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Books - प्रज्ञा पुराण भाग-3

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॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-6

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परिवारस्य कार्येषु नर: कुर्यात् सदैव च । सहयोगं गृहिण्या: सा समयं येन चाप्नुयात्॥५१॥ व्यवस्था स्वच्छता हेतो: सज्जा हेतोश्च सद्मन:। वार्तालापे कलानां च कौशलेऽथापि सा स्वयम्॥५२॥  समस्यानां समाधाने भूमिका निर्वहेत् स्वकाम्। अतिव्यस्तस्थितौ स्यान्न किमप्याचरितुं क्षमा॥५३॥ कुटुम्बदिनचर्याऽथ व्यवस्थाया विधिश्च सः । परंपरा तथैवं स्याद् येन पाकविधावुत॥५४॥ स्वच्छतायां न नष्ट: स्यात् सर्वोऽस्या: समयों महान्। ईदृशी सुविधा यत्र तत्रत्या गृहिणी नहि॥५५॥ अनुभवत्यथ काठिन्यं विकासं योग्यतामपि। सुसंस्कारानवाप्तुं यत् कुटुम्बाय महत्वगम्॥५६॥  नार्या: श्रमस्य कर्तव्य उपयोगो विशेषत:। युगं नवं ततो नारीप्रधानं भविता शुभम्॥५७॥ सृजनस्य नवस्याऽस्यां क्षमता भावनात्मिका। बाहुल्येनास्ति चागामिदिवसेषु भविष्यति॥५८॥ समाजो भावना मुख्य: स्तरस्याऽस्य विनिर्मिते:। क्षमता मुख्यतो दत्ता स्रष्ट्रा नार्यां न संशय:॥५९॥ निर्माणाय युगस्यापि नेतृत्वाय स्त्रियस्तत:। न: प्रमादी विलम्बो वा कार्यो वर्च: परिष्कृतौ॥६०॥ 
भावार्थ-घर परिवार के कार्यों में पुरुष नारी का हाथ बँटाए। उन्हें इतना अवकाश दो कि परिवार की व्यवस्था स्वच्छता सज्जा ठीक प्रकार रख सके । वार्तालाप कला-कौशल एवं समस्याओं के समाधान में अपनी भूमिका निभा सके। घोर व्यस्तता की स्थिति में तो वे कुछ भी कर सकेंगी। पारिवारिक दिनचर्या विधि-व्यवस्था और परंपरा ऐसी रहे जिसमें उसे पाकशाला-स्वच्छता में ही सारा समय न खपाना पड़े । ऐसी सुविधा जहाँ भी होती है, वहाँ नारी को सुविकसित, सुसंस्कृत एवं सुयोग्य बनने में विशेष कठिनाई नहीं रह जाती । यह पारिवारिक हित में छत महत्वपूर्ण है। नारी-श्रम का अधिक महत्वपूर्ण उपयोग करने की आवश्यकता है। हे सज्जनो! नवयुग नारी प्रधान होगा। नव सृजन की भावनात्मक क्षमता की उसी में बहुलता है । अगले दिनों भावना प्रधान समाज बनेगा। उस स्तर के निर्माण की क्षमता नारी में ही शष्टां ने प्रमुखतापूर्वक प्रदान की है इसमें संदेह नहीं। युग का निर्माण और नेतृत्व करने के लिए उसका वर्चस्व निखारने में न विलंब किया जाय, न प्रमाद बरता जाय॥५१-६०॥
व्याख्या-आज समाज में चलन यही है कि पत्नी को चहारदीवारी में बंद रहकर घर की सुव्यवस्था बनानी चाहिए एवं जहाँ तक संभव हो पुरुष, बालकों व अन्य पारिवारिक सदस्यों के विकास हेतु खपना चाहिए। शदियों से वह यही करती आई है। पर्दाप्रथा जैसी कुरीतियों ने ऐसी त्रासदी और बढ़ाई है ।
यह मानव समुदाय के हित मे ही है कि पुरुष व स्त्री दोनों मिल-जुलकर परिवार रूपी रथ की गाड़ी खींचें । नारी को इतना समय मिलना चाहिए कि वह परिवार की सुसंस्कारिता, सुव्यवस्था बनाए रखने के अतिरिक्त स्वयं की सर्वांगपूर्ण प्रगति के लिए समय निकाल सके। यह कदम पुरुष समुदाय की ओर से ही उठना चाहिए, क्योंकि इसमें नारी के साथ-साथ उनका हित-साधन भी होता है। विश्व संतुलन नारी के पक्ष में जा रहा है। अब कहीं-कहीं नारी जागृति के स्वर मुखरित होने लगे हैं । जहाँ अवसर मिला है, नारी स्वयं आगे आई है व परावलंबन की जंजीरें तोड़कर उसने प्रगतिशील भूमिका निभाई है ।
