Books - कर्मकांड प्रदीप
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Language: HINDI
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वानप्रस्थ संस्कार
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ढलती उम्र का परम पवित्र कर्त्तव्य है- वानप्रस्थ। पारिवारिक जिम्मेदारियाँ जैसे ही हलकी होने लगें, घर को चलाने के लिए बड़े बच्चे समर्थ होने लगें और अपने छोटे भाई- बहिनों की देखभाल करने लगें, तब वयोवृद्ध आदमियों का एक मात्र कर्त्तव्य यही रह जाता है कि वे पारिवारिक जिम्मेदारियों से धीरे- धीरे हाथ खीचें और क्रमशः वह भार समर्थ लड़कों के कन्धों पर बढ़ाते चलें। ममता को परिवार की ओर से शिथिल कर समाज की ओर विकसित करते चलें। सारा समय घर के ही लोगों के लिए खर्च न कर दें, वरन् उसका कुछ अंश क्रमशः अधिक बढ़ाते हुए समाज के लिए समर्पित करते चलें। विशेष व्यवस्था- वानप्रस्थ संस्कार जितने व्यक्तियों का हो, उनके लिए समुचित आसन तैयार रखे जाएँ। वानप्रस्थ परम्परा को महत्त्व देने की दृष्टि से उनके लिए सुसज्जित मञ्च बनाया जा सके, तो बनाना चाहिए। पूजन की सामान्य सामग्री के साथ- साथ संस्कार के लिए प्रयुक्त विशेष वस्तुओं को पहले से देख- सँभाल लेना चाहिए। उनका विवरण इस प्रकार है-
वानप्रस्थों को पीले रंग के वस्त्रों में पहले से तैयार रखना चाहिए। पञ्चगव्य एक पात्र में पहले से तैयार रहे। संस्कार कराने वाले जितने व्यक्ति हों, उतने
१. पीले यज्ञोपवीत २. पंचगव्य पान कराने के लिए छोटी कटोरियाँ, ३. मेखला- कोपीन (कमरबन्द सहित लँगोटी), ४.धर्मदण्ड (हाथ में लेने योग्य गोल दण्ड)रूल एवं ५. पीले दुपट्टे तैयार रखे जाएँ।
ऋषि पूजन के लिए सात कुशाएँ एक साथ बँधी हुई। वेदपूजन हेतु वेद या कोई पवित्र पुस्तक पीले कपड़े में लपेटी हुई। यज्ञ पुरुष पूजन के लिए कलावा लपेटा हुआ नारियल का गोला। अभिषेक के लिए स्वच्छ लोटे या कलश एक जैसे, कम से कम ५, अधिक २४ तक हों, तो अच्छा है। अभिषेक के लिए कन्याएँ अथवा सम्माननीय साधकों को पहले से निश्चित कर लेना चाहिए। वानप्रस्थ लेने वालों को विधिवत् स्नान करके, पीत वस्त्र पहनकर, संस्कार स्थल पर आने के लिए कहा जाए। प्रवेश एवं आसन ग्रहण के समय पुष्प- अक्षत वृष्टि के साथ मङ्गलाचरण का मंत्र बोला जाए। सबके यथास्थान बैठ जाने पर नपे- तुले शब्दों में संस्कार का महत्त्व तथा उसके महान् उत्तरदायित्वों पर सबका ध्यान दिलाकर भावनापूर्वक कर्मकाण्ड प्रारम्भ कराएँ। ॥ विशेष कर्मकाण्ड॥ प्रारम्भ में षट्कर्म के बाद ही सङ्कल्प करा दिया जाए। तिलक और रक्षासूत्र बन्धन के उपचार करा दिये जाएँ। समय की सीमा का ध्यान रखते हुए सामान्य प्रकरण, पूजन आदि को समुचित विस्तार या संक्षेप में किया जाए। क्षाविधान के बाद विशेष कर्मकाण्ड इस प्रकार कराये जाएँ।
॥ सङ्कल्प॥
क्रिया और भावना- सङ्कल्प के लिए अक्षत, जल, पुष्प हाथ में दिये जाएँ। भावना करें कि देवसंस्कृति के मेरुदण्ड वानप्रस्थ जीवन का शुभारम्भ करने के लिए अपने अन्तरङ्ग और अन्तरिक्ष की सद्शक्तियों से सहयोग की प्रार्थना करते हुए साहस भरी घोषणा कर रहे हैं-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्त्तैक देशान्तर्गते.......क्षेत्रे.......स्थले मासानां मासोत्तमेमासे.......मासे........ पक्षे.......तिथौ.......वासरे.......गोत्रोत्पन्नःपक्षे.......तिथौ.......वासरे.......गोत्रोत्पन्नः.......नामाऽहं स्वजीवनं व्यक्तिगतं न मत्वा सम्पूर्ण- समाजस्य एतत् इति ज्ञात्वा, संयम- स्वाध्याय विशेषतश्च लोकसेवायां निरन्तरं मनसा वाचा कर्मणा च संलग्नो भविष्यामि इति सङ्कल्पं अहं करिष्ये।
॥ यज्ञोपवीत परिवर्तन॥ नये जीवन की ओर पहला कदम त्याग, पवित्रता, तेजस्विता एवं परमार्थ के प्रतीक व्रतबन्ध स्वरूप यज्ञोपवीत का नवीनीकरण किया जाता है। यज्ञोपवीत का सिञ्चन करके पाँच देव शक्तियों के आवाहन स्थापन के उपरान्त उसे धारण कर लिया जाता है, पुराना उतार दिया जाता है। यह क्रम यज्ञोपवीत संस्कार प्रकरण में दिया गया है। सुविधा की दृष्टि से मन्त्रादि यहाँ भी दिये जा रहे हैं। ॥ यज्ञोपवीत सिञ्चन॥ मन्त्र बोलते हुए यज्ञोपवीत पर जल छिड़कें, पवित्र करें, नमस्कार करें-
