• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • प्राक्कथन
    • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-1
    • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-2
    • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-3
    • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-4
    • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-5
    • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-6
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-1
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-2
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-3
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-4
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-5
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-6
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-7
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-1
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-2
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-3
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-4
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-5
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-6
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-7
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-8
    • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-1
    • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-2
    • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-3
    • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-4
    • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-5
    • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-1
    • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-2
    • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-3
    • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-4
    • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-5
    • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-6
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-1
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-2
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-3
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-4
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-5
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-6
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-7
    • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-1
    • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-2
    • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-3
    • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-4
    • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-5
    • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-6
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • प्राक्कथन
    • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-1
    • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-2
    • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-3
    • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-4
    • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-5
    • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-6
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-1
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-2
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-3
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-4
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-5
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-6
    • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-7
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-1
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-2
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-3
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-4
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-5
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-6
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-7
    • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-8
    • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-1
    • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-2
    • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-3
    • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-4
    • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-5
    • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-1
    • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-2
    • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-3
    • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-4
    • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-5
    • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-6
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-1
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-2
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-3
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-4
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-5
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-6
    • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-7
    • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-1
    • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-2
    • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-3
    • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-4
    • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-5
    • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-6
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - प्रज्ञा पुराण भाग-3

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT TEXT SCAN TEXT TEXT SCAN SCAN


॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-3

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 43 45 Last

कुटुम्बं स्वं गृहस्थस्य सीमितं परिधौ सदा । तिष्ठतीह तदाधारं कुलं तच्च कुटुम्बकम्॥२५॥  विद्यन्ते तस्य नूनं च महत्ताऽथोपयोगिता। आवश्यकत्वमत्रैवं दायित्वं मौलिकं शुभम्॥२६॥ परं ज्ञातव्यमेतन्न पारिवारिक एष च। आदर्श: सीमित: क्षेत्रे लघावियति केवलम्॥२७॥ व्यापक: स च धर्मस्य दर्शनस्येव विद्यते। परिधौ मीयते तस्य जगदेतच्चराचरम्॥२८॥ समाजरचनाऽप्येषा जाता सिद्धान्ततो भुवि। परिंवारस्थितिं वीक्ष्य राष्ट्राणां घटनं तथा॥२९॥ सिद्धान्तोऽयं धरायां च सम्यग्रूपेण संस्थित:। यावत्तावद् भुवि स्वर्गतुल्या वातावृत्ति स्थिता॥३०॥ ये मनुष्या: सदादर्शमिमं जानन्त एव च। व्यवहारे यथाऽगृह्णन् महत्वं ते तथाऽऽप्नुवन्॥३१॥  विभूतीरधिजग्मुस्त उत्तमोत्तमतां गता: । साधु विप्रस्तरा वानप्रस्थस्तरगता: समे॥३२॥ ओतप्रोता नरा आविर्भावनाभिर्निरन्तरम्। सर्वान् स्वान् मन्वते ते च पश्यन्तीह स्व यादृशा॥३३॥ निरीक्षन्ते च यत्राऽपि दृश्यन्ते स्वे समेऽपि च। आत्मभावोऽयमेवात्र कुटुम्बत्वस्य लक्षणम्॥३४॥
भावार्थ-निजी परिवार घर-गृहस्थी की परिधि में सीमित रहता है। उसका आधार वंश-कुटुंब है। उसकी भी अपनी महत्ता उपयोगिता आवश्यकता एवं जिम्मेदारी है पर यह न समझना चाहिए कि पारिवारिकता का आदर्श इतने छोटे क्षेत्र में ही सीमित होकर रह जाता है। वह धर्म और दर्शन की तरह अत्यंत व्यापक है। उसकी परिधि में यह सारा चराचर संसार समा जाता है समाज की संरचना परिवार सिद्धांत पर हुई है। राष्ट्रों का गठन भी इसी आधार पर हुआ है। यह सिद्धांत जब तक सही रूप में अपनाया जाता रहा तब तक इस धरातल पर स्वर्गोपम सतयुगी वातावरण बना रहा जिन मनुष्यों ने इस आदर्श को जितना समझा और व्यवहार में उतारा वे उसी अगुपात में महान् बनते चले गए। उन्हें एक से एक बढ़कर महान् विभूतियाँ उपलब्ध होती रहीं। साधु-ब्राह्मण-वानप्रस्थ स्तर के परमार्थ परायण व्यक्ति इसी भावना से ओत-प्रोत होते हैं। वे सबको अपना मानते हैं। आत्मीयता की दृष्टि से देखते हैं। जिधर भी आँख पसारते हैं सभी अपने दीखते हैं। यह आत्मभाव ही पारिवारिकता का प्रधान लक्षण है॥२५-३४॥
व्याख्या-जो पारिवारिकता के दर्शन को अपने दैनंदिन जीवन व्यवहार में उतारते हैं, वे बदले में उतना ही प्रेम, श्रेय, सम्मान पाते हैं। "सब अपने हैं, हम सबके हैं। दूसरों का दुख कष्ट ही हमारा दुख है। "यदि ये भावनाएँ जीवंत रहें, तो सारी वसुधा ही अपना परिवार लगती है। अपना कार्यक्षेत्र सारा समाज, राष्ट्र एवं विश्व वसुधा हो जाता है। परिवार के परिजनों विशेषकर वानप्रस्थों के लिए तो यह आदर्श जीवन साधना का एक अनिवार्य अंग है।
