
बौद्ध धर्म की वृद्धि और ह्रास
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बुद्ध धर्म का प्रचार समस्त देश में और विदेशों में भी इतनी तेजी से बढा़ कि उसे देखकर अधिकांश लोगों को आश्चर्य होने लगा। पर इसका कारण यही था कि उस समय पंडित और पुरोहितों ने अपने स्वार्थ के लिए प्राचीन धर्म को बहुत उलझनपूर्ण और आडंबर वाला बना दिया था। शास्त्रों में तो यह कहा गया है कि, धर्म हृदय की चीज है और मनुष्य को इसका अनुसरण स्वाभाविक रूप से करना चाहिए। पर उस समय के 'धर्म- व्यवसायियों' ने उसे ऐसा रूप दे दिया था कि कोई व्यक्ति अपने मन से स्वतंत्रतापूर्वक कोई धर्मकृत्य कर ही नहीं सकता था। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इन पंडित- पुरोहितों ने अपने को "भगवान् का ऐजेंट' बना लियाथा।और वे कहते थे कि- "हमारे धर्मकृत्य कराए बिना कोई भगवान् को पा ही नहीं सकता।" इस प्रकार वे भगवान् और एक सामान्य व्यक्ति के बीच में बाधास्वरूप बन बैठे थे। उन्होंने यज्ञ और हवन को ही नहीं वरन् पूजा- पाठ, भजन, उपासना, दान, व्रत, तीर्थ सब में कोई न कोई ऐसी शर्त लगा दी थी कि मनुष्य किसी धर्म- कार्य को स्वयं कर सकने में कठिनाई का अनुभव करते थे और उसमें पंडित- पुरोहितों की सहायता लेना आवश्यक था। ये लोग अधिक से अधिक लाभ उठाने के लिए लोगों को तरह- तरह से व्यर्थ की क्रियाओं में फँसाकर परेशान करते थे, इससे लोगों में धर्म के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न होने लग गया।
यह सत्य है कि वेदों और उपनिषदों के धर्म सिद्धांत बहुत ऊँचे थे और बौद्ध धर्म में उनसे बढ़कर ज्ञान- संबंधी कोई बात न थी, पर उस समय वेद और उपनिषदों का प्रचार प्रायः समाप्त हो गया था। सामान्य मनुष्यों की तो क्या बात स्वयं पंडित- पुरोहित भी उनसे अनजान थे। उन्होंने उनकी कुछ बातों को अपने अनुकूल रूप में बदलकर उन्हीं को 'धर्म' का नाम दे दिया था और इसी से धन कमाकर आराम की जिंदगी बिताने लगे थे। यही कारण है कि जब बुद्ध ने प्राचीन ज्ञान- मार्ग की बातों को सीधे और सरल रूप में कहना आरंभ किया और धर्म के मार्ग को प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुलभ बना दिया तो लोग एकाएक उनकी तरफ आकर्षित हो गए। सच पूछा जाए तो उस समय स्वार्थियों ने बाहर से 'धर्म' 'धर्म' पुकारते हुए भीतर ही भीतर, उसे ऐसा खोखला औरविकारग्रस्त कर दिया था कि समाज की आत्मा तमसावृत और पतित हो गई थी और किसी आश्रय के लिए व्याकुल हो रही थी। बुद्ध की शिक्षाओं में उनको प्रकाश की रेखा दिखलाई पडी़ और वह बिना विशेष प्रयत्न के उनके चारों ओर इकट्ठी हो गई। एक नया धर्म अपने आप चल पडा़।
बुद्ध के उपदेश इतने ऊँचे और साथ ही सरल भी थे की विद्वान् और अशिक्षित दोनों को उसमें अपने योग्य तत्त्व की बातें मिल जाती थीं। इसलिए जहाँ शूद्र, कारीगर, स्त्रियाँ उसमें सम्मिलित हुए, वहाँ अनेक विद्वान् प्रतिभाशाली तथा बडी़ पदवी वाले भी उनके अनुयायी बन गए। इन सबके सहयोग से बौद्ध धर्म को शीघ्रतापूर्वक दूर- दूर तक फैलने में बहुत सहायता मिली। इस रहस्य का स्पष्टीकरण करते हुए विन्सेंट स्मिथ नामक प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहास लेखक ने यह मत प्रकट किया है-
