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Books - महात्मा गौत्तम बुद्ध

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पतन के कारण

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First 15 17 Last
जब तक बौद्ध- धर्म के नेता इन सत्य- नियमों पर चलते रहे, उनकी निरंतर उन्नति होती रही और वह समस्त भारत में ही नहीं- चीन, जापान, स्याम, लंका, अफगानिस्तान और एशिया के पश्चिमी देशों तक फैल गया। अशोक जैसा इतिहास प्रसिद्ध सम्राट् उसमें शामिल हो गया और उसने अपने विशाल- साधन इस कार्य में लगाकर बौद्ध- धर्म को विश्वव्यापी बना दिया। पर जब बौद्धों में भी विकृतियाँ उत्पन्न होने लगीं और उनके 'भिक्षु' अपने आराम और लाभ के लिए वैसे ही काम करने लग गए, जिनके कारण ब्राह्मणों में हीनता आई थी तो वह भी गिरने लग गया।

कुछ विद्वानों के कथनानुसार भारतवर्ष से बौद्ध धर्म के लोप हो जाने का कारण 'ब्रह्मणों का विरोध' ही था। "ब्राह्मणों ने भारत में आरंभ में जो धर्म फैलाया था और संस्कृति का प्रचार किया था। वह इतनी 'सनातन' थी कि कोशिश करने पर भी बौद्ध धर्म उसे पूर्णतया न मिटा सका। अपनी गलती का कुपरिणाम भोगकर ब्राह्मण जब पुनः सँभले तो वे बौद्ध धर्म की बातों को अपने ही शास्त्रों में ढूँढ़कर बतलाने लगे और अपने अनुयायियों को उनका उपदेश देने लगे।"

 बौद्ध- धर्म का मुकाबला करने के लिए हिंदू धर्म के विद्वानों ने प्राचीन कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान- मार्ग और भक्ति- मार्ग का प्रचार करना आरंभ किया। कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य जैसे विद्वानों ने मीमांसा और वेदांत जैसे दर्शनों का प्रतिपादन करके बौद्ध धर्म के तत्त्वज्ञान को दबाया और रामानुज, विष्णु स्वामी आदि वैष्णव सिद्धांत वालों ने भक्ति- मार्ग द्वारा बौद्धों के व्यवहार- धर्म से बढ़कर प्रभावशाली और छोटे से छोटे व्यक्ति को अपने भीतर स्थान देने वाला विधान खोज निकाला। साथ ही अनेक हिंदू राजा भी इन धर्म- प्रचारकों की सहायतार्थ खडे़ हो गए। इस सबका परिणाम यह हुआ कि जिस प्रकार बौद्ध धर्म अकस्मात् बढ़करबडा़ बन गया और देश भर में छा गया, उसी प्रकार जब वह निर्बल पड़ने लगा, तो उसकी जड़ उखड़ते भी देर न लगी। यह एक आश्चर्य की ही बात है कि जो धर्म अभी तक अनेक दूरवर्ती देशों में फैला हुआ था और जिसके अनुयायियों की संख्या अधिकांश अन्य धर्म वालों से अधिक थी वह भारत से इस प्रकार लोप हो गया कि उसका नाम सुनाई पड़ना भी बंद हो गया। लोग बौद्ध धर्म को पूर्ण रूप से एक विदेशी- धर्म ही मानने लगे। पिछले साठ- सत्तर वर्षों से कुछ उदार विचारों के हिंदूओं ने ही उसकी चर्चा करना आरंभ कर दी है और उसके कुछ धर्म- स्थानों का भी पुनरुद्धार किया है।