व्यक्ति जिस वंश-परिवार में जन्म लेता है, उसी तक उसके दायित्व हैं, यह मान्यता त्रुटिपूर्ण है। इस संबंध में संव्याप्त भ्रांतियों को मिटाया जाना चाहिए, ताकि लोगों की उदार परमार्थ-परायणता विकसित हो एवं वे अपनी कार्य परिधि का विस्तार करें ।
रत्न राशि पीडितों के लिए 
स्वीड़न की राजकुमारी यूजीन को उत्तराधिकार में जो धन मिला, उसमें रत्न राशि की एक पिटारी थी, जिसकी कीमत करोड़ों रुपये आँकी गई। अन्य बहन- भाइयों की तरह वह दौलत राजकुमारी ने विलास और ठाट-बाट में खर्च नहीं की, वरन् उसंर्से निर्धनों के लिए एक अस्पताल बनवा दिया। राजकुमारी रोज अस्पताल जाती और रोतों को हँसते देखकर अपनी दौलत की सार्थकता का बखान करती । स्वयं उसने नर्स जैसा जीवन जिया ।
सबको स्वर्ग मिले 
वैष्णव संप्रदाय के आचार्य संत रामानुज को गुरु मंत्र देते हुए उनके गुरु ने सावधान किया-"गोप्यं, गोप्यं परं गोप्यं गोपनीयं प्रयत्नत:"-मंत्र को गोपनीय रखना । संत रामानुज मंत्र जप के साथ ही विचार करने लगे-यह अमोघ मंत्र मृत्युलोक की संजीवनी है। यह जन-जन की मुक्ति का साधन बन सकता है, तो गुप्त क्यों रहे? उन्होंने गुरु की अवज्ञा करके मंत्र सभी को बता दिया । एक स्थान पर अपने शिष्य को सामूहिक पाठ करते हुए सुना, तो वे क्रुद्ध हो गए, "रामानुज, तूने गोपनीय मंत्र को प्रकट कर पाप अर्जित किया है। तू नरकगामी होगा।" रामानुज ने गुरु के चरण पकड लिए-"देव, जिन्हें मैंने मंत्र बताया है, क्या वे भी नरकगामी होंगे?" गुरु ने कहा-"नहीं वे तो मृत्युलोक के आवागमन से मुक्त हो जाएंगे । उन्हें तो पुण्य लाभ ही होगा।" रामानुज के मुखमंडल पर संतोष की आभा चमक उठी, "यदि इतने लोग मंत्र के प्रभाव से मोक्ष प्राप्त करेंगे, तो मैं स्वयं के लिए शतयोनि में नरक-गमन स्वीकार कर लूँगा ।" अपने शिष्य के यह वचन सुनकर गुरु मुग्ध हो उठे। उन्होंने कहा-"ऐसी भावना रखने वाला तो स्वर्ग का सर्वोच्च अधिकारी ही होता है ।"
सबसे बडा पुण्य
एक वृद्धा ने चार धाम यात्रा के लिए कुछ धन एकत्रित करना आरंभ किया। जब आवश्यक राशि हो पाई, उन्हीं दिनों घोर दुर्भिक्ष पड़ा। असंख्य लोग भूख से मरने लगे । वृद्धा ने अपना तीर्थ वाला धन राहत कार्यों में लगा दिया। परलोक में तीर्थयात्रा के पुण्य लाभों का लेखा-जोखा लिया गया, तो उनमें वृद्धा को सबसे ऊँचा गिना गया । देवदूतों ने संदेह व्यक्त किया कि उसने एक कदम भी तीर्थयात्रा के लिए नहीं रखा, फिर सर्वोच्च पद कैसे? धर्मराज ने कहा-"जिस भावना की अभिव्यक्ति के लिए तीर्थयात्रा की जाती है, उसे वृद्धा ने पूरी तरह अपनाया। भले ही उसके पैरों ने दौड़- धूप या इन आँखों ने दर्शन-झाँकी न की हो ।

सब कुछ सौंप दिया
उन दिनों श्रद्धांजलि यज्ञ चल रहा था। धर्मचक्र प्रवर्तन की बढ़ी हुई आवश्यकता को अनुभव करते हुए, बुद्ध के सभी शिष्य अपने-अपने अनुदान प्रस्तुत कर रहे थे। जमा राशि का लेखा-जोखा लिया गया । किसका धन सबसे अधिक है, इसकी प्रशंसा सुनने के लिए सभी उत्सुकथे । बिंबसार की राशि सर्वाधिक थी। चर्चा-गोष्ठी में युद्ध ने एक वृद्धा का सौंपा हुआ जल-पात्र हाथ में उठाया औरकहा-यह इस वर्ष का सबसे बड़ा अनुदान है। वृद्धा के पास जो कुछ था, वह उसने सभी सौंप दिया और अब उसके पास तन के कपड़े और मिट्टी के पात्र ही शेष हैं, जबकि औरों ने अपनी संपदा के थोड़े-थोड़े अंश ही प्रस्तुत किए हैं ।
विराट् विश्व मेरा घर
राजा ज्ञानी गुरु की तलाश में थे। कोई उपयुक्त न मिला, तो खोज के लिए एक घोषणा की गई । राजा जमीन मुक्त देंगे ही, सबसे जल्दी और सबसे बड़ा महल बनाकर दिखाने वाले को राजगुरु माना जाएगा। इस प्रलोभन में अनेक संत आए। जमीन ली । चंदा किया और महल बनाने में जुट गए । राजा रोज प्रगति देखने जाया करते । निर्माण कार्य तेजी से चल रहे थे। एक संत को उसने दी गई, जमीन पर यथास्थान प्रतिदिन बैठे रहते पाया । पूछा-"आप क्यों नहीं आश्रम बनाते?" उनने उत्तर दिया-"यह विराट् विश्व मेरा ही घर है। इससे बड़ा और क्या बनाऊँ? बनाने का उद्देश्य सँभालना-सजाना होता है, सो इस विश्व-वसुधा को ही सँभालने-सजाने में लगा रहता हूँ । नया बनाकर क्या करूँ?" राजा को तत्वज्ञान का मर्म समझ में आया । राजा ने उन्हीं को सच्चा पाया और राजगुरु का पद प्रदान किया ।
गरीबी से निर्वाह स्वीकार
जन-हितार्थाय स्वयं को नियोजित करने वाले जानते हैं, कि स्वयं कष्ट सहकर ही दूसरों के लिए कुछ किया जा सकना संभव है। लोकसेवियों के उदाहरण इस संदर्भ में लिए जा सकते है।
