
इन्होंने तो कभी शिकायत नहीं की
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अपंगता, बीमारी, असमर्थता आदि से संकटग्रस्त बेकारी का रोना रोने वाले लोगों से दुनिया भरी पड़ी है। इतना ही नहीं कुछ तो स्वास्थ्य शरीर जैसी मजबूत और उपयोगी वस्तु पाकर भी दुर्भाग्य का रोना रोते हैं। वह लज्जा की बात नहीं तो क्या है? यदि अभाव ग्रस्त और अपाहिज लोग भी उल्लेखनीय सफलताएं प्राप्त कर सकते हैं, तो पढ़े लिखे स्वस्थ नव युवक, बेकारी, बेरोजगारी और असफलता के लिए सदैव बेचैन क्यों हों? यदि साहस करें, लगन जगायें और जहां उसी स्थिति से आगे चल पड़ने के लिए कटिबद्ध हो जायें तो संसार में समस्या जान पड़ने जैसी कोई परिस्थिति न रहे। परमात्मा की सृष्टि में विवशता को कोई स्थान नहीं। परिश्रम और पुरुषार्थ से प्रत्येक कठिनाई जीती जा सकती है।
एक जन्मजात रोगी, गरीब घर में पैदा हुआ, कुरूप काना, असहाय बालक निश्चित लक्ष्य बनाकर अध्यवसाय पूर्वक उसमें रत रहा। लक्ष्य था अंग्रेजी का शब्द कोष तैयार करना। संभव है कोई आशंका करे कि कोई उनका सचिव या सहयोगी रहा होगा, जिसने उसकी सहायता की हो? ऐसी भी कोई बात नहीं। उनकी पत्नी ही रोटी पानी की जितनी सुविधा देकर सहयोग कर सकी, वही था मात्र सहयोग। कोष तैयार हो जाने के बाद जिन व्यक्तियों ने उन्हें उपेक्षित तिरस्कृत किया था उनने ही बाद में उनका हार्दिक सम्मान किया। यह प्रसिद्ध विद्वान जॉनसन थे। विद्वानों ने इन्हें सिर पर उठा लिया और वे अंग्रेजी भाषा के अद्वितीय विद्वान मान लिए गए। सरकार ने उनके काम के उपलक्ष में जीवन भर के लिए बहुत बड़ी पेंशन बांध दी। सेमुअल जॉनसन देखते ही देखते नीचे से उठकर शिखर पर पहुंच गए।
कोई सामान्य व्यक्ति यदि उन परिस्थितियों में रहता तो भाग्य या देव का रोना रोते हुए समाज पर भार बनकर रहने के सिवाय कुछ न कर पाता। वास्तव में साधनों की सुविधा से महान कार्यों का मूल्य और भी बढ़ा देती हैं। कोष का जितना महत्व है जॉनसन के उस धैर्य और अव्यवसाय का भी उतना ही है। विलासिता को भोगते रहने वालों का ध्यान जीवन की आदर्शता की ओर आकृष्ट नहीं हो पाता। धन की बहुलता के घमण्ड में अपने आपको बड़ा मान बैठने वालों की नजर, ज्ञान सम्पदा की महानता को समझ नहीं पाती। ऐसे धनी व्यक्तियों से वे साधन सुविधाहीन मानव बड़े हैं जिनने संस्कृति के उत्थान हेतु ज्ञान के मोती समाज को अर्पण किए हैं। उनके श्रम और सेवा की गाथा उनके द्वारा किए गए उच्च आदर्शों की अमरता सदा ही गाती रहेगी।
