
अवसर ढूंढ़िए, परिश्रम कीजिए महानता आपके कदम चूमेगी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जब कभी हम अपने किसी मित्र से या कोई मित्र हम से कहे कि ‘क्या बताया जाये हमको अवसर ही नहीं मिला नहीं तो हम भी संसार में कुछ करके दिखला देते’—तब निश्चय करके यह मान लेना चाहिए कि हम दोनों झूठ बोलते हैं। अपने शब्दों के पीछे अपनी निराशात्मक प्रवृत्ति और अपरिश्रमशीलता के साथ अपनी अयोग्यता छिपाते हैं। अवश्य ही हम दोनों अपने प्रति गैर ईमानदार हैं। अपनी आत्मा का प्रवचन करने वाले ऐसे व्यक्ति हैं जो दूसरों की तरक्की देख कर हसरत भरी आह ही भर सकते हैं पर कुछ कर नहीं सकते अन्यथा संसार का ऐसा कौन-सा ऐश्वर्य अथवा उपलब्धि है जो लगन, पुरुषार्थ एवं निरन्तरता के बल पर नहीं पायी जा सकती। संसार की सारी उन्नतियां, समग्र विकास कर्मठ व्यक्ति के पसीने की बूंदें कही गई हैं।
जिसके हृदय में आशा और आकांक्षा में उत्साह की तरंग है वह संसार की हर सफलता पा सकता है। जो अपने मनोनीत क्षेत्र में लगन और उत्साह से डटा रहता है एकाग्र चित्त होकर अपने लक्ष्य की ओर तिल-तिल भी बढ़ता रहता है वह एक दिन हिमालय जैसे ऊंचे उद्देश्य को भी पा लेता है। जिसका संकल्प ढुलमुल है, जिसकी निरन्तरता शिथिल है, जो काम में अपनी शक्तियों का चोर है उसको यदि तिल जैसा उद्देश्य भी दे दिया जाये तो वह उसे भी पूरा नहीं कर सकता।
यह मानव जीवन का निश्चित नियम है कि जो अपना दृष्टिकोण विधेयात्मक बना लेता है वह उन्नति की ओर और जिसका विश्वास निषेधात्मक होता वह पतन की ओर ही अग्रसर होता है। जिस कार्यक्रम अथवा उद्देश्य के प्रति जिस मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है जैसी भावना होती है उसका परिणाम भी उसी के तदनुरूप मिलता है। मनुष्य के गुप्त मन में निर्माणात्मक एवं ध्वंसात्मक दोनों प्रकार की शक्तियां निहित रहती हैं जो कि मनुष्य की भावना एवं विश्वास के अनुरूप जागकर ऊपर आ जाती है और अपने स्वरूप की तरह ही प्रेरणा देने लगती हैं। जो काम अविश्वास एवं आशंका की भावना से किया जाता है उसकी सफलता संदिग्ध और जो प्रारम्भ विश्वास एवं शंका रहित स्थिति में किया जाता है उसका परिपाक सफलता के रूप में ही हस्तगत होता है। हमारी जगी हुई मानसिक शक्तियां यदि सृजनात्मक होंगी तो वे हमारे उत्साह का वर्धन करेंगी हमें कार्य करने की अधिकाधिक क्षमता प्रदान करेंगी और यदि वे शक्तियां ध्वंसात्मक होंगी तो निश्चय ही हमारी उद्दात्त भावनाओं को शिथिल और बढ़ने की शक्ति आशा और उत्साह पर धूल डाल देंगी। अतएव उन्नति के आकांक्षी व्यक्ति को भूल कर भी निषेधात्मक दृष्टिकोण द्वारा ध्वंसक शक्तियां जगाने की गलती नहीं करनी चाहिए।
जहां तक अवसर न मिलने की शिकायत है सो अवसरों का भण्डार कहीं किसी समाज के पास नहीं रहता कि वह उसमें से जब चाहे जिसे दे दे अथवा जिसे चाहे वंचित कर दे। अवसर की खोज की जाती है, बुद्धिमत्ता तथा व्यवहार कुशलता से उनका निर्माण किया जाता है। अवसर को खोज लेना अथवा उसका निर्माण कर लेना ही तो वास्तविक पुरुषार्थ है अथवा पकी-पकाई रोटी खा लेना तो सबके लिए ही सुगम होता है। अवसर न कभी आता है और न कभी निकल जाता है। इस अनन्तकाल का