ॐ प्रजापतेर्यत्सहजं पवित्रं, कार्पाससूत्रोद्भवब्रह्मसूत्रम्। ब्रह्मत्वसिद्ध्यै च यशः प्रकाशं, जपस्य सिद्धिं कुरु ब्रह्मसूत्रम्॥ ॥ पञ्चदेवावाहन॥ मन्त्रों के साथ यज्ञोपवीत में विभिन्न देवताओं का आवाहन करें- सूत्र दुहरायें-
ॐ ब्रह्मा सृजनशीलतां ददातु। (ब्रह्मा हमें सृजनशीलता प्रदान करें।) (१) ब्रह्मा- ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आवः। स बुध्न्याऽ उपमाऽ अस्यविष्ठाः सतश्चयोनिमसतश्च विवः॥ ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।- १३.३
(२) विष्णु- ॐ विष्णुः पोषणक्षमतां ददातु। (विष्णु हमें पोषण क्षमता से युक्त बनावें।) ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पा * सुरे स्वाहा॥- ५.१५ ॐ विष्णवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
(३) शिव- ॐ शिवः अमरतां ददातु। (शिव हमें अमरत्व प्रदान करें।) ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतो तऽ इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः॥ -१६.१ ॐ रुद्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
(४) यज्ञपुरुष- यज्ञोपवीत खोल लें। दोनों हाथों की कनिष्ठा और अँगूठे से फँसाकर सीने की सीध में करें, फिर यज्ञ भगवान का आवाहन करें। सूत्र दुहरायें-
ॐ यज्ञदेवः सत्पथे नियोजयेत्। (यज्ञदेव हमें सत्कर्म सिखायें।) ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥- ३१.१६ ॐ यज्ञपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
(५) सूर्य- फिर दोनों हाथ ऊपर उठाकर सूर्यदेव का आवाहन करें- सूत्र दुहरायें-
ॐ सवितादेवता तेजस्वितां वर्धयेत्। (सविता हमें तेजस्वी बनायें।) ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥- ३३.४३ ॐ सूर्याय नमः। आवाहयामि स्थापयामि, ध्यायामि। ॥ यज्ञोपवीतधारण॥ ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ -- पार०गृ०सू० २.२.११
॥ जीर्णोपवीत विसर्जन॥
ॐ एतावद्दिन पर्यन्तं, ब्रह्म त्वं धारितं मया। जीर्णत्वात्ते परित्यागो, गच्छ सूत्र यथासुखम्॥ ॥ पञ्चगव्य पान॥
क्रिया और भावना- पञ्चगव्य की कटोरी बायें हाथ में लें और दाहिने हाथ की मध्यमा अँगुली से मन्त्रोच्चार के साथ उसे घोलें- चलाएँ। भावना करें कि इन गौ द्रव्यों को दिव्य चेतना से अभिमन्त्रित कर रहे हैं।
ॐ गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्प्पिः कुशोदकम्। निर्दिष्टं पञ्चगव्यं तु पवित्रं मुनिपुङ्गवैः॥
कटोरी दाहिने हाथ में लेकर मन्त्रोच्चार के साथ पान करें। भावना करें कि दिव्य संस्कारों से पापों की जड़ पर प्रहार और पुण्यों को उभारने का क्रम आरम्भ हो रहा है, जो निष्ठापूर्वक चलाया जाता रहेगा।
ॐ यत्त्वगस्थिगतं पापं देहे तिष्ठति मामके। प्राशनात्पञ्चगव्यस्य दहत्वग्निरिवेन्धनम्॥ ॥ मेखला- कोपीन धारण॥ क्रिया और भावना- मेखला- कोपीन हाथों के सम्पुट में ली जाए। मन्त्रोच्चार के साथ भावना की जाए कि तत्परता, सक्रियता तथा संयमशीलता का वरण किया जा रहा है। मन्त्र पूरा होने पर उसे कमर में बाँध लें। सूत्र दुहरायें- ॐ संयमशीलः तत्परश्च भविष्यामि। (संयमशील और तत्पर रहेंगे।)
ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमाना वर्णं पवित्रं पुनतीमऽआगात्। प्राणापानाभ्यां बलमादधाना स्वसा देवी सुभगा मेखलेयम्॥ -पागृसू० २.२.८ धर्मदण्डधारण- दण्ड दोनों हाथों से पकड़ें। भूमि के समानान्तर हृदय की सीध में स्थिर करें। मन्त्र पूरा होने पर मस्तक से लगाएँ और दाहिनी ओर रख लें। भावना करें कि धर्म चेतना को जीवन्त, व्यवस्थित एवं अनुशासित रखने का महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व स्वीकार किया जा रहा है। इसके साथ दिव्य शक्तियाँ ब्राह्मणत्व और ब्रह्मवर्चस प्रदान कर रही हैं। सूत्र दुहरायें-
