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Books - प्रज्ञा पुराण भाग-3

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॥ अथ सप्तमोऽध्याय:॥ विश्व-परिवार प्रकरणम्-4

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परिवारे समर्थाश्चाऽसमर्था: सर्व एव हि। यथाशक्ति श्रमं कृत्वा लाभं यान्ति यथेप्सितम्॥४४॥ भवत्येष कुटुम्बस्य स्तरश्च समतां गत:। भेद: सम्पन्नताया: स दारिद्र्यस्याऽपि नास्ति च॥४५॥ संयुक्ताऽस्ति समेषां च सम्पत्ति: समये तथा। विशेषे पूर्यते वाच्छाऽनिवार्या तत एव च ॥४६॥ निर्वाह: स च सामान्य: सर्वेषां भवतीह च । आगामिषु दिनेष्वेतत् भवेत् प्रचलनं सदा॥४७॥ सम्पदा स्यात् समाजस्य समैर्नागरिकै: स्तर:। समान एव स्वीकार्यों निर्वाहस्य भविष्यति॥४८॥ न कश्चिद् धनवान्नेव निर्धनो वा भविष्यति । धरित्र्याश्च सुता: सर्वे महतो मनुजन्मनाम्॥४९॥ कुटुम्बस्य सदस्यत्वगता: प्राप्स्यन्ति निश्चतम्। साधनानि समानानि सम्मानं सममेव च ॥५०॥
भावार्थ-परिवार में सभी समर्थ-असमर्थ अपनी क्षमता के अनुरूप श्रम करते और आवश्यकता के अनुरूप लाभ लेते हैं । पूरे परिवार का स्तर एक जैसा होता है । इनमें किसी में भी दरिद्र या संपन्न होने जैसा भेदभाव नहीं देखा जाता । संपति सबकी संयुक्त होती है। विशेष अवसरों पर उसी संचय में से सबकी विशेषआवश्यकताएँ भी पूरी होती रहती हैं। सामान्य निर्वाह तो सबका एक जैसा होता है। अगले दिनों यही प्रयत्नचलेगा । संपदा समाज की होगी। सभी को औसत नागरिक स्तर का निर्वाह अपनाना पड़ेगा। न कोई धनी बन सकेगा और न निर्धन रहेगा। धरती माता के सभी पुत्र एक विशाल मानव परिवार के सदस्य बनकर एक समान सम्मान, एक समान साधन उपलब्ध करेगे॥४४-५०॥
व्याख्या-वृहत् परिवार में असमानता नहीं होनी चाहिए। किसी को अधिक सुविधा मिले, किसी को कम, यह नीति हर दृष्टि से असंतोष-विग्रह पैदा करती है। इसीलिए परिवार संस्था में सभी को आवश्यकतानुसार समाज रूप से साधन उपलब्ध रहते हैं । विशेष रूप से यह तैयारी मानसिक धरातल पर एवं अंतःकरण के स्तर पर अभी से ही हो जाना चाहिए। हर व्यक्ति एक दूसरे के प्रति अधिक से अधिक उदार हो, अपने प्रति कठोर हो एवं सादगी अपनाता हो तो वह परिवार संस्था आदर्श रूप में विकसित होती है। आने वाले समय को दृष्टि में रखते हुए यह प्रचलन अभ्यास रूप में अभी से लाया जाना अनिवार्य हो गया है । इसी में सबकी भलाई है ।
उदार हृदय की कामना   
महाराज रंतिदेव की प्रचंड तपश्चर्या से जब इंद्रासन डोल ऊठा, तो प्रजापति को उनके सामने प्रकट हो वरदान देने के लिए बाध्य होना पडा। उन्होंनें कहा-"तुम्हारी तपश्चर्या से मैं अत्यधिक प्रसन्न हूँ। चाहो जो वरदान माँग लो।" महाराज बोले-" देवराज! मै चाहता हूँ, मेरे राज्य में ही नहीं, समस्त पृथ्वी पर कोई भूखा न रहे, कोई पीड़ित-शोषित, धनहीन न रहे। पृथ्वी हिरण्यगर्भा हो । जन-जन के मन में बैर, द्वेष, कलह व दुर्भावनाओं का नाम निशान न रहे। पारस्परिक आत्मीयता व सौहार्द्र बढे़। कोई रोगी न हो, दुखी न हो यह मेरा कर्तव्य है और मुझे इस कर्तव्य के पालन की शक्ति दीजिए ।"