प्रत्येक क्षण एक अवसर है मनुष्य का प्रत्येक कदम एक उद्योग और प्रत्येक दिशा उन्नति एवं विकास का क्षेत्र है। किन्तु यह सब सामान्य बातें किसी भी अदूरदर्शी अथवा अकर्मण्य के लिये सफलता के रूप प्रस्तुत नहीं हो सकतीं। संसार के छोटे अणु क्षण उस ही के लिए विशाल कल्पवृक्ष का रूप धारण कर सकते हैं। जो किसी सदुद्देश्य के लिये पसीना बहाना जानता है अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं का बलिदान देना और हृदय की शिथिल एवं विलासी प्रवृत्तियां त्याग करना जानता है।
संसार में एक नहीं अनेकों ऐसे व्यक्तियों के प्रमाण मौजूद हैं—जिनके पास किसी प्रकार की सुविधा-साधन, धन-दौलत, विद्या बुद्धि नहीं थी किन्तु उन्होंने अपने पुरुषार्थ एवं लगन के बल पर उन्नति के उच्च शिखर पर पहुंच कर दिखा दिया।
आज ‘बाटा शू कम्पनी’ भारत ही नहीं संसार के कोने कोने में छाई हुई है। उसके बने जूते लोग बड़े शौक तथा विश्वास के साथ पहनते और खरीदते हैं। इस कम्पनी का नाम उसके मालिक बाटा के नाम पर ही पड़ा है जो प्रारम्भ में एक साधारण मोची का लड़का था।
यह लड़का प्रारम्भ में शहरों की सड़कों के किनारे बैठकर लोगों के फटे-पुराने जूते टांका और पालिश किया करता था यही उसकी आजीविका का साधन था। उसके पास तरक्की करने का न तो कोई अवसर था और न उसके पास साधन ही थे। फिर भी उसने अपने जीवन में एक महान् उद्योग पति होकर दिखला दिया। उसकी इस उन्नति का रहस्य और कुछ नहीं केवल अपनी मेहनत, लगन और काम के प्रति श्रद्धा भर ही थी।
इस लड़के को ज्यादा काम करने के बजाय अच्छे से अच्छा काम करने की लगन थी। वह जिसका भी काम करता उसे पराकाष्ठा तक अच्छा और सही करने की कोशिश करता था। उसने कभी भी पैसे के लिये जल्दी जल्दी काम की बेगार नहीं टाली। वह ग्राहकों के साथ बड़ी नम्रता एवं आदर से बोलता। उनके फटे-पुराने जूते अपने महीन और मजबूत टांकों से सीकर दीर्घजीवी बना देता। पालिश लगाकर ऐसा चमका देता मानो वे नये हों। जब तक वह जूता गांठने का काम करता रहा उसका कोई भी ग्राहक असंतुष्ट नहीं हुआ। वह समय पर भी काम लेता था और समय पर ही उसको करके देता था। इस प्रकार लगन तथा निश्चित समय के बल पर अपने छोटे से काम में एक बड़प्पन का समावेश कर लिया। जिसका फल यह हुआ कि उसके पास ग्राहकों की भीड़ रहने लगी। लोक अपना काम करवाने के लिये अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगे। अब लोगों का विश्वास हो गया कि बाटा के बनाए हुये जूते ही अधिक दिनों तक चल सकते हैं। इस प्रकार एक दिन यह स्थिति आई कि लोग जूतों की मरम्मत के लिये उस पर निर्भर रहने लगे। काम की बहुतायत हो गई। फिर भी बाटा में जरा भी यह दुर्बलता न आई कि लोग जूतों की मरम्मत के लिये उस पर निर्भर रहने लगे। काम की बहुतायत हो गई। फिर भी बाटा में जरा भी यह दुर्बलता न आई कि वह अधिक पैसे कमाने के लिये उल्टा-सीधा काम करके लोगों को जल्दी-जल्दी देने लगे। क्योंकि जिस सच्चाई लगन तथा ईमानदारी के आधार पर उसको नागरिकों की सद्भावना मिली थी वह उन्नति के उस आधार को त्याग देना मूर्खता समझता था।