लाहौर के पद्मराज अरोरा के जन्म से ही हाथों की उंगलियां नहीं थीं। इस अपंगहस्त पुत्र को देखकर अभिभावकों को बड़ी वेदना हुई और उन्होंने लड़के को परिवार पर बोझ समझ लिया। उसके लिए वे सदा चिन्तित रहते थे। किन्तु इस बाधित पुत्र ने अभिभावकों को अधिक दिनों तक चिन्ताग्रस्त नहीं रहने दिया। उसने वह करके दिखला दिया जो प्रायः पूर्ण स्वस्थ एवं शुभांगी भी नहीं कर सकते। केवल एक क्षेत्र में नहीं बल्कि अनेकों क्षेत्रों में अपने पुरुषार्थ की उल्लेखनीय छाप छोड़कर दिखला दिया कि परमात्मा ने इतना कुछ दिया कि बाधाओं में भी शिक्षा से लेकर कार्यालय और अखाड़े से लेकर खेल के मैदान तक में ख्याति प्राप्त की जा सके।
अबोधावस्था तक तो वह खेलता-कूदता, मस्ती करता रहा, किन्तु चेत आते ही उसने जाना कि प्रकृति ने उसके साथ मखौल ही नहीं अन्याय भी किया है। अपने जैसे हस्तहीन भिखारियों एवं बेकारों को देखकर वह और भी खिन्न हो जाता एवं सोचता रहता है कि क्या इनके समान ही मेरे जीवन को व्यर्थ बनाने के लिए ही प्रकृति ने मेरे दोनों पहुंचे छीन लिए हैं। मनोभावों की धारा में मोड़ आया और जीवन परीक्षा में सफलता के लिए दृढ़ निश्चय पुरुषार्थ तथा प्रयत्न की महत्ता स्थापित करने और लोगों के सम्मुख यह उदाहरण रखने कि शारीरिक अपंगता प्रगति में बाधा नहीं बन सकती, वे उसी दिशा में बढ़ने लगे। मनुष्य में कुछ कर दिखाने की सच्ची लगन हो तो परिस्थितियां बाधक नहीं हो सकतीं। नहीं तो कुछ करने की मृत इच्छा और लगन पूर्वक निश्चय से रहित मन वाले दो हाथ क्या चार हाथ होने पर भी कुछ नहीं कर सकते। विचार ठीक होते ही श्री पद्मराज अरोरा की शक्तियां भी अनुकूल हो उठीं और उनकी उन्मुखता आपसे आप सही दिशा झांकने लगी। शिक्षा के क्षेत्र में बी.कॉम एवं वकालत की पढ़ाई एक साथ उत्तीर्ण की। एक समय में दोहरे कार्य में समय का उपयोग करने का अर्थ है शीघ्र ही लक्ष्य के समीप पहुंचना। उल्लेखनीय बात और भी है कि उनकी उंगलियां न रहने पर भी अक्षरों को छापकर रख देने जैसे सुन्दर सुलेख को केवल हथेली से दबाकर ही लिखते थे।
शारीरिक निर्बलता एवं कमजोरी के कारण श्री पद्मराज अरोरा शारीरिक कार्यों में प्रायः दूसरों से पीछे रह जाते थे। प्रतिस्पर्धा की भावना के साथ अरोरा जी ने शारीरिक निर्बलता रहने पर भी शारीरिक कार्यों में दूसरों से आगे बढ़ने का विचार किया इस लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु संयम नियम के साथ व्यायाम का क्रम प्रारम्भ किया। प्रगति का अभिलाषी उद्योगी पुरुष जिस क्षेत्र में भी पदार्पण करता है अपना स्थान बना ही लेता है। श्री अरोरा को भी प्रारम्भ में कुछ सफलताएं मिली। प्रारम्भिक सफलता से प्रोत्साहन मिलता रहता और उनसे प्रान्तीय स्तर की कुश्ती प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान पाया। केवल कुश्ती ही नहीं खेल के मैदान में हॉकी, फुटबाल में भी विश्व विद्यालय के चैम्पियन बने। यह होता है एक सच्चे मनुष्य तथा पुरुषार्थी का लक्षण। ऐसे लोग ही तो समाज की शोभा और देश का गौरव बनते हैं।