यही आदर्श न केवल राष्ट्र प्रमुख का अपितु हर नागरिक का होना चाहिए। सभी एक ही माँ के पुत्र जो है ।
सहायता का ऋणी न बनें  
बेंजामिन फ्रेंकलिन ने एक अखबार निकाला और उसके कारण आर्थिक कठिनाई में पड़कर उसने अपने एक मित्र से बीस डालर लिए। जब उसकी स्थिति ठीक हो गई, तो वह मित्र को वह रकम लौटाने गया । मित्र ने कहा-"वह रकम तो मैंने आपकी सहायता में दी थी ।" फ्रेंकलिन ने कहा-"सो ठीक है, पर जब मैं लौटने की स्थिति में हूँ तो आपकी सहायता का ऋणी क्यों बनूँ?" झगड़े का अंत इस प्रकार हुआ । मित्र ने वह रुपये फ्रेंकलिन के पास इस उद्देश्य से जमा किए कि काई जरूरतमंद उधार मागें, तब इसे उसी शर्त पर दे दें कि वह भी स्थिति ठीक होने पर उन रुपयों को अपने पास जमा रखेगा और फिर किसी जरूरतमंद को इसी प्रकार, इसी शर्त पर दे देगा। कहते हैं कि अमेरिका में वे २० डालर आज भी किसी न किसी जरूरतमंद के पास इसी उद्देश्य से घूम रहे हैं । आवश्यकता के समय दूसरों से सहायता ली जा सकती है, पर यह ध्यान रखना चाहिए कि समय होते ही वह सहायता किसी अन्य जरूरतमंद को लौटा दी जाय। सहायता के साथ जो दान वृत्ति जुड़ी हुई है वह दुहरा कर्ज है। उसका चुकाना एक विशिष्ट नैतिक कर्तव्य है।
लोकसेवी का कर्तव्य
साधन-संपदा सभी के लिए एक समान है, न कोई छोटा है, न बड़ा ।
समय के पाबंद और घड़ी की सुई के साथ चलने वाले स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री तब रेल मंत्री थे। वे सरदार नगर में हो रहे एक सम्मेलन में जा रहे थे। मार्ग में एक गाँव पडता था।
उस गाँव से जब वे गुजर रहे थे, तो कुछ ग्रामीणों ने उनकी कार रोक ली। पूछा गया कि 'क्या बात है?' तो ग्रामीणों ने कहा कि एक गरीब किसान की औरत की प्रसूति का समय निकट है। कोई वाहन मिल नहीं रहा है और उसे पास के शहर भिजवाना है । यदि आप इस गाड़ी में उसे ले जाने दें तो अच्छा है ।"  नहीं यह गाड़ी एक सरकारी काम से सरदार नगर जा रही है"-शास्त्री जी के ही किसी सहयात्री ने तत्काल उत्तर दिया । तो ग्रामीण ने अनुनय करते हुए कहा-"जी उसे भी सरदान नगर ही ले जाना है ।"
बात को अनसुनी करते हुए सहयात्री अधिकारियों ने गाड़ी चलाने को कहा, लेकिन शास्त्री जी तुरंत ही गाड़ीसे नीचे उतर पड़े और बोले-"ले आओ उस बहन को । अपनी गाड़ी से बहन को समीपस्थ शहर पहुँचा दूँगा । इस पर उनके साथी ने कहा-"श्रीमान् देर होती जा रही है और आप अभी यहीं खड़े हैं । वे लोग घंटे भर से पहले नहीं आएँगे ।" "न आने दो । पर सम्मेलन से ज्यादा महत्वपूर्ण है यह बहन । हम एक जनसेवक कहलाते हुए भी ऐसे नाजुक मौकों पर मुकर जाएँ तो इससे बड़ी आत्म प्रवंचना और क्या होगी"-शास्त्री जी ने कहा और उस स्त्री को सरदार नगर पहुँचा कर ही माने ।
