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Books - पुरुषार्थ—मनुष्य की सर्वोपरि सामर्थ्य

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Language: HINDI
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पुरुषार्थ ही समृद्धि का राजमार्ग

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लाल बहादुर शास्त्री ने अपने 9 माह के प्रधान मन्त्रित्व काल में वह यश—श्रेय प्राप्त कर लिया जो संसार का कोई भी नेता नहीं पा सका। शास्त्री जी एक साधारण परिवार के थे। वे स्वयं बढ़े, विकसे और बड़े बने। आत्मावलम्बन की शक्ति ही उनके जीवन में दृढ़ता बनकर विकसित हुई थी।

यही गुरुमंत्र उन्होंने अपनी सन्तान को भी दिया। एक बार उनसे किसी मित्र ने प्रश्न किया—‘आप अपने बच्चों को थोड़ा सहारा देते तो वे भी आज अच्छे स्थानों पर होते ? शास्त्रीजी हंसकर बोले—‘अवश्य होते, पर उनमें योग्यता न होती। जो स्वावलम्बन और आत्मविश्वास के साथ बढ़ता है उसकी योग्यता, दृढ़ता, कर्मठता, साहस और कर्तव्य भावना अदम्य होती है ।’

उन्होंने कहा—‘फूल कहीं भी हो वह खिलेगा ही—बगीचे में हो, जंगल में हो या कमरे में ’  बिना खिले उसे मुक्ति नहीं। बगीचे का फूल है, उसकी चिन्ता स्वयं उसे नहीं रहती। जंगल का फूल इतना चिन्ता मुक्त नहीं, उसे अपना पोषण आप जुटाना पड़ता है, अपना निखार आप करना पड़ता है। कहते हैं कि इसलिए खिलता भी वह मन्दगति से है। सौरभ भी धीरे-धीरे बिखेरता है। किन्तु उसकी सुगन्ध बड़ी तीखी होती है। काफी दूर तक वह अपनी मंजिल तय करती है। जंगल का फूल यद्यपि अपने आकार में बहुत छोटा होता है और कई बार वह फूल खिल नहीं पाता है तो भी अपनी सुगन्ध में वह दूसरे फूलों से हल्का नहीं पड़ता वजनी ही होता है।

यह सिद्धान्त मनुष्य के विकास में भी लागू है। दूसरों का सहारा लेकर बहुत ऊंचे पहुंचे हुए लोगों में न तो साहस, दृढ़ता होती है और न वे ‘गड्स’ होते हैं, जो अपने आप विकसित हुए व्यक्ति में स्थाई रूप से होते हैं। सफलता की मंजिल भले ही देर से मिले पर अपने पैरों की गई विकास यात्रा अधिक विश्वस्त होती है, मोटर रेल का सहारा लेकर बढ़ने में जहां शीघ्र पहुंचना संभव है वहां अनियमित होना, रास्ते में टूट-फूट, लेट होना और बिगड़ जाना भी संभव है। पद यात्रा से अधिक विश्वस्तता सहारे की यात्राओं में नहीं, भले ही उसमें कुछ अधिक सुविधा हो।

संसार में कार्य करने के लिए स्वयं का विश्वास पात्र बनना आवश्यक है। आत्म शक्तियों पर जो जितना अधिक विश्वास कर पाता है, वह उतना ही सफल और बड़ा आदमी बनता है। वाशिंगटन एक मामूली सिपाही से अमेरिका की स्वतंत्रता का प्रतिस्थापक बना। अमेरिका के प्रायः सभी राष्ट्रपति अत्यन्त छोटी अवस्था से स्वयं विकसित हुए। नैपोलियन फ्रांस का एक छोटा-सा सिपाही था, वह स्वयं बढ़कर सेनापति बना। एक अस्पताल में साधारण प्यून से बढ़ते-बढ़ते राष्ट्रपति बनने वाले सनयात सेन को कोई नहीं भूल सकता। इन महापुरुषों ने ‘‘यस्य यावांश्च विश्वास्तस्य सिद्धिश्च तावती।’ अर्थात् जिसने अपने आप पर विश्वास किया उसने सिद्ध सफलता पाई’’ कहावत को चरितार्थ किया है।

कारडिनल लिखते हैं—‘हर व्यक्ति के जीवन में ऐसे अवसर आते हैं जिनका बुद्धिमानी से उपयोग करके मनुष्य बिना भाग्य की प्रतीक्षा किए बड़ी सफलतायें प्राप्त कर सकता है।’