यहाँ ऋषि कहते हैं कि आने वाला समय मूलत: भाव प्रधान होगा एवं इसका सुसंचालन नारी शक्ति करेगी। ऐसी स्थिति में यह न केवल स्रष्टा की इच्छा के विपरीत है, अपितु एक तरह से मनुष्य की तुच्छता ही है कि वह नारी को विकास हेतु आगे बढ़ने देने का अवसर न दे । नया समाज लाने, नव निर्माण करने एवं मानव में देवत्व, धरती पर स्वर्ग जैसी परिस्थितियों को उतारने के लिए नारी की शक्ति को निखारना, उसे प्रखर बनाना समय की एक महती आवश्यकता है। अगले दिनों नारी द्वारा विश्व का नेतृत्व किए जाने की संभावना इसलिए अधिक है कि पददलित वर्ग को अगले दिनों अनीति मूलक प्रतिबंधों से छुटकारा पाने का अवसर मिलने ही वाला है। ऐशी दशा में वे अपने को सुविकसित एवं सुयोग्य बनाने का प्रयत्न करेंगे, फलस्वरूप प्रकृति का पूर्ण सहयोग भी उन्हें मिलेगा और विश्व के नव निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका संपादित करेंगें ।
सरिता का समर्पण
सरिता भाग रही थी, सागर से मिलने के लिए। मार्ग में रेगिस्तान का बीहड़ पड़ता था। मरुस्थल की रेत सरिता को सोखे डाल रही थी। थोड़ी दूर जाकर वह मात्र गीली रेत हो गई । सपना टूट कर चकनाचूर हो गया। उद्गम स्रोत से वह जल लेकर पुन: तीव्र वेग से चल पडी । पर फिर उसकी वैसी ही दुर्गति हुई । ऐसा अनेक बार हुआ । झुंझलाकर निराश होकर उसने रेत से पूछा-"क्या सागर से मिलने का मेरा सपना कभी पूरा होगा?" रेत ने कहा-"मरुस्थल को पार करके जाना तो संभव नहीं है, पर तू अपनी संपदा को बादलों को सौंप दे । वे तुझे सागर तक पहुँचा देंगे ।" अपने अस्तित्व को मिटाकर अद्भुत समर्पण का उससे साहस बन नहीं पा रहा था। पर रेत का परामर्श उसे सारगर्भित जान पड़ा । श्रद्धा ने समर्पण को प्रेरणा दी। बादलों पर बूँदों के रूप में सवार होकर वह अपने प्रियतम सागर में जा मिली ।
सच्चा समर्पण हो तो भक्त का भगवान से मिलन कठिन नहीं होता, नदी की तरह सुगम बन जाता है । पुरुष-नारी दोनों यदि सच्चे दिल से एक दूसरे की प्रगति चाहते हों, तो एक होकर चलना पडे़गा। किसी एक के आगे बढ़ते रहने मात्र से तो यह संभव नहीं।
जब घुलें हैं, तो घृणा क्यों?
आकाश ने पृथ्वी के ऊपर एक उपेक्षावृत्ति डाली और व्यंग्यपूर्वक कहा-"देखता हूँ आजकल तुम ऐश्वर्य से फूली नहीं समातीं, पर यह न भूलना यह सब मेरी कृपा का फल है, मेरे ही प्रकाश, मेरे ही पवन और मेरे ही दिए पदार्थों के कारण तुम लहलहा रही हो ।"पृथ्वी बोली-"स्वामी जब आप ही मुझमें घुले हुए है, तो फिर नाहक घृणा क्यों करते है ।" पृथ्वी की नम्रता के आगे आकाश की आँखें झुक गईं, कुछ बोलते न बना । पुरुष व स्त्री के संबंध आज समाज में आकाश एवं पृथ्वी के समान ही है । यदि दोनों मिलकर एक रहे, पुरुष नारी को आगे बढ़ने का अवसर दे, तो कहीं वैमनस्य न रहे, प्रगति सतत होती रहे ।
किसी को भी छोटा न बताएँ
अपने बड़प्पन को सिद्ध करने के लिए लोग दूसरों को गिराने का प्रयत्न करते हैं, पर वे इसमें प्राय: सफल नहीं होते उलटे अपने को ही बदनाम कर लेते हैं । उपाय दूसरा है, जिसकी सिखावन देते हुए एक अध्यापक ने छात्रों को समझाया। श्यामपट पर अध्यापक ने एक लकीर खींच दी और छात्रों से पूछा-"इसे बिना मिटाए छोटी करके दिखाओ।" वैसा कोई भी न कर सका। सभी चुप बैठे थे। अध्यापक ने उस लकीर के समीप ही एक बड़ी लकीर खींच दी और कहा-"अब यह छोटी हो गई न?" लड़कों ने स्वीकृति सूचक सिर हिलाया ।
अध्यापक ने कहा-"अपना बड़प्पन सिद्ध करने के लिए किसी को गिराने या नीचा दिखाने की आवश्यकता नहीं । अन्यों की तुलना में अधिक ऊँचा पुरुषार्थ किया जाय, तो सहज ही बड़प्पन हाथ लगेगा और किसी को छोटा सिद्ध करने की आवश्यकता न पड़ेगी ।" पुरुष स्त्री का सहचर बनकर रहे, उसे प्रगति के अवसर देता रहे, इसी में उसका बड़प्पन है ।
