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Books - महात्मा गौत्तम बुद्ध

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गौतम बुद्ध के सिद्धांत

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सच्चा आत्मबोध प्राप्त कर लेने पर इनका नाम 'बुद्ध' पड़ गया और उन्होंने संसार में उसका प्रचार करके लोगों को कल्याणकारी धर्म की प्रेरणा देने की इच्छा की। इसलिए गया से चलकर वे काशीपुरी में चलें आए, जो उस समय भी विद्या और धर्म चर्चा का एक प्रमुख स्थान थी। यहाँ सारनाथ नामक स्थान में ठहरकर उन्होंने तपस्या करने वाले व्यक्तियों और अन्य जिज्ञासु लोगों को जो उपदेश दिया उसका वर्णन बोद्ध धर्म ग्रंथों में इस प्रकार मिलता है।

(१) जन्म दुःखदायी होता है। बुढा़पा दुःखदायी होता है। बीमारी दुःखदायी होती है। मृत्यु दुःखदायी होती है। वेदना, रोना, चित्त की उदासीनता तथा निराशा ये सब दुःखदायी हैं। बुरी चीजों का संबंध भी दुःख देता है। आदमी जो चाहता है उसका न मिलना भी दुःख देता है। संक्षेप में 'लग्न के पाँचों खंड' जन्म, बुढा़पा, रोग, मृत्यु और अभिलाषा की अपूर्णता दुःखदायक है।

 (२) हे साधुओं ! पीडा़ का कारण इसी 'उदार सत्य' में निहित है। कामना- जिससे दुनिया में फिर जन्म होता है, जिसमें इधर- उधर थोडा़ आनंद मिल जाता है- जैसे भोग की कामना, दुनिया में रहने की कामना आदि भी अंत में दुःखदायी होती है।

 (३) हे साधुओं ! दुःख को दूर करने का उपाय यही है कि कामना को निरंतर संयमित और कम किया जाए। वास्तविक सुख तब तक नहीं मिल सकता, जब तक कि व्यक्ति कामना से स्वतंत्र न हो जाए अर्थात् अनासक्त भावना से संसार के सब कार्य न करने लगे। 

 (४) पीडा़ को दूर करने के आठ उदार सत्य ये हैं- सम्यक् विचार, सम्यक् उद्देश्य, सम्यक् भाषण, सम्यक् कार्य, सम्यक् जीविका, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् चित्त तथा सम्यक् एकाग्रता। सम्यक् का आशय यही है कि- वह बात देश, काल, पात्र के अनुकूल और कल्याणकारी हो। 
           इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए बुद्ध ने 'तीन मूल बातों' को जान लेने की आवश्यकता बतलाई- 

(१) संसार में जो कुछ भी दीख पड़ता है, सब अस्थायी और शीघ्र नष्ट होने वाला है।

(२) जो कुछ दीख पड़ता है उसमें दुःख छिपा हुआ है।

(३) इनमें से किसी में स्थायी आत्मा नहीं है, सब नष्ट होंगे। जब सभी चीजें नष्ट होने वाली हैं, तब इनके फंदे में क्यों फँसा जाए? तपस्या तथा उपवास करने से इनसे छुटकारा नहीं मिल सकता। छुटकारे की जड़ तो मन है। मन ही मूल और महामंत्र है। उसको इन सांसारिक विषयों से खींचकर साफ और निर्मल कर दो, तो मार्ग स्वयं स्पष्ट हो जायेगा। राग और कामना (झूठा प्रेम व लालच) न रहने से तुम्हारे बंधन स्वयं टूट जायेंगे। 
धर्म का सीधा रास्ता यही है कि शुद्ध मन से काम करना, शुद्ध हृदय से बोलना, शुद्ध चित्त रखना।

 कार्य, वचन तथा विचार की शुद्धता के लिए ये दस अज्ञाएँ माननी चाहिए- 
(१) किसी की हत्या न करना 
(२) चोरी न करना 
(३) दुराचार न करना 
(४) झूठ न बोलना 
(५) दूसरों की निंदा न करना 
(६) दूसरों का दोष न निकालना 
(७) अपवित्र भाषण न करना 
(८) लालच न करना 
(९) दूसरों से घृणा न करना 
(१०) अज्ञान से बचना।

भगवान् बुद्ध ने समझाया कि- जो संसार में रहते हुए इन नियमों का पालन करेगा और सबसे प्रेम- भाव रखते हुए भी राग- द्वेष से अपने को पृथक् रखेगा, वह अपने जीवन- काल में और शरीरांत के पश्चात् भी सब प्रकार के अशुभ परिणामों से मुक्त रहेगा। इस बात की कोई आवश्यकता नहीं कि मनुष्य जंगलों में जाकर तपस्या करे और भूख- प्यास, सर्दी- गर्मी आदि का कष्ट सहन करे। मुख्य आवश्यकता इस बात की है कि अपने चित्त को संतुलित रखकर किसी के प्रति किसी प्रकार का दुर्व्यवहार न करे। प्रकट में मीठी बातें करके परोक्ष में दूसरों के अनहित की चेष्टा करना जघन्य कार्य है। इसलिए सच्चा धार्मिक उसी व्यक्ति को कह सकते हैं, जो हृदय में प्राणीमात्र के प्रति सद्भावना रखे और उनकी कल्याण- कामना करे। जो किसी से द्वेष नहीं रखेगा, आवश्यकता पड़ने पर पीडि़तों और अभावग्रस्तों की सेवा- सहायता से मुख नहीं मोडे़गा, कुमार्ग अथवा गर्हित आचरण से बचकर रहेगा, उसे जीवनमुक्त ही समझना चाहिए। ऐसा व्यक्ति कभी भव- बंधन में ग्रसित नहीं हो सकता है।

