
स्वार्थ त्याग ही साधु का लक्षण है
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सारिपुत्र के सद्गुणों का एक उदाहरण दिया गया है। बुद्ध के संघ में कुछ भिक्षु 'छह वर्गीय' कहलाते थे, जो 'संसार त्यागी' बन जाने पर भी अपने आराम का दूसरों से अधिक ध्यान रखते थे। प्रत्येक पडा़व पर वे सबसे पहले पहुँचकर निवास, स्थान और शय्याओं पर कब्जा कर लेते थे कि- "यह हमारे उपाध्याय के लिए है, यह हमारे आचार्य के लिए है, यह हमारे लिए है।"
एक दिन उन्होंने विहार में सब ठहरने के स्थानो पर कब्जा कर लिया, जिससे सारिपुत्र शय्या न पाकर सारी रात बाहर ही किसी वृक्ष के नीचे बैठे रहे।
रात्रि के कुछ शेष रहने पर बुद्ध ने उठकर खाँसा। सारिपुत्र ने भी खाँसा।
बुध- "वहाँ कौन है?"
"भगवन् ! मैं सारिपुत्र।"
"सारिपुत्र ! तू यहाँ क्यों बैठा है?"
सारिपुत्र ने सारी बात कह सुनाई। भगवान् ने भिक्षु- संघ को संबोधित किया- "भिक्षुओं ! क्या छह वर्गीय भिक्षु सचमुच आगे- आगे जाकर विहार और शय्याएँ दखल कर लेते है?"
"यह सत्य है, भगवन् !"
बुद्ध ने उनको धिक्कारते हुए कहा- "कैसे हैं ये नालायक भिक्षु, जो आगे जाकर विहार और शय्याएँदखल कर लेते हैं। भिक्षुओं ! तुम्हें मालूम है कि प्रथम आसन, प्रथम जल, प्रथम परोसा किसे मिलना चाहिए?"
किसी ने कहा- "भगवन्, जो अत्रिय- कुल से प्रव्रजित हुआ हो।" किसी ने कहा- भगवन्, जो ब्राह्मण- कुल से प्रव्रजित हुआ हो !"
किसी ने कहा- "भगवन् जो गृहपति (वैश्य) कुल से प्रव्रजित हुआ हो।" इसी प्रकार अन्य व्यक्तियों ने सूत्रपाठ करने वाले, विनयधर, धर्म व्याख्याता आदि के नाम बताए।
बुद्ध जी ने धार्मिक- कथा सुनाकर भिक्षुओं को समझाया- "भिक्षुओं ! जातियों, कुल के आधार पर किसी को सम्मान नहीं दिया जा सकता। इसलिए जो पहले प्रव्रजित हुआ था- वही बडा़ है, चाहे वह किसी जाति का हो। इसी नियम के अनुसार आदर- सत्कार, प्रथम आसन, प्रथम जल, प्रथम परोसा- भोजन आदि दिया जाना चाहिए।"
सार्वजनिक संस्थाओं और संगठनों में अनैक्य, फूट, असहयोग आदि का कारण यह छोटे- बडे़ की भावना ही होती है। वास्तव में बडा़ तो वही है, जो ऐसी सामान्य बातों के लिए कभी मनोमालिन्य का भाव नहीं आने देता और परिस्थिति के अनुसार जो कुछ प्राप्त हो जाता हैं, उसी में संतुष्ट रहता है। फिर भी यदि कभी इस संबंध में निर्णय का प्रश्न उपस्थित हो जाए तो उसके लिए बुद्ध का मार्ग- दर्शन अधिकांश में उपयोगी है।
एक दिन उन्होंने विहार में सब ठहरने के स्थानो पर कब्जा कर लिया, जिससे सारिपुत्र शय्या न पाकर सारी रात बाहर ही किसी वृक्ष के नीचे बैठे रहे।
रात्रि के कुछ शेष रहने पर बुद्ध ने उठकर खाँसा। सारिपुत्र ने भी खाँसा।
बुध- "वहाँ कौन है?"
"भगवन् ! मैं सारिपुत्र।"
"सारिपुत्र ! तू यहाँ क्यों बैठा है?"
सारिपुत्र ने सारी बात कह सुनाई। भगवान् ने भिक्षु- संघ को संबोधित किया- "भिक्षुओं ! क्या छह वर्गीय भिक्षु सचमुच आगे- आगे जाकर विहार और शय्याएँ दखल कर लेते है?"
"यह सत्य है, भगवन् !"
बुद्ध ने उनको धिक्कारते हुए कहा- "कैसे हैं ये नालायक भिक्षु, जो आगे जाकर विहार और शय्याएँदखल कर लेते हैं। भिक्षुओं ! तुम्हें मालूम है कि प्रथम आसन, प्रथम जल, प्रथम परोसा किसे मिलना चाहिए?"
किसी ने कहा- "भगवन्, जो अत्रिय- कुल से प्रव्रजित हुआ हो।" किसी ने कहा- भगवन्, जो ब्राह्मण- कुल से प्रव्रजित हुआ हो !"
किसी ने कहा- "भगवन् जो गृहपति (वैश्य) कुल से प्रव्रजित हुआ हो।" इसी प्रकार अन्य व्यक्तियों ने सूत्रपाठ करने वाले, विनयधर, धर्म व्याख्याता आदि के नाम बताए।
बुद्ध जी ने धार्मिक- कथा सुनाकर भिक्षुओं को समझाया- "भिक्षुओं ! जातियों, कुल के आधार पर किसी को सम्मान नहीं दिया जा सकता। इसलिए जो पहले प्रव्रजित हुआ था- वही बडा़ है, चाहे वह किसी जाति का हो। इसी नियम के अनुसार आदर- सत्कार, प्रथम आसन, प्रथम जल, प्रथम परोसा- भोजन आदि दिया जाना चाहिए।"
सार्वजनिक संस्थाओं और संगठनों में अनैक्य, फूट, असहयोग आदि का कारण यह छोटे- बडे़ की भावना ही होती है। वास्तव में बडा़ तो वही है, जो ऐसी सामान्य बातों के लिए कभी मनोमालिन्य का भाव नहीं आने देता और परिस्थिति के अनुसार जो कुछ प्राप्त हो जाता हैं, उसी में संतुष्ट रहता है। फिर भी यदि कभी इस संबंध में निर्णय का प्रश्न उपस्थित हो जाए तो उसके लिए बुद्ध का मार्ग- दर्शन अधिकांश में उपयोगी है।