लोकमान्य तिलक को अंग्रेज सरकार द्वारा १९०८ में गिरफ्तार किया गया था और उन्हें सजा सुनाकर एक स्पेशल डिब्बे से अहमदाबाद लाया जा रहा था। रास्ते में एक स्टेशन पर साथ आए हुए एक यूरोपीय पुलिस अफसर ने उन्हें पाव रोटी और पानी का गिलास लाकर दिया। लोकमान्य ने वे ले लिए और सहज भाव से रोटी खाने लगे । यह देखकर उस अफसर ने कहा-"मि० तिलक, आप जैसे विद्वान व्यक्ति को भी इस स्थिति में रहकर मात्र रोटी और पानी पर गुजारा करना पड़ रहा है । आखिर इसमें मजा क्या है?" लोकमान्य ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया-"मेरे करोड़ो देशबंधु ऐसे हैं, जिन्हें दो जून पेट भर खाने के लिए रौटी भी नसीब नहीं होती। इस हिसाब से मेरे लिए यह रोटी का टुकड़ा भी बहुत है । मैं उन्हीं के उपयुक्त आहार स्वयं लेकर ही तो उनके लिए कुछ कर सकने योग्य बना हूँ ।"
लोकसेवियों का स्वयं पर अंकुश
लोकसेवी जनता की अमानत को सार्वजनिक मानते हैं । इस संबंध में वे अपनों के लिए भी कड़े होते हैं। गांधी जी जब अफ्रीका से विदा होकर स्वदेश लौटने लगे, तो उन्हें वहाँ के निवासियों ने बहूमूल्य उपहार दिए । बा का मन उन्हें रख लेने का था। पर गांधी जी ने कड़क कर कहा-"यह देशसेवा का उपहार है । हमारे निजी परिश्रम मात्र का नहीं ।" वह सारा उपहार उन्होंने स्थानीय सेवा-संस्था को लौटा दिया।
विंस्टन चर्चिल
इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के प्राइवेट सेक्रेटरी डब्ल्यू टामसन ने अपने अनुभवों के संकलन में लिखा है-चर्चिल कभी सरकारी संपत्ति का उपयोग अपने निजी कामों के लिए नहीं करते थे । यहाँ तक कि सरकारी गाड़ी में अपने किसी रिश्तेदार को भी नहीं बैठने देते थे, ताकि अन्यों के लिए गलत उदाहरण न बने ।
लाला लाजपत राय
लाला जी अपने समय के माने हुए वकील और कांग्रेस के नेता थे। संध्या काल ताँगे में जरूरी काम से जाना था। कोचवान ताँगे की बत्ती जलाने लगा। असावधानी में जलाने के कारण माचिस की तीन तीलियाँ बुझ गई। लालाजी ने कोचवान को डाँटा और कहा-"इतनीफिजूलखर्ची करते हो । पैसे की कीमत नहीं समझते । लाहौर में अनाथालय बन रहा था । कमेटी के सदस्य लालाजी से  चंदा माँगने आए थे । दो कारणों से झिझक रहे थे । एक तो वे जाने की तैयारी में थे । दूसरे इतने किफायतसार कि तीन तीलियों को खर्चने भर का ध्यान रख रहे थे । पास खड़े लोगों से आने का कारण पूछा, तो उनने अनाथालय खुलनेऔर उसके लिए चंदा एकत्रित करने की बातें कह दीं । लालाजी ने दस हजार रुपयों का चेक काट दिया। माँगने वालों में से एक ने आश्चर्य व्यक्त किया-" आपकी तीन तीली जलने पर डाँटने की कंजूसी से हमें अचंभा हो रहा था कि आप कुछ दे पाएँगे या नहीं। पर आपने तो इतनी बड़ी राशि दे दी ।" लालाजी ने कहा-"ऐसी किफायतशारी स्वभाव में लाने पर ही इतना बचा पाया कि आपकी कुछ सेवा हो सकी ।"
दंड से कोई विमुख नहीं
जिस समाज में कुछ व्यक्ति सुख-साधनों में लिप्त हों व शेष को अभावग्रस्त जीवन जीना पड़े, उस समाज में परोक्षत: वे सभी दंड भोगने योग्य हैं, जिन्होंने औरों की उपेक्षा की व अपनी स्वार्थपूर्ति में लिप्त रहे ।
न्यूयार्क के प्रसिद्ध मेयर ला गार्डिया उन दिनों न्यायाधीश भी थे। उनकी कचहरी में एक ऐसा अपराधी पेश किया गया, जो रोटियाँ चुराने के अपराध में पकड़ा गया था । पूछने पर मुजरिम ने बताया कि परिवार के गुजारे का और कोई साधन न दीखने पर मैंने रोटी चुराने का उपाय अपनाया । कानून के अनुरूप न्यायाधीश ने मुजरिम पर दस डालर का जुर्माना किया, पर उस राशि के वसूल होने की कोई आशा न थी। इसलिए कचहरी में उपस्थित सभी लोगों पर पचास-पचास सेंट इस कारण जुर्माना किया कि वे अपने देश में फैली इतनी गरीबी के रहते हुए भी शौक की जिंदगी बसर करते हैं । इस प्रकार कुल ८ डालर इकट्ठे हुए, उनमें दो डालर अपनी ओर से मिलाते हुए ला गार्डिया ने फैसले में लिखा-"इस हद तक गरीबी बेकारी रहने से इस नगर का मेयर भी दंडित होना चाहिए ।
विवशता का एक आँसू
मुल्ला अब्बास बगदादी ने अपने शिष्यों को संबोधित कर पूछा-"आज तुम सब मुझे प्रलय के बारे में बताओ ।" एक ने कहा-"मेरी नजर में खुदा के प्रति इंसान का अक्षम्य अपराध ही प्रलय का कारण है ।" दूसरे ने कहा-"जब इंसान के जुल्म धरती नहीं झेल पाती, तो खुदा प्रलय से सब धोता है ।" तीसरे ने कहा-"नहीं मेरे मौला! ये सब गलत है । मेरी नजर में तो कमजोर आदमी की लाचारी का एक आँसू ही सबसे बड़ी प्रलय है ।"
ईश्वर भी प्यारमग्न
ईंश्वर की दृष्टि में सभी प्राणी-जीवधारी एक हैं । किन्तु जो गरीबों के आँसू पोंछते हैं, उस हेतु स्वयं को खपा देते है, वे सबसे अधिक प्यारे हैं।
भीम भगवान से मिलने गए, तो मालूम पड़ा कि वे इस समय खाली नहीं, ध्यान मग्न है। भीम प्रतीक्षा में बैठे रहे। जब उठे तो आश्चर्य से पूछा-"संसार आपका ध्यान करता है। आप किसका ध्यान करते हैं?" भगवान ने कहा-"जो मेरे निर्देशों का ध्यान रखते हैं, सारी विश्व-वसुधा को अपना समझते हैं, उनके योगक्षेम का ध्यान मुझे रखना पडता है।"