ॐ अनुशासनानि पालयिष्यामि। (गुरु द्वारा निर्धारित अनुशासनों का पालन करेंगे।) ॐ यो मे दण्डः परापत द्वैैहायसोऽधिभूम्याम्। तमहं पुनराददऽआयुषे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय॥ -पार०गृ०सू० २.२.१२ पीतवस्त्रधारण- दोनों हाथों की हथेलियाँ सीधी करके दुपट्टा लें। मन्त्र के साथ ध्यान करें कि सत् शक्तियों से पवित्रता, शौर्य और त्याग का संस्कार प्राप्त कर रहे हैं। मन्त्र पूरा होने पर दुपट्टा कन्धों पर धारण कर लें।
सूत्र दुहरायें-
ॐ अहन्तां उत्सृज्य विनम्रतां धारयिष्ये। (अहन्ता को त्यागकर विनम्रता अपनाऊँगा) ॐ सूर्यो मे चक्षुर्वातः प्राणो३न्तरिक्षमात्मा पृथिवी शरीरम्। अस्तृतो नामाहमयमस्मि स आत्मानं नि दधे द्यावापृथिवीभ्यां गोपीथाय॥ -अथर्ववेद ५.९.७ ऋषिपूजन- हाथ में पुष्प- अक्षत लेकर ऋषियों का ध्यान कर मन्त्रोच्चारण के साथ भावना करें कि हम भी उन्हीं की परिपाटी के व्यक्ति हैं, उनके गौरव के अनुरूप बनने के लिए अपने पुरुषार्थ के साथ उनके अनुग्रह की प्रार्थना कर रहे हैं, उसे पाकर अन्याय उन्मूलन के मोर्चे को सुदृढ़ बनायेंगे।
सूत्र दुहरायें- ॐ सामान्यजनमिव निर्वाहं करिष्यामि। (औसत नागरिक के स्तर के सहारे देवत्व की ओर बढ़ूँगा।)
ॐ इमावेव गोतमभरद्वाजौ, अयमेव गोतमोऽयं भरद्वाजऽ, इमावेव विश्वामित्रजमदग्नी, अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निः, इमावेव वसिष्ठकश्यपौ, अयमेव वसिष्ठोऽयं कश्यपो, वागेवात्रिर्वाचा ह्यन्नमद्यतेऽत्तिः, हवै नामैतद्यदत्रिरिति, सर्वस्यात्ता भवति, सर्वमस्यान्नं भवति य एवं वेद।- बृह०उ० २.२.४ ॐ सप्तऋषीनभ्यावर्ते। ते मे द्रविणं यच्छन्तु ते मे ब्राह्मणवर्चसम्। ॐ ऋषिभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि,ध्यायामि। -- अथर्व० १०.५.३९
वेदपूजन- पूजन सामग्री हाथ में लें। मन्त्रोच्चार के साथ भावना करें कि ज्ञान की सनातन धारा के वर्तमान युग के अनुरूप प्रवाह को अपने लिए तथा सारे समाज के लिए पतित पावनी माँ गङ्गा की तरह प्रवाहित करने के लिए अपनी भूमिका निर्धारित की जा रही है। अज्ञान का निवारण इसी से सम्भव होगा।
सूत्र दुहरायें-
ॐ ज्ञानक्रान्तेः अनुगमनं करिष्यामि। (विचार क्रान्ति का अनुगमन करूँगा।) ॐ वेदोसि येन त्वं देव वेद देवेभ्यो वेदोभवस्तेन मह्यं वेदो भूयाः।
देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित। मनसस्पतऽ इमं देव यज्ञ * स्वाहा वाते धाः॥
ॐ वेदपुरुषाय नमः।
आवाहयामि, स्थापयामि,ध्यायामि। -२.२१
यज्ञपुरुष पूजन- पूजन सामग्री हाथ में लें। मन्त्र के साथ भावना करें कि धर्म और देवत्व के प्रमुख आधार को अङ्गीकार करते हुए, उसे पुष्ट और प्रभावशाली बनाया जा रहा है।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ ॐ यज्ञपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -३१.१६ व्रत धारण- व्रतशीलता के लिए कुछ देवशक्तियों को साक्षी करके व्रतशील बनने की घोषणा की जाती है। इन्हें अपना प्रेरक, निरीक्षक और नियंत्रक बनाना पड़ता है। सम्बन्धित देवशक्तियों की प्रेरणाएँ इस प्रकार हैं-
अग्निदेव- ऊर्जा के प्रतीक। ऊर्जा, स्फुरणा, गर्मी, प्रकाश से भरे- पूरे रहने, अन्यों तक उसे फैलाने, दूसरों को अपने जैसा बनाने, ऊर्ध्वगामी- आदर्शनिष्ठ रहने, यज्ञीय चेतना के वाहन बनने की प्रेरणा के स्रोत। वायुदेव- स्वयं प्राणरूप, किन्तु बिना अहङ्कार सबके पास स्वयं पहुँचते हैं। कोई स्थान खाली नहीं छोड़ते, निरन्तर गतिशील। सुगन्धित और मेघों जैसे परोपकारी तत्त्वों के विस्तारक सहायक। सूर्यदेव- जीवनी शक्ति के निर्झर, तमोनिवारक, जागृति के प्रतीक, पृथ्वी को सन्तुलन और प्राण- अनुदान देने वाले, स्वयं प्रकाशित, सविता देवता। चन्द्रदेव- स्वप्रकाशित नहीं, पर सूर्य का ताप स्वयं सहन करके शीतल प्रकाश जगती पर फैलाने वाले, तप अपने हिस्से में- उपलब्धियाँ सबके लिए। इन्द्रदेव- व्रतपति देवों में प्रमुख, देव प्रवृत्तियों- शक्तियों को सङ्गठित- सशक्त बनाये रखने के लिए सतत जागरूक, हजार आँखों से सतर्क रहने की प्रेरणा देने वाले।