धीरे-धीरे उसके पास इतना काम बढ़ गया कि सड़क के किनारे बैठ बैठकर उसे कर सकना असंभव हो गया। निदान उसने एक दुकान खोजनी शुरू की। सद्भावना के कारण उसे स्थान मिलते देर न लगी। क्योंकि लोग स्वयं ही इसके इच्छुक थे कि बाटा कहीं ठीक से जूते बनाने का काम शुरू करे जिससे कि अच्छे और मजबूत जूतों की समस्या हल हो जाये।
बाटा ने एक छोटी-सी दुकान में नये जूते बनाना और जूतों की विधिवत मरम्मत शुरू की। काम बढ़ता गया और बाटा दिन-दिन तरक्की करता गया। उसने अपनी तरह के अन्य लड़कों को भी काम पर लगाया और इस प्रकार एक छोटा-सा जूतों का कारखाना प्रारम्भ कर दिया। पैसे के सम्बन्ध में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई। कुछ पैसा तो उसने अपने मितव्ययिता के गुण से स्वयं बचाया और बहुत सा पैसा उसकी ईमानदारी तथा सर्जनात्मक वृत्ति के प्रमाण ने इकट्ठा कर दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे तरक्की करते हुए वह साधारण जूता टांकने वाला लड़का एक महान् उद्योगपति बन गया और उसका छोटा-सा काम एक बड़ी कम्पनी में बदल कर संसार की सेवा कर रहा है।
देखा यह जाता है कि हजारों लोग जीवन में उन्नति करने की आकांक्षा करते हैं, पर पाते हैं कि मंजिल उतनी ही दूर हुई जाती है जितनी कि वे आकांक्षा करते हैं। उन्नति चाहने वालों की संख्या हजारों लाखों नहीं करोड़ों में है और प्रत्येक आने वाले दिन को आज के दिन से अच्छा बनाने की आकांक्षा रखता है पर आज का दिन जैसे ही व्यतीत होता है और कल का दिन शुरू होता है, वैसे ही लगने लगता है कि हम जहां के तहां हैं और जरा भी आगे नहीं बढ़ पाये। पास में साधन हों, सामने अवसर हो तथा समर्थ लोगों को सहयोग हो तो भी लोग उन्नति से वंचित रह जाते हैं। इसका क्या कारण है? उत्तर एक ही है—उन्नति करने के लिए आवश्यक सभी गुण भले ही व्यक्ति में रहे हों पर परिश्रम का अभाव रहा है, प्रगति के लिए ईमानदारी से प्रयास नहीं किया गया है।
संसार में जिन किन्हीं भी गिने चुने व्यक्तियों ने प्रगति की है। उनमें प्रतिभा थी, उनके पास ऐसी क्षमता योग्यता थी कि वे आगे बढ़ सके। फिर भी उन्होंने अपने जीवन में ऐसे अवसरों की प्रतिक्षा नहीं की जिनमें वे आगे और व्यक्ति विशेष का सहयोग अर्जित कर सकें। अन्त में उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार किया तथा महत्वाकांक्षी व्यक्तियों को यह दिशा निर्देश दिया कि परिश्रम प्रतिभा का पिता है, प्रतिभा हमारे पास लाखों हो, योग्यता में हम किसी से कम नहीं हों पर अगर परिश्रम जैसी चीज हमारे पास नहीं है तो हम कदापि आगे नहीं बढ़ सकेंगे। परिश्रम का महत्व समझाने के लिए उस शिला का उदाहरण हर जगह दिया जाता है जो कुएं पर पड़ी रही होती है तथा रस्सी की रगड़ से घिस कर निशान खा जाती है। यह इस सिद्धान्त का द्योतक है कि परिश्रम के बिना प्रतिभा का कोई सम्मान नहीं है। वह जारज सन्तान की तरह है जिसकी कोई चर्चा भी सुनना पसन्द नहीं करता, चर्चा होती है भी तो लोग यह कहकर अब मानना कर जाते हैं कि खाक प्रतिभा है उसमें। यदि प्रतिभा है तो वह उसे सामने क्यों नहीं ला पाता।