नेल्सन की कहानियां अंग्रेज बड़े प्रेम से पढ़ते हैं और आत्म विश्वास की शक्ति की व्याख्या करते समय उसके उदाहरण देते हैं। नेल्सन कहा करता था ‘‘अविश्वास के लिए मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं है। मैं जहां जुट जाता हूं तथा सफलता निश्चित रहती है। जिसके पास दृढ़ और अडिग आत्म-विश्वास और साहस है, वह निश्चय ही अपना भाग्य निर्माण करता है।’’

श्रीयुत् नाना भाई थोपड़े व्यापार के क्षेत्र में बम्बई के अब्दुल भाई करीम, शिक्षा के क्षेत्र में सुबोध चन्द्र राय, ईश्वरचन्द्र विद्या सागर, व्यावसायिक प्रगति के लिए सेमुअल एंड्रयूज आदि के नाम उल्लेखनीय हैं, इन्होंने कठिनाइयों और अगर मगर की परवाह किए बिना आत्मशक्तियों को जीवन के क्षेत्र में उतारा और मनुष्य शक्ति को सार्थक सिद्ध कर दिखाया।

बहुत से लोग कहा करते हैं—‘ यदि मैं स्वतंत्र होता और मेरे पीछे बाल बच्चों का झगड़ा न होता, मेरी शिक्षा इतनी होती, मुझे पूंजी मिल गई होती तो मैं बहुत काम कर सकता था। परन्तु यह उनकी निर्बलता है। बड़ा काम करने के लिए न बाल बच्चे रुकावट हैं और न धनाभाव। परिस्थितियां संसार में न्यूनाधिक एक जैसी ही हैं। जिन्हें रुकावट समझा जाता है, वे समस्यायें ही सफल व्यक्तियों की प्रेरक बनी हैं। कई महामानवों ने तो जेल में भी बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे हैं। सोच-समझ के साथ जीवन के प्रत्येक दिन को अमूल्य मानकर अपने मन को ऊंची अवस्था में ले जाने को अपने आप प्रयत्न करते हैं। उनकी थोड़ी सी सफलता थी चिरस्थाई, सन्तोषदायक और व्यावहारिक होती है। ’

अपने आप बढ़ने में सच्चाई और ईमानदारी रहती है, मनुष्य की वह बड़ी शक्ति है, उससे उसका हृदय खुला रहता है, वह किसी भी समय अपने आपको व्यक्त कर सकता है। वह घबराता भी नहीं, परेशान भी नहीं होता। यह कष्ट तो परावलम्बियों को ही होते हैं। जो दूसरों के सहारे उठता है उसे बात-बात पर गिर जाने का भी भय बना रहता है। सच्चे लोग अपने गुण, अपनी प्रतिभा और अपने सौन्दर्य के बारे में नहीं सोचते। अपनी इस सरल अबोधता के कारण वे लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, उनके हृदय में विश्वास, प्रेम और प्रतिष्ठा का स्थान पाते हैं, यह सफलता ही किसी बड़ी से बड़ी सम्पन्नता जैसी सुखदायक होती है।

अपने भाग्य को स्वयं बन जाने की राह देखना भूल ही नहीं, मूर्खता भी है। यह संसार इतना व्यस्त है कि लोगों की अपनी परवाह से फुरसत नहीं। यदि कोई थोड़ा-सा सहारा देकर आगे बढ़ा भी दे और उतनी योग्यता न हो तो फिर पश्चात्ताप अपमान और अवनति का ही मुख देखना पड़ता है। स्वयं ही मौलिक सूझ-बूझ और परिश्रम से बनाए हुए भाग्य में इस तरह की कोई आशंका नहीं रहती, क्योंकि वैसी स्थिति में अयोग्य सिद्ध होने का कोई कारण ही नहीं होता। जितनी योग्यता बढ़ती चले सफलता की मंजिल उतनी प्राप्त करता चले। रास्ता सबके लिए खुला है, उस पर चलकर कितना पार कर सकता है, वह व्यक्ति की अपनी लगन, साहस और विश्वास पर निर्भर रहता है।

शास्त्रकारों ने पुरुषार्थियों की स्थान-स्थान पर वन्दना की है। कोई महाभाग लिखते हैं—

    धीमन्तो वन्द्य चरिता मन्यन्ते पौरुषं महत्।
    अशक्ता  पौरुषं  कर्न्तु  क्लीवा   दैवमुपासते॥