"उस समय 'ब्राह्मणों' के बड़प्पन से लोग ऊब गये थे। वे किसी न किसी प्रकार उनसे निस्तार चाहते थे। क्षत्रिय भी हृदय में उनसे बहुत असंतुष्ट थे। इसीलिए जब उन्होंने अपने ही वर्ण के एक महापुरुष को धर्म उपदेश देते देखा तो वे जान- बूझकर उसकी बढ़ती की चेष्टा करने लगे, इसीलिए बिंबिसार, प्रसेनजित जैसे क्षत्रिय नरेश तुरंत ही बुद्ध के समर्थक बन गए।" क्षत्रियों के कर्मकांडी ब्राह्मणों से असंतुष्ट होने का एक कारण यह भी था कि वे राजाओं में यज्ञ की प्रतियोगिता उत्पन्न करके उनकी संपत्ति को स्वयं हड़प लेते थे। इससे राजाओं को आर्थिक कठिनाई उठानी पड़ती थी। जब उन्होंने इस तथ्य को समझ लिया तो वे ब्राह्मणों के विरोधी बन गए।
यह सत्य है कि वेदों और उपनिषदों के धर्म सिद्धांत बहुत ऊँचे थे और बौद्ध धर्म में उनसे बढ़कर ज्ञान- संबंधी कोई बात न थी, पर उस समय वेद और उपनिषदों का प्रचार प्रायः समाप्त हो गया था। सामान्य मनुष्यों की तो क्या बात स्वयं पंडित- पुरोहित भी उनसे अनजान थे। उन्होंने उनकी कुछ बातों को अपने अनुकूल रूप में बदलकर उन्हीं को 'धर्म' का नाम दे दिया था और इसी से धन कमाकर आराम की जिंदगी बिताने लगे थे। यही कारण है कि जब बुद्ध ने प्राचीन ज्ञान- मार्ग की बातों को सीधे और सरल रूप में कहना आरंभ किया और धर्म के मार्ग को प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुलभ बना दिया तो लोग एकाएक उनकी तरफ आकर्षित हो गए। सच पूछा जाए तो उस समय स्वार्थियों ने बाहर से 'धर्म' 'धर्म' पुकारते हुए भीतर ही भीतर, उसे ऐसा खोखला औरविकारग्रस्त कर दिया था कि समाज की आत्मा तमसावृत और पतित हो गई थी और किसी आश्रय के लिए व्याकुल हो रही थी। बुद्ध की शिक्षाओं में उनको प्रकाश की रेखा दिखलाई पडी़ और वह बिना विशेष प्रयत्न के उनके चारों ओर इकट्ठी हो गई। एक नया धर्म अपने आप चल पडा़।
बुद्ध के उपदेश इतने ऊँचे और साथ ही सरल भी थे की विद्वान् और अशिक्षित दोनों को उसमें अपने योग्य तत्त्व की बातें मिल जाती थीं। इसलिए जहाँ शूद्र, कारीगर, स्त्रियाँ उसमें सम्मिलित हुए, वहाँ अनेक विद्वान् प्रतिभाशाली तथा बडी़ पदवी वाले भी उनके अनुयायी बन गए। इन सबके सहयोग से बौद्ध धर्म को शीघ्रतापूर्वक दूर- दूर तक फैलने में बहुत सहायता मिली। इस रहस्य का स्पष्टीकरण करते हुए विन्सेंट स्मिथ नामक प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहास लेखक ने यह मत प्रकट किया है-
"उस समय 'ब्राह्मणों' के बड़प्पन से लोग ऊब गये थे। वे किसी न किसी प्रकार उनसे निस्तार चाहते थे। क्षत्रिय भी हृदय में उनसे बहुत असंतुष्ट थे। इसीलिए जब उन्होंने अपने ही वर्ण के एक महापुरुष को धर्म उपदेश देते देखा तो वे जान- बूझकर उसकी बढ़ती की चेष्टा करने लगे, इसीलिए बिंबिसार, प्रसेनजित जैसे क्षत्रिय नरेश तुरंत ही बुद्ध के समर्थक बन गए।" क्षत्रियों के कर्मकांडी ब्राह्मणों से असंतुष्ट होने का एक कारण यह भी था कि वे राजाओं में यज्ञ की प्रतियोगिता उत्पन्न करके उनकी संपत्ति को स्वयं हड़प लेते थे। इससे राजाओं को आर्थिक कठिनाई उठानी पड़ती थी। जब उन्होंने इस तथ्य को समझ लिया तो वे ब्राह्मणों के विरोधी बन गए।