लौकिक हो चाहे अलौकिक जहां भी जो कोई विभूति, संपदा और सफलता दिखाई पड़ती है वे परिश्रम के आधार पर ही प्राप्त की जा सकती है। सम्पत्ति, हो, कीर्ति अथवा श्रद्धा ही तीनों उपलब्धियां केवल पुरुषार्थ के बल पर ही प्राप्त होती हैं। यही कारण है कि किसी की प्रतिभा का तभी परिचय मिलता है जब वह उस दिशा में पुरुषार्थ करता दिखाई देता है। अन्यथा संघर्ष के अभाव में वह प्रतिभा भी अरणी में आग की तरह दबी पड़ी रह जाती है।
इन दिनों बम्बई का बेकंटेश्वर प्रेस भारत में प्रतिष्ठित ओर कलात्मक छपाई के लिए प्रसिद्ध है। उसकी यह ख्याति तभी से है जबकि बड़े-बड़े शहरों में भी नाम मात्र को प्रेस नहीं थे। इस प्रेस की सम्पत्ति और विकास को आंक पाना मुश्किल है तथा आश्चर्य होता है यह जान कर कि एकाकी व्यक्ति ने किस प्रकार इसकी इतनी गहरी नींव डाली। उससे भी ज्यादा विस्मय विमुग्ध कर देने वाली बात तो यह है कि इस प्रेस के संस्थापक मारवाड़ से रोजी रोटी की तलाश में बम्बई आये थे। तब न उनके पास प्रतिभा थी और न ही पैसा था। शरीर पर पहने हुए कपड़ों के अतिरिक्त उनके पास कुछ भी नहीं था। गुजारे के लिए उन्होंने एक बुकसेलर के यहां नौकरी कर ली। दिन रात मेहनत करके वे अपने काम में लगे रहते तथा पुस्तकें बेचते। साथ ही उन्होंने अपनी मंजिल भी निर्धारित कर ली उसे प्राप्त करने के लिए वे बड़ी मितव्ययिता बरतते और एक-एक दो-दो पैसे इकट्ठे करते रहे। बचाये गये थोड़े बहुत पैसों से उन्होंने छोटी छोटी पुस्तकें खरीद कर बेचना शुरू किया। सुबह खरीदी हुई पुस्तकों को रात तक बेच लेते। कंधे पर झोला लटकाये निरन्तर पुस्तकें बेचने वाले उस युवक को लोग पहचानने लगे तथा अधिकांश उसी से पुस्तकें खरीदने लगे।
इस प्रकार धीरे-धीरे वह नव युवक एक अच्छा पुस्तक विक्रेता बन गया। अपनी दुकान में अथक परिश्रम करते करते इतना काम लिया कि वह अब बड़ी पुस्तकें भी बेचने लगे तथा कुछ पुस्तकें छपाना भी आरम्भ कर दी। इस काम में भी उक्त युवक ने इतना परिश्रम किया कि उनमें एक अच्छे प्रकाशक की प्रतिभा जाग उठी। निदान उन्होंने अपने परिश्रम के बल पर साहस किया और धीरे धीरे इतना विकास किया कि बम्बई का वेंकटेश्वर प्रेस आज भी उनके परिश्रम तथा पुरुषार्थ की यश गाथा गा रहा है।
न केवल वेंकटेश्वर प्रेस के मालिक वरन् टाटा, बाटा, बिड़ला आदि धनकुबेर कहे जाने वाले परिवारों के पुरखे न तो जन्म जात प्रतिभा सम्पन्न थे और नहीं धनीमानी। जहां से वर्तमान विकास का दौर आरंभ हुआ उसकी नींव में अगाध परिश्रम ही छुपा पड़ा है। जमशेदजी नौशेरवां टाटा को तो बचपन में अपने पिता के साथ रोजी रोटी की तलाश में पैतृक निवास छोड़कर बम्बई आना पड़ा तथा वहां दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी थीं। लेकिन उन्होंने परिश्रम से कभी जी न चुराया और उसी के आधार पर धीरे धीरे उनमें प्रतिभा का विकास होता गया जिससे उन्होंने इतने लम्बे चौड़े कारोबार की स्थापना की। उनके वंशजों ने भी इसी परिश्रम परम्परा का अनुकरण करते हुए अपने औद्योगिक क्षेत्र को आगे बढ़ाया।
यह तो हो गयी उद्योग धन्धों और व्यवसाय, रोजगार की बात। विभिन्न विषयों के विद्वान, समाज सुधारक, शिक्षा, क्रान्ति के जनक तथा संस्कृत भाषा के पंडित ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को प्रारम्भ में न तो ऐसी परिस्थितियां प्राप्त हुई थी कि वे निर्बाध रूप से अपनी शिक्षा चला सकें और न ही कोई ज्ञान विद्या उन्हें विरासत के रूप में मिली थी। पिता अपनी थोड़ी बहुत योग्यता के बल पर केवल एक प्राथमिक शाला में अध्यापक बन पाने में सफल हो सके। ऐसी परिस्थितियों में यह कैसे कहा जा सकता है कि विद्वता और योग्यता विद्यासागर के सामने पके हुए फल् के रूप में सामने आग गयी और उन्हें प्राप्त हुई।