क्रिया और भावना- हाथ में क्रमशः अक्षत- पुष्प लेकर व्रत धारण का सूत्र दुहराकर देवों की साक्षी में उन्हें नमन करते हुए हर बार पूजा वेदी पर चढ़ा दिया जाये-
सूत्र-
(क) ॐ आयुष्यार्धं नियोजयिष्ये। (आधा जीवन परमार्थ में लगाऊँगा।) (ख) ॐ संयमादर्शयुतं सुसंस्कृतं व्यक्तित्वं रचयिष्ये। (संयमी, आदर्शयुक्त एवं सुसंस्कृत व्यक्तित्व बनाऊँगा।) (ग) ॐ युगधर्मणे सततं चरिष्यामि। (युग धर्म के परिपालन के लिए सतत गतिशील रहूँगा।) (घ) ॐ विश्वपरिवारसदस्यः भविष्यामि। (विशाल विश्वपरिवार का सदस्य बनूँगा।) (ङ) ॐ सत्प्रवृत्तिसंवर्धनाय दुष्प्रवृत्युन्मूलनाय पुरुषार्थं नियोजयिष्ये। (सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन में अपना पुरुषार्थ नियोजित रहेगा।)
परिव्राजक मन्त्रोच्चार के समय दोनों हाथ ऊपर उठाकर रखें। भावना करें कि हाथ उठाकर व्रतशीलता की साहसिक घोषणा कर रहे हैं, साथ ही सत्प्रवृत्तियों को अपना हाथ थमा रहे हैं। वे हमें मार्गदर्शक की तरह प्रेरणा एवं सहारा देती रहेंगी। एक देवता का मन्त्र पूरा होने पर हाथ जोड़कर नमस्कार करें, फिर पहले जैसी मुद्रा बना लें।
ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ अग्नये नमः॥ १॥ ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ वायवे नमः॥ २॥ ॐ सूर्य व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ सूर्याय नमः॥ ३॥ ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ चन्द्राय नमः॥ ४॥ ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ इन्द्राय नमः॥ ५॥ -- मं.ब्रा०१.६.९
अभिषेक- निर्धारित मात्रा में कन्याएँ या संस्कारवान् व्यक्ति कलश लेकर मन्त्रोच्चार के साथ साधकों का अभिषेक करें। भावना करें कि ईश्वरीय ऋषिकल्प जीवन के अनुरूप स्थापनाओं, बीजरूप प्रवृत्तियों को सींचा जा रहा है, समय पाकर वे फूलें- फलेंगी। जीवन के श्रेष्ठतम रस में भागीदारी के लिए परमात्म सत्ता से प्रार्थना की जा रही है, अनुदानों को धारण किया जा रहा है।
ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवः ता नऽ ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे॥ ॐ यो वः शिवतमो रसः तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः॥ॐ तस्माऽ अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः॥
अभिषेक के बाद अग्निस्थापना करके विधिवत् यज्ञ किया जाए। स्विष्टकृत् के पूर्व सात विशेष आहुतियाँ दी जाएँ। भावना की जाए कि युग देवता एक विशाल यज्ञ चला रहे हैं। उस यज्ञ में समिधा, द्रव्य बनकर हम भी सम्मिलित हो रहे हैं, उनसे जुड़कर हमारा जीवन धन्य हो रहा है।
ॐ ब्रह्म होता ब्रह्म यज्ञा ब्रह्मणा स्वरवो मिताः।
अध्वर्युर्ब्रह्मणो जातो ब्रह्मणोऽन्तर्हितं हविः स्वाहा॥ इदं अग्नये इदं न मम। -अथर्व० १९.४२.१ प्रव्रज्या- परिव्राजक का काम है चलते रहना। रुके नहीं, लक्ष्य की ओर बराबर चलता रहे, एक सीमा में न बँधे, जन- जन तक अपने अपनत्व और पुरुषार्थ को फैलाए। जो परिव्राजक लोकमङ्गल के लिए सङ्कीर्णता के सीमा बन्धन तोड़कर गतिशील नहीं होता, सुख- सुविधा छोड़कर तपस्वी जीवन नहीं अपनाता, वह पाप का भागीदार होता है। यज्ञ की चार परिक्रमाएँ चरैवेति मन्त्रों के साथ करें। भावना करें कि हम सच्चे परिव्राजक बनकर गतिशीलों को मिलने वाले दिव्य अनुदानों के उपयुक्त सत्पात्र बन रहे हैं। ॐ नाना श्रान्ताय श्रीरस्ति, इति रोहित शुश्रुम। पापो नृषद्वरो जन, इन्द्र इच्चरतः सखा॥ चरैवेति चरैवेति। ॐ पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे, भूष्णुरात्मा फलग्रहिः। शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः, श्रमेण प्रपथे हताः॥ चरैवेति चरैवेति। ॐ आस्ते भग आसीनस्य, ऊर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः। शेते निपद्यमानस्य, चराति चरतो भगः॥ चरैवेति चरैवेति। ॐ कलिः शयानो भवति, सञ्जिहानस्तु द्वापरः। उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं सम्पद्यते चरन्॥ चरैवेति चरैवेति। ॐ चरन् वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुमुदुम्बरम्। सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन्॥ चरैवेति चरैवेति। -ऐतरेय ब्राह्मण ७.१५