नारी को सहज मिले अनुदान
विधाता ने एक बार मनुष्यों की सहायता करने के लिए देवदूत भेजा और कहा-"जिसकी जो कामना हौ, उसे पूरी कर दिया करें ।" देवदूत अरपने काम में तत्परतापूर्वक लगे रहे। अनुदान असंख्यों ने पाए, पर रोना-कलपना किसी का बंद नं हुआ। संकटों से किसी को मुक्ति न मिली । इस असफलता से मनुष्य देवदूत और विधाता तीनों ही खिन्न थे। नारद को कारण का पता लगाने भेजा गया। पता चला कि मनुष्य दुर्गुणग्रसित है। जो पाते हैं, उन्हें अनाचार में लगा देते हैं, फलत: दरिद्रता मिटती नहीं, संकट कटता नहीं ।
विधाता ने देवदूत को वापस बुला लिया और निर्देश में नया परिवर्तन किया कि वे मात्र सद्गुणी सदाचारियों की ही सेवा किया करें । अनाचारियों को वरदान न दिया करें। तब से अब तक वही क्रम चल रहा है। देवताओं की सहायता मात्र सजनों के रूप में नारियों को ही मिलती है । दुर्जन मनुष्यों की मनुहार अनसुनी होती और निरर्थक चली जाती है। मनुष्यों में सज्जनता का अंश नारी में सर्वाधिक है। इसलिए अनुदान उसे सहज ही मिले हुए हैं । यदि उनका लाभ सभी को मिलना है, तो उसका सम्मान भी होना चाहिए, नारी को आगे बढ़ाने के प्रयास भी सतत होने चाहिए ।
भावी प्रगति में नारी की भूमिका 
स्टालिन कहते थे कि स्त्रियों को चिरकाल के उपरांत मानवोचित अधिकार मिले है। उस उत्साह में उनका पुरुषो की समता करने या श्रेष्ठता जताने की आकांक्षा उभरे, तो उसे उचित ही समझा जाना चाहिए। उन्हें अपनी प्रसुप्त क्षमताओं को उभारने का अवलंबन और प्रतियोगिता में विजयी होने का अवसर मिलना चाहिए। किन्तु इतना ही पर्याप्त न होगा । उन्हें दो कदम आगे बढ़कर यह कार्य विशेष रूप से अपने कंधों पर लेना चाहिए कि वे नई पीढ़ियों कों प्रतिभावान बनाए। नई पीढ़ी ही राष्ट्र की सच्ची संपदा है। उसी की प्रगति पर सब की प्रगति निर्भर है। इस कार्य में स्त्रियां सदा पुरुषों से आगे रही हैं। इन दिनों तो उनकी भूमिका इस दिशा में और भी अधिक अग्रगामी होनी चाहिए ।
विद्वत्ता में और भी आगे भारती
मिथिला देश के महापंडित मंडन मिश्र का जगद्गुरु शंकराचार्य से शास्त्रार्थ हुआ । मंडन मिश्र हारने लगे, तो उनकी पत्नी भारती जो उन्हीं के समान विद्वान थीं, कहा कि अभी मिश्र जी के आधे अंग के रूप में मैं मौजूद हूँ। शास्त्रार्थ का उत्तरार्द्ध मैं पूरा करूँगी। शास्त्रार्थ लंबे समय तक चला । भारती की विद्वता देखकर सारा विद्वत समुदाय दंग रह गया। अंतत: पति-पत्नी दोनों हार गए । तब दोनों ने शंकराचार्य से दीक्षा ली और वेद धर्म के प्रचार में जुट गए ।
नारी जागरण की सूत्र संचालिका रामा देवी
दुर्भाग्य ने जन्म से लेकर ढलती आयु तक रामा बाई का पीछा न छोडा । पिता-माता मरे, भाई-बहन उठ गए। ३० वर्ष में विधवा हो गई। एक पुत्री गोद में थी। सहायकों में कोई अपना न दीखता था। ऐसी परिस्थितियों में रामादेवी किसी का आश्रय तकने की अपेक्षा अपने पैरों खडी हुई। पिता जी कथा-पुराण कहते थे। संस्कृत के विद्वान थे। बचपन में वही पैतृक अनुदान उन्हें मिला था । वे कथा-पुराण कह कर अपनी आजीविका चलाने लगीं। साथ ही अपनी शिक्षा भी जहाँ-तहाँ भ्रमण करती हुई बढ़ा ली । अंग्रेजी ज्ञान बढाने के बाद उन्हें इंग्लैंड जाने का अवसर भी मिला।
वहाँ से लौटते ही वे नारी उत्कर्ष के काम में लग गईं । उनने महिलाओं के लिए कई विद्यालय और छात्रालय खुलवाए। जिन कुरीतियों के नीचे भारतीय नारी को निरंतर दबकर रहना पड़ता था, उन्हें उखाड़ने के लिए उनने कुछ उठा न रखा। उन्हीं का प्रयत्न था कि नारी जागरण के लिए अनेक संगठन बने और अपने प्रयत्नों में विरोधियों की चिंता न करते हुए बहादुरी के साथ जुट पड़े।