अर्थात्— बुद्धिमान व्यक्तियों ने सदैव व्यक्ति के उत्थान के लिए पुरुषार्थ को प्रधान माना है। भाग्य और देवों के सहारे उन्नति का मार्ग खोजने वाले नपुंसक पुरुषार्थ-विहीन व्यक्तियों की विद्वज्जन निन्दा करते हैं।

मनुष्य की आध्यात्मिक विभूतियां जाति वर्ण—जन्म के आधार पर नहीं, उसके गुण स्वभाव के रूप में विद्यमान होती है, उसके बदले में सांसारिक सम्पत्तियां आसानी से खरीदी जा सकती हैं। अच्छा, स्वास्थ्य, ऊंची विद्या, धन-वैभव, साथियों का सहयोग, जन-सम्मान, पद, नेतृत्व, कला-कौशल, यश-वर्चस्व आदि कितनी ही सुखद सम्पदायें मनुष्य को प्रसन्नता प्रदान करती है और वह उन्हें पाने के लिए सचेष्ट भी रहता है। फिर भी बहुत कम लोग इन्हें प्राप्त कर सकने में सफल होते हैं, अधिकांश को इनके लिए हाथ मलते हुए ही रहना पड़ता है। लोग तरह-तरह की मनोकामनाएं करते रहते हैं पर यह भूल जाते हैं कि चाहने और कल्पना करने भर से कोई प्रयोजन पूरा नहीं होता उलटे बढ़ी-चढ़ी महत्वाकांक्षायें पूरी न होने पर निराशा और खीझ ही हाथ लगती है। यह तथ्य जितनी अच्छी तरह जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही अच्छा है कि विभूतियों के बदले ही सम्पदाएं मिलीं हैं। गुणों के आधार पर ही किसी को सफलताओं का श्रेय उपलब्ध होता है।

लम्बी यात्रा में घर से जाने पर बैंकों से ट्रेवलर चैक प्राप्त कर लिये जाते हैं। उन्हें कहीं भी बैंकों में भुनाया जा सकता है और बदले में नकद पैसा पाया जा सकता है। पैसा जेब में हो तो बदले में कहीं भी सामान या सहयोगी खरीदा जा सकता है। ट्रेवलर चैक या नकदी की छोटी-सी जेब में रखा जा सकता है। उनका दूसरों को पता नहीं चलता पर जब बदले से सामान खरीदा जाता है तो उनका ढेर सबको दिखाई पड़ता है और मन चाहे उपयोग में वह काम आता है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य के सद्गुण उसकी ईश्वर प्रार्थना आध्यात्मिक एवं ठोस सम्पत्ति हैं उनके बदले में भौतिक सुख-साधन खरीदे जा सकते हैं। उन्नतिशील सफल मनुष्यों में से प्रत्येक में कुछ सद्गुण रहे हैं उनके बिना किसी के लिए भी कोई महत्वपूर्ण सफलता शक्य नहीं होती।