 इस विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि- किसी भी मत या संप्रदाय का उत्थान सद्गुणों और सच्चाई पर ही निर्भर है। संसार के सभी प्रमुख धर्म लोगों को निम्न स्तर की अवस्था से निकालकर उच्च अवस्था को प्राप्त करने के उद्देश्य से स्थापित किए गए हैं। पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि मजहब आज चाहे जिस दशा में हों पर आरंभ में सबने अपने अनुयायियों को श्रेष्ठ और समयानुकूल मार्ग पर चलाकर उनका कल्याण साधन ही किया था। पर काल- क्रम से सभी में कुछ व्यक्तियों या समुदाय विशेष की स्वार्थपरता के कारण विकार उत्पन्न हुए और तब उनका पतन होने लगा। तब फिर किन्हीं व्यक्तियों के हृदय में अपने धर्म की दुरावस्था का ख्याल आया और वे लोगों को गलत तथा हानिकारक मार्ग से हटाकर धर्म- संस्कार का प्रयत्न करने लगे। बुद्ध भी इस बात को समझते थे और इसलिए यह व्यवस्था कर गये थे कि प्रत्येक सौ वर्ष पश्चात् संसार भर के बौद्ध प्रतिनिधियों की एक बडी़ सभा की जाए और उसमें अपने धर्म तथा धर्मानुयायियों की दशा पर पूर्ण विचार करके जो दोष जान पडे़ उनको दूर किया जाए और नवीन समयोपयोगी नियमों को प्रचलित किया जाए। इस उद्देश्य की सिद्धी के लिए अगर आवश्यक समझा जाए तो पुरानी प्रथाओं और नियमों से कुछ छोटी- मोटी बातों को छोडा़ और बदला जा सकता है। 

बौद्ध धर्माचार्यों द्वारा इसी बुद्धिसंगत व्यवस्था पर चलने और रूढि़वादिता से बचे रहने का यह परिणाम हुआ कि बौद्ध कई सौ वर्ष तक निरंतर बढ़ता रहा और संसार के दूरवर्ती देशों के निवासी आग्रहपूर्वक इस देश में आकर उसकी शिक्षा प्राप्त करके अपने यहाँ उसका प्रचार करते रहे। जीवित और लोक- कल्याण की भावना से अनुप्राणित धर्म का यही लक्षण है कि वह निरर्थक या देश- काल के प्रतिकूल रीति- रिवाजों के पालन का प्राचीनता या परंपरा के नाम पर वह आग्रह नहीं करता। वरन् सदा आत्म- निरीक्षण करता रहता है और किसी कारणवश अपने धर्म में, अपने समाज में अपनी जाति में यदि कोई बुराई, हानिकारक प्रथा- नियम उत्पन्न हो गए हों तो उनको छोड़ने। उनका सुधार करने में आगा- पीछा नहीं करता। इसलिए बुद्ध की सबसे बडी़ शिक्षा यही है कि- मनुष्यों को अपना धार्मिक, सामाजिक आचरण सदैव कल्याणकारी और समयानुकूल नियमों पर आधारित रखना चाहिए। जो समाज, मजहब इस प्रकार अपने दोषों, विकारों को सदैव दूर करते रहते हैं, उनको ही 'जिवित' समझना चाहिए और वे ही संसार में सफलता और उच्च पद प्राप्त करते हैं।

वर्तमान समय में हिंदू धर्म में जो सबसे बडी़ त्रुटि उत्पन्न हो गई है। वह यही है कि इसने आत्म- निरीक्षण की प्रवृत्ति को सर्वथा त्याग दिया है और 'लकीर के फकीर' बने रहने को ही धर्म का एक प्रमुख लक्षण मान लिया है। अधिकांश लोगों का दृष्टिकोण तो ऐसा सीमित हो गया है कि वे किसी अत्यंत साधारण प्रथा- परंपरा को भी, जो इन्हीं सौ- दो सौ वर्षों में किसी कारणवश प्रचलित हो गई है। पर आजकल स्पष्टतः समय के विपरीत और हानिकारक सिद्ध हो रही है, छोड़ना 'धर्म विरुद्ध समझते' हैं। इस समय बाल- विवाह, मृत्युभोज, वैवाहिक अपव्यय, छुआछूत, चार अर्णों के स्थान पर आठ हजार जातियाँ आदि अनेक हानिकारक प्रवृत्तियाँहींदू- समाज में घुस गई हैं, पर जैसे ही उनके सुधार की बात उठाई जाती है, लोग 'धर्म के डूबने की पुकार, मचाने लग जाते हैं बुद्ध भगवान् के उपदेशों पर ध्यान देकर हम इतना समझ सकते है कि- वास्तविक धर्म आत्मोत्थान और चरित्र- निर्माण में है, न कि सामाजिक लौकिक प्रथाओं में। यदि हम इस तथ्य को समझ लें और परंपरा तथा रुढि़यो के नाम पर जो कूडा़- कबाड़ हमारे समाज में भर गया है। उसे साफ कर डालें तो हमारे सब निर्बलताएँ दूर करके प्राचीन काल की तरह हम फिर उन्नति की दौड़ में अन्य जातियों से अग्रगामी बन सकते हैं। 

First 15 17 Last


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