इसके बाद यज्ञ समापन पूर्णाहुति आदि उपचार कराये जाएँ। अन्त में मन्त्रों के साथ पुष्प अक्षत की वर्षा करें, शुभ कामना- आशीर्वाद आदि दें।
वानप्रस्थों को पीले रंग के वस्त्रों में पहले से तैयार रखना चाहिए। पञ्चगव्य एक पात्र में पहले से तैयार रहे। संस्कार कराने वाले जितने व्यक्ति हों, उतने
१. पीले यज्ञोपवीत २. पंचगव्य पान कराने के लिए छोटी कटोरियाँ, ३. मेखला- कोपीन (कमरबन्द सहित लँगोटी), ४.धर्मदण्ड (हाथ में लेने योग्य गोल दण्ड)रूल एवं ५. पीले दुपट्टे तैयार रखे जाएँ।
ऋषि पूजन के लिए सात कुशाएँ एक साथ बँधी हुई। वेदपूजन हेतु वेद या कोई पवित्र पुस्तक पीले कपड़े में लपेटी हुई। यज्ञ पुरुष पूजन के लिए कलावा लपेटा हुआ नारियल का गोला। अभिषेक के लिए स्वच्छ लोटे या कलश एक जैसे, कम से कम ५, अधिक २४ तक हों, तो अच्छा है। अभिषेक के लिए कन्याएँ अथवा सम्माननीय साधकों को पहले से निश्चित कर लेना चाहिए। वानप्रस्थ लेने वालों को विधिवत् स्नान करके, पीत वस्त्र पहनकर, संस्कार स्थल पर आने के लिए कहा जाए। प्रवेश एवं आसन ग्रहण के समय पुष्प- अक्षत वृष्टि के साथ मङ्गलाचरण का मंत्र बोला जाए। सबके यथास्थान बैठ जाने पर नपे- तुले शब्दों में संस्कार का महत्त्व तथा उसके महान् उत्तरदायित्वों पर सबका ध्यान दिलाकर भावनापूर्वक कर्मकाण्ड प्रारम्भ कराएँ। ॥ विशेष कर्मकाण्ड॥ प्रारम्भ में षट्कर्म के बाद ही सङ्कल्प करा दिया जाए। तिलक और रक्षासूत्र बन्धन के उपचार करा दिये जाएँ। समय की सीमा का ध्यान रखते हुए सामान्य प्रकरण, पूजन आदि को समुचित विस्तार या संक्षेप में किया जाए। क्षाविधान के बाद विशेष कर्मकाण्ड इस प्रकार कराये जाएँ।
॥ सङ्कल्प॥
क्रिया और भावना- सङ्कल्प के लिए अक्षत, जल, पुष्प हाथ में दिये जाएँ। भावना करें कि देवसंस्कृति के मेरुदण्ड वानप्रस्थ जीवन का शुभारम्भ करने के लिए अपने अन्तरङ्ग और अन्तरिक्ष की सद्शक्तियों से सहयोग की प्रार्थना करते हुए साहस भरी घोषणा कर रहे हैं-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्त्तैक देशान्तर्गते.......क्षेत्रे.......स्थले मासानां मासोत्तमेमासे.......मासे........ पक्षे.......तिथौ.......वासरे.......गोत्रोत्पन्नःपक्षे.......तिथौ.......वासरे.......गोत्रोत्पन्नः.......नामाऽहं स्वजीवनं व्यक्तिगतं न मत्वा सम्पूर्ण- समाजस्य एतत् इति ज्ञात्वा, संयम- स्वाध्याय विशेषतश्च लोकसेवायां निरन्तरं मनसा वाचा कर्मणा च संलग्नो भविष्यामि इति सङ्कल्पं अहं करिष्ये।
॥ यज्ञोपवीत परिवर्तन॥ नये जीवन की ओर पहला कदम त्याग, पवित्रता, तेजस्विता एवं परमार्थ के प्रतीक व्रतबन्ध स्वरूप यज्ञोपवीत का नवीनीकरण किया जाता है। यज्ञोपवीत का सिञ्चन करके पाँच देव शक्तियों के आवाहन स्थापन के उपरान्त उसे धारण कर लिया जाता है, पुराना उतार दिया जाता है। यह क्रम यज्ञोपवीत संस्कार प्रकरण में दिया गया है। सुविधा की दृष्टि से मन्त्रादि यहाँ भी दिये जा रहे हैं। ॥ यज्ञोपवीत सिञ्चन॥ मन्त्र बोलते हुए यज्ञोपवीत पर जल छिड़कें, पवित्र करें, नमस्कार करें-
ॐ प्रजापतेर्यत्सहजं पवित्रं, कार्पाससूत्रोद्भवब्रह्मसूत्रम्। ब्रह्मत्वसिद्ध्यै च यशः प्रकाशं, जपस्य सिद्धिं कुरु ब्रह्मसूत्रम्॥ ॥ पञ्चदेवावाहन॥ मन्त्रों के साथ यज्ञोपवीत में विभिन्न देवताओं का आवाहन करें- सूत्र दुहरायें-