प्रशंसनीय सफलतायें तो सद्गुणों पर आश्रित हैं ही, निन्दनीय सफलताओं के पीछे भी उन्हीं का वर्चस्व काम कर रहा होता है। डाकू अपने नैतिक आचरण के कारण जेल जाता है, नरक भुगतता है, घृणास्पद बनता है, पर उसे जो धन लूटने में सफलता मिलती हैं  उसमें साहस का सद्गुण ही काम कर रहा होता है। साहस न हो तो मात्र अनैतिक आचरण अपनाने भर से डाका डालने में सफलता नहीं मिल सकती। ठगों की जितनी निन्दा की जाय उतनी कम है। किन्तु मधुर भाषण करके दूसरों का विश्वास अर्जित कर लेने की कुशलता उन्हें ठगी में सफल बनाती है। यदि उनमें यह गुण न होता तो उनका रूखा कर्कश व्यवहार किसी से घनिष्ठता ही न बनने देता और विश्वास अर्जित किए बिना ठगी करके कुछ प्राप्त कर सकना संभव ही न होता। बेईमान लोग तब सफल होते हैं जब लोगों पर अपने ईमानदार होने की धाक जमा लेते हैं। दूध में पानी बेचने वाले यही बोर्ड लगाते और प्रचार करते हैं कि हमारे द्वारा बेचा गया दूध पूर्णतया शुद्ध मिलावट सिद्ध करने वालों को 500 रुपया इनाम मिलेगा इस प्रकार की घोषणा में ही लोग उसके पास पहुंचते और दूध खरीदते हैं यदि वही दुकानदार अपनी वस्तुस्थिति प्रकट कर दे और कह दे कि ‘‘हमारी दुकान पर आधा दूध आधा पानी’’ मिलता है उसमें अरारोट का आटा मिलाकर गाढ़ा बनाया जाता है तथा ऊपर जो मलाई है वह ब्लाटिंग पेपर की परत मात्र है ‘‘तब पता चलेगा कि बेईमानी से मालदार बना जा सकता है या नहीं। स्पष्ट है कि वस्तुस्थिति विदित होने पर कोई भी ग्राहक उसकी दुकान पर न फटकेगा और दिवाला पीट जायेगा। ईमानदारी में ही वह आकर्षण है जिसकी आड़ लेकर भी बेईमान लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं मधुरता और विश्वसनीयता ही वह सुदृढ़ तत्व है जिसका आचरण ओढ़कर ठग और धूर्त एक बार तो काठ की हांड़ी पका ही लेते हैं। शौर्य और साहस का कवच पहन कर सामान्य स्तर के लोग महामानव बन सके हैं और इतिहास के पृष्ठ अपने चमत्कारी कर्तृत्व से गौरवान्वित कर सके हैं। आश्चर्य यह है कि इसी विशेषता का थोड़ा उपार्जन करके दुरात्मा व्यक्ति भी आतंक फैलाने और लूट-खसोट करने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। जिसमें कोई सद्गुण न हो—केवल भ्रष्ट आचरण ही जिसने अपना रखें हों उसका अनैतिक एवं अपराधी कार्यों को अपनाने पर सिर मुंड़ाते हो ओले पड़ने की कहावत चरितार्थ होती है। अपने पाप कर्मों का उन्हें अगले ही दिन दंड मिल जाता है। जितने दिन छिपे बचे रहते हैं और जितनी सफलता कमा लेते हैं उसमें उनकी सतर्कता, सूक्ष्मदृष्टि, स्फूर्ति, संतुलित मनःस्थिति संगठन क्षमता जैसे सद्गुण ही सहायक बने होते हैं।’’

क्रमबद्ध रूप से प्रगति करते चलने वाले और उन्नति के उच्च शिखर को छूने वाले व्यक्तियों को उनकी सफलतायें उनके सद्गुणों के कारण ही उपलब्ध हुई होती हैं। कहने लायक सभी आत्मिक एवं भौतिक उपलब्धियां किसी को भी अनायास नहीं मिलीं। उनके लिए जिन साधनों की जिस सहयोग की जिस परिस्थिति की आवश्यकता थी उनका सरंजाम परोक्ष रूप में मनुष्य की सद्गुण सम्पदा ही जुटाती है। दुर्गुणों से ग्रसित व्यक्ति किसी का सच्चा और स्थायी सहयोग नहीं पा सकता। साधन जुटाने के लिए सूझ-बूझ अनुभव और जोड़-तोड़ बिठाने के जरूरत होती है उसके अभाव में साधनहीन परिस्थितियां ही सफलता के मार्ग में पर्वत बनकर खड़ी हो जाती हैं। ओछे व्यक्तित्व के मनुष्य पर कोई विश्वास नहीं करता अस्तु एकाकी और असहाय स्थिति में पड़े पड़े अभीष्ट दिशा में बढ़ने से रुका ही रहना पड़ता है। कठिनाइयां हर काम में आती हैं। जो चाहा सो होता ही चला गया ऐसा अवसर तो कहीं किसी को भी नहीं मिलता। हर किसी को अपने ढंग से अड़चनों से निपटना पड़ता है यदि धैर्य साहस सन्तुलन और पुरुषार्थ जैसे गुण न हों तो वे अवरोध ही हिम्मत तोड़ देते और व्यक्ति हाथ पैर फैलाकर बैठ जाता है।

प्रगति का सुनिश्चित क्रम सदा से यही रहा है कि मनुष्य सद्गुणों को अपने स्वभाव का अंग बनाता है इससे उसका व्यक्तित्व प्रभावशाली बनता है, शरीर की सक्रियता और मस्तिष्क में सजगता उभरती है। इतनी समर्थता आ जाने पर अभीष्ट दिशा में तेजी से कदम बढ़ते हैं और सफलता के अवसर एक के बाद एक बढ़े चढ़े स्वर में मिलते चलते हैं। यही प्रवाह अन्ततः मनुष्य को ऐतिहासिक सफलताएं प्रदान करने की स्थिति तक पहुंचा देता है।