गतिशीलसमाजानां रचना घटनं तथा। परिवारे विशाले च भवतोऽत्नानुशासनम्॥३५॥ नियमाश्च विधीयन्ते तदाश्रित्य नरै: सदा। वितरणस्य रक्षाया: क्रमोऽनेन चलत्यलम्॥३६॥ सिद्धान्तमिमाश्रित्य तथा राष्ट्रमपीदृश:। व्यवस्था प्रमुखो नूनं समाजो विद्यते स्वत:॥३७॥ दत्त्वा विश्वकुटुम्बस्य मान्यतामग्रिमेषु च। दिनेषु नियमा: सर्वे तथा निर्धारणानि च॥३८॥ निर्मेयानि समानश्च सोऽधिकारो नृणामिह। वसुमत्यां तथाऽस्याश्च खनिजेषु समेष्वपि॥३९॥ क्षेत्रजासु च सीमासु संकोचमधिगत्य य:। क्रमो विश्वविभूतेस्तु केषांचिद्वि नृणां कृते॥४०॥ बाहुल्येत्वेन केषांचित् स्वल्पत्वेन च साम्प्रतम्। चलत्येष भवेन्नायमागामिदिवसेषु तु॥४१॥ संयुक्ता सम्पदाऽत्राऽस्ति कुटुम्ब उपयुञ्जते। यां समेऽप्यनिवार्याणां व्ययानां च प्रसंगत: ॥४२॥ नहि कश्चिद् विशेषं स्वमधिकारं वदत्यथ। वञ्चितो नहि कश्चिच्च जायते चाऽधिकारत:॥४३॥
भावार्थ-प्रगतिशील समाजों की संरचना और संगठन विशाल परिवार के रूप में होता है । उसी आधार पर नियम-अनुशासन बनते हैं । वितरण और संरक्षण का क्रम भी इसी सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए चलता है। राष्ट्र भी व्यवस्था प्रधान समाज ही है। विश्व परिवार की मान्यता अपना कर ही अगले दिनों नवयुग के समस्त नियम-निर्धारण बनेंगे। धरातल और उसकी खनिज संपदा पर मानव समाज के समस्त सदस्यों का समान अधिकार होगा क्षेत्रीय सीमाओं में बँधकर विश्व संपदा को किन्हीं के लिए छत और किन्हीं के लिएनगण्य होने का जो क्रम इन दिनों चल रहा है वह अगले दिनों न रहेगा । परिवार में संयुक्त संपदा होती है औरउसका उपयोग सभी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप कर सकते हैं। न कोई विशेष अधिकार जताता है और न किसी को वंचित रहना पड़ता है॥३५-४३॥
व्याख्या-यहाँ आध्यात्मिक साम्यवाद की रूपरेखा स्पष्ट करते हुए ऋषि कहते हैं कि सभी का हित इसमें है कि सब मिल-जुलकर एक विशाल कुटुम्ब के परिजन के रूप में विकसित हों। परिवार राष्ट्र की एक छोटी इकाई है। ऋषि सत्ता का यह संकल्प है कि पारस्परिक मतभेद विग्रह मिटें एवं सारे विश्व में एक कौटुंबिक भावना का विकास हो। जो भी कुछ उपार्जन है, सबका मिलकर है, वह किसी एक की संपदा नहीं, यह स्पष्ट जान लेना चाहिए । विश्व परिवार में उपभोग हेतु सभी स्वतंत्र हैं । जैसेकि किसी परिवार में सभी सदस्य अपनी-अपनी सीमा-मर्यादा में रहकर जिम्मेदारी भी निभाते हैं एवं उपार्जन का आनंद भी लेते हैं, उसी प्रकार बृहत्तर परिवार के रूप में, कम्यून के रूप में संस्थाएँ विकसित होनी चाहिए। इसी में विश्व मानवता का कल्याण है। इसके लिए अंत: की सदाशयता तो विकसित करनी ही होगी परस्पर एक दूसरे के चिंतन में संगति बिठाते हुए अपने व्यवहार को भी लचीला बनाना होगा । सारे पूर्वाग्रह, दुराग्रह मिटाकर अपने चिंतन के दायरे को विस्तृत करना होगा, ताकि विश्व परिवार की परिकल्पना साकार रूप ले सके ।
इस समत्वयवाद का मूल वेदों में स्पष्ट रूप से मिलता है। ईशोपनिषद् के प्रथम मंत्र में ही मानव जीवन की सफलता, सार्थकता का जो मार्ग बतलाया गया है इसमें समन्वय का सार आ गया है । ऋषिकहते हैं-
ईशावारचमिदं सर्व यत्किंच जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुञ्जीया मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥
अर्थात्-"इस विश्व में जो कुछ भी दिखाई पइता है, वह सब ईश्वर से व्याप्त है इसलिए उसका उपयोग त्यागपूर्वक करो, धन किसी एक का नहीं हो सकता ।"
शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि यह समस्त संसार भगवान का है, किसी एक व्यक्ति का नहीं, अत: इसकी वस्तुओं पर अनुचित रीति से अधिकार न जमाकर उसे समाज हित में सदुपयोग किया जाय। समाज के हित में ही अपना हित समझा जाना चाहिए। सामूहिकता की भावना को विकसित करके ही समष्टि में, विश्व विराट् में विस्तार पाना सुनिश्चित है।
सफल बृहत्तर कुटुम्ब पद्धति
इजराइल, चीन, क्यूबा एवं यूगोस्लाविया में कम्यून जीवित हैं। ये कम्यून विभिन्न वर्गो के व्यक्तियों के समूह का नाम है, जो एक उद्देश्य के लिए समर्पित होकर, एक जुट होकर कार्य करते है। न जैसा श्रम करता है, उसी अनुपात में उसे मिलता है। खेती, उद्योग आदि के क्षेत्र में ये कम्यून बड़े सफल सिद्ध हुए हैं। एक प्रकार से ये एक प्रकार के वृहद् कुटुम्ब के समान है, जिसमें सबको विचार स्वातंत्र्य की तो छूट होती है, किन्तु करते सब वही हैं जो पूरे समूह को स्वीकार होता है। एक प्रकार से इन्हें विश्व परिवार का एक लघु संस्करण वृहत् परिवार-लार्जर फैमिली कहा जा सकता है ।
विश्व वसुधा के नागरिक कवीन्द्र रवीन्द्र 