नवाब साहब का स्न्नान 
उस समय संयुक्त प्रांत के राज्यपाल सर हारकोर्ट बटलर थे। जो आराम-पसंदी के कारण नवाब साहब के नाम से जाने जाते थे। वह आवश्यकता पड़ने पर राजधानी लखनऊ से प्रयाग भी आते और राजभवन में ठहरते। उनके स्न्नान के लिए एक बडे़ कुंड की वयवस्था थी, जिसमें पानी भरा रहता था। उन दिनों प्रयाग में पानी की बहुत कमी थी। नलों में बहुत थोडे़ समय के लिया पानी आता था। 

जब पीने के लिए पानी मिलना कठिन हो रहा था उस समय राजभवन के कुंड के लिए पानी कहाँ से मिलता।राज्यपाल के अंगरक्षक दौड़े-दौड़े नगरपालिका अध्यक्ष के घर गए।
उस समय अध्यक्ष पद पर टंडन जी कार्यरत थे। वह जान्सटनगंज के एक छोटे से मकान में रहते थे। अंगरक्षकों ने टंडनजी के घर जाकर देखा कि वे जमीन पर टाट बिछाए काम कर रहे हैं, चारों ओर कागज फैले हुए हैं। अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित उन अंगरक्षकों को भी वहीं जमीन पर बैठकर अपनी बात कहनी पड़ी। फर्नीचर की व्यवस्था उनके उस छोटे मकान में थी नहीं । अध्यक्ष महोदय ने उनकी बात बडी गंभीरता से सुनी और यह जानते हुए भी जिस व्यक्ति के संबंध में निर्णय दिया जा रहा है उसकी नाराजी कुछ से कुछ कर सकती है, बिना डरे उन्होंने उत्तर दिया, जब मैं नगरवासियों के पीने के लिए पर्याप्त जल की व्यवस्था नहीं कर पा रहा हूँ तब फिर नवाब साहब के नहाने के लिए व्यवस्था कहाँ से करूँ? व्यवस्था होगी तो सबके लिए समान रूप से होगी। मेरे लिए सभी नागरिक समान हैं ।
श्रमिक स्त्रियों के प्रति उदारता
राष्ट्र प्रमुख को कैसा होना चाहिए, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह घटना है-लाल बहादुर शास्री तब केन्द्रीय गृहमंत्री थे। उनके निवास स्थान का एक दरवाजा जनपथ की ओर था। दूसरा अकबर मार्ग की ओर था। एक बार दो श्रमिक स्त्रियाँ सिर पर घास का गट्ठर रखकर उस मार्ग सेनिकलीं, तो चौकीदार ने उन्हें धमकाना शुरू किया। उस समय शास्त्री जी अपने बरामदे में बैठे कुछ शासकीय कार्य कर रहे थे। उन्होंने सुना, तो बाहर आ गए और पूछने लगे, क्या बात है? चौकीदार ने सारी बातें बता दीं । शास्री जी ने कहा-"क्या तुम देख नहीं रहे हो कि उनके सिर पर कितना बोझ है । यदि यह निकट के मार्ग से जाना चाहती है, तो तुम्हें क्या आपत्ति जाने क्यों नहीं देते?" जंहाँ सहृदयता हो, दूसरों के प्रति सम्मान भाव हों, वहाँ सारी औपचारिकताएँ एक तरफ रखकर वही करना चाहिए, जो कर्तव्य की परिधि में आता है ।
सारी राशि धर्म प्रचार हेतु 