विद्यासागर जी विद्यावान नहीं हो सकते थे यदि वे अठारह अठारह घंटे काम न करते और रात रात भर जागकर पढ़ते न होते तो। परिस्थितियां तो ऐसी थी कि पैसों के अभाव में अपने घर में रोशनी तक का प्रबन्ध कर पाना कठिन था और वे सड़क पर लगी लालटेनों के नीचे उनकी रोशनी तले रात रात भर पड़ते रहते। सोचा जा सकता है कि यदि वे ऐसा न कर पाते तो कैसे आगे बढ़ने में कामयाब हो सकते थे।
अमेरिका के स्व. राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के पास प्रतिभा से भी अधिक परिश्रम का बल था और उसी बल के सहारे जंगल में लकड़ी काटकर लाते, शहर लेजाकर बेचते तथा बाहर मील पैदल घूमकर किताबें लाते और पढ़कर लौटाने जैसी प्रगति साधना संभव हो सकी। इसके अतिरिक्त लिंकन को अपने जीवन में जितनी बार असफलताओं का मुंह देखना पड़ा, उतनी असफलतायें हम अपने सामान्य जीवन में भी नहीं देख पाते होंगे। लेकिन लिंकन ने हिम्मत न हारी और वे हार हार कर भी परिश्रम करते गये पुरुषार्थ से उन्होंने मुंह नहीं मोड़ा और अन्ततः अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हुए।
प्रतिभा परिश्रम के अभाव में पंगु और असमर्थ है। वहीं परिश्रम के साथ प्रतिभा हो ही यह कोई अनिवार्य नहीं है। प्रतिभा के अभाव में भी परिश्रम और पुरुषार्थ के बल पर लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है जबकि परिश्रम के बिना प्रतिभा कुछ भी कर पाने में समर्थ नहीं है। अतएव महत्वाकांक्षी प्रत्येक व्यक्ति को अपने साधन पथ पर आरूढ होने से पहले यह देखना चाहिए कि ऊंचे चढ़ने के लिए जिस श्रम की आवश्यकता है वह श्रमशीलता हमारे व्यक्तित्व में है तो उसका विकास करना चाहिए और यदि है तो उसे निखार लाना चाहिए। इसी आधार पर महत्वाकांक्षायें पूरी हो सकती हैं अन्य और किसी आधार पर नहीं। यह हर व्यक्ति के ऊंचे उठने का मूलकारण रहा है और रहेगा उदाहरणों को सामने रखने का अवसर न मिलने की शिकायत करने वालों से पूछा जाय कि टाटा बेकंटेश्वर बिरला आदि के पास प्रारम्भ में कौन से ऐसे साधन थे कि जिनके सहारे वे उत्कर्ष कर सके निश्चय ही ये उदाहरण उनकी शिकायत रोक कर उन्हें लगन, पुरुषार्थ एवं सच्चाई में विश्वास करने का अवसर देंगे और यदि उनके हृदयों में उन्नति करने की सच्ची आकांक्षा होगी तो वे अपने पूरे तन मन से किसी भी क्षेत्र को लेकर आगे बढ़ चलेंगे।
संसार में जितने भी महान् एवं महापुरुष हुये हैं उनके पास यदि कोई साधन सामग्री थी तो वह उनकी लगन, उत्साह और निरन्तर बढ़े चले जाने की आकांक्षा ही रही है। एक बार जिस उद्देश्य को उन्होंने निश्चित कर लिया फिर जीवन भर उससे विचलित न हुये फिर चाहे उन पर विपत्तियों के पहाड़ ही क्यों न टूट पड़ें हों। अपने उद्देश्य के साथ जो भी अपने जीवन को एकाकार कर देता है वह अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। कोई संकट कोई भी अवरोध उनकी गति को अवरुद्ध नहीं कर पाता।