ॐ ब्रह्मा सृजनशीलतां ददातु। (ब्रह्मा हमें सृजनशीलता प्रदान करें।) (१) ब्रह्मा- ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आवः। स बुध्न्याऽ उपमाऽ अस्यविष्ठाः सतश्चयोनिमसतश्च विवः॥ ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।- १३.३
(२) विष्णु- ॐ विष्णुः पोषणक्षमतां ददातु। (विष्णु हमें पोषण क्षमता से युक्त बनावें।) ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूढमस्य पा * सुरे स्वाहा॥- ५.१५ ॐ विष्णवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
(३) शिव- ॐ शिवः अमरतां ददातु। (शिव हमें अमरत्व प्रदान करें।) ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतो तऽ इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः॥ -१६.१ ॐ रुद्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
(४) यज्ञपुरुष- यज्ञोपवीत खोल लें। दोनों हाथों की कनिष्ठा और अँगूठे से फँसाकर सीने की सीध में करें, फिर यज्ञ भगवान का आवाहन करें। सूत्र दुहरायें-
ॐ यज्ञदेवः सत्पथे नियोजयेत्। (यज्ञदेव हमें सत्कर्म सिखायें।) ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥- ३१.१६ ॐ यज्ञपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
(५) सूर्य- फिर दोनों हाथ ऊपर उठाकर सूर्यदेव का आवाहन करें- सूत्र दुहरायें-
ॐ सवितादेवता तेजस्वितां वर्धयेत्। (सविता हमें तेजस्वी बनायें।) ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥- ३३.४३ ॐ सूर्याय नमः। आवाहयामि स्थापयामि, ध्यायामि। ॥ यज्ञोपवीतधारण॥ ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ -- पार०गृ०सू० २.२.११
॥ जीर्णोपवीत विसर्जन॥
ॐ एतावद्दिन पर्यन्तं, ब्रह्म त्वं धारितं मया। जीर्णत्वात्ते परित्यागो, गच्छ सूत्र यथासुखम्॥ ॥ पञ्चगव्य पान॥
क्रिया और भावना- पञ्चगव्य की कटोरी बायें हाथ में लें और दाहिने हाथ की मध्यमा अँगुली से मन्त्रोच्चार के साथ उसे घोलें- चलाएँ। भावना करें कि इन गौ द्रव्यों को दिव्य चेतना से अभिमन्त्रित कर रहे हैं।
ॐ गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्प्पिः कुशोदकम्। निर्दिष्टं पञ्चगव्यं तु पवित्रं मुनिपुङ्गवैः॥
कटोरी दाहिने हाथ में लेकर मन्त्रोच्चार के साथ पान करें। भावना करें कि दिव्य संस्कारों से पापों की जड़ पर प्रहार और पुण्यों को उभारने का क्रम आरम्भ हो रहा है, जो निष्ठापूर्वक चलाया जाता रहेगा।
ॐ यत्त्वगस्थिगतं पापं देहे तिष्ठति मामके। प्राशनात्पञ्चगव्यस्य दहत्वग्निरिवेन्धनम्॥ ॥ मेखला- कोपीन धारण॥ क्रिया और भावना- मेखला- कोपीन हाथों के सम्पुट में ली जाए। मन्त्रोच्चार के साथ भावना की जाए कि तत्परता, सक्रियता तथा संयमशीलता का वरण किया जा रहा है। मन्त्र पूरा होने पर उसे कमर में बाँध लें। सूत्र दुहरायें- ॐ संयमशीलः तत्परश्च भविष्यामि। (संयमशील और तत्पर रहेंगे।)
ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमाना वर्णं पवित्रं पुनतीमऽआगात्। प्राणापानाभ्यां बलमादधाना स्वसा देवी सुभगा मेखलेयम्॥ -पागृसू० २.२.८ धर्मदण्डधारण- दण्ड दोनों हाथों से पकड़ें। भूमि के समानान्तर हृदय की सीध में स्थिर करें। मन्त्र पूरा होने पर मस्तक से लगाएँ और दाहिनी ओर रख लें। भावना करें कि धर्म चेतना को जीवन्त, व्यवस्थित एवं अनुशासित रखने का महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व स्वीकार किया जा रहा है। इसके साथ दिव्य शक्तियाँ ब्राह्मणत्व और ब्रह्मवर्चस प्रदान कर रही हैं। सूत्र दुहरायें-
ॐ अनुशासनानि पालयिष्यामि। (गुरु द्वारा निर्धारित अनुशासनों का पालन करेंगे।) ॐ यो मे दण्डः परापत द्वैैहायसोऽधिभूम्याम्। तमहं पुनराददऽआयुषे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय॥ -पार०गृ०सू० २.२.१२ पीतवस्त्रधारण- दोनों हाथों की हथेलियाँ सीधी करके दुपट्टा लें। मन्त्र के साथ ध्यान करें कि सत् शक्तियों से पवित्रता, शौर्य और त्याग का संस्कार प्राप्त कर रहे हैं। मन्त्र पूरा होने पर दुपट्टा कन्धों पर धारण कर लें।
सूत्र दुहरायें-