रुढिवादी समाज से टक्कर लेने वाली पार्वती देवी 
माता पार्वती देवी अमृतसर में जन्मीं । क्वेटा में ब्याही गईं । दो वर्ष में ही विधवा हो गई। वैधव्य की व्यथा को उनने अपने देश की सेवा में निछाबर करके हलका किया । उन दिनों गाँधी जी की आँधी चल पड़ी । स्वतंत्रता संग्राम जोरों पर था, अध्यापिका पद पर भी वे थोड़े ही दिन रहीं । इसके बाद उनने राष्ट्रीय महिला सभा और कुमारी सभा का गठन किया। रूढ़िवादी समाज से टक्कर लेते हुए यह स्थापनाएँ कर सकना उन दिनों जादू जैसा आश्चर्यजनक कार्य माना गया।
माता पार्वती देवी सन् १९२२ से लेकर १९४२ तक छ: बार जेल गई और सात वर्ष तक कठोर यातनाएँ सहती रहीं। पंजाब में नारी जागरण का सूत्रपात उन्हीं ने किया। हजारों महिलाएँ उस क्षेत्र से स्वतंत्रता संग्राम में जेल गईं। कुरीतियों को तोड़ने में उनने पूरी साहसिकता का परिचय दिया। ८२ वर्ष की आयु में भी उनका पराक्रम युवकों जैसा बना रहा ।
महिला सुधार के लिए प्रयत्नशील-ज्योतिबा फुले
ज्योतिबा फुले का जन्म पूना के एक माली परिवार में हुआ था। अभिभावकों ने उन्हें इसलिए ऊँची शिक्षा दिलाई कि अच्छी कमाई करेगा । पर उनने तत्कालीन समाज पर दृष्टि डाली, तो उसे सुधारने के लिए प्रयत्न करना आवश्यक समझा। माली होने के कारण उन्हें अछूत समझा जाता था । ऐशी दशा में निजीकमाई करने की अपेक्षा समाज सुधार को उनने अधिक आवश्यक समझा। उनने अपने जैसे जैसे विचार वालों को लेकर एक समाज सुधार समिति गठित की और स्त्रियों तथा शूद्रों के साथ बरते जाने वाले अनाचार का विरोध प्रारंभ कर दिया । वे उस क्षेत्र में दूर-दूर तक जाते थे और भाषणों से तथा छोटे साहित्य से लोगों के विचार बदलने का प्रयत्न करते थे। उनकी धर्मपत्नी ने पति का पूरा-पूरा सहयोग किया । उसके प्रयास से 'महिला समिति', 'कन्या विद्यालय', विधवा विवाह आदोलन' जैसे कई प्रगतिशील कार्य हाथ में लिए ।
अपने कार्यों के कारण वे महात्मा फुले के नाम से प्रख्यात हुए । उनके आदोलनों का समूचे महाराष्ट्र पर भारी प्रभाव पड़ा ।
जिनने विधवाओं की शिक्षा में अपने को खपाया 
सुब्बलक्ष्मी का विवाह आठ वर्ष की आयु में हुआ और वे दस वर्ष की होते-होते विधवा हो गई । दक्षिण भारत के ब्राह्मण परिवारों में उन दिनों नारी शिक्षा का प्रचलन न था । तो भी सुब्ब के पिता ने साहस करके उन्हें पढाया । मैट्रिक कराई । इसके बाद कान्वेंट कॉलेज में उन्होंने बी ०ए० किया । कई जगहों से नौकरियों के आफर आए, पर उसने अपनी जैसी स्थिति की हिंदू विधवाओं के लिए शिक्षा व्यवस्था करने में जीवन लगाया। उनका स्थापित ट्रावनकोर का विधवा सदन अब तक भारी प्रगति कर चुका है । सुब्ब का जीवन उसी में खप गया ।
मन विषयों में लगा नहीं
नंदा संपन्न घर में विवाही थी । पर उसका मन विषय-भोगों में लगा ही नहीं । उसने अपनी माता प्रजापाति गौतमी से प्रार्थना की, कि उसे इस पराधीनता से मुक्त कर परमार्थ जीवन का द्वार खोलने की आज्ञा दें, तथागत की शिक्षा से उसका परिवार भी बौद्ध धर्म में दीक्षित हुआ और नंदा को भिक्षुणी रूप में जन-कल्याण में संलग्न होने की आज्ञा मिल गई ।
खेमा से महा-प्रज्ञावती
महाराजा बिंबसार की बौद्धधर्म में निष्ठा थी। उनकी पत्नी खेमा आरंभ में विलास प्रिय थी, पर जब भगवान उनके घर भिक्षा के लिए आए, तो रानी ने अपना सिर उनके कमंडलु पर रख दिया और भिक्षुओं की तरह सत्प्रयोजनों में लगा देने का आग्रह किया। बिंबसार ने आपत्ति भी की । खेमा श्रावस्ती पहुँची और अपनी व्यवस्था बुद्धि से आश्रम को स्वर्गोपम बना दिया । तथागत उन्हें महाप्रज्ञावती कहकर संबोधित करते थे ।
