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Books - कर्मकांड प्रदीप

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विवाह दिवस संस्कार

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क्यों और कैसे ??
नया उल्लास नया आरम्भ- पति- पत्नी को नये वर्ष में नये उल्लास एवं नये आनन्द से परिपूर्ण जीवन बनाने- बिताने की नई प्रेरणा के साथ अपना नया कार्यक्रम बनाना चाहिए। अब तक वैवाहिक जीवन अस्त- व्यस्त रहा हो, तो रहा हो; पर अब अगले वर्ष के लिए यह प्रेरणा लेनी चाहिए, ऐसी योजना बनानी चाहिए कि वह अधिकाधिक उत्कृष्ट एवं आनन्ददायक हो। उस दिन को अधिक मनोरञ्जक बनाने के लिए छुट्टी के दिन के रूप में मनोरञ्जक कार्यक्रम के साथ बिताने की व्यवस्था बन सके, तो वैसा भी करना चाहिए। केवल कर्मकाण्ड की दृष्टि से ही नहीं, भावना- उल्लास और उत्साह की दृष्टि से भी विवाह दिन की अभिव्यक्तियों को नवीनीकरण के रूप में मना सकें, ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए।                                      
यह तथ्य ध्यान में रखें- गृहस्थ एक प्रकार का प्रजातन्त्र है, जिसमें तानाशाही की गुञ्जाइश नहीं, दोनों को एक- दूसरे को समझना, सहना और निबाहना होगा। दोनों में से जो हुक्म चलाना भर जानता है, अपना पूर्ण आज्ञानुवर्ती बनाना चाहता है, वह गृह- शान्ति में आग लगाता है। दो मनुष्य अलग- अलग प्रकृति के ही होते और रहते हैं, उनका पूर्णतया एक में घुल- मिल जाना सम्भव नहीं। जिनमें अधिक सामञ्जस्य और कम मतभेद दिखाई पड़ता हो, समझना चाहिए कि वे सद्गृहस्थ हैं। मतभेद और प्रकृति भेद का पूर्णतया मिट सकना तो कठिन है। सामान्य स्थिति में कुछ न कुछ विभेद बना ही रहता है, इसे जो लोग शान्ति और सहिष्णुता के साथ सहन कर लेते हैं, वे समन्वयवादी व्यक्ति ही गृहस्थ का आनन्द ले पाते हैं।
भूलना न चाहिए कि हर व्यक्ति अपना मान चाहता है। दूसरे का तिरस्कार कर उसे सुधारने की आशा नहीं की जा सकती। अपमान से चिढ़ा हुआ व्यक्ति भीतर ही भीतर क्षुब्ध रहता है। उसकी शक्तियाँ रचनात्मक दिशा में नहीं, विघटनात्मक दिशा में लगती हैं। पति या पत्नी में से कोई भी गृह व्यवस्था के बारे में उपेक्षा दिखाने लगे, तो उसका परिणाम आर्थिक एवं भावनात्मक क्षेत्रों में विघटनात्मक ही होता है। दोनों के बीच यह समझौता रहना चाहिए कि यदि किसी कारणवश एक को क्रोध आ जाए, तो दूसरा तब तक चुप रहेगा, जब तक कि दूसरे का क्रोध शान्त न हो जाए। दोनों पक्षों का क्रोधपूर्वक उत्तर- प्रत्युत्तर अनिष्टकर परिणाम ही प्रस्तुत करता है। इन तथ्यों को दोनों ही ध्यान में रखें।
व्रत धारण की आवश्यकता- जिस प्रकार जन्मदिन के अवसर पर कोई बुराई छोड़ने और अच्छाई अपनाने के सम्बन्ध में प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं, उसी तरह विवाह दिवस के उपलक्ष में पतिव्रत और पत्नीव्रत को परिपुष्ट करने वाले छोटे- छोटे नियमों को पालन करने की कम से कम एक- एक प्रतिज्ञा इस अवसर पर लेनी चाहिए। परस्पर 'आप या तुम' शब्द का उपयोग करना 'तू' का अशिष्ट एवं लघुता प्रकट करने वाला सम्बोधन  न करना जैसी प्रतिज्ञा तो आसानी से ली जा सकती है।
पति द्वारा इस प्रकार की प्रतिज्ञाएँ ली जा सकती हैं- जैसे-
१. कटुवचन या गाली आदि का प्रयोग न करना।
२. कोई दोष या भूल हो, तो उसे एकान्त में ही बताना- समझाना, बाहर के लोगों के सामने उसकी तनिक भी चर्चा न करना।
३. युवती- स्त्रियों के साथ अकेले में बात न करना।
