॥अथ तृतीयोऽध्याय:॥ नारी-माहात्म्य प्रकरणम्-8
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उपदेशेन चाऽनेन तत्रस्थानामभूत्स्वत:। नारीणां स्वगरिम्णस्तु बोधो विस्मयकारक:॥७८॥ संकल्पश्च नवस्तेन तासां प्रादुरभूद् हृदि । कर्तुं नव्यं च निर्माणं स्वस्तरस्य तथैव च॥७९॥ कर्तृत्वस्योत्थितेश्चापि सोत्साहं सहसाऽद्भुतम् । उपेक्षकाश्च नारीणामन्वभूवंस्त्रुटीर्निजा:॥८०॥ व्यवहारं निजं तेऽपि भविष्येत्समये समे । निरचिन्वन् विधातुं तु परिवर्तितमाशु च॥८१॥
भावार्थ-इस प्रवचन से उपस्थित नारियों को अपनी गरिमा का विस्मयकारी बोध हुआ अपने स्तर उत्थान एवं कर्तृत्व का अभिनव निर्माण करने के लिए उनके मन में नया संकल्प उभरा । जो नारी के प्रति उपेक्षा बरतते थे उन्हें अपनी भूल का अनुभव हुआ भविष्य में उनने भी अपना व्यवहार बदलने का निश्चय किया॥७८-८१॥
व्याख्या-अपनी विस्मृत गरिमा का बोध होना भी एक विलक्षण योग है । उपस्थित नर-नारी समुदाय ने अपनी अपनी कमजोरियों को भी जाना एवं अंदर छिपी महानता को भी पहचाना । कथोपदेश सुनकर ही अंदर से स्वयं को बदलने की इच्छा उमगती है । नारी समुदाय में आत्मोत्थान के प्रति सजगमानसिकता का उदय निश्चित ही एक शुभ लक्षण है ।
तुलसीदास जी को पत्नी का उपदेश
गोस्वामी तुलसीदास ब्राह्मण वृत्ति से गुजारा करते थे । तभी उनका विवाह रत्नावली से हो गया । गृहिणी में उनकी असाधारण आसक्ति थी । एक बार वे बरसात के दिनों अपने पितृगृह थीं। तुलसीदास उनसे मिलने को व्याकुल हो उठे । रात में ही तैर कर नदी पार की । पीछे की छत पर लटकती हुई एक रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ गए। पत्नी को जगाया, तो वह लज्जा में डूब गईं । उनने भर्त्सना की और परामर्श भी दिया कि वे इतना प्रेम भगवान में करें और कर्मक्षेत्र में उतरें, तो उनका और संसार का कितना कल्याण हो। पत्नी का उपदेश उनके गले उतर गया और उनने जीवन की धारा बदल दी । रामचरितमानस लिखकर संसार की बड़ी सेवा कर सके और धन्य हो गए । इस महान् परिवर्तन का श्रेय उनकी पत्नी रत्नावली को ही है ।
सत्रमद्यतनं दिव्यं समाप्तं च यथाविधि । दृष्ट्वा सूर्यास्तवेलां च नित्यकर्मविधित्सया॥८२॥ ययु: सर्वे निवासान् स्वान् प्रस्फुरदिव्यचिन्तना:। अर्धनारीश्वरं रूपं विजानन्तो शिवस्य तत्॥८३॥ सत्यं यच्च शिवं नृणां सुन्दरं स्वर्गदं भुवि । प्रज्ञायुगस्य दृश्यं त्तत् क्षणं बुद्धौ विदिद्युते॥८४॥
भावार्थ-आज का सत्र भी यथाविधि संपन्न हुआ। सूर्यास्त की वेला देखकर सभी अपने निवास स्थलों पर नित्यकर्म के लिए चले गए। उनके चिंतन में दिव्य स्फुरण हो रहा था। शिवजी का, अर्धनारीश्व र रूपमानव-विज्ञान के रूप में उन्हें दीखा जो सत्य-शिव सुंदरम् का प्रतिबिंब था । भावी प्रज्ञायुग की एक झलक सी उनके मस्तिष्क में कौंध गई॥८२-८४॥
इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो:,युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो:,श्री धौम्य ऋषि प्रतिपादिते" नारी माहात्म्यमि," ति प्रकरणो नाम तृतीयोऽध्याय:॥३॥