मर्दानी रानी लक्ष्मीबाई
लक्ष्मी बाई रानी ने बचपन से ही घुड़सवारी तथा शस्त्र संचालन में प्रवीणता प्राप्त कर ली थी । वे कहा करती थी कि यदि अवसर मिले  तो स्त्रियाँ मर्दों से किसी प्रकार पीछे सिद्ध नहीं हो सकतीं।उनका विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव से हुआ । राजा के मर जाने पर उनने शासन अपने हाथ में सँभाला और एक फौज स्त्रियों की अलग से गठित की । अंग्रेज इस प्रकार का ताना-बाना बुन रहे थे कि रानी को पाँच हजार रुपया वार्षिक पेंशन देकर छुट्टी कर दी जाय । पर वे इसके लिए तैयार न हुईं । फौज ने उस क्षेत्र के अंग्रेजों का सफाया कर दिया । इस पर अंग्रेजी फौज की बड़ी चढ़ाई झाँसी पर हुई । वे लड़ी और कालपी तथा ग्वालियर से सहायता प्राप्त करने गईं । वह न मिली तो उनने स्वयं ही मोर्चा सँभाला और अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए।
गोलियों से उनका शरीर और घोड़ा बुरी तरह छलनी हो गया था । एक घास के ढेर में घुस कर उनने आग लगा ली, ताकि उनका शरीर अंग्रेजों के हाथ न पड़े । अंग्रेज सेनापति ने यह समाचार सुनकर कहा था-"इस देश में सच्ची मर्द एक ही थी लक्ष्मी रानी ।"
लडकी ने वंश चलाया
कर्नाटक के छोटे से गाँव उडुपी में नैष्ठिक ब्राह्मण के यहाँ एक मात्र संतान कन्या हुई। सभी उन ब्राह्मण श्री निर्मल पर दबाव डालने लगे कि दूसरा विवाह कर लें, शायद उससे पुत्र प्राप्त हो जाय, वंश चले। श्री निर्मल ने दृढ़ता से इसे अस्वीकार कर दिया। कन्या का नाम था-अक्का महादेवी । उन दिनों कन्याओं को शास्त्रज्ञान के अयोग्य माना जाने लगा था। श्री निर्मल ने अक्का को सभी शास्त्रो का अध्ययन कराया, ज्ञान दिया एवं आध्यात्मिक दिशा दी । रूढ़िवादी लोग निर्मल का उपहास करते, कहते-"क्या लड़की से वंश चलेगा?" शिक्षा और वातावरण के प्रभाव से अक्का महादेवी का व्यक्तित्व विकसित होता गया। वे एक महान तपस्विनी, आदर्शवादी विदुषी के रूप में प्रसिद्ध हुईं और पिता का नाम रोशन कर दिया । आज भी लोग श्री निर्मल का नाम अक्का महादेवी के पिता के रूप में जानते हैं, उपहासकर्ताओ में से एक का भी नाम किसी को ज्ञात नहीं ।
भारत के राष्ट्र निर्माता जवाहरलाल नेहरू ने इंदिरा का लालन-पालन, उनकी शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था ऐसे सुव्यवस्थित ढंग से की थी कि बाद में उन्होंने न केवल नेहरू वंश का नाम रोशन किया, वरन समूचे राष्ट्र और विश्व में अपने व्यक्तित्व और कर्तृत्व की अमिट छाप छोड़ गईं ।
योग्यदायित्वनिर्वाहे स्वस्थस्य वपुशस्तथा । तुलिताया मनोभूमेरनुभूतेस्तथैव च॥६१॥ अपेक्षा कौशलस्यास्ते तेन चावसररत्वयम् । नार्या लभ्यते यत्नोऽत्र नूनं कर्तव्य इष्यते ॥६२॥  सुविधाश्च समा एता संयुक्ता: स्युस्तदैव तु । नारीं पुराणकालस्य स्तरं प्रापयितुं भवेत्॥६३॥ वातावृतिं समानेतुं कृतस्येव युगस्य तु । उचितां भूमिकां वोढुं गृहिणी तून्नतस्तरा॥६४॥ विधेया यत्नतो नारी नरेणैव गतेषु तु । दिनेष्यनीतियुक्तैश्च प्रतिबन्धे: सुपीडिता॥६५॥  नीता दुर्गतिमद्याऽपि न सा तस्मादुदेत्यहो । अर्धांगिनीदशाहेतो: संकटैर्नर आवृत:॥६६॥ प्रायश्रित्तमिदं तस्योत्साहेन द्विगुणेन हि । तस्या उत्थानकमैंतद् विधेयं यत्नतो नरै:॥६७॥ 