यदि हम अपने कार्य की सिद्धि में अखण्ड विश्वास लेकर चलते हैं, आशा और उत्साह को कम नहीं होने देते, असफलता एवं अवरोधों को महत्व नहीं देते तो निश्चय ही हमारा पुरुषार्थ सफल होगा। हमारा आशावाद हमें निरन्तर आगे बढ़ाने में सहायक होगा। लक्ष्य के प्रति हमारी पवित्र भावना, हमारे मनोबल तथा हमारी कार्य क्षमता एवं योग्यता को निरन्तर बढ़ाती रहेंगी।
जीवन का एक छोटा सा सिद्धान्त है कि काम करने से काम की क्षमता तथा योग्यता बढ़ती है। निरन्तर के कर्तृत्व में चमत्कार की शक्ति रहा करती है। संसार में हजारों ऐसे विद्वान हो गये हैं जिन्होंने शिक्षा के नाम पर विद्यालय का द्वार तक नहीं देखा किन्तु अपने अध्ययन एवं अध्यवसाय के बल पर वे पारंगत पण्डित हुए हैं।
कितनी ही बड़ी आपत्ति अथवा असफलता क्यों न आ पड़े अपने मनोबल को न गिरने दीजिए अपनी आशा को मन्द मत पड़ने दीजिए—निश्चय ही अन्धकार के बाद प्रकाश की बारी आती है असफलता के पश्चात् सफलता आयेगी ही। यदि भूल से भी आपने निराशा को एक क्षण को भी प्रश्रय दे दिया तो समझ लीजिये कि आगे का काम तो चौपट होगा या साथ ही पीछे की सफलता भी धुंधली पकड़े निर्जीव हो जायेगी।
किसी भी असफलता अथवा प्रतिकूलता से हार मान बैठना जीवन का दांव हार जाना है। एक बार हिम्मत हारने से मनुष्य का मन लंगड़ा हो जाता है उसका उत्साह दूषित होकर मन्द पड़ जाता है। इस कायर वृत्ति को अपने पास फटकने भी न दीजिये। मनुष्यता की शोभा हार-हार कर जीतने में है, असफल होने में हैं। जो संकट एवं संघर्षों के बीच से रगड़ता हुआ जीवन में आगे बढ़ता है उसका जीवन परिमार्जित होकर चमक उठता है। न जाने कितने शारीरिक दोष और मानसिक मल यों ही अनायास ही रगड़ रगड़ कर दूर हो जाते हैं। संकट एवं असफलतायें मनुष्य को नये अनुभव और नये पाठ पढ़ाती हैं। इनसे डरना मनुष्य जैसे श्रेष्ठ प्राणी को शोभा नहीं देता।
यह हर नागरिक का कर्तव्य है कि वे अवसर तथा साधनों के अभाव की शिकायत छोड़कर अपने अन्दर निहित शक्तियों पर विश्वास करें, अपने पुरुषार्थ एवं अदम्य उत्साह को जाग्रत करें और अडिग लगन तथा सच्चाई के साथ जीवन के किसी भी नैतिक, अध्यात्मिक धार्मिक, सामाजिक आर्थिक अथवा राजनैतिक क्षेत्र में उन्नति कर उज्ज्वल उदाहरण उपस्थित कर लोगों को प्रेरणा दें जिससे कि वे परिश्रम एवं पुरुषार्थ सच्चाई तथा ईमानदारी, लगन एवं उत्साह का मूल्य समझकर जीवन में इन गुणों का प्रतिपादन करें, जिससे उनका पिछड़ापन दूर हो और वे एक उन्नत मनुष्य के रूप में हर्ष तथा प्रसन्नता के अधिकारी बनें।
इस क्रम में एक और बात ध्यान रखने योग्य है कि शारीरिक और मानसिक शक्ति काम करने में खर्च होती है। इसकी पूर्ति के लिए जहां उपयुक्त आहार की, जल की, स्वच्छ वायु की आवश्यकता पड़ती है वहां थकान मिटाने के लिए ‘विश्राम’ की भी वैसी ही जरूरत है। शरीर को और मस्तिष्क को सक्रिय बनाये रहने के लिए जिस जीवनी शक्ति की आवश्यकता पड़ती है उसे पुनः संचय करने के लिए ‘विश्राम’ अभीष्ट है। खर्च हुई शक्ति को पुनः अर्जित करने का यह सर्व विदित और सुलभ तरीका है।