कलकत्ता में जन्में रवीन्द्र नाथ टैगोर को लोग मात्र कवि समझते है। वे वैसे कवि न थे, जो तुकबंदी करके कवि सम्मेलनों में जाते, फीस वसूलते और विदूषक की भूमिका निभाते हैं। उनका कवि हृदय ऐसी करुणा से भरा-पूरा था, जो ढेर सारी धरती की, मानव जाति के दुख-दर्द को अपना बना लेता है। जिस विद्यालय में वे पढ़ने भेजे गए, वहाँ का वातावरण तथा अध्यापकों का व्यवहार अच्छा न था। अतएव उनने स्कूल छोड़ दिया और घर पर ही पड़े। छात्रों के लिए उन्होंने किशोरावस्था में ही एक 'भारती' नामक पत्रिका निकाली। 'चिर किशोर' सभा का गठन किया जिसमें उनके सदस्यों को आजीवन तरुण बना रहना सिखाया जाता था। उनकी कविताओं में मनुष्य की उच्चस्तरीय गरिमा का दिग्दर्शन होता था । गीतांजलि काव्य पुस्तक पर उन्हें नोबुल पुरस्कार मिला। इंग्लैड सरकार ने उन्हें 'सर' की उपाधि दी। उनने यूनान, मिस्र, आस्ट्रेलिया, रूमानिया, इटली, जापान, स्वीडन, कनाडा, रूस, अमेरिका आदि देशों में भारत की स्थिति एवं संस्कृति गौरव से अवगत कराने के लिए भ्रमण किया। संसार के कितने ही विश्वविद्यालयों ने उन्हें डाक्टरेट की उपाधि देकर सम्मानित किया । उनके उपन्यास तथा लेख संग्रह ऐसे हैं, जिनकी प्रत्येक पंक्ति में मानवी गरिमा बोलती है । उनने एक अशिक्षित और ग्रामीण लड़की से विवाह किया और अपने सद्व्यवहार से उसे सच्चे अर्थो में विदुषी एवं सहधर्मिणी बनाकर दिखाया। अपनी सारी संपत्ति बेचकर बोलपुर में शांतिनिकेतन की स्थापना की। उसकी शिक्षा प्रणाली गुरुकुल स्तर की थी। जिसमें सारे विश्व के नागरिक विद्यार्थी थे । जवाहर लाल नेहरूकहते थे- "जिनने शांति निकेतन नहीं देखा-समझना चाहिए कि उनने हिंदुस्तान ही नहीं देखा ।"
अपना कोई कुटुंब नहीं
ईसा के परिवार वाले उनसे मिलने गए। वे सत्संग-परामर्श में तल्लीन थे। लोगों ने कहा-"घर वालो की और ध्यान देंगे क्या?" ईसा ने कहा-" संसार में मेरा अपना-पराया कोई कुटुंब नहीं है। समस्त संसार को ही मैं अपना परिवार मानता हूँ और अपना हर काम उस विश्व कुटुंब को ध्यान में रखकर करता हूँ। यही आदर्श तुम सब भी अपनाओ ।"
स्टालिन की रो पडा 
पिता पौरोहित्य कृत्य से आजीविका चलाते थे, पर राधाकृष्णन अपनी ज्ञान-पिपासा के बल पर विद्या का असीम भंदार अपने में भरते रहे। भारत में वे कई विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक रहे ।अंतर्राष्ट्रार्य संस्थाओं ने उन्हें अपने यहाँ ससम्मान बुलाया। भारत के द्वितीय राष्ट्रपति बनने के पूर्व वे रूस में भारत के राजदूत रहे। विदाई के समय उन्होंने स्टालिन की पीठ पर हाथ फेरा, तो उस्के जैसा कठोर हृदय काव्यक्ति भी रो पड़ा। उन्होंने जीवन भर प्यार ही प्यार बाँटा । यही कारण था कि सबको वे अपने लगते थे। दर्शन तथा ज्ञान का भंडार होने के साथ-साथ जैसा सहृदय राधाकृष्णन को देखा गया, उसकी उपमा अन्यत्र मिलनी कठिन है ।
काम न रुके
जहाँ हृदय विशाल हो, वहाँ अपना स्वार्थ क्षुद्र दिखाई पड़ता है। सारा परिवार, सारा समुदाय अपना ही परिवार प्रतीत होता है।
मिलान के आर्क विशाप पोप पाल उन दिनों कार्डिनल में आर्थिक तंगी का जीवन जी रहे थे। उन्हीं दिनोंअकाल की भी स्थिति थी। एक दिन एक समाज सेवी व्यक्ति उनके पास पहुँचे और बोले-"अभी भी बहुत लोगोंतक खाद्य सामग्री पहुँच नहीं पाई, जबकि कोष में एक भी पैसा नहीं बचा।" पोप पाल ने कहा-"कोष रिक्त हो गया-ऐसा मत कहो; अभी मेरे पास बहुत-सा फर्नीचर, सामान पड़ा है, इसे बेचकर काम चलाओ । कल की कल देखेंगे ।" आज का काम भी रुका नहीं, कल आने तक उनकी यह परदुखकातरता दूसरे श्रीमंतों को खींच लाई और सहायता कार्य फिर दुतगति से चल पड़ा ।
जा, तु भी ऐसी ही कर
विशाल परिवार-विश्व परिवार का अर्थ है के हर घटक, हर व्यक्ति को अपना ही मानना। एक आदमी येरुशलम से जेरीको को जा रहा था। डाकूओं ने उसे घेर कर उसके कपड़े उतार लिए। उसे मार-पीटकर अधमरा करके छोड़ गए । एक पादरी वहाँ से निकला । वह उसे देखकर कतराकर चला गया। एक समाज सेवी भी उधर से निकला। वह भी उसे देखकर कतराकर चला गया । तब आया एक घुड़सवार। उसने उस घायल को देखा, तो उसे उस पर तरस आया। उसने उसके घावों पर तेल लगाया । दाख का रस डालकर पट्टी बाँधी । उसे अपनी सवारी पर चढ़ाकर सराय में ले गया और उसने उसकी सेवा टहल की। दूसरे दिन उसने दो चाँदी के सिक्के निकाल कर भटियारे को दिए और कहा-"इसकी ठीक ढंग से सेवा-टहल करना ।
जो तेरा और लगेगा, वह मैं लौटने पर तुझे भर दूँगा ।" "बता इन तीनों में से उस घायल का पड़ोसी कौन ठहरा?" ईसा ने पूछा । वह बोला-"वही, जिसने उस पर दया दिखाई ।" ईसा ने कहा-"जा, तू भी ऐसा ही कर ।"

बापू का विशाल पेट 