भावार्थ-महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों के निर्वाह में स्वस्थ शरीर सतुंलित मनोबल अनुभव एवं कौशल अपेक्षित है । नारी को इस योग्य बनाने का अवसर मिलना आवश्यक है । ये सभी सुविधाएँ जुटाने से ही नारी को प्राचीनकाल की तरह समुन्नत स्तर तक पहुँचाया जा सकेगा । सतयुग का वातावरण वापस लाने के लिए नारी को उपयुक्त भूमिका निभा सकने योग्य स्तर का बनाया जाना चाहिए । पिछले दिनों नारी को अनीति भरे प्रतिबंधों में जकड़कर नर ने ही उसे दुर्गतिग्रस्त किया है । इसी से आज भी वह उठ नहीं पा रही है तथा अर्धांगिनी की दुर्दशा से नर भी संकटों से घिरा है। उसका प्रायश्चित यही है कि दूने उत्साह से उसके उत्थान की व्यवस्था बनाई जाय॥६१-६७॥
व्याख्या-नारी में समुचित आत्मबल है। फिर भी समाज रूपी रणक्षेत्र में ऊँचा उठने के लिए उसे कौशल अर्जन, स्वास्थ्य संवर्द्धन एवं पुरुष के सहयोग की आवश्यकता है । अभी तक तो उसे पराधीनता के पाश व ही जकड़ा जाता रहा है । फलश्रुतियाँ सामने हैं । मध्यकाल के अनीति व दमन से भरे समय मेंपुरुष समुदाय ने नारी-शक्ति का दोहन भी किया व उसे पददलित भी । उसे दंड स्वरुप अवगति के गर्त में जाना पड़ा है । नारी की दुर्दशा का अर्थ है, नर का संकटों से घिरना । अब यदि सत्प्रवृत्तियों से भरा नया समाज बनता है, सतयुग लाना है तो नारी के प्रसुप्त मनोबल को उभारना एवं उसे परिपूर्ण सहयोग देना ही पुरुषों का प्रायश्चित हो सकता है। नारी में शक्ति का अजस्त्र स्रोत छिपा है। उसे उजागर करने भर की आवश्यकता है। जब जब भी अवसर आए हैं, उसने आगे बढ़कर-मोर्चा अपनें हाथ में लेकर, अपनी साहसिकता का परिचय दिया है ।
लड़के के वेश में वीर योद्धा नारी
भोपाल के पास एक गाँव में योद्धा क्षत्रिय परिवार था । लड़का था जोरावर, लड़की पद्मा, पिता ने दोनों को समान रुप से शस्त्र विद्या सिखाई । पिता के न रहने पर भाई कर्जदार हो गया। रियासत ने उसे जेल में बंद कर दिया । 'कर्जा कैसे चुके-भाई कैसे छूटे?"-इसका उपाय सोचते हुए, लड़की ग्वालियर राजा की फौज में मर्दाना वेश बनाकर भर्ती हो गई । उसकी प्रतिभा असाधारण थी, सो जल्दी ही हवलदार बन गई। उम्र बढ़ने पर भी मूंछें न आई, तो संदेह किया गया और उसे लड़की पाया गया। बात ग्वालियर महाराज तक पहुँची। उनने सारी परिस्थिति जानी । खजाने से रुपया भेजकर भोपाल का कर्जा चुका दिया। भाई जेल से छूटा । लड़की का विवाह प्रधान सेनापति से हुआ ।
वीर नारी का सम्मान करो
अमेरिका के यूनियन और कनफिडरेट पक्षों में उन दिनों गृह युद्ध चल रहा था। प्रेसीडेंट अब्राहम लिंकन यूनियन पार्टी में थे। गृह युद्ध में विरोधी पक्ष के कितने ही लोग बंदी बनाए जा चुके थे । सत्ता लिंकन के हाथ में थी । जीत भी उन्हीं का पक्ष रहा था। विरोधी पक्ष की एक युवती अपने बंदी भाई से मिलने का प्रयत्न कर रही थी । पर अधिकारी उसे इसके लिए इजाजत नहीं दे रहे थे । आखिर वह प्रेसीडेंट, के पास ही जा पहुँची और अपना अभिप्राय बताया ।
लिंकन ने उससे पूछा-"मेरा विश्वास है, तुम देश भक्त हो ।" युवती ने निर्भीकतापूर्वक उत्तर दिया-"मैं अपने देश वरजीनिया के प्रति देशभक्त हूँ।" वरजीनिया विरोधी पक्ष था। विरोधियों को ऐसी सुविधा क्यों दी जाय, जिसमें पीछे कोई संकट उत्पन्न होने की आशंका हो, यह एक प्रश्न था। लिंकन कुछ देर सोचते रहे और उन्होंने एक पर्चा लिखकर युवती के हाथ में थमा दिया और जेल में भाई से मिलने की स्वीकृति लिख दी।
अफसरों ने प्रेसीडेंट से इस उदारता का कारण पूछा तो उनने यही कहा-"ईमानदार व्यक्ति यदि विरोधी भी हो, तो भी उससे किसी अवांछनीय अनिष्ट का आशंका नहीं करनी चाहिए । इस नारी में सौजन्य भी है और साहस भी । वह हर दृष्टि से अभिनंदनीय है। उसे दंड देने के स्थान पर उससे शिक्षा लेनी व उसका सम्मान करना चाहिए ।"