ॐ अहन्तां उत्सृज्य विनम्रतां धारयिष्ये। (अहन्ता को त्यागकर विनम्रता अपनाऊँगा) ॐ सूर्यो मे चक्षुर्वातः प्राणो३न्तरिक्षमात्मा पृथिवी शरीरम्। अस्तृतो नामाहमयमस्मि स आत्मानं नि दधे द्यावापृथिवीभ्यां गोपीथाय॥ -अथर्ववेद ५.९.७ ऋषिपूजन- हाथ में पुष्प- अक्षत लेकर ऋषियों का ध्यान कर मन्त्रोच्चारण के साथ भावना करें कि हम भी उन्हीं की परिपाटी के व्यक्ति हैं, उनके गौरव के अनुरूप बनने के लिए अपने पुरुषार्थ के साथ उनके अनुग्रह की प्रार्थना कर रहे हैं, उसे पाकर अन्याय उन्मूलन के मोर्चे को सुदृढ़ बनायेंगे।
सूत्र दुहरायें- ॐ सामान्यजनमिव निर्वाहं करिष्यामि। (औसत नागरिक के स्तर के सहारे देवत्व की ओर बढ़ूँगा।)
ॐ इमावेव गोतमभरद्वाजौ, अयमेव गोतमोऽयं भरद्वाजऽ, इमावेव विश्वामित्रजमदग्नी, अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निः, इमावेव वसिष्ठकश्यपौ, अयमेव वसिष्ठोऽयं कश्यपो, वागेवात्रिर्वाचा ह्यन्नमद्यतेऽत्तिः, हवै नामैतद्यदत्रिरिति, सर्वस्यात्ता भवति, सर्वमस्यान्नं भवति य एवं वेद।- बृह०उ० २.२.४ ॐ सप्तऋषीनभ्यावर्ते। ते मे द्रविणं यच्छन्तु ते मे ब्राह्मणवर्चसम्। ॐ ऋषिभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि,ध्यायामि। -- अथर्व० १०.५.३९
वेदपूजन- पूजन सामग्री हाथ में लें। मन्त्रोच्चार के साथ भावना करें कि ज्ञान की सनातन धारा के वर्तमान युग के अनुरूप प्रवाह को अपने लिए तथा सारे समाज के लिए पतित पावनी माँ गङ्गा की तरह प्रवाहित करने के लिए अपनी भूमिका निर्धारित की जा रही है। अज्ञान का निवारण इसी से सम्भव होगा।
सूत्र दुहरायें-
ॐ ज्ञानक्रान्तेः अनुगमनं करिष्यामि। (विचार क्रान्ति का अनुगमन करूँगा।) ॐ वेदोसि येन त्वं देव वेद देवेभ्यो वेदोभवस्तेन मह्यं वेदो भूयाः।
देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित। मनसस्पतऽ इमं देव यज्ञ * स्वाहा वाते धाः॥
ॐ वेदपुरुषाय नमः।
आवाहयामि, स्थापयामि,ध्यायामि। -२.२१
यज्ञपुरुष पूजन- पूजन सामग्री हाथ में लें। मन्त्र के साथ भावना करें कि धर्म और देवत्व के प्रमुख आधार को अङ्गीकार करते हुए, उसे पुष्ट और प्रभावशाली बनाया जा रहा है।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ ॐ यज्ञपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -३१.१६ व्रत धारण- व्रतशीलता के लिए कुछ देवशक्तियों को साक्षी करके व्रतशील बनने की घोषणा की जाती है। इन्हें अपना प्रेरक, निरीक्षक और नियंत्रक बनाना पड़ता है। सम्बन्धित देवशक्तियों की प्रेरणाएँ इस प्रकार हैं-
अग्निदेव- ऊर्जा के प्रतीक। ऊर्जा, स्फुरणा, गर्मी, प्रकाश से भरे- पूरे रहने, अन्यों तक उसे फैलाने, दूसरों को अपने जैसा बनाने, ऊर्ध्वगामी- आदर्शनिष्ठ रहने, यज्ञीय चेतना के वाहन बनने की प्रेरणा के स्रोत। वायुदेव- स्वयं प्राणरूप, किन्तु बिना अहङ्कार सबके पास स्वयं पहुँचते हैं। कोई स्थान खाली नहीं छोड़ते, निरन्तर गतिशील। सुगन्धित और मेघों जैसे परोपकारी तत्त्वों के विस्तारक सहायक। सूर्यदेव- जीवनी शक्ति के निर्झर, तमोनिवारक, जागृति के प्रतीक, पृथ्वी को सन्तुलन और प्राण- अनुदान देने वाले, स्वयं प्रकाशित, सविता देवता। चन्द्रदेव- स्वप्रकाशित नहीं, पर सूर्य का ताप स्वयं सहन करके शीतल प्रकाश जगती पर फैलाने वाले, तप अपने हिस्से में- उपलब्धियाँ सबके लिए। इन्द्रदेव- व्रतपति देवों में प्रमुख, देव प्रवृत्तियों- शक्तियों को सङ्गठित- सशक्त बनाये रखने के लिए सतत जागरूक, हजार आँखों से सतर्क रहने की प्रेरणा देने वाले।
क्रिया और भावना- हाथ में क्रमशः अक्षत- पुष्प लेकर व्रत धारण का सूत्र दुहराकर देवों की साक्षी में उन्हें नमन करते हुए हर बार पूजा वेदी पर चढ़ा दिया जाये-
सूत्र-