लगातार कठिन काम करते रहने की अपेक्षा यह अच्छा है कि बीच-बीच में थोड़ा सुस्ता लिया जाय और फिर काम में लगा जाय। देखने भर से ही ऐसा लगता है कि बीच वाला विश्राम वाला समय बेकार चला गया पर असल बात ऐसी है नहीं। थोड़ी सी विश्रान्ति मिल जाने से अधिक उत्साह और अधिक परिश्रम के साथ काम किया जा सकता है। निरन्तर काम करते रहने की अपेक्षा यह बीच में सुस्ताने वाली पद्धति सुविधाजनक भी रहती है और काम की मात्रा भी बढ़ा देती है।
अपनी शरीर रचना में ऐसा प्रतीत होता है कि रक्तसंचार, श्वास-प्रश्वास आदि की क्रियायें निरन्तर अनवरत रूप से होती रहती हैं, पर वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। हर अवयव बीच-बीच में स्वल्पकालीन विश्राम लेता रहता है, तभी उसकी ‘निरन्तर’ चलती सी प्रतीत होती कार्य पद्धति अक्षुण्ण बनी रहती है। हृदय को ही लीजिए, वह प्रति मिनट लगभग 70 बार धड़कता है। लेकिन रक्त फेंकने के अपने क्रियाकलाप में वह निर्धारित व्यवस्था के अनुसार काफी विश्राम लेता रहता है। इसका लेखा-जोखा लेने पर स्पष्ट हो जाता है कि हृदय चौबीस घंटे में सिर्फ नौ घंटे काम करता है और 15 घंटे सुस्ताता है। यदि वह ऐसा न करे तो हर दिन उसे जो काम करना पड़ता है वह संभव ही न हो सके। उसे रोज ही इतना खून फेंकना पड़ता है जिससे रेल का एक टैंकर भर जाय। वह उतनी शक्ति उत्पन्न करता है जितनी बीस टन लोहा तीन फुट तक ऊंचा उठाने वाली क्रेन के लिए आवश्यक है। इतना काम हर दिन जीवन भर करते रहने की क्षमता का एक रहस्य उसका एक मध्यावधि विश्राम विधान को भी समझा जा सकता है।
श्री चर्चिल सदा ही बहुत परिश्रमी और अध्यवसायी रहे, पर द्वितीय युद्ध के समय तो उन्हें अत्यधिक काम करना पड़ा। उन दिनों वे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे। आयु सत्तर साल। युद्ध का जो असाधारण दबाव आ पड़ा उससे उसमें 16 घंटे काम करना आवश्यक हो गया। इसके बिना युद्ध का संचालन और अगणित सामयिक समस्याओं का समाधान इससे कम समय में सम्भव ही न था। सत्तर वर्ष का बूढ़ा व्यक्ति यदि निरन्तर इतना काम उत्तेजित स्थिति में करे तो उसका एक सप्ताह जिन्दा रहना ही शक्य नहीं। श्री चर्चिल ने दूरदर्शिता से काम लिया। वे काम पूरी जिम्मेदारी से करते रहे, पर साथ ही शरीर की जीवनी शक्ति और मस्तिष्क को सन्तुलित रखने के लिये आवश्यक विश्राम का भी ध्यान रखे रहे।
श्री चर्चिल सवेरे 11 बजे तक अपने बिस्तर में ही पड़े रहते और लेटे हुए ही पत्र पढ़ने, उत्तर लिखवाने, टेलीफोन करने आदि के काम निपटाते। बहुत महत्वपूर्ण बैठकें भी वे इसी प्रकार लेटे अपने घर पर बुलाते और उनमें आवश्यक निर्णय लेते। मध्याह्न भोजन के उपरान्त वे एक घंटा सो जाते। रात के भोजन से पहले वे एक घंटा और सो लेते। कठिन परिश्रम करते हुए भी उनने शरीर को आवश्यक विश्राम देने का पूरा-पूरा ध्यान रखा। मस्तिष्क के काम तो निरन्तर लेते थे पर उस पर भय, चिन्ता, घबराहट, व्याकुलता आदि उद्वेगों का आतंक एक क्षण के लिए भी सवार न होने देते थे। वे जानते थे कि दस घंटे काम करने पर जितना थक जाता है उससे ज्यादा शक्ति आधा घंटे के मानसिक उद्वेग में नष्ट हो जाती है। सही दिमाग से जिसे सही काम लेना हो उसे हर हालत में मानसिक सन्तुलन को बनाये ही रहना चाहिए और बड़ी से बड़ी कठिनाई आने पर भी उद्विग्न नहीं होना चाहिए।