जोन ऑफ आर्क
फ्रांस में स्वतंत्रता की आग जलाने और उसमें अपने आप को होम देने वाली कुमारी जान ऑफ आर्क, न केवल यूरोप में वरन् समस्त संसार में आज भी अतीव सम्मान की दृष्टि से देखी जाती हैं । फ्रांस पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया था । फ्रांसीसी प्रतिरोध से वे हट नहीं रहे थे । इसी बीच एक किसान कन्या जान ऑफ आर्क ने जनता को संगठित किया और आजादी का बिगुल बजाया । उसने एक सेना भी गठित की, जिसके लिए जन-धन की आवश्यकता वहाँ के देशभक्तों द्वारा पूरी होने लगी । वह पुरुष के वेष में सेनानायक का काम करती थी। इस बीच वह दो बार घायल हुई, पर किसी को भी जान से नहीं मारा। उसकी आत्मशक्ति ही ऐसी थी कि विरोधी बिना घायल हुए ही मैदान छोड़कर भागने लगे थे ।
जोन पकडी गई । उसे शत्रुओं ने जीवित जला दिया । फिर भी अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसी जनता का युद्ध चलता रहा और वह स्वतंत्र होकर रही।
नीग्रो समाज को स्वावलंबी बनाने वाली ऐजिल
अमेरिका में कानून द्वारा नीग्रो समुदाय को समानता के अधिकार मिल गए थे। पर उनका व्यावहारिक उपयोग नहीं के बराबर होता था। जिन जिन परिस्थितियों में उनके बाप-दादों को गुलामी की जिंदगी जीनी पड़ी थी, लौट-पलटकर वे उसी में रहने के लिए बाधित किए जा रहे थे । इन  परिस्थितियों को बदलने के लिए आवश्यक था कि नीग्रो समुदाय स्वयं अपने पैरों खडा हो और अधिकारों की लडाई लडे़। पर इसके लिए उन्हें साहस प्रदान कौन करे? यह कार्य एक अमेरिकन महिला डेविस ऐजिल ने अपने कंधों पर लिया । कैलीफोर्निया के कॉलेज में उन्हें छात्रवृत्ति मिली। पढ़ाई जारी रखने के अलावा उन्होंने नीग्रो जागरण में भाग लिया । पी०एच०डी० की और एक कॉलेज में अध्यापिका हो गईं । आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी होते हुए भी अपने काम के लिए उन्हें भारी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी। नौकरी से निकाली गईं । जेल गई । फिर भी अपना कोम नहीं छोड़ा । नीग्रो समुदाय को उनके नेतृत्व में जो सुविधाएँ उपलब्ध हुईं, उसके लिए वे सदा इस तेजस्वी महिला के कृतज्ञ रहेंगे ।
देव संस्कृति को समर्पित विदेशी नारी 
एनीवेसेंट आयरलैंड में जन्मीं, इंग्लैंड में पलीं और सेवामय जीवन बिताने के लिए हिंदुस्तान चली आईं। वे ईसाई परिवार की थीं, पर अध्ययन और चिंतन-मनन ने उन्हें व्यवहारत: सच्चा हींदू बना दिया। इस देश की सेवा करने के लिए उन्होंनें समय-समय पर कितनी ही प्रवृत्तियों आरंभ कीं और बढ़ाई । उन्होंने अडियार मद्रास में थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना की ।
काशी में सेंट्रल हिंदू कॉलेज आरंभ किया, जो आगे चलकर हिंदू विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया । वे राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं। अंग्रेजी का एक साप्ताहिक पत्र मुद्दतों चलाती रहीं । वे १०६ वर्ष जीवित रहीं, जिसमें से अधिकांश समय उनने भारत की सेवा में बिताया । वे अद्भुत वक्ता और लगनशील संगठनकर्त्री थीं ।
विधवा विवाह होते सत्साहस जुटाया
पुरुष समुदाय में भी ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने अपनी विभूतियों का सदुपयोग नारी को स्वावलंबी बनाने, उसे ऊँचा उठाने में किया है । जब भी अवसर आया है, कुरीतियों के प्रपंच से मुक्ति दिलाकर उन्होंने साहस भरे कदम उठाए हैं।
गुजरात के सेठ दानमल जीं उस प्रांत के मूर्धन्य व्यापारी थे। उनके २२ वर्षीय पुत्र का अचानक स्वर्गवास हो गया। उसका विवाह एक वर्ष पूर्व ही हुआ था । लड़के के मरने से भी अधिक दुख उन्हें पुत्र-वधू का था कि वह अपना जीवन किस प्रकार काटेगी। पुत्र शोक में सहानुभूति प्रकट करने बिरादरी वाले, संबंधी तथा व्यापारी बड़ी संख्या में आए। सेठ दानमल जी ने पुत्रवधू के पुनर्विवाह की बात उन सब के सामने रखी, पर सवर्णों में वैसा प्रचलन न होने के कारण कोई सहमत नहीं हुआ। सेठजी ने अपने दूसरे नंबर के लड़के को इसके लिए तैयार कर लिया। वधू की भी स्वीकृति ले ली और कुछ ही दिनों बाद अपने घर में यह विवाह संपन्न कर लिया। चर्चा सारे समाज में फैली । किसी ने भला कहा, किसी ने बुरा । किन्तु प्रतिक्रिया तब सामने आई, जब सवर्ण जातियों में उसी वर्ष कई विधवा विवाह हुए ।
जो गरजते हैं वे बरसते नहीं  
कभी-कभी पुरुषों को अनगढ़ नारी के विकास हेतु स्वयं सहनशीलता की साधना करनी पड़ती है। यह भी जरूरी है। सुकरात की पत्नी कर्कश स्वभाव की थीं । पति को भी परमार्थ कार्यों से रोकतीं और जो मिलने आते, उन्हें भी कोसतीं, सोचतीं इसमें लाभ नहीं होता, घाटा पड़ता है ।
एक दिन सत्संग गोष्ठी चल रही थी । पत्नी ने छत पर से उन सब के ऊपर गंदा पानी उलीच दिया और गंदी गालियाँ सुनाईं। वातावरण में आक्रोश पनपा। आगंतुकों ने इसे अपमान माना। सुकरात ने सूझबूझ से काम लिया। उनने क्रोध को विनोद में बदला । हँसते हुए कहा-"आज वह किंबदंती मिथ्या हो गई, जिसमें कहा जाता है कि जो गरजते हैं, वे बरसते नहीं' आज तो गरजना-बरसना साथ साथ हो रहा है ।" क्रोध, हँसी में बदल गया। गीले कपड़े सुखाने के लिए डाल दिए गए और विचारगोष्ठी फिर उसी संतुलित वातावरण में चलने लगी। चलते समय सुकरात ने सिखाया 'प्रतिकूलता में भी संतुलन बना लेना दूरदर्शिता की कसौटी है ।' उनके इसी गुण के कारण उनका दांपत्य जीवन अच्छी तरह निभा। पत्नी ने क्रमश: अपने को सुधारा एवं एक आदर्श अर्द्धांगिनी बनकर रहीं।
कुकर्मियों के निमित्त स्त्रष्टा की व्यवस्था
देवकन्या 'मृत्यु' को ब्रह्मा जीं ने सृष्टि संतुलन बनाए रखने के लिए मनुष्यों को मार-मार कर परलोक भिजवाते रहने का काम सौंपा। इस क्रूर कर्म को करने के लिए दयालु देव कन्या सहमत न थी । वह दुखी होकर धेनुकाश्रम तप करने चली गई। तप पूर्ण हुआ तो विष्णु भगवान ने उसे वर माँगने के लिए कहा। देव कन्या ने प्राणियों को मारने के क्रूर कर्म वाली विधि व्यवस्था से छुटकारा दिलाने का अनुरोध किया । प्रजापति का विधान और निर्माण भी आवश्यक था तथा मृत्यु के करुणा भरें इन्कार का भी महत्व था, सो उनने मध्यवर्ती मार्ग निकाला । पाँच दूत मनुष्य लोक में भेजे-(१) असंयम, (२) आवेश, (३) आलस्य (४) तृष्णा, (५,) अविवेक। उनने कहा-"तुम लोगों के भीतर घुस कर लोगों को खोखला करते रहना। धीरे-धीरे वे स्वयं मरणासन्न स्थिति में पहुँच जाया करेंगे ।" देव कन्या 'मृत्यु' से विष्णु भगवान ने कहा-"जब आत्मघात से दुखी लोग कहीं शरण न पा सकें, तब तुम उन्हें दयावश अपनी गोद में सुला लिया करना।" मृत्यु इस दया धर्म को अपनाने के लिए सहमत हो गई। तब से अब तक लोग अपने कुकर्मों से अकाल मृत्यु मरते रहते हैं। मृत्यु तो उन्हें कष्ट से छुटकारा दिलाने की दया भर दिखाती रहती है । जो भी नारी को दुर्गति के, पतन के गर्त में ले जाते हैं, उनके लिए स्त्रष्टा की दंड व्यवस्था भी है। मृत्यु तो जीवन का सरल अंत है, पर जिन दुर्गुणों से पुरुष समुदाय खोखला होता है, वे उसे जीवन भर के लिए अपंग, परावलबी एवं हेय बना देते है ।
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