(क) ॐ आयुष्यार्धं नियोजयिष्ये। (आधा जीवन परमार्थ में लगाऊँगा।) (ख) ॐ संयमादर्शयुतं सुसंस्कृतं व्यक्तित्वं रचयिष्ये। (संयमी, आदर्शयुक्त एवं सुसंस्कृत व्यक्तित्व बनाऊँगा।) (ग) ॐ युगधर्मणे सततं चरिष्यामि। (युग धर्म के परिपालन के लिए सतत गतिशील रहूँगा।) (घ) ॐ विश्वपरिवारसदस्यः भविष्यामि। (विशाल विश्वपरिवार का सदस्य बनूँगा।) (ङ) ॐ सत्प्रवृत्तिसंवर्धनाय दुष्प्रवृत्युन्मूलनाय पुरुषार्थं नियोजयिष्ये। (सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन में अपना पुरुषार्थ नियोजित रहेगा।)
परिव्राजक मन्त्रोच्चार के समय दोनों हाथ ऊपर उठाकर रखें। भावना करें कि हाथ उठाकर व्रतशीलता की साहसिक घोषणा कर रहे हैं, साथ ही सत्प्रवृत्तियों को अपना हाथ थमा रहे हैं। वे हमें मार्गदर्शक की तरह प्रेरणा एवं सहारा देती रहेंगी। एक देवता का मन्त्र पूरा होने पर हाथ जोड़कर नमस्कार करें, फिर पहले जैसी मुद्रा बना लें।
ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ अग्नये नमः॥ १॥ ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ वायवे नमः॥ २॥ ॐ सूर्य व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ सूर्याय नमः॥ ३॥ ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ चन्द्राय नमः॥ ४॥ ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्। तेनर्ध्यासमिदमहं अनृतात् सत्यमुपैमि॥ ॐ इन्द्राय नमः॥ ५॥ -- मं.ब्रा०१.६.९
अभिषेक- निर्धारित मात्रा में कन्याएँ या संस्कारवान् व्यक्ति कलश लेकर मन्त्रोच्चार के साथ साधकों का अभिषेक करें। भावना करें कि ईश्वरीय ऋषिकल्प जीवन के अनुरूप स्थापनाओं, बीजरूप प्रवृत्तियों को सींचा जा रहा है, समय पाकर वे फूलें- फलेंगी। जीवन के श्रेष्ठतम रस में भागीदारी के लिए परमात्म सत्ता से प्रार्थना की जा रही है, अनुदानों को धारण किया जा रहा है।
ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवः ता नऽ ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे॥ ॐ यो वः शिवतमो रसः तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः॥ॐ तस्माऽ अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः॥
अभिषेक के बाद अग्निस्थापना करके विधिवत् यज्ञ किया जाए। स्विष्टकृत् के पूर्व सात विशेष आहुतियाँ दी जाएँ। भावना की जाए कि युग देवता एक विशाल यज्ञ चला रहे हैं। उस यज्ञ में समिधा, द्रव्य बनकर हम भी सम्मिलित हो रहे हैं, उनसे जुड़कर हमारा जीवन धन्य हो रहा है।
ॐ ब्रह्म होता ब्रह्म यज्ञा ब्रह्मणा स्वरवो मिताः।
अध्वर्युर्ब्रह्मणो जातो ब्रह्मणोऽन्तर्हितं हविः स्वाहा॥ इदं अग्नये इदं न मम। -अथर्व० १९.४२.१ प्रव्रज्या- परिव्राजक का काम है चलते रहना। रुके नहीं, लक्ष्य की ओर बराबर चलता रहे, एक सीमा में न बँधे, जन- जन तक अपने अपनत्व और पुरुषार्थ को फैलाए। जो परिव्राजक लोकमङ्गल के लिए सङ्कीर्णता के सीमा बन्धन तोड़कर गतिशील नहीं होता, सुख- सुविधा छोड़कर तपस्वी जीवन नहीं अपनाता, वह पाप का भागीदार होता है। यज्ञ की चार परिक्रमाएँ चरैवेति मन्त्रों के साथ करें। भावना करें कि हम सच्चे परिव्राजक बनकर गतिशीलों को मिलने वाले दिव्य अनुदानों के उपयुक्त सत्पात्र बन रहे हैं। ॐ नाना श्रान्ताय श्रीरस्ति, इति रोहित शुश्रुम। पापो नृषद्वरो जन, इन्द्र इच्चरतः सखा॥ चरैवेति चरैवेति। ॐ पुष्पिण्यौ चरतो जङ्घे, भूष्णुरात्मा फलग्रहिः। शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः, श्रमेण प्रपथे हताः॥ चरैवेति चरैवेति। ॐ आस्ते भग आसीनस्य, ऊर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः। शेते निपद्यमानस्य, चराति चरतो भगः॥ चरैवेति चरैवेति। ॐ कलिः शयानो भवति, सञ्जिहानस्तु द्वापरः। उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं सम्पद्यते चरन्॥ चरैवेति चरैवेति। ॐ चरन् वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुमुदुम्बरम्। सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन्॥ चरैवेति चरैवेति। -ऐतरेय ब्राह्मण ७.१५
इसके बाद यज्ञ समापन पूर्णाहुति आदि उपचार कराये जाएँ। अन्त में मन्त्रों के साथ पुष्प अक्षत की वर्षा करें, शुभ कामना- आशीर्वाद आदि दें।