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Books - प्रज्ञा पुराण भाग-3

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॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-4

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सहिष्णुतां समाश्रित्य मैत्री निर्वाह्यते सदा। संसारे द्वौ नरी नैव प्रकृत्या साम्यतां गतौ॥४६॥ स्वेच्छया न बलात्तत्र बाध्यं कर्तुं कमप्यहो। शक्यते संकटोऽभ्येति महाँस्तत्र बलाद्यदि॥४७॥ कार्यते कार्यमेषोऽत्र संकटञ्च तथाविध:। उदेत्युग्नो व्यथादायी कार्यानुत्पत्तितोऽपि यः॥४८॥ अवसरो नैव दातव्यो मतभेदोदयाय च। आगतायां स्थितावेवं सहमानैर्विधीयताम्॥४९। कार्यंत् नारीव्रतं तत्र पातिव्रत्यं नरोऽपि च। कुर्यात् पत्नी व्रतं दिव्यं निष्ठातो जीवनं निजम्॥५०॥
भावार्थ-सहिष्णुता के सहारे ही मैत्री का निर्वाह होता है। संसार में कोई भी दो एक जैसी प्रकृति के नहीं होते, फिर भी बलपूर्वक किसी की अपनी मर्जी पर चलने के लिए बाधित भी तो नहीं किया जा सकता। इस तरह काम करा लेने पर काम न होने से भी अधिक व्यधित करने वाला बड़ा संकट उत्पत्र होता है। अस्तु मतभेदों को पनपने का अवसर ही न दिया जाय यदि ऐसी स्थिति आप भी तो उन्हें सहन करते हुए काम चलाया जाय। नारी पतिव्रत धर्म का एवं नर पत्नीव्रत धर्म का निष्ठापूर्वक निर्वाह करे-यही दैवी जीवर है॥४६-५०॥
व्याख्या-पारस्परिक सौजन्य के सहारे ही दो साथियों की मैत्री निभती है। जिनके जीवन भर के लिए एक गठबंधन में बाँध दिया गया है उन्हें तो सहनशीलता का अभ्यास और भी अच्छी तरह करना चाहिए । स्वभाव दो व्यक्तियों के एक जैसे होते तो नहीं, पर समझा-बुझाकर, तालमेल बिठाकर ऐसी रीति-नीति बनाई जा सकती है जिरसे दो व्यक्तियों के आपस में टकराने की स्थिति न आए। पारस्परिक मतभेद पनपने एवं कोई एक पक्ष भी यदि सामयिक रूप से उन्हें अधिक न बढ़ने देने के लिए संकल्पित है, तो कालांतर में वे स्वयमेव तिरोहित हो जाते हैं । जब वस्तुस्थिति का पता चलता है तब लगता है, उस समय की मनःस्थिति एवं तद्जन्य आवेश कितना निरर्थक एवं तिल को ताड़ रूप में बनाया गया है ।
एक दूसरे के लिए एकनिष्ठ भाव से समर्पित होकर यदि संभव हो सके, तो गृहस्थ जीवन स्वर्ग से भी बढ़कर है मात्र पत्नी के लिए पति परायण होना ही नहीं, पति के लिए पत्नी के प्रति उतनी ही कर्त्तव्यनिष्ठा चिंतन एवं व्यवहार में होना जरूरी है तभी दोनों का गठबंधन सार्थक है ।
हर स्थिति में प्रसन्न 
पत्नी भिन्न स्वभाव की हो तो क्या? रीति-नीति अपनाकर जीवन सुखपूर्वक जिया जा सकता है, इसकी साक्षी तीन संतों के जीवन से मिलती है।
संत एकनाथ जी श्री विट्ठल जी के मंदिर में दर्शनार्थ गए । उनकी धर्मपत्नी बड़ी सुलक्षिणी सुयोग्य और सत्कार्यों में सहयोग देने वाली थी । उन्होंने भगवान् का आभार मानते हुए कहा-"हे कृपानिधान । आपने मुझे स्त्री संग के नाम पर सत्संग प्रदान किया। आपका बड़ा उपकार है मुझ पर ।"
संत तुकाराम की पत्नी बड़ी कर्कश थी। किसी भी सत्कार्य में उनकी रुचि नहीं थी। आए दिन तुकाराम को परेशान किया करती थी । उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की-"हे कृपानिधान। आपने मुझे घर की आसक्ति से बचाने के लिए स्थायी व्यवस्था कर दी । पत्नी के रूप में अंकुश लगा दिया, ताकि मेरा मन राग में, मोह में न उलझ जाये । आपकी बड़ी कृपा ।"
नरसी मेहता की पत्नी अल्पायु में ही चल बसीं । उन्होंने कहा-"भलुथयुं भांगी जंजाल, सुखे भजी शुं श्री गोपाल ।" अर्थात अच्छा हुआ कुटुंब का झंझट अपने आप ही घट गया, पूरे मन से श्री गोपाल का भजन कर सकूँगा ।
सत्पुरुष हर परिस्थिति को अपने हित में प्रयुक्त करने में समर्थ होते है ।
दोनों एक अपने-अपने पूर्वाग्रह
एक बार विनोबा जी पदयात्रा करते हुए एक छोटे से कस्बे में पहुँचे । कस्बे का एक युवक आकर उनसे मिला और बोला-"विनोबा जी! मेरी पत्नी मुझसे प्रेम नहीं करती, आप इसका हृदय परिवर्तन कर दीजिए।" विनोबा जी ने युवक के पास खड़ी हुई पत्नी से पूछा-"क्यों बिटिया, तुम अपने पति से प्रेम नहीं करतीं?" पत्नी छूटते ही बोली-"क्यों करूँ? मेरा पति मेरे लिए आखिर करताक्या है?"
विनोबा जी चुप हो गए । कुछ सोचकर युवक से बोले-"घर जाओ और तुम स्वयं पत्नी से प्रेम करना शुरू करो ।" यह सुनकर युवक भड़क उठा-"लोगों ने झूठमूठ ही आपके बारे में फैला रखा है कि आप हदय-परिवर्तन कराने में माहिर है । अब देख ली आप की असलियत ।"
विनोबा जी चुप हो गए । युवक चला गया तो उनके एक शिष्य ने विनोबा जी से कहा-"अब तो वह आप की बड़ी बदनामी करेगा । आपको उसकी पत्नी को कुछ समझाना-बुझाना चाहिए था ।
विनोबा जी ने कहा-"उससे कोई लाभ न होता । पत्नी कुछ सुनना ही नही चाहती थी । दूसरे उसे सुनने की आवश्यकता भी नहीं थी । युवक भी कुछ सुनना नहीं चाहता था, हालांकि उसे सुनने की आवश्यकता थी।"
समझदार आदमी का काम यह है कि वह अपनी बात कहने से पहले परामर्श देने वाले, मित्र एवं जीवन साथी की बात को पूरी तरह समझने का प्रयास करे। आवेश में ही अपनी अभिव्यक्ति न कर दे।
सही अर्थों में एक दूसरे को समर्पित  
श्रीनगर कश्मीर में जन्मी उर्मिला एक धनी ठेकेदार की बेटी थी । वे पड़ती और पढ़ाती रहीं । किशोरावस्था में भी उनने महिला समाज की बड़ी सेवा की ।
बडी होने पर उनका विवाह धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री सें-हु । उर्मिला भी शास्त्री थीं । वे एक स्कूल में अध्यापिका हो गयीं। पति प्रोफेसर के गृह कार्यो के अतिरिक्त वे पति समेत सार्वजनिक सेवा में विशेषकर महिला उत्थान में लगी रहतीं ।
सन् ३० का स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हुआ। उसे आगे बढ़ाने में उर्मिला जी प्राणपण से लग गयीं । उनकी संगठन और आंदोलनों की क्षमता अद्भुत थी । मेरठ शहर को ही नहीं, पूरे जिले को उन्होंने जगा दिया । सत्याग्रह आंदोलन में वह क्षेत्र अग्रणी हो गया । महिला संगठन उनने अलग ही खड़ा किया, जिसकी पाँच हजार सदस्या थीं ।
उर्मिला जी को दो बार जेल जाना पड़ा। फिर भी वे पूरे उत्साह के साथ आजादी की लड़ाई रानी लक्ष्मीबाई की तरह लड़ती रही । उनके द्वारा स्थापित उर्मिला शिशु विद्यालय अभी भी सफलतापूर्वक चल रहा है । वे अब नहीं रही । किन्तु दाम्पत्य द्वारा स्थापित आदर्श अभी भी जिंदा है।
परस्पर सहयोग की फलदायी परिणति
विश्वविख्यात संगीतज्ञ पाठलोकासाल कहा करते थे- "दुनिया को मरने से बचाने के लिए संगीत ही संबसे बड़ा संरक्षक हो सकता है । मार्टिन लूथर का यह कथन भी प्रख्यात है किं मनुष्य जाति को भगवान द्वारा दिए गए सबसे भव्य वरदानों में से एक संगीत भी है।
ऐसे ही अनेक कथनों को जापान के एक संगीत विद्यार्थी शिनीची सुजुकी ने अपना जीवन दर्शन बनाया और वह उसी के लिए समर्पित हो गया । उनने न केवल संगीत विद्यालय खोलकर इस महाविद्यालय के जीवन उत्कर्षकारी पक्ष को विकसित किया वरन् जन साधारण को संगीत की आत्मा से परिचित कराने के लिए द्वार-द्वार पर अलख भी जगाया ।
सुजुकी ने अपनी पत्नी ऐसी दूँढी, जो उसके मिशन में कंधे से कंधा लगाकर और कदम से कदम मिलाकरचल सके । पियानो वादन की मर्मज्ञ बाल्ट्राइड के साथ विवाह की बात इसी शर्त पर पक्की हुई कि दोनों मिलकर संगीत की सेवा करेंगे । विवाह के बाद ही टैलेंट एजुकेशन इस्यीट्यूट की स्थापना हुई और बाल्ट्राइड उसी में प्राणपण से निमग्न हो गयी । इस संस्था की ७० शाखाएँ सारे जापान में चलती हैं। इन विद्यालयों ने अब तक कोई डेढ़ हजार प्रख्यात संगीतकारों को विनिर्मित किया है।
सुजुकी कहते हैं-"शुद्ध संगीत मनुष्य में भाव-संवेदना जगाता है; अनुशासन, सहिष्णुता और कोमलता जगाता है । हृदय को सुंदर बनाने में संगीत की अपनी भूमिका है । उनकी पत्नी कहती थीं-"हम लोग चाहते हैं कि जापान का बच्चा-बच्चा सहृदय और आदर्शवादी भावनाओं से सुसंपन्न बने । इसी लक्ष्य के लिए हम लोगों ने अपने को एक सदुद्देश्य के लिए समर्पित किया है ।"
दोनों पति-पत्नी जिस लक्ष्य को लेकर एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले, उसने अनेक को प्रेरणा एवं नया जीवन दिया । सहयोग की परिणति हमेशा महान् होती है ।
जो है, उस पर संतोष
छोटी-छोटी बातों से गृहस्थी में व्यवधान नहीं आना चाहिए । समझ-बूझ से काम लिया जाय, तो पता चलता है कि पहले उठाया कदम कितना गलत था।
एक व्यक्ति का नाम ठंठनपाल था । उसकी स्त्री को यह नाम पसंद नहीं आया और अपना अपमान समझकर पिता के घर चलती बनी ।
रास्ते में एक स्त्री घास खोदते मिली। नाम पूछा, तो 'लक्ष्मी' बताया । आगे एक फटेहाल किसान मिला । उसने अपना नाम 'धनपाल' बताया । उससे आगे एक मुर्दा मिला उसे ले जाने वालों से मृतक का नाम पूछा, तो उनने 'अमरसिंह' नाम बताया ।
काम और गुण में असंगति देखकर स्त्री वापस लौट गयी और मन ही मन गुनगुनाती चलीं-
'घास खोदे लक्ष्मी, हल जोते धनपाल । अमरसिंह मुर्दा बने, सबसे भले ठंठनपाल॥ 
उपलब्ध की स्थिति पर संतोष करना इस कथा का प्रयोजन है ।
मैं उसकी आत्मा को रुलाऊँगा नहीं
संत च्योगत्सू उच्चकोटि के दार्शनिक भी थे और साथ ही साथ आदर्श सद्गहस्थ भी। उनके आनंदित दाम्पत्य जीवन की सभी प्रशंसा करते थे ।
च्योगत्सू की पत्नी का देहावसान हो गया। शोक-संवेदना प्रकट करने के लिए देश भर के बड़े लोग आए । यहाँ तक कि चीन का राजा भी पहुँचा।
राजा ने देखा च्योगत्सू पत्नी की कब्र के समीप सितार बजाते हुए गीत गाने में निमग्न हैं ।
चकित होकर राजा ने शोक के अवसर पर ऐसा हर्ष मनाने का कारण पूछा, तो संत ने एक ही उत्तर दिया-"जिस सहचरी को मैंने जीवन भर' प्रसन्नता के संवाद सुनाए और अवसर दिए, उसके चले जाने के बाद अपनी व्यथा सुनाकर रुलाने का तनिक भी मन नहीं होता ।" यही है पति-पत्नी के बीच सच्चा प्रेम, दिव्य समर्पण ।
जब होश आए तभी सही
प्रसिद्ध उपन्यासकार डॉ० क्रोनिन बड़े गरीब थे । डॉक्टर बनकर वे धनवान् हो गए । किन्तु उनका मन पैसे में पड़ गया। उनकी पत्नी ने कहा-"हम गरीब ही ठीक थे, कम से कम दिल में दया तो थी, अब उसे उसे खोकर कंगाल हो गये ।" डॉ० क्रोनिन ने कहा-"सच है, धनीधन से नहीं होते, धनी तो मन से होते हैं । तुमने मुझे सही राह दिखाई, नहीं तो हम ऐसी स्थिति में पहुँच जाते, जहाँ परस्पर स्नेह के सूत्र भी कमजोर पड़ने लगते।" 
जब समझ आ जाए तभी सही, परंतु पारस्परिक विचार-विमर्श में पूर्वाग्रह मिटाकर यदि एक दूसरे की सुन ली जाय, तो उससे अंतत: हित ही होता है ।
तपस्विनी गांधारी एवं उनकी संयम साधना 
गांधारी राजा धृतराष्ट्र की पत्नी थी। धृतराष्ट्र अंधे थे, वृद्ध भी। रानी ने अपनी आँखो पर पट्टी बाँधकर पति की तरह ही नेत्रविहीन स्थिति में रहना आरंभ किया। ताकि उनका मन किसी रुपवान् को देख कर विचलित न हो।
उनकी संयम-साधना तपश्चर्या जैसी ही फलवती हुई। एक बार उनने नेत्र उधार कर दुर्योधन को देखा, तो उनका शरीर लोहवत् हो गया। अंत में उनने श्रीकृष्ण को भी शाप दिया था कि तू चाहता तो महाभारत टल सकता था। तुम्हारी उपेक्षा से जिस प्रकार मेरा वंश नाश हुआ, उसी प्रकार तुम्हारा वंश भी परस्पर लड़-भिड़ कर समाप्त होगा । यदुवंशी गांधारी व्यक्ति तपस्वी हो सकता है ।
घर रहकर भी संयम-साधना द्वारा कोई व्यक्ति तपस्वी हो सकता है ।
धर्म परायण-शैव्या
राजा हरिश्चन्द्र की पत्नी शैव्या समय-समय पर राजकाज एवं गृह-व्यवस्था में अपने मतभेद प्रकट कर देती थीं, पर उनने कभी धर्म-कर्म में रोडा नहीं अटकाया। महर्षि विश्वामित्र को नई सृष्टि संरचना के लिए धन की आवश्यकता पड़ी। उनने राज्य उन्हें सौंप दिया, तो भी कमी रही, तो राजा ने अपने को, पत्नी शैव्या को तथा पुत्र रोहिताश्व को बेच देने का निश्चय किया । रानी ने इस कार्य में बाधा नहीं डाली, वरन् पूरा-पूरा सहयोग दिया। जहाँ एक दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पण है, वहाँ अपना निजी मत कैसा?
रुष्ट नहीं हुए, पुन: काम में खोए 
इंग्लैंड के प्रसिद्ध विद्वान् टामस कूपर अंग्रेजी भाषा का शब्दकोश तैयार करने में लगे थे । काम में वे इतने खोए रहते थे कि घर की बातों का ध्यान ही नहीं रहता था। 
उनकी पत्नी इस व्यस्तता से बहुत चिढतीं थीं । एक दिन उसने लिखे हुए सारे कागज जलाकर राख कर दिए। 
कूपर जब घर लौटे और अपना साठ साल का परिश्रम इस तरह नष्ट हुए देखा, तो उनने केवल इतना ही कहा-"तुमने आठ साल का काम मेरे लिए और बढ़ा दिया ।"
इसके बाद वे शब्दकोश को नए सिरे से लिखने में फिर निमग्न हो गए ।
उतावली में हुई भूल
प्रख्यात दार्शनिक और वैज्ञानिक वरट्रेण्ड रसेल ने अपनी जीवन गाथा में लिखा है कि सत्य के जुनून ने किस प्रकार दो जिंदगियाँ तबाह कर दीं ।
वे लिखते है कि मेरी पहली पत्नी इतनी भली थी कि उसकी स्मृति कभी मस्तिष्क पर से उतरी ही नहीं । दोनों के बीच अगाध प्रेम था; पर एक दिन किसी बात पर अनबन हो गयी । नाराजी में दफ्तर गया । रास्ते में जो विचार बने, उन्हें पत्नी को बता देने में सचाई समझी । वापस लौट आया । पत्नी ने कारण पूछा, तो कहा-"तुम्हें बिना छिपाए वस्तुस्थिति बताने आया हूँ कि अब तुम्हारे लिए मेरे मन में तनिक भी प्रेम नहीं रहा ।"
पत्नी उस समय तो कुछ नहीं बोली; पर उसके कान में यह बात घर कर गयी,कि मैं कपटी हूँ । अब तक व्यर्थ ही प्रेम की दुहाई देता रहा ।
खाई दिन-दिन चौडी होती गयी । बिना टकराव के भी उदासी बढ़ती गयी । मेरे सफाई देने का भी कुछ असर न हुआ और परिणति तलाक के रूप में सामने आयी ।
अब मैं महसस करता हूँ कि जीवन में बन पडी अनेक भूलों में से यह एक बहुत बड़ी भूल थी, जिसमें मन की बात तत्काल उगलने की उतावली अपनायी गयी । उस सत्य को छिपाये रहता, तो शायद वह असत्य भाषण की तुलना में हल्का पाप होता ।
कभी-कभी अपवाद रूप में ऐसा भी हो जाता है; पर यहाँ वह उक्ति याद रखी जानी चाहिए, जिसमें अप्रिय सत्य की तुलना में प्रिय सत्य को वरीयता दी गयी है । यह व्यावहारिक शिष्टाचार है कि जो बात जीवन साथी के मन में चुभती हो, उसे कहने से बचा जाय ।
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