४. पत्नी पर सन्तानोत्पादन का कम से कम भार लादना।
५. उसे पढ़ाने के लिए कुछ नियमित व्यवस्था बनाना।
६. खर्च का बजट पत्नी की सलाह से बनाना और पैसे पर उसका प्रभुत्व रखना।
७. गृह व्यवस्था में पत्नी का हाथ बँटाना।
८. उसके सद्गुणों की समय- समय पर प्रशंसा करना।
९. बच्चों की देखभाल, साज- सँभाल, शिक्षा- दीक्षा पर समुचित ध्यान देकर पत्नी का काम सरल करना।
१०.पर्दा का प्रतिबन्ध न लगाकर उसे अनुभवी- स्वावलम्बी होने की दिशा में बढ़ने देना।
११.पत्नी की आवश्यकताओं, सुविधाओं पर समुचित ध्यान देना आदि।
 पत्नी द्वारा भी इसी प्रकार की प्रतिज्ञाएँ की जा सकती हैं- जैसे-
१. छोटी- छोटी बातों पर कुढ़ने, झल्लाने या रूठने की आदत छोड़ना।
२. बच्चों से कटु शब्द कहना, गाली देना या मारना- पीटना बन्द करना।
३. सास, ननद, जिठानी आदि बड़ों को कटु शब्दों में उत्तर न देना।
४. हँसते- मुस्कराते रहने और सहन कर लेने की आदत डालना, परिश्रम से जी न चुराना, आलस्य छोड़ना।
५. साबुन, सुई, बुहारी इन तीनों को दूर न जाने देना, सफाईऔर मरम्मत की ओर पूरा ध्यान रखना।
६. उच्छृङ्खल फैशन बनाने में पैसा या समय तनिक भी खर्च न करना।
७. पति से छिपा कर कोई काम न करना।
८. अपनी शिक्षा- योग्यता बढ़ाने के लिए नित्य कुछ समय निकालना।
९. पति को समाज सेवा एवं लोकहित के कार्यों में भाग लेने से रोकना नहीं, वरन् प्रोत्साहित करना।
१०. स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने में उपेक्षा न बरतना।
११. घर में पूजा का वातावरण बनाये रखना, भगवान् की पूजा, आरती और भोग का नित्य क्रम रखना।
१२. पर्दा के बेकार बन्धन की उपेक्षा करना।
१३. पति, सास आदि के नित्य चरण स्पर्श करना। आदि- आदि।
हर दाम्पत्य जीवन की अपनी- अपनी समस्याएँ होती हैं। अपनी कमजोरियों, भूलों, दुर्बलताओं और आवश्यकताओं को वे स्वयं अधिक अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए उन्हें स्वयं ही यह सोचना चाहिए कि किन बुराइयों- कमियों को उन्हें दूर करना है और किन अच्छाइयों को अभ्यास में लाना है। उपस्थित लोगों के सामने अपने सङ्कल्प की घोषणा भी करनी चाहिए; ताकि उन्हें उसके पालने में लोक- लाज का ध्यान रहे, साथ ही जो उपस्थित हैं, उन्हें भी वैसी प्रतिज्ञाएँ करने के लिए प्रोत्साहन मिले।
संस्कार क्रम-
विवाह दिवसोत्सव, विवाह संस्कार के संक्षिप्त संस्करण के रूप में मनाया जाता है। उसी कर्मकाण्ड प्रक्रिया का सहारा लेकर उसे नीचे लिखे क्रम से कराया जाना चाहिए- मङ्गलाचरण, षट्कर्म, कलश पूजन आदि कृत्य सम्पन्न करके देवशक्तियों और सत्पुरुषों की साक्षी में सङ्कल्प करें।
सङ्कल्प
............नामाऽहं दाम्पत्य जीवनस्य पवित्रता- मर्यादयोः
 रक्षणाय त्रुटीनाञ्च प्रायश्चित्त करणाय उज्ज्वलभविष्यत् हेतवे स्व उत्तरदायित्व पालनाय सङ्कल्पं अहं करिष्ये।
सङ्कल्प के बाद समय की सीमा का ध्यान रखते हुए देवपूजन, स्वस्तिवाचन आदि क्रम विस्तृत या संक्षिप्त रूप से करायें। सामान्य क्रम पूरा हो जाने पर विवाह पद्धति के मन्त्रों का प्रयोग करते हुए नीचे लिखे क्रम से निर्धारित विशेष उपचार संक्षिप्त व्याख्या के साथ कराये जाएँ।
१. परस्पर उपहार- सूत्र दुहरायें-
ॐ अधिकार अपेक्षया कर्त्तव्यं प्रधानं मनिष्ये।
(कर्त्तव्यों को महत्त्व देंगे- अधिकारों की उपेक्षा करेंगे।)
ॐ परिधास्यै यशोधास्यै, दीर्घायुत्वाय जरदष्टिरस्मि।
शतं च जीवामि शरदः, पुरूचीरायस्पोषमभि संव्ययिष्ये॥