श्रीलंका-कोलम्बो के एक धर्म प्रचारक का नाम है-धर्मपाल। एनीवेसेंट के प्रभाव से वे थियोसोफिस्ट बने। पीछे वे बौद्ध समाज में चरित्र निष्ठा और जन कल्याण के कितने ही काम करने लगे। इसके लिए उन्होंने कितनी ही समितियाँ बनाई, जिनने अपने समय में बड़ा प्रशंसनीय कार्य किया । धर्मपाल की व्यक्तिगत पूँजी तीन लाख की थी । वह सारा पैसा धर्म प्रचार के निमित्त देकर स्वयं पूरी तरह अपरिग्रही संत हो गए। उन दिनों श्रीलंका में भयंकर अकाल पड़ा था। धर्मपाल जी अमेरिका गए । उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर वहाँ के निवासियों ने उन्हें आठ लाख रुपये दिए। जो उन्होंने तत्काल अकाल पीड़ितों के लिए हस्तांतरित कर दिया। धर्मपाल जी ने अपने नाम के साथ कोई संस्था नहीं जोड़ी, न अपने किसी काम के लिए उनने देश-विदेश में कोई धन संग्रह किया।
लघूनां परिवाराणां भाषा संस्कृतिरेव च। भवत्येकैव विश्वे च भाषाऽऽगामि दिनेषु तु॥५१॥ प्रयुक्तास्यादि हैकस्या मानव्या: संस्कृतेरथ। अनुरूपं चिन्तनं स्याद् भवेच्च चरितं तथा॥५२॥ एक एव च धर्म: स्याद् विश्वे च सकलेऽपि ते । नियमास्तु समाना: स्युर्मानवेषु समेष्यपि॥५३॥ निर्विशेषं च ये तत्र प्रभविष्यन्ति पूर्णत:। अनुशासनमप्येवं निर्विशेषं भविष्यति॥५४॥ अवसरस्तत्र भेदानां कृते नैव भविष्यति। यमाश्रित्य समर्थानां हस्तगा: सुविधा समा:॥५५॥ भवेयुस्तेऽसमर्थाश्च दुर्भाग्याय तथाऽऽत्मन:। दुह्यन्तु रोगशोकार्ति पीडिता: सन्तु जीवने॥५६॥ क्षेत्राणां च निजानां वा वर्गाणां च कृतेऽधुना। सन्ति प्रचलनान्यत्र निर्मीयन्तेऽपि यानि च॥५७॥ संसारपरिवारे च निर्मिते स्युर्न ते क्वचित्। व्यवस्था वाऽथ मर्यादा स्यातामत्र विनिर्मित:॥५८॥ उभे भुव: क्वचित्कोणे वसत्सु नृषु पूर्णत:। वंशजात्यादि भेदाच्च रहिते प्रभविष्यति॥५९॥ तत्र वर्गविशेषस्य हितानां न भविष्यति। ध्यानं विश्वव्यवस्थाया: सौविध्यस्यैव केवलम्॥६०॥
भावार्थ-छोटे परिवार की भाषा एवं संकृति एक होती है। अगले दिनों विश्व भर में एक भाषा बोली जाएगी। एक मानव संस्कृति के स्वरूप सभी का चिंतन और चरित्र ढलेगा। एक धर्म पलेगा समस्त संसार पर मनुष्य मात्र पर लागू होने वाले एक जैसे नियम-अनुशासन बनेंगे। ऐसे भेद-भावों की कोई गुंजायश न रहेगी जिनकी आड़ में समर्थों के हाथ में विपुल सुविधा रहे और असमर्थ दुर्भाग्य को कोसते रहें तथा जीवन भर रोग-शोक दुख से पीड़ित रहें अपने-अपने क्षेत्रों और वर्गों की सुविधा के लिए इन दिनों जो प्रचलन बनते और चलते हैं, वे विश्व परिवार बनने पर कहीं भी दृष्टिगोचर न होगे। जो भी व्यवस्था या मर्यादा बनेगी वह धरती के किसी भी कोने में रहने वाले किसी भी जाति-वंश एवं लिंग के व्यक्ति के ऊपर समान रूप से लागू होगी। उसमें विशेषवर्गों के विशेष हितों का नहीं विश्व-व्यवस्था और सर्वजनीन सुविधा का ध्यान रहेगा॥५१-६०॥