आदर्श लोकसेवी अपनी उदरपूर्ति की नहीं, सारी मानव जाति के हित की सोचते हैं। गांधी जी प्रवास पर थे। बिहार के सोनपुर में विश्राम किया। एक संपन्न सेठ की पत्नी थोड़ से रुपये थाली में रखकर भेंट के लिए लाई। गांधी जी ने कहा-"बस, इतने ही।" सेठ जी ने व्यंग्य करते हुए कहा-" आपको तो इतनी जगहों से इतना इतना मिलता है, तो भी पेट नहीं भरता?" बापू ने हँसते हुए कहा-"मेरे पेट में समूचे देश का पेट समाया हुआ है । वह इतना छोटा थोड़े ही है, जो थोडे से रुपये से ही भर जाय ।"
कम में तृप्ति कैसे?
यदि एक दूसरे का विचार करने लगें, तो अभाव कहीं भी न रहे। उस दिन ईसा शिष्य मंडली समेत किसी प्रचार यात्रा पर जा रहे थे। रात्रि हो गई। भोजन का सुयोग न बना । ईसा ने कहा-"तुम सबके पास जो है, इकट्ठा कर लो और उसी से मिल-बाँट कर काम चलाओ ।" पाँच रोटी इकट्ठी हुईं। मिल-बाँटकर खाई गई। हिस्से में आधी-आधी भी न आई, तो भी सबका पेट भर गया। सोलोमन ने पूछा-"महाप्रभु, यह कैसा आश्चर्य? इतने कम से इतनी तृप्ति कैसे?" ईसा ने कहा-"यह मिल-बाँटकर खाने काचमत्कार है ।" यही ईश्वर का निर्देश भी है कि सारी विश्व वसुधा के नागरिकों में विश्व के सारे साधन समान रूप में बाँटे जाँय ।
सभी अपने
कुछ अमेरिकन यात्री जापानियों के तीर्थ फ्यूजी यामा देखने जा रहे थे। देखा तो पीछे से स्कूली बच्चों की एक बस भी आ गई। और भी कई यात्री उस रास्ते चल रहे थे। बस में सामान खुला छोड़कर यात्री आगे बड़े, तो अमेरिकनों ने पूछा-"रखा हुआ सामान कोई उठा ले जाय तो?" सुनने वाले हँस पडे। जापान में अभी चोरी का रिवाज चला नहीं है । सब अपने ही तो हैं । अपनों का सामान भी भला कोई चुराता हैं । जापानियों की विश्व परिवार की भावना-चरित्रनिष्ठा एवं पारस्परिक सद्भाव देखकर अमेरिकन यात्री दंग रह गए।
सहजीवन व सहानुभुति
एक खेत में कुछ मजदूर निराई-गुड़ाई का काम कर रहे थे। एक घंटा काम करने के बाद वे सब बैठकर सुस्ताने और गप हाँकने लगे। खेत के मालिक ने उनसे कहा कुछ नहीं, खुद खुरपी लेकर काम करने लगा। मजदूरों ने स्वामी को काम करते देखा, तो शरमा गए और दौड़कर काम में जुट गए। दोपहर हुआ । स्वामी मजदूरों के पास गया और बोला-"भाइयो, काम बंद कर दो और खाना खा लो-आराम कर लो ।" मजदूर खाना खाने चले गए और शीघ्र ही थोड़ा आराम करने के बाद फिर काम पर आकर डट गए। शाम को छुट्टी के समय पड़ोसी खेत वाले ने देखा कि उसका काम उससे दो गुना हुआ है । वह बोला-"भाई! तुम मजदूरों को छुट्टी भी देते हो और डाटते-फटकारते भी नहीं, तब भी तुम्हारा काम मुझ से ज्यादा होता है, जबकि मैं मजदूरों को छुट्टी नहीं देता और हर समय डाटता-फटकारता रहता हूँ ।" साधु स्वामी बोला-" भाइयो! काम लेने की नीति में, मैं सभी से अधिक स्नेह एवं सहानुभूति को पहला स्थान देता हूँ । दूसरा मैं स्वयं उनके काम-काजो में जुटता हूँ । इसीलिए मजदूर पूरा जी लगाकर काम करते है, इससे काम ज्यादा भी होता है और अच्छा भी । यह अनुशासन थोपने की नहीं, सहजीवन-सहकार की ही चमत्कारी परिणति है ।"
गरीबों के नाम वसीयत 
आस्ट्रेलिया का फ्रैंक बूटे आरंभ में बहुत गरीब था, पर व्यवसाय से धीरे- धीरे अमीर तो हो गया किन्तु बीमारी ने उसका पीछा न छोड़ा । लगता था कभी भी उसकी मृत्यु हो सकती है । एक दिन दिल का दौरा पड़ने से ५३ वर्ष की आयु में सचमुच ही उनकी मृत्यु हो गई । मरते समय उनने अपनी सारी संपत्ति की वसीयत मजदूरों के बच्चों के नाम कर दी। जो अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने योग्य वेतन न पाते थे, उन्हें इस पूँजी से वह लाभ मिले-ऐसी वसीयत लिखी गई । अपने बच्चों के लिए भी उनने इतना ही छोड़ा, जिससे वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत हाथ-पैर की मजदूरी करके गुजारा कर सकें। कानून से बाप की कमाई बेटे को मिलती है, पर उनने अपनी करोड़ों की कमाई मजदूरों के सभी बच्चों को अपना मानकर उनके नाम वसीयतकर दी ।
मुक्ति सेना
लोक सेवा के लिए संगठित रूप से नवयुवको को लगाया जाय। यह विचार जनरल बूच के मन में आया। चर्च से संबंधित अनेक लोगों को उनने ईश्वर भक्ति का सच्चा तरीका लोक सेवा मानने के लिए धर्म परायण लोगों को तैयार किया । इस संगठन का नाम उन्होंने 'मुक्ति सेना' रखा । जब उसके उद्देश्य और कार्यक्रम लोगों ने देखे, तो असंख्य लोग प्रभावित हुए और उस संगठन की पत्रिका का प्रकाशन ५९ भाषाओं में होने लगा। घर-घर जाने और समझाने का कार्यक्रम और भी अधिक लोकप्रिय हुआ । एक व्यक्ति द्वारा आरंभ हुआ यह कार्य आज संसार के अधिकांश देशों में फैल गया है ।
अनाथों का अभिवावक