२. माल्यार्पण-
ॐ यशसा माद्यावापृथिवी यशसेन्द्रा बृहस्पती।
यशो भगश्च मा विदद्यशो मा प्रतिपद्यताम्॥
-- पार०गृ०सू० २.६.२१, मा०गृ०सू० १.९.२७

३. ग्रन्थिबन्धन- सूत्र दुहरायें-
ॐ द्विशरीरं एकप्राणं भविष्यामि।
(हम दो शरीर एक प्राण होकर रहेंगे।)
ॐ समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ।
सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ॥
-ऋ०१०.८५.४७, पार०गृ०सू० १.४.१४

४.पाणिग्रहण- सूत्र दुहरायें-
ॐ परस्परं सम्भावयिष्यामि।
(एक- दूसरे को सम्मान देंगे और सुयोग्य बनायेंगे।)
ॐ यदैषि मनसा दूरं दिशोऽनुपवमानो वा।
हिरण्यपर्णो वै कर्णः स त्वा मन्मनसां करोतु असौ॥
-- पा०गृ०सू०१.४.१५

५. आश्वास्तना- सूत्र दुहरायें-
ॐ कुटुम्बं आदर्श विधास्यामि।
(परिवार के वातावरण को आदर्शमय बनायेंगे।)
ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु।
मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्॥
-- पार०गृ०सू० १.८.८
६- आहुति- यज्ञ करें तो अग्निस्थापना, गायत्री मन्त्राहुति, महामृत्युञ्जय मन्त्राहुति एवं प्रायश्चित्ताहुति करके पूर्णाहुति करें। यदि यज्ञ करने की स्थिति न हो, तो दीपयज्ञ करें। पाँच दीप सजाकर रखें, गायत्री मन्त्र बोलते हुए उन्हें प्रकाशित करें। प्रायश्चित्त आहुति के प्रथम मन्त्र के साथ पति- पत्नी दीपों की ओर अपनी हथेलियाँ करें, जैसे घृत अवघ्राण के समय करते हैं।
७. एकीकरण- पति- पत्नी एक- एक दीपक उठाएँ। मन्त्र पाठ के साथ ज्योतियों को मिलाकर एक ज्योति करें। भावना करें कि हम अपने व्यक्तित्वों को एक दूसरे के साथ इसी प्रकार एकाकार करने का प्रयास करेंगे। दैवी अनुग्रह और स्वजनों के सद्भाव उसमें सहायक होंगे। सूत्र दुहरायें-
ॐ द्विशरीरं एकप्राणं भविष्यामि।
(हम दो शरीर एक प्राण होकर रहेंगे।)
भावना करें कि हम दो शरीर होते हुए भी भावनात्मक रूप से एक बने रहेंगे। दो वर्तिकाओं को एक में मिलायें।
 ॐ समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥ -अथर्व० ६.६४.३
फिर सभी लोग मङ्गल मन्त्र बोलते हुए पुष्पवृष्टि करें, शुभकामना- आशीर्वाद दें। विसर्जन, जयघोष एवं प्रसाद वितरण के साथ कार्यक्रम का समापन किया जाए।
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