व्याख्या-'हम अमुक समाज के, राष्ट्र के निवासी हैं । हमारे दायित्व देश की सीमा तक ही सीमित हैं। नीति-अनीति जैसी भी बने देश के हित के लिए किया जाना चाहिए ।' राष्ट्रों की इस संकीर्ण-स्वार्थपरता युक्त नीति के कारण ही परस्पर विग्रह खड़े होते हैं और तनाव बढ़ते हैं। स्वस्थ राष्ट्रीय भावना देश के विकास के लिए उपयोगी भी है और आवश्यक भी। किन्तु यह भावना जब इसी परिधि तक सीमित हो जाती है तो विश्व शांति को आघात पहुँचता है, एवं "वसुधैव कुटुम्बकम" की स्थिति नहीं आनेपाती ।
प्रज्ञा युग में, जो आने वाले समय की एक सुनिश्चित संभावना है, सभी लोग विश्व को अपने एक विशाल घर के रूप में देखते हुए विश्व-व्यवस्था में अपना भावभरा योगदान देंगे। प्रचलनों के प्रति दुराग्रह मिटेंगे एवं सब ओर सभी में एकता, समानता और बंधुत्व की भावना जायत होकर विश्वव्यापी बनेगी और समाज शिल्पी ऋषियों की वह अमृतमय वाणी स्थान-स्थान पर जन-जन के मन में गुंजित, मुखरित, प्रतिध्वनित और कार्यान्वित होती देखी जाएगी, जिसमें उन्होंने हमें आदेश देते हुए कहा है -
"सज्जच्छध्यम् सम्बध्वम्" तुम्हारी गति और वाणी में एकता हो । "समानो प्रजा सहवोऽन्नभाग:" तुम्हारे खाने-पीने के स्थान व भाग एक जैसे हों । "समानो मन्त्र: समिति: समानी" तुम्हारी सभी गतिविधियाँ एक समान हों और तुम्हारे विचारों के सामंजस्य में एक रूपता हो । "समानी व आकूति: समाना हृदयानि व: ।" तुम्हारे हृदय के संकल्प व भावनाएं एक सी हों।
"अज्येष्ठासोऽकनिष्ठास: सं भ्रातरो वावृधु सौर्भगाय", हम सब प्रभु की संतान एक दूसरे के भाई-भाई हैं। हममें न कोई छोटा न कोई बड़ा। हम सब एक हैं, यह उत्कृष्ट भावना ही मनुष्य को विश्व विराट् में समाहित करने वाली और अविजेय बनाने वाली है। भेदभावों का मिटना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

धर्म पालने वाले अविजेय हैं
मगध सम्राट अजातशत्रु की गिद्ध दृष्टि लिच्छवि गणतंत्र पर केन्द्रित थी। वज्जियों की वैशाली अजातशत्रु के विजय रथ के लिए दुर्धर्ष शिला खंड बनी गौरव से मस्तक ऊँचा किए हुए थी। भगवान बुद्ध अंतिम बार राजगृह के बहिर्वती दुध्रकूट में पधारे तो अजातशत्रु ने मगध महामात्य वसस्कार को उनकी सेवा में भेजकर निवेदन किया, "भगवन्, हम वैशाली को पराभूत करना चाहते है। कोई उपाय बताएँ ।" भगवान् ने यह सुना तो निकट बैठे आनंद से पूछा, "भन्ते, क्या वज्जियों के सन्निपात(संसद-अधिवेशन) बार-बार होते हैं?" "हाँ भगवन् ।" "क्यों आनंद क्या वजिज संघबद्ध हो उद्यम करते हैं,वज्जीकरणीयों (राष्ट्रीय कर्तव्यों) को करते, सभा द्वारा नियम पूर्वक स्वीकृत हुए बिना कोई आदेश तो नहीं प्रचारित करते, स्वीकृत विधि संहिता का उल्लंघन तो नहीं करते हैं, उनके मान्य वचनों को मानते है, अपनी कुल वधुओं एवं कुमारियों का आदर करते हँ, चैत्यों का सम्मान करते हैं, अर्हतों की सेवा और रक्षा करते हैं?"