साधारण परिस्थितियों में भी उच्च मनोबल और साहस वाले लोग बड़ी से बड़ी सफलता प्राप्त कर सकते हैं। पुरुषार्थी को न बाधाएं रोकती हैं और न दुर्भाग्य बुरा कर सकता है। मनुष्य कठिनाई में ही अपने भाग्य का निर्माण करता है। मनुष्य का साहस न छूटे और आशा न टूटे तो संसार इतना बड़ा है कि खोजने पर उसमें कठिनाइयों का निराकरण के योग्य उपाय कहीं न कहीं से उपलब्ध हो ही जाते हैं। अनेकों उत्कृष्ट सफलतायें ऐसे ही साहसी और उद्यमी मनोबल वाले व्यक्तियों ने पाई हैं। दैव या भाग्य के भरोसे बैठे रहने वालों को आज तक कहीं थी सफलता नहीं मिली। सफलता तो साहसी और पुरुषार्थी की दासी है। अन्धों को वह क्यों वरण करने लगी।
बुडापेस्ट (हंगरी) में तेरह वर्ष की उम्र तक स्जेनसी लकवे का शिकार था। जो चिकित्सा करा सकते थे अभिभावकों ने व्यवस्था की। परिणाम कुछ न हुआ। बालक के भावी जीवन के लिए माता-पिता का चिन्तित होना ऐसी परिस्थिति में स्वाभाविक ही था। किन्तु बालक के मन में आशा उत्साह और प्रयत्न ही लहरें हिलोरें ले रहीं थीं। कहीं उसने पढ़ा कि जल चिकित्सा से लकवे की बीमारी दूर हो सकती है। फिर क्या था उसने जल विहार आरम्भ किया और आनन्द भी लेता रहा। घंटों पानी में तैरता रहता फिर वाटर पोलो खेलने लगा और उसके बाद मीलों तैरने वाला तैराक बना। 1962 में स्जेनसी ने तिरजा नदी पर तैराकी का विश्व रिकार्ड जीता। इसके पूर्व कई छोटी-छोटी प्रतियोगिताओं में भी सम्मिलित होता रहा, जिससे अभ्यास बढ़ता रहा। 41 घंटे 40 मिनट में 230 किलोमीटर की दूरी तैर कर लोगों को आश्चर्य चकित कर, तैराकी में आदर सम्मान का पात्र बना। यह सफलता उसने अचानक ही नहीं निरन्तर अभ्यास से प्राप्त की थी। पिछले अभ्यासों में जब भी उच्च सफलता मिली, उनसे अहंकार में नहीं डूबा क्योंकि वह जानता था कि स्वल्प सफलता में डूब जाना अपनी सफलता का मार्ग अवरुद्ध करना है। साथ ही हर सफलता ने उसे नया उत्साह और नई प्रेरणा भी दी।
अमेरिका के श्री अब्राहम नेमेथ ने ‘ब्रेल साइड रूल’ नामक एक अन्ध शिक्षा प्रणाली प्रचलित की है। जिसके आधार पर आज हजारों अन्धे व्यक्ति शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को स्वावलम्बी बनाकर जी रहे हैं। इतना बड़ा उपकारी कार्य करने वाले को कोई भी यही समझेगा कि वह स्वस्थ शुभांगी और धनी रहा होगा। तभी तो इतनी महत्वपूर्ण शिक्षा प्रणाली की खोज कर सका। किन्तु श्री नेमेथ इस मान्यता के विपरीत थे। वे बिल्कुल अन्धे थे साथ ही निर्धन भी।
