
बुद्धिसंगत धर्म ही श्रेष्ठ है
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धर्म का विषय सदा से विवादग्रस्त रहा है। प्रत्येक धर्मनेता या प्रचारक अपने सिद्धांतों और आदर्शों को सर्वश्रेष्ठ मानता है। इसके लिए वह प्रायः दूसरे के मतों का खंडन करने लग जाता है। बुद्ध के समय में ऐसी ही स्थिति थी। अब वे 'केस पुत्तिय' नामक ब्राह्मणों के ग्राम में पहुँचे, तो वहाँ 'कालामा' गोत्र के लोगों ने उनसे कहा- "भंते !हमारे ग्राम में कुछ ब्राह्मण श्रमण (साधु) आते हैं, वे अपने मतों का समर्थन करते हैं और दूसरे मतों का खंडन। फिर दूसरे आते हैं, वे अपने सिद्धांतों का समर्थन करते हैं और दूसरों के सिद्धांतों का खंडन। भंते ! हम कैसे जानें कि कौन सही है और कौन गलत है?"
बुद्ध ने कहा- "कालामा भाईयों। संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इसी बात पर केवल इस कारण विश्वास मत करो कि बहुत से लोग उसको मानते हैं। इस कारण विश्वास मत करो कि वह तुम्हारे आचार्यों की कही हुई बात है। इस आधार पर विश्वास मत करो कि वह तुम्हारे धर्मग्रंथों में लिखी हैं। वरन् प्रत्येक बात को अपने व्यक्तिगत अनुभव की कसौटि पर जाँचों। यदि वह तुम्हें अपने तथा औरों के लिए हितकर जान पडे़, तो उसे मान लो। न जान पडे़ तो मत मानो।"
धर्म के निर्णय के विषय में बुद्ध की यह सम्मति बहुत उचित और स्पष्ट है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। यह सत्य है कि साधारण व्यक्ति धार्मिक समस्याओं पर ठीक- ठीक विचार नहीं कर सकते और किसी गुत्थी को सुलझाने के लिए उनको विद्वानों की सहायता ही लेनी पड़ती है। तो भी प्रत्येक विषय में स्वयं विचार करना भी अत्यावश्यक है और यदि कोई बात बुद्धि के विपरीत, तर्क के विरुद्ध जान पडे़ तो उस पर अच्छी तरह विचार- विमर्श किया जाए। केवल शास्त्रार्थ, पंडितों की मान्यता, गुरुजनों के आदेश के आधार पर किसी भी बात को बीना सोचे- विचारे स्वीकार कर लेना अंधविश्वास ही कहा जायेगा।
धर्म के विषय में इस प्रकार का मतभेद कोई नई बात नहीं है। वैदिक- काल और स्मृति- काल में भी भिन्न- भिन्न ऋषियों का मत पृथक्- पृथक् था। वैशेषिक, सांख्य और वेदांत दर्शनों के मतों में परस्पर बहुतअतंर पाया जाता है। शैव और वैष्णव एक- दूसरे के संप्रदायों को सर्वथा अग्राह्य बतलाते हैं। चार्वाक आदि मत वालों ने तो वेदों की खुलकर निंदा की है और उनके रचयिताओं के लिए भांड, धूर्त, निशाचर' आदि अपशब्दों का प्रयोग करने में भी संकोच नहीं किया है। इसलिए किसी भी संप्रदाय के संस्थापक या धर्म- सिद्धांत के प्रचारक के लिए बिना विचारे निर्भ्रांत स्वीकार कर लेना या उनके उपदेशों को आँख बंद करके सत्य मान लेना, कोई प्रशंसा की बात नहीं है। इसलिए अपने गुरुओं, धर्मोंपदेशकों के प्रति सब प्रकार से श्रद्घा- भक्ति रखते हुए भी उनके विचारों को जाँच करके ग्रहण करना बुरा नहीं कहा जा सकता।
बुद्ध ने कहा- "कालामा भाईयों। संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इसी बात पर केवल इस कारण विश्वास मत करो कि बहुत से लोग उसको मानते हैं। इस कारण विश्वास मत करो कि वह तुम्हारे आचार्यों की कही हुई बात है। इस आधार पर विश्वास मत करो कि वह तुम्हारे धर्मग्रंथों में लिखी हैं। वरन् प्रत्येक बात को अपने व्यक्तिगत अनुभव की कसौटि पर जाँचों। यदि वह तुम्हें अपने तथा औरों के लिए हितकर जान पडे़, तो उसे मान लो। न जान पडे़ तो मत मानो।"
धर्म के निर्णय के विषय में बुद्ध की यह सम्मति बहुत उचित और स्पष्ट है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। यह सत्य है कि साधारण व्यक्ति धार्मिक समस्याओं पर ठीक- ठीक विचार नहीं कर सकते और किसी गुत्थी को सुलझाने के लिए उनको विद्वानों की सहायता ही लेनी पड़ती है। तो भी प्रत्येक विषय में स्वयं विचार करना भी अत्यावश्यक है और यदि कोई बात बुद्धि के विपरीत, तर्क के विरुद्ध जान पडे़ तो उस पर अच्छी तरह विचार- विमर्श किया जाए। केवल शास्त्रार्थ, पंडितों की मान्यता, गुरुजनों के आदेश के आधार पर किसी भी बात को बीना सोचे- विचारे स्वीकार कर लेना अंधविश्वास ही कहा जायेगा।
धर्म के विषय में इस प्रकार का मतभेद कोई नई बात नहीं है। वैदिक- काल और स्मृति- काल में भी भिन्न- भिन्न ऋषियों का मत पृथक्- पृथक् था। वैशेषिक, सांख्य और वेदांत दर्शनों के मतों में परस्पर बहुतअतंर पाया जाता है। शैव और वैष्णव एक- दूसरे के संप्रदायों को सर्वथा अग्राह्य बतलाते हैं। चार्वाक आदि मत वालों ने तो वेदों की खुलकर निंदा की है और उनके रचयिताओं के लिए भांड, धूर्त, निशाचर' आदि अपशब्दों का प्रयोग करने में भी संकोच नहीं किया है। इसलिए किसी भी संप्रदाय के संस्थापक या धर्म- सिद्धांत के प्रचारक के लिए बिना विचारे निर्भ्रांत स्वीकार कर लेना या उनके उपदेशों को आँख बंद करके सत्य मान लेना, कोई प्रशंसा की बात नहीं है। इसलिए अपने गुरुओं, धर्मोंपदेशकों के प्रति सब प्रकार से श्रद्घा- भक्ति रखते हुए भी उनके विचारों को जाँच करके ग्रहण करना बुरा नहीं कहा जा सकता।