"हों भगवन्, लिच्छवि इन सभी धर्मों का तत्परता से पालन करते-हैं" -आनंद ने उत्तर दिया ।
भगवान् की मुख मुद्रा गंभीर हो गई। उन्होंने अमात्य वसस्कार की ओर देखते हुए शिष्य से कहा-"तोआनंद, ये धर्म गणतंत्र के प्राण तत्व है। जब तक लिच्छवि इनका पालन करते हैं, वे अविजेय हैं। यही स्वरूप एक आदर्श संस्था, समाज एवं संस्कृति का होना चाहिए। तुम भी उस आदर्श संस्कृति का अंग बनकर रहो, पराभूत करने की न सोचो ।
विश्व-वाद के प्रतिपादक
जनवादी मैसरिक जब चैकोस्लोवाकिया के राष्ट्रपति बने तब उनने राष्ट्रवाद की निंदा और विश्ववाद की आवश्यकता पर बल दिया। उनके इस कथन पर सभी को आश्चर्य हुआ। पर उनने अपनी बात की सफाई देते हुए कहा, जब तक अन्याय से मुक्ति न पाई जाय तभी तक राष्ट्रवाद की जरूरत है । अन्यथा विश्व की समस्याएँ न जातिवाद से सुलझेंगी, न कर्मवाद से, न राष्ट्रवाद से । मैसरिक का जीवन भारी कठिनाइयों से होकर गुजरा था । उनके पिता गोरे होते हुए भी एक जमींदार के यहाँ बँधुआ मजदूर थे । उन्हें पढ़ने की इजाजत बड़ी अनुनय-विनय के पश्चात ही मिली थी । उन दिनों जागीरदार चाहे जिस गाँव पर चढ़ दौड़ते थे और प्रजाजनों को लूटकर, खदेड़ कर खाली कर देते थे। मैसरिक ने गाँव की दीवारों पर लिख दिया इस गाँव में हैजा फैला है। आक्रमणकारी इसे सच मानकर दूसरी ओर चले गए। इस बुद्धिमानी से उस गाँव वाले प्रभावित हुए व उन्हें प्यार करने लगे और पढ़ने में सहायता करने लगे। समय आने पर वे संसद सदस्य चुने गए राष्ट्रपति बने । वर्नाड शा से किसी ने पूछा कि सारे यूरोप का कोई राष्ट्रपति चुना जाय तो आप किसे पसंद करेंगे । योग्यता, प्रतिभा और ईमानदारी को देखते हुए इनने मैसरिक का नाम लिया ।
विश्वधर्म का स्वरुप
टालवी उस अंग्रेज दार्शनिक का नाम है जिसके लेखन और अध्ययन की उत्कृष्टता को सारे संसार में सराहा जाता है । यों विश्व इतिहास के विभिन्न पक्षों पर उनने प्रकाश डाला है पर जोर इस बात पर दिया है कि संसार की समस्याएँ धर्म के आधार पर ही हल होंगी । विश्व धर्म क्या हो सकता है इस संबंध में वे भारतीय-धर्म की संभावनाओं को अग्रणी बताते हैं।
बिना भेदभाव की संस्था