प्रयत्न एवं पुरुषार्थ की महिमा न जानने वालों के लिए संसार में कितनी ही बातें असम्भव और आश्चर्यजनक हो सकती है। किन्तु जो उद्यमी प्रयत्नशील और ध्येयवान व्यक्ति होते हैं वे इन निरर्थक बातों में विश्वास नहीं करते और मनुष्य के लिए कोई भी काम असम्भव नहीं मानते हैं। संसार में असंभव को कर दिखाने वालों की कमी नहीं रही है। अन्धे नेमेथ ने प्राचीन अविकसित एवं अपूर्ण ब्रेल पद्धति पर चलने वाले अंध विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की गणित में अरुचि होने पर भी उसका अध्ययन न कर सके। वे इसका अध्ययन कर भी कैसे सकते थे? क्योंकि उस समय ब्रेल पद्धति में गणित की शिक्षा सुविधा भी नहीं थी। निदान उनने मनोविज्ञान में ही एम. ए. पास किया। किन्तु गणित विषय में उनकी जिज्ञासा कम नहीं हुई। वे ब्रेल पद्धति में गणित की शिक्षा सुविधा उत्पन्न करने पर निरन्तर विचार ब्रेल पद्धति में गणित की शिक्षा सुविधा उत्पन्न करने पर निरन्तर विचार करते रहे। उनकी लगन एवं आत्म विश्वास ने उन्हें इस बात पर आश्वस्त कर रखा था कि यदि ईमानदारी से प्रयत्न किया जाय तो अन्धे छात्रों को गणित की शिक्षा देने का भी उपाय निकाला जा सकता है। शिक्षा के बाद काम की खोज करने पर भी कोई काम न मिला तब उनने और अधिक समय खराब करना ठीक नहीं समझा और तकियों के खोल सीने का काम हाथ में लिया। योग्यता और उत्तम व्यवहार के बल पर लोगों की बड़ी गहरी सद्-भावना और आर्थिक सम्पन्नता को प्राप्त किया।
संयोगवश फ्लोरेन्स नाम की एक अन्धी किन्तु गुणशील युक्त महिला से इनका परिचय हुआ। इनने सहर्ष विवाह स्वीकार कर लिया। फ्लोरेन्स अन्धी होने पर भी पति की सेवा में कोई कमी न रखती थी। वह नेमेथ को निरन्तर पढ़ने अन्धों की शिक्षा प्रणाली में विकास करने के लिए प्रोत्साहन देती रहती थी। नेमेथ को पत्नी के इस सहयोग से बड़ा उत्साह और अवलम्बन मिला। वे अपने मुख्य कार्य में संलग्न हो गए। इसके लिए उन्होंने अन्य अनेक भाषाओं का अध्ययन आरम्भ कर दिया और जल्दी ही एक फ्रेंच, हिब्रू, ग्रीक और लेटिन आदि भाषाओं पर अधिकार कर लिया।
पति से आत्मिक स्नेह और आदर पाने के फलस्वरूप फ्लोरेन्स की आन्तरिक प्रसन्नता उभरी और एक आंख की ज्योति के रूप में वह चमक उठी। एक की ज्योति मिलते ही दोनों पति पत्नी ज्योतिमान हो उठे। फ्लोरेंस की नेत्र ज्योति अपने से अधिक पति के काम आने लगी और उनका ध्येय आगे बढ़ गया। उसने पति को पुस्तकें पढ़कर सुनानी आरम्भ कर दी और नेमेथ जो बोलते थे उसे लिखना भी। दोनों में परस्पर अध्यवसाय और लगन का अद्भुत चमत्कार हुआ कि अन्धों के लिए चलने वाली सरकारी शिक्षा योजना में उल्लेखनीय सहायता मिली। और उसी की मदद से अन्धों के लिए गणित की शिक्षा सम्भव हो सकी। इससे पूर्व उनने स्वयं गणित में एम.ए. किया। इस प्रकार अंधे अब्राहम नेमेथ ने अपने परिश्रम और लगन के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि संसार में मनुष्य के लिए कोई काम असम्भव नहीं है यदि वह उसको करने के लिए तन, मन और धन से पूरी तरह ईमानदार है। नहीं तो ऐसी परिस्थिति प्राप्त दम्पत्ति केवल भीख मांगकर भाग्य को ही कोसते रहते।