आस्ट्रेलिया का एक छात्र डाक्टरी पढ़ रहा था। नाम था उसका-पैस्टोला। उसे रास्ते चलते एक बच्चा मिला। उसके अभिभावक को ढूँढ़ने, पुलिस में सूचना देने के उपरांत उसे अनाथालय भेज दिया था। पैस्टोला को एक दिन के साथ से ही उस बच्चे से महुब्बत हो गई। वह जब-तब उसे देखने जाया करता । कुछ उपहार भी ले जाता । पैस्टोला ने गंभीर दृष्टि से देखा कि अनाथालय में निर्वाह और शिक्षा व्यवस्था तो है, पर कर्मचारियों के पास प्यार नाम की कोई वस्तु नहीं, जिसे पाकर बच्चों का अंत करण खिलता हो । पैस्टोला ने पढ़ाई समाप्त करते ही यह आंदोलन चलाया कि जिनकी छोटी गृहस्थी है, वे अनाथ बच्चों को अपने परिवार में सम्मिलित कर लें और उसी लाड़-चाव से पालें। खोजने पर ऐसे उदार व्यक्ति भी मिल गए और असहाय बच्चे भी। आत्मीयता के वातावरण में बच्चों का मन विकसित होने लगा।
पैस्टोला ने विवाह नहीं किया। अनाथ बच्चों को अपना बेटा माना। परित्यक्ताएँ, वृद्धाएँ उनकी बहन और माँ की तरह उसी घर में रहने लगीं। अपनी निज की आमदनी वह इसी कार्य में लगा देता। उसकी देखा-देखी अनेक उदार मन वाले लोगों ने अपने परिवारों में निराश्रितों को सम्मिलित किया। पैस्टोला का आंदोलन दूर-दूर तक फैला । उन्हें नोबुल पुरस्कार मिला । यह राशि भी उनने इसी प्रयोजन में लगा दी ।
First 43 45 Last


Other Version of this book



प्रज्ञा पुराण भाग-2
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-3
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-4
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग 3
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-4
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • प्राक्कथन
  • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-1
  • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-2
  • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-3
  • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-4
  • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-5
  • ॥ अथ प्रथमोऽध्याय:॥ परिवार-व्यवस्था प्रकरणम्-6
  • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-1
  • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-2
  • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-3
  • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-4
  • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-5
  • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-6
  • ॥अथ द्वितीयोऽध्याय:॥ गृहस्थ-जीवन प्रकरणम्-7
  • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-1
  • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-2
  • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-3
  • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-4
  • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-5
  • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-6
  • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-7
  • ॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-8
  • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-1
  • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-2
  • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-3
  • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-4
  • अथ चतुर्थोऽध्याय: शिशु-निर्माण प्रकरणम्-5
  • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-1
  • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-2
  • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-3
  • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-4
  • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-5
  • अथ पञ्चमोऽध्याय: वृद्धजन-माहात्म्य प्रकरणम्-6
  • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-1
  • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-2
  • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-3
  • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-4
  • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-5
  • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-6
  • अथ षष्ठोऽध्याय: सुसंस्कारिता-संवर्धन प्रकरणम्-7
  • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-1
  • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-2
  • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-3
  • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-4
  • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-5
  • ॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-6
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj