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Books - पुरुषार्थ—मनुष्य की सर्वोपरि सामर्थ्य

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


समय अमूल्य है इसकी महत्ता समझें

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परमात्मा ने मनुष्य को इस सृष्टि में भेजा तो उसे कोई विशेष स्थूल सम्पदा नहीं दी लेकिन जो कुछ भी दिया वह इतना सक्षम है और इतना मूल्यवान है कि उसके माध्यम से संसार की सभी वस्तुयें प्राप्त की जा सकती हैं। बुद्धि, जीवन, शरीर के अतिरिक्त इन सबसे अमूल्य अनुदान जो परमात्मा ने मनुष्य को दिया है वह है समय। कहा जाता है कि ‘‘मनुष्य में सांसें गिनी हुई हैं।’’ और श्वांस-प्रश्वांस का आवागमन निरन्तर चलता रहता है। एक श्वांस के आने जाने के साथ की मनुष्य जीवन की अमूल्य निधि में एक इकाई कम हो गयी।
दूसरे शब्दों में इसे समय भी समझा जा सकता है। जीवन एक सूक्ष्म सत्ता है। उसका कोई प्रत्यक्ष रूप पकड़ में नहीं आता, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति को अवश्य अनुभव किया जा सकता है जीवन की सूक्ष्म सत्ता समय के रूप में ही व्यक्त होती है। अतः हमारी उपलब्धियां इस पर निर्भर करती हैं कि हम समय का किस प्रकार—किस प्रयोजन के लिए उपयोग करते हैं।
जो समय का महत्व और स्वरूप समझ सका और उसके सदुपयोग के लिए समग्र जागरूकता के साथ तत्पर हो गया समझना चाहिए उसे जिन्दगी मिल गई। अन्यथा इस ओर उपेक्षा बरतने वाले—अन्यमनस्क रहने वाले, क्रमिक आत्म-हत्या  ही करते चले जाते हैं। बहुमूल्य मणि मुक्ताओं को फटी थैली में भरकर चलने वाले उन्हें टपकाते रहते हैं और घर पहुंचते-पहुंचते उस निधि को गंवाकर खाली हाथ रह जाते हैं। इसी प्रकार समय के साथ उपेक्षा करने वाले अपने आपके साथ एक क्रूर मजाक करते हैं। अपने भविष्य के साथ यह एक मर्मभेदी व्यंग है कि जीवन के बहुमूल्य क्षणों को ऐसे ही खोते गंवाते चला जाय।
हम क्रमशः मर रहे हैं। जीवन की सम्पदा का एक-एक दाना एक-एक क्षण के साथ समाप्त होता चला जाता है। बूंद-बूंद पानी टपकाते रहने से भरा-पूरा किन्तु फूटा घड़ा कुछ समय में खाली हो जाता है। जीवन की रत्न सम्पदा हर सांस के साथ घटती चली जाती है क्रमशः हमारा हर कदम मरण की ओर ही उठता है। आयु वृद्धि के साथ-साथ मरण का दिन निकट से निकटतम आता चला जाता है। जो दैवी वरदान जैसा अमूल्य था—जिसके आधार पर कुछ भी खरीदा पाया जा सकता था वह किस प्रकार गलता, जलता, टूटता और मिटता चला जा रहा है इसे देखने की न इच्छा होती है न फुरसत फलतः हमारा अनुपम अस्तित्व भूत बनता चला जाता है। इस प्रकार असामयिक मृत्यु की भयंकरता तथा कथित भूत-प्रेतों से कम नहीं। जब समय के सदुपयोग और दुरुपयोग के परिणामों का तुलनात्मक अन्तर किया जाता है, तब प्रतीत होता है कि तत्परता और उपेक्षा के बीच दीखने वाला नगण्य सा अन्तर अन्ततः कितने भारी भिन्न परिणामों के रूपों में सामने आता है।
लेकिन लोग इस ओर नहीं देखते। और समय की सम्पदा को खोते चलते हैं। उसके परिणाम स्वरूप व्यक्तित्व दीन-हीन ही बना रहता है। फिर वे गरीबी का, अशिक्षा-अज्ञान का, अयोग्यता और अक्षमता का रोना रोते रहते हैं, लोग अपने जीवन में विभिन्न अभावों की शिकायत करते हैं। कोई धन के अभाव में दुखी है तो किसी के पास ज्ञान नहीं—विद्या नहीं। उसके लिए सिर पीट रहा है। समझ में  नहीं आता कि यह हनुमान कब अपनी सामर्थ्य को समझेंगे तथा एक छलांग मारकर लंका पहुंच जायेंगे। विश्व की सम्पदा, विश्व का ज्ञान भंडार तो उनकी बाट जो रहा है। समय जैसी मूल्यवान सम्पदा का—भंडार भरा होते हुए भी जो विनिमय कर धन ज्ञान तथा लोकहित को नहीं पा सकते उनसे अधिक अज्ञानी किसे कहा जाय।
समय अमूल्य है। समय को जिसने बिना सोचे समझे खर्च कर दिया वह जीवन पूंजी भी यों ही गंवा देता है। यह पूंजी अपने आप खर्च होती है। आप कृपण बनकर उसे सोने-चांदी के सिक्कों की तरह जोड़कर नहीं रख सकते। यह गतिवान है आप अपनी अन्य सम्पदाओं की तरह उस पर अधिकार जमा नहीं सकते। आपका उस पर स्वामित्व वहीं तक है कि आप उनका सदुपयोग कर लें।
अपनी इस प्राकृतिक धरोहर का अधिकांश मनुष्य समुचित सहयोग नहीं करते। बचपन में इतना ज्ञान नहीं होता कि इसका मूल्य समझें। खेल-कूद तथा मित्रों व भाई-बहनों के झुण्ड के साथ यों ही इस सम्पदा को लुटाते चलते हैं। एक दिन यौवन आ खड़ा होता है। यह यौवन समय के बहुमूल्य वरदान के रूप में मिलता है। यह वह सामर्थ्य होती है जिसे यदि अधिक समय तक स्थायी बनाया जा सके तन से मन से बूढ़े न हो जांय तो गिनी हुई सांसों के इस जीवन में बहुत काम कर सकते हैं। इसे निर्दयता से खर्च कर देने पर बुढ़ापा अपनी कमजोरी टांगों व धुंधली आंखों से हमारा स्वागत करता है तब हम चौंक पड़ते हैं, निराश हो जाते हैं। सिर पर हाथ रखकर चिन्ताओं के सागर में डूब जाते हैं। भला जब यौवन काल में कुछ न कर पाये तो अब क्या कर सकेंगे? यह निराशा ही ले डूबती है। सच्चा व्यापारी तो वह होता है जो घाटा होने पर भी व्यापार बन्द नहीं करता धैर्य तथा बुद्धिमता से पुनः अपने उखड़े पांव जमा लेता है। दो तिहाई जीवन बीत गया तो क्या हुआ एक तिहाई तो बचा हुआ है, उसमें भी बहुत कुछ काम किया जा सकता है।
प्रकृति ने किसी को गरीब अमीर नहीं बनाया। उसने तो सबको मुक्त हस्त से अपना अमूल्य वैभव लुटाया है। श्रम की सामर्थ्य तथा समय का अनुदान इन दो अस्त्रों से सुसज्जित करके उसने अपने पुत्रों को जीवन के समरांगण में मस्तक पर तिलक कर विजय श्री वरण करने के लिये ही भेजा है। लेकिन हम प्रकृति प्रदत्त इस अमूल्य वैभव से लाभ नहीं उठा पाते और घाटे में ही रहते हैं। जो समय हमारे हाथ में है, यदि हम किसी उपयोगी कार्य में नहीं लगे हुए हैं तो ठीक है अन्यथा यह क्षण भी बीत गया और भूत हो गया। हमारा सारा वर्तमान भूत में बदलता जा रहा है और यह मालूम भी नहीं पड़ता है कि हमारे साथ से कितनी बहुमूल्य सम्पदा खो गयी। पास से पैसा खर्च होता है या कहीं गिर जाता है तो मालूम भी होता है और उसका पश्चाताप होता है। लेकिन समय सम्पदा जब हमारे हाथ से जाती है तो हमें न पता चलता है और न ही उसका कोई रंग-गम होता है।
वर्तमान क्रमशः भूत मैं बदल रहा है। भूत के सम्बन्ध में कहते हैं कि वह बड़ा डरावना होता है कहते हैं कि मरने के बाद अशांत व्यक्ति भूत बनता है। मरने के बाद किसकी क्या स्थिति होती है, कौन क्यों और कैसे भूत बनता है और वह कैसा होता है? यह सब कुछ तो अभी रहस्य के गर्भ में है। लेकिन समय जो वर्तमान भूत में बदलता जा रहा है वह निश्चित रूप से भयावह दुष्परिणाम उपस्थित करने वाला सिद्ध होता है।
देखना यह है कि हमारा समय नष्ट कहां हो रहा है। इस समय तो लोग चौबीसों घंटे व्यस्त रहते हैं। एक अजीब सी व्यस्तता चारों ओर दिखाई देती है, जिस भी व्यक्ति से किसी कार्य के लिए कहिए ‘‘समय नहीं है’’ यही एक उत्तर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्राप्त होता है। अधिकतर शुभ कार्यों के करने के लिए तो किसी के पास समय है अथवा नहीं। क्या मनुष्य के पास वास्तव में समय नहीं रह गया है? क्या वह इतना व्यस्त हो गया है? यह एक ज्वलन्त प्रश्न है इस पर विचार किया जाना चाहिए। दिन में चौबीस घंटे होते हैं। एक वयस्क के लिए 6-7 घंटे सोना पर्याप्त है। 8 घंटे कार्यालय, फैक्टरी अथवा व्यवसाय के लिए रख लीजिए। शेष आपके पास 6-10 घंटे बचते हैं। प्रातः एक घंटे का समय शौच, स्नान भोजनादि के लिए रख लीजिए और एक घंटे सायंकाल त्रिविध कार्यों के लिए रखलें। इस प्रकार 8 घंटे नित्य बचते हैं। इसमें यदि 2 घंटे हम और मनोरंजन, भोजन, मार्ग में आने जाने का समय निकाल लें तो 6 घंटे दैनिक हमारे पास रह जाते हैं। रविवार और अन्य दिनों की छुट्टियां इसके अतिरिक्त होंगी। अपने आवश्यक कार्यक्रमों के लिए उदारता से समय देने का भी आपके पास 6 घंटे शेष रह ही जाते हैं। हम इनका क्या उपयोग करते हैं। यदि उपयोग नहीं करते तो वर्ष में हम 2190 घंटे अर्थात् 3 महीने 6 घंटे बरबाद कर देते हैं। यह समय किसी भी राष्ट्र एवं किसी भी व्यक्ति के लिए अमूल्य निधि है। जीवन-पर्यन्त हमारा कितना समय बरबाद होता है हम इसका सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। अर्थात् चौथा समय व्यर्थ कार्यों में खर्च कर देते हैं?
हमारा समय कहां और कैसे नष्ट होता है, यह विचारणीय है। इस प्रकार से समय नष्ट होने का मूल कारण यह है कि हम इसकी उपयोगिता के बारे में जागरूक नहीं हैं। अधिकतर हमारा समय आलस्य, प्रमाद, लापरवाही में जाता है। हमारा जीवन-क्रम अव्यवस्थित है। किसी भी कार्य का समय निर्धारित नहीं है। यहां तक कि लोग समय से कार्यालय भी नहीं पहुंचते। ‘‘हिन्दुस्तानी आदमी’’ और ‘‘हिन्दुस्तानी समय’’  बहुत प्रचलित शब्द हो गये हैं गेटे का कहना था कि—‘‘काल बेहद लम्बा है।’’
समय नष्ट होने का एक कारण यह भी है कि— हम अपने काम में रुचि नहीं लेते, काम को टालने की एक आदत सी बन गई है। इससे कितने ही काम तो शुरू ही नहीं हो पाते कितने ही काम अधूरे रह जाते हैं। जब अधूरे कामों का आधार हमारे सामने लग जाता है तो हम सोच-सोचकर ही परेशान हो जाते हैं। न तो हम अधूरे कामों को ही पूरा कर पाते हैं और न ही कार्य को ही आरम्भ कर पाते हैं। यदि हम अपने कार्यों में रुचि लें और धैर्य तथा लगन से काम करें, तो सभी कार्य पूरे हो जाते हैं।
बहुत से लोग समय का मूल्य और महत्व समझते हैं परन्तु उसके सदुपयोग की ओर कोई ध्यान नहीं देते। समय खराब न करने पर भी वे कोई काम निर्धारित समय पर करना आवश्यक नहीं समझते। इस वक्त इस काम पर जुटे हुए हैं तो उस वक्त उस काम पर। दूसरे दिन उनका यह क्रम टूट जाता है और वे इस वक्त उस काम को उस वक्त इस काम को करने लग जाते हैं।
इस प्रकार की अनियमितता बहुधा विद्यार्थी, अध्ययनशील तथा लिखा-पढ़ी का काम करने वाले किया करते हैं। अशिक्षित, व्यक्ति के जीवन में अव्यवस्था हो तो एक बात भी है पर शिक्षा के प्रकाश में आगे बढ़ने वाले का अव्यवस्थित होना वस्तुतः खेदजनक है। इसी प्रकार बहुत से अध्ययनशील व्यक्ति तो अपना समय खराब नहीं करते किन्तु उसका अध्ययन क्रम निश्चित एवं निर्धारित नहीं होता। वे कभी एक विषय के ग्रन्थ को पढ़ते और पूरा किये बिना ही दूसरा शुरू कर देते हैं। कभी-कभी एक ग्रन्थ को कल के लिये अधूरा छोड़कर उसके लिए निश्चित समय पर दूसरा ग्रन्थ आरंभ कर देते हैं। बहुधा यह भी देखने में आता है कि अनियमित अध्ययनशील पुस्तकों के समय में समाचार पत्र और समाचार पत्रों के समय में साहित्यिक पत्रिकायें पढ़ रहे हैं। इसमें सन्देह नहीं कि वे अपना समय बिना पढ़े  व्यय नहीं करते किन्तु उस कार्य में क्रम को स्थान नहीं देते। इस कमी के कारण अध्ययन से जितना लाभ होना चाहिये उतना नहीं हो पाता।
कार्यालयों में लिखा-पढ़ी का काम करने वाले अनेक परिश्रमी बाबू लोग अपनी इसी असामयिकता के कारण अच्छे कर्मचारियों की सूची में नहीं आ पाते। वे पूरे समय काम में जुटे रहते हैं और कभी-कभी निर्धारित समय से अधिक समय तक भी। तब भी वे अपने उच्च अधिकारी की प्रिय पात्रों की सूची में नहीं आ पाते। क्रम के साथ काम तथा फाइलों को उपयुक्त समय में न देने से उनका आवश्यक काम कभी-कभी पड़ा रहता है और गौण काम पूरा हो जाता है। इसी अव्यवस्था के कारण वे बहुत से तात्कालिक कामों को भूल जाते हैं इसलिये उनकी कार्य कुशलता के अंक कम हो जाते हैं। पत्र लिखने के समय फाइलों का अध्ययन और फाइल पढ़ने के समय टाइप पर बैठ जाने से न तो उनका कोई काम समय पर हो पाता है और न कुशलता पूर्वक इस प्रकार असमय पूरा हुआ उनका काम अधूरे की श्रेणी में ही गिना जाता है। क्रम एवं सामयिकता से करने पर काम भी कुशलता पूर्वक होता है और आवश्यकता से अधिक समय भी नहीं लगता।
इस प्रकार के अव्यवस्थित कार्यकर्ता समय की पाबन्दी को एक बन्धन मानते हैं। उनकी अक्रमिक बुद्धि का तर्क होता है कि समय के साथ अपने को अथवा अपने काम को बांध देने से मनुष्य उनका इतना अभ्यस्त हो जाता है कि यदि कभी संयोग, विवशता अथवा परिस्थिति वश उसे व्यवधान स्वीकार करना पड़ता है तो बड़ी परेशानी उठानी पड़ती है। प्रातःकाल पढ़ने अथवा व्यायाम करने वाले को यदि दो-चार दिन के लिए बाहर यात्रा पर जाना पड़ जाये तो निर्धारित कार्यक्रम में व्यवधान पड़ जाने से उसकी अभ्यस्त वृत्तियां विद्रोह करेंगी, जिससे यात्रा अथवा प्रवास के समय पर उसे बड़ी भ्रान्ति, क्लान्ति एवं व्यग्रता रहेगी।
सुख शान्ति, सन्तोष, सफलता एवं स्वास्थ्य आदि के पारितोषिक असामयिक जीवन-क्रम वालों से कोसों दूर रहा करते हैं। जिन्दगी जीने के लिये मिली है खो डालने के लिये नहीं। समय-व्यवस्था के अभाव में इस नरम दुर्बल मानव-जीवन को न तो ठीक से जिया जा सकता है और न इसका कोई लाभ ही उठाया जा सकता है। यह सम्भव तभी हो सकता है जब जीवन का प्रत्येक क्षण किसी निश्चित कर्तव्य के लिए निर्धारित एवं जागरूक रहे।
असमय सोने-जागने, खाने-पीने और काम करने वाले को आजीवन आरोग्य के दर्शन नहीं कर सकते। वे सदा सर्वदा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अथवा आध्यात्मिक किसी न किसी व्याधि से पीड़ित रहेंगे। उनकी शक्तियों में से कुछ को तो उनकी अव्यवस्था नष्ट कर देगी और शेष को व्याधियां शोषण कर लेंगी।
समय पर काम आने वालों की सारी शक्तियां उपयोग में आने पर भी अक्षय बनी रहती है। समय पर काम करने का एक सजग प्रहरी की तरह ही होता है, जो किसी भी परिस्थिति में मनुष्य को अपने कर्तव्य का विस्मरण नहीं होने देता। समय आते ही सिद्ध किया हुआ अभ्यास उसे निश्चित कार्य की याद दिला देता है और प्रेरणा पूर्वक उसमें लगा भी देता है। समय आते ही उक्त कार्य योग्य शक्तियों के जागरण एवं सक्रियता आ जाती है, जिसमें मनुष्य निरालस्य रूप से अपने काम में लगकर उसे निर्धारित समय में ही पूरा कर लेता है। कार्य एवं कर्तव्यों की पूर्णता ही जीवन की पूर्णता है, जो कि बिना समय, संयम एवं व्यवस्थित और नियमित क्रियाशीलता के प्राप्त नहीं हो सकती।
समय निर्धारित कर लेने के बाद भी नियत समय पर कार्य न करने और बाद में उस काम को हाथ में लेने से वह काम तो हो जाता है— पर उसमें कोई उत्साह नहीं रहता है। पहली बार नियत कर लेने के बाद उसी समय वह कार्य सम्पन्न करने से कार्य सम्पन्न होता है। किसी को काम को करने के ठीक समय पर शरीर उसी काम के योग्य यन्त्र जैसा बन जाता है। और यदि उस समय में दूसरा काम लिया जाता है तो वह काम लकड़ी काटने वाली मशीन से कपड़े काटने जैसा हो जाता है। कहने का अर्थ यह कि न उस काम को दक्षता पूर्वक किया जा सकता है और न ही चालू काम में मन भली भांति लगता है। फलस्वरूप समय तो नष्ट होता ही है हमारी शक्तियों का भी क्षय होने लगता है।
समय सम्पदा का सदुपयोग—महत्वपूर्ण संयम है। क्रम एवं समय से काम करने वालों या समय को यों ही व्यर्थ के कार्यों में नष्ट करने वालों का शरीर यन्त्र अस्त-व्यस्त प्रयोग, आलस्य और प्रमाद के कारण शीघ्र ही निर्बल तथा निस्तेज हो जाता है। थोड़े समय बाद ही वह किसी भी कार्य के योग्य नहीं रह जाता।
जीवन का एक-एक क्षण उपयोगी है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं वे प्रत्येक क्षण का उपयोग करके ही महान बने हैं। जिन्हें भी महान् बनने की आकांक्षा हो या जो भी अपने जन्म सिद्ध अधिकार सफलता को प्राप्त करना चाहते हों वे समय सम्पदा का अपव्यय न करते हुए उसका सदुपयोग करें।


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