रिचार्ड एलन अमेरिका के एक प्रगतिशील धर्म संस्था के संचालक हैं। उनसे पहले उस देश में गोरे काले का भेदभाव धर्म संस्थाओं में भी था वे संस्थाएँ बहुत दुर्बल थीं। रिचार्ड ऐलन के व्यक्तित्व का ही प्रतिफल है कि उनने बिना भेदभाव की संस्था ही खड़ी नहीं की वरन् उसे उन्नति की उस सीमा तक पहुँचाया जिसे हर दृष्टि से सफल कहा जा सकता है। इस चर्च की अमेरिका भर में शाखाएँ हैं।
उदारता का सुनियोजन
उन दिनों दान का बड़ा अनुपयुक्त तरीका था । वंश और वेष की आड़ में यात्रियों को उदारता से हड़प लिया जाता था । देव पूजन तथा कर्मकांडों से प्रसिद्धि पाने का प्रचलन था। भगवान बुद्ध के प्रभाव से जितने भी उदार चेता आए उन सबको मात्र सद्ज्ञान संवर्द्धन के लिए धन लगाने की प्रेरणा दी । तक्षशिला और नालंदा के भाषा एवं संस्कृति विश्वविद्यालय उन्हीं के प्रयासों से पुनर्जीवित हुए। अनेक क्षेत्रीय बिहार भी ऐसे विनिर्मित हुए जिनमें धर्म प्रचारकों के प्रशिक्षण तथा निर्वाह की व्यवस्था होती थी। इसी आधार पर बुद्ध का विचार क्रांति धर्म चक्र प्रवर्तन विश्वव्यापी बना ।
पड़ोसी को दे दो
केरल के एक हिंदू सज्जन पड़ोसी के बच्चे बचाते समय जल गए। उनकी सहायता के लिए हिंदू समुदाय ने २० हजार इकट्ठा किया। देने पहुँचे तो उनकी धर्मपत्नी ने यह कहकर लेने से इन्कार कर दिया कि "मैं मेहनत-मजदूरी करके पेट पाल लूँगी। पड़ोसी मुसलमान का छप्पर तक जल गया है । यह पैसा उसका घर, कपड़े और बर्तन बनाने के लिए दे दिया जाय ।"
समय के कुप्रभाव को उलटो
उन दिनों शिक्षार्थी विद्याशुल्क जमा नहीं करते थे, पर साथ ही इतने कृतघ्न भी नहीं थे कि जिस आश्रम में लंबी अवधि तक रहकर ज्ञान और निर्वाह प्राप्त किया वे उसका ऋण न चुकाते।
लौटने पर छात्र गुरुकुल का स्मरण रखते और अपनी कमाई का एक अंश नियमित रूप से भेजते । शिक्षा सत्र पूर्ण होने पर शिष्य गुरु से उनकी आवश्यकताएँ पूछते और उनकी पूर्ति का संकल्प लेकर वापस लौटते। उस दिन विरजानंद के गुरुकुल से विद्याध्ययन के उपरांत दयानंद चलने लगे तो चर्चा उस संबंध में हुई कि गुरु आकांक्षी की एक आवश्यकता की पूर्ति के लिए उन्हें क्या करना है । ब्रह्मचारी दयानंद की प्रतिभा से विरजानंद प्रभावित है। उनने कहा कि सामान्य लोगों की तरह न जीकर तुम समय के कुप्रभाव को उलटने में लग सको तो कितना अच्छा हो। शिष्य ने गुरु इच्छा पर अपनी इच्छा निछावर कर दी और उसी दिन सन्यास लेकर समाज सुधार के कार्यों में विश्व संस्कृति के उत्थान में निरत हो गए।
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