांत करती है। भव-बन्धनों के जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने की सामर्थ्य के परिपूर्ण होने के कारण उसे अमृत भी कहते हैं। गायत्री को स्पर्श करने वाला कुछ से कुछ हो जाता है, इसलिये उसे पारसमणि भी कहा गया है। चाहे कोई ग्रहस्थ हो, या विरक्त, गायत्री-उपासना सबके लिए समान रूप से लाभदायक है। गायत्री-उपासना प्रत्येक द्विज का अनिवार्य धार्मिक कृत्य है। उसकी उपेक्षा करना अपने परम पुनीत धार्मिक कर्तव्य से च्युत होना है।

अभाव, कष्ट, विपत्ति, चिंता एवं निराशा की घड़ियों में गायत्री का आश्रय लेने से तुरन्त शान्ति मिलती है। माता की कृपा प्राप्त होने से पर्वत के समान दीखने वाले संकट राई के समान हलके हो जाते हैं और अन्धकार में भी आशा की किरणें प्रकाशवान् होती हैं। गायत्री को सर्व शक्तिमान्, सर्व सिद्धिदायिनी और सर्व कष्ट विनाशिनी कहा गया है।





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