सद्गुणों में सबसे प्रारम्भिक और सबसे महत्वपूर्ण है श्रमशीलता। निरन्तर काम में लगे रहना, खाली न बैठना एक बहुत ही अच्छी आदत है। इससे शरीर और मस्तिष्क के कल पुर्जे सदा गतिशील रहते और उनकी तीक्ष्णता बढ़ती रहती है। सर्वविदित है कि निकम्मे पड़े रहने पर चाकू भी जंग खा जाता है इसके विपरीत बराबर काम में आने वाला औजार तेज रहता है और चमकता है। वह उस्तरा अभागा है जो जंग लगने के कारण नष्ट हो गया। जिसे क्षण-क्षण बाद सिल पर घिसा जाता है और घिसते घिसते जिसकी पीठ मात्र रह गयी उस उस्तरे की प्रशंसा ही की जायेगी। श्रमशीलता के आधार पर ही जीवन सम्पदा का पूरा मूल्य वसूल किया जाता है। समय अनमोल है। जीवन का अर्थ समय। वह तेजी से भागता चला जा रहा है और गया सो गया। फिर उसके लौटने की संभावना नहीं। ईश्वर ने समय के रूप में ही जीवन दिया है। इस समय का हम चाहें तो उपयोग कर सकते हैं, बदले में मन चाहे लाभ उठा सकते हैं और उसे आलस में पड़े-पड़े नष्ट भी कर सकते हैं। व्यर्थ में गंवाया गया समय दरिद्रता का अभिशाप देकर चला जाता है। समय को नष्ट करना अपने सुख सौभाग्य का अपने हाथों विनाश करना है।

कठोर श्रम करने के उपरान्त बीच में थोड़े थोड़े समय विश्राम की आवश्यकता पड़ती है सो उचित ही है। पर उसका आनन्द तभी है जब काम इतना पर्याप्त कर लिया हो कि थकान मिटाने की जरूरत पूरी तरह अनुभव होने लगे। भोजन का आनन्द तभी है जब करारी भूख लगे। भरे पेट पर भी सारे दिन कुछ न कुछ खाते रहा जाय तो कुछ भी आनन्द न मिलेगा। कड़ा परिश्रम करने पर जब गहरी थकान आती है तो थोड़ा सा विश्राम भी बहुत है— बार बार विश्राम की रट लगाये रहते हैं उन्हें उस सुस्ताने में भी कोई रस नहीं मिलता दिन में कड़ी मेहनत करने वालों को गहरी नींद आती है। पर उन्हें बिस्तर पर ही पड़े रहना है उन्हें करवटें बदलते हुए ही समय गुजारना पड़ेगा उन्हें नींद का आनन्द नहीं मिलेगा। कई व्यक्ति आराम की जिन्दगी जीना चाहते हैं। उनकी दृष्टि से काम न करना, निठल्ले समय गुजारना ही आराम है। ऐसे लोगों के लिए समय काटना भी भारी पड़ जाता है। निरर्थक की गपशप, मटरगश्ती, ताश, शतरंज आदि के सहारे दिन गुजारते हैं। इसके लिए उन्हें अपने जैसे और कुछ साथी तलाश करने पड़ते हैं या बनाने पड़ते हैं चोर अकेले ही चोरी नहीं कर पाते उन्हें एक गिरोह बनाकर चलाना पड़ता है। आलसी भी दिन काटने के लिए ठलुआ लोगों की कम्पनी बनाते हैं। इन मन मौजी लोगों में अन्य निठल्ले लोग भी शामिल हो जाते हैं और छूत की बीमारी की तरह अन्यों में भी यह कुटेव फैलाते हैं।

हम जीवित इसलिए हैं कि शरीर में श्वांस-प्रश्वांस आकुंचन-प्रकुंचन, रक्त भ्रमण, मल विसर्जन आदि क्रियाएं निरन्तर जारी रहती हैं। यदि यह हलचलें बन्द हो जाएं तो मरण में थोड़ा अन्तर है। श्रम करने का अपना आनन्द है जिसे वह मलने लगा समझना चाहिए जीवन रस के आस्वादन का सौभाग्य सुअवसर उसे ठीक प्रकार मिल सका। जो इस आनन्द से वंचित रहे समझना चाहिए कि उन्होंने अपने जीवन देवता को दुलार पाने से वंचित ही रखा है।

श्वेत बिन्दुओं का मूल्य हीरे मोतियों से बढ़कर है। परिश्रम करने का अर्थ सफलताओं को भावभरा आमन्त्रण देना है। शरीर की कार्यक्षमता और मानसिक तीक्ष्णता में उत्तरोत्तर वृद्धि करने वाले राजमार्ग पर चल पड़ना है। यह सोचना गलत है कि श्रम करने से शक्ति खर्च या नष्ट होती है और आराम करते रहने से स्वास्थ्य सुधरता है तथ्य इसके बिल्कुल विपरीत है। डायनेमो चलता है तो बिजली पैदा होती है। जब उसका चलना बन्द हो जाता है तो बिजली का उत्पादन भी रुक जाता है। ठीक इसी प्रकार श्रमशील मनुष्य की बलिष्ठता स्थिर रहती है और विकसित होती है। लुहार, बढ़ई, आदि कठोर श्रम करने वालों की भुजाएं—छाती पूरी काया लोहे की ढली मालूम पड़ती है। वनवासी आदिवासियों को न कोई बीमारी सताती है न कमजोरी। बहुमूल्य पोषक तत्वों वाले पदार्थ उन्हें खाने को कहां मिलते हैं? ऐसे ही मकई ज्वार और कन्दमूल खाकर जीवित रहते हैं इतने पर भी तीर से शेर को मार लेने जैसी बलिष्ठता उनमें बनी रहती है। यह श्रमशीलता का कठोर कर्म निष्ठा का परिणाम है जो उन्हें सुदृढ़ आरोग्य और दीर्घजीवन के रूप में मिलता है। आलसी लोग इन अनुदानों से सदा वंचित ही रहते हैं।

आराम को हराम कहा गया है। हराम भी एक अपराध है। हरामी शब्द गाली की तरह है। निठल्ले लोग सचमुच गाली खाने जैसी भर्त्सना के ही योग्य हैं। वे अपने शरीर को गलाते हैं और प्रतिभाओं को कुण्ठित करते हैं। शरीर के साथ ही मस्तिष्क भी चलता है। हर काम में मन बुद्धि का संयोग करना पड़ता है। सक्रिय रहने से मस्तिष्कीय प्रखरता में तेजी आती है। हरामखोरी मनुष्यों का शरीर श्रम से अनभ्यस्त रहने के कारण अशक्त असमर्थ बनता चला जाता है और साथ ही मस्तिष्क का क्रिया-कृत्यों के साथ जुटे रहने का अवसर न मिलने से उसके तन्तु भी जड़ता ग्रस्त होते चले जाते हैं। यही कारण है कि आराम तलब लोगों की बुद्धि बहुत ही मोटी हो जाती है, उनके चिन्तन उथले और निर्णय बेतुके होते हैं। सर्व विदित है कि आलस्य की सहचरी मूर्खता भी है। दोनों जोड़ा बनाकर रहते हैं। उन्हें एक ही घोंसले में रहने की आदत है।

हर मनुष्य को परमात्मा ने अपार शारीरिक शक्तियां दी हैं। बुद्धि भी सब में कुछ न कुछ होती ही है, संसार इतना बड़ा है कि ढूंढ़ने से इच्छित परिस्थितियों का अम्बार मिल सकता है। यहां अभाव किसी वस्तु का नहीं, यदि कुछ सच्ची बात है तो यह है कि सब कुछ ढूंढ़ने वाले को मिलता है। जो कुछ स्वयं करता है, वह पाता है। जो चलता है वही लक्ष्य तक पहुंचता है। सोना-सोना चिल्लाने से पास रखा हुआ सोना भी हाथों में नहीं आ जाता। उसे उठाने के लिए भी प्रयत्न करना पड़ता है। सफलता के हर क्षेत्र में यह सिद्धान्त अटल हैं।

प्रगति और समृद्धि का सीधा राजमार्ग पुरुषार्थ है। उद्योगी मेहनती और कर्मठ व्यक्ति अपने प्रबल पुरुषार्थ के बल पर आगे साधनहीन कठिनाइयों में भी परिस्थितियों के बीच रहकर भी वे असफलतायें प्राप्त करते हैं जिन्हें साथियों को चमत्कार हुआ जैसा लगता है श्रम करें सफल बनें का महामंत्र आदिकाल से सार्थक होता रहा है अनन्त काल तक होता रहेगा।



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