मगध में 'कस्सप' और 'नादिकस्सप' नाम के दो अत्यंत प्रसिद्ध महात्मा रहते थे, जिनमें से प्रत्येक के यहाँ ५०० शिष्य रहते थे। कुछ समय पश्चात् भ्रमण करते हुए बुद्ध वहाँ पहुँचे और वार्तालाप में इन्होंने महात्माओं को बतलाया कि वे जिस प्रकार तपस्या कर रहे हैं, उससे वास्तविक शांति प्राप्त नहीं हो सकती। जो तपस्या किसी प्रकार के फल की इच्छा रखकर की जाती है, उससे कामना का नाश नहीं होता और बीना कामना के मिटे चित्त की निर्मलता प्राप्त न हो सकेगी। यदि चित्त निर्मल न हुआ तो सभी कुछ व्यर्थ है। उन महात्माओं पर गौतम के उपदेशों का बडा़ प्रभाव पडा़ और वे अपने एक हजार शिष्यों सहित बुद्ध के चेले बन गये। 
           वहाँ से आगे चलकर बुद्ध राजगृह पहँचे, जो उस समय मगध- देश की राजधानी थी और जिसका राजाबिंबिसार पहले से ही इनसे परिचित था। जब उसने सुना कि दोनों कस्सप बंधु बुद्ध जी के शिष्य हो गये हैं तो उसे एकाएक विश्वास नहीं हुआ कि इतने बडे़ महात्मा थोडी़ आयु वाले बुद्ध जी के अनुयायी बन गए हों। इसलिए उसने अपना एक दूत उन महात्माओं के आश्रम में यह जानने को भेजा कि वे बुद्ध के शिष्य बने हैं या बुद्ध ने उनका शिष्यत्त्व स्वीकार किया है? जब दूत ने इस संबंध में जिज्ञासा की तो कस्सप ने कहा- 

निर्मल अकथ अनादि ज्ञान जिसने है पाया। 
उसी ज्योति- भगवान् बुद्ध को गुरु बनाया।। 

  वास्तव में सत्यज्ञान और सत्य व्यवहार की ऐसी महिमा है कि जिसके आधार पर एक बालक भी वृद्धों का गुरु बन सकता है। बुद्ध ने स्वयं भी अवसर पड़ने पर कई बार अपने शिष्यों को यह बतलाया था कि- "बालों के श्वेत हो जाने से कोई पूजनीय और माननीय नहीं हो जाता, वरन् जो ज्ञान- वृद्ध है और तदनुसार आचरण करता है उसी को पूज्य मानना चाहिए।"


बिंबिसार ने बुद्ध का बडा़ स्वागत- सम्मान किया और स्वयं भी उनका शिष्य बन गया। बडे़ शासक के इस प्रकार सहायक बन जाने पर बुद्ध का प्रचार- कार्य तेजी से बढ़ने लगा और अपेक्षाकृत थोडे़ ही समय में उनको उल्लेखनीय सफलता मिल गई। बिंबिसार का उदाहरण देखकर अन्य कई राजा भी बुद्ध के कार्य में सहयोगी बन गए। राजाओं के प्रभाव से अन्य अनेक छोटे- बडे़ व्यक्ति इस कार्य में भाग लेने गए। और बुद्ध के जीवनकाल में ही उनका धर्म देशव्यापी बन गया। यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात थी, क्योंकि अधिकांश महापुरुषों के जीवनकाल में उनका विरोध ही अधिक हुआ है और उनके सिद्धांतों का प्रचार प्रायः उनके तिरोधान के पश्चात् हुआ। गौतम बुद्ध के साथ ही महावीर स्वामी ने, जो बिहार के ही एक राजपुत्र थे, जैन धर्म का प्रचार आरंभ किया था। वे तपस्या और त्याग की दृष्टि से बुद्ध से भी अधिक बढे़- चढे़ थे, उनका सिद्धांत भी दार्शनिक दृष्टि से बहुत उच्चकोटि का था, पर फिर भी उनको अधिक सफलता नहीं मिल सकी और आज भी बौद्धों की तुलना जैनियों की संख्या नगण्य ही है। कारण यहीं था कि बडे़ तपस्वी और त्यागी होने पर भी महावीर स्वामी बुद्ध के समान व्यावहारिक नहीं थे और उनकी तरह समयानुकूल परिवर्तन करके अपने कार्य को निरंतर अग्रसर न कर सके। बुद्ध की व्यावहारिक और समन्वय कर सकने वाली बुद्धि सभी धर्म प्रचारकों के लिए अनुकरणीय है। यदि वे कट्टरता के बजाय उदारता, समझौता, समन्वय की भावना से काम लें तो निस्संदेह अपना और दूसरों का कहीं अधिक हित साधन कर सकेंगे। 


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