संसार के सबसे धनी व्यक्ति रॉकफेलर 98 वर्ष तक जिया उसे नितान्त गरीबी की स्थिति से आगे बढ़ते हुए तेल सम्राट बनने में भारी प्रयत्न, श्रम और संघर्ष करना पड़ा। इतनी मेहनत आमतौर से आदमी का कचूमर निकाल देती है और ऐसे अति व्यस्त और बहुधन्धी लोग स्वल्प काल में ही मौत के मुंह में चले जाते हैं। पर रॉकफेलर का अनोखा और अकेला ही उदाहरण इस स्थिति के लिये इतना लम्बा जीवन जी सकने का है। यह सब अनायास ही नहीं हो गया। उसने अपनी दिनचर्या को सुनियोजित रखकर इतनी लम्बी और निरोग जिन्दगी पाई।
रॉकफेलर दोपहर को आधा घंटा नियमित रूप से सोते थे। दफ्तर में काम करते हुए भी वे कोच पर सो जाते। इसमें किसी भी कारण व्यवधान उत्पन्न न होने देने। जरूरी से जरूरी काम आने पर भी उनकी हिदायत थी कि सोने से उन्हें कोई न जगाये।
अमेरिका के प्रेसीडेण्ट रुजवैल्ट अपना अति उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य बारह वर्षों तक निबाहते रहे उनका क्रम था कि कोई महत्वपूर्ण काम आरम्भ करने से पूर्व आधा घंटा नींद न आये तो भी आंखें मूंद कर सुस्ता लेते थे।
प्रख्यात खिलाड़ी कोनीमेक कहता था कि जब कभी दोपहर को बिना सोये उसे खेलना पड़ा तक वह हारा। पर जब उसने थोड़ी सी नींद बीच में लेली तो पूरी मुस्तैदी और ताजगी के साथ खेला और अच्छी तरह जीता।
गान्धी जी के जीवन क्रम में भी यही व्यवस्था जुड़ी रही। लार्ड इर्विन से भेंट करने वायसराय भवन में वे गये। 15 मिनट पहले पहुंच गये तो उन्होंने वह फालतू समय एक झपकी ले लेने में लगाया। वैज्ञानिक एडीसन को भी ऐसी ही आदत थी। ग्रामोफोन-वेकुम शक्ति आदि के कितने ही आविष्कार उसने किये। चिन्तन में सदा व्यस्त रहा, पर समय पर मस्तिष्क को विश्राम देने वाली बात वह कभी भी नहीं भूला। रात को ही नहीं दिन को भी वह बीच-बीच में सोकर ताजगी प्राप्त किया करता था।
विश्राम का समय बर्बादी नहीं है, वरन् अधिक काम करने के लिए अधिक शक्ति संचय की एक वैज्ञानिक पद्धति है। इसका उपयोग हर व्यक्ति को अपनी-अपनी स्थिति और सुविधा के अनुसार करना चाहिए। विशेषतया ढलती उम्र के व्यक्तियों को उसका अधिक ध्यान रखना चाहिए।
यहां आलस्य का प्रतिपादन नहीं किया जा रहा है, और न प्रमाद, दीर्घसूत्रता या काम चोरी की शिक्षा दी जा रही है। वरन् यह कहा जा रहा है कि अधिक काम कर सकने की शक्ति का अनावश्यक अपव्यय न होने देने का यह उपयुक्त तरीका है, कि काम के बीच में थोड़ा सुस्ताते हुए अपने क्रिया कलाप को जारी रखा जाय। जिसके लिए बीच में झपकी लेने की सुविधा ही नहीं हो वे कुछ देर तक आंखें बन्द करके शरीर को शिथिल रखते हुए निःचेष्ट कुर्सी पर पड़े रहने पर थकान मिटा सकते हैं। बूढ़े आदमी यदि लेटे रहकर जरूरी काम निपटा लिया करें तो उन्हें बिना थके अधिक कामकर सकने का लाभ मिल सकता है।
दिमाग को हर हालात में हलका रखना चाहिए। भावुक व्यक्ति बहुत करके कल्पनाओं की उड़ान में उड़ते हुए अधिक मस्तिष्कीय शक्ति खर्च करते हैं। दार्शनिक, चिन्तक, बुद्धिजीवी व्यक्ति जिन्हें अपने मस्तिष्क पर नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं, अत्यधिक मस्तिष्कीय तनाव के कारण कुसमय में ही मरते हैं। डरपोक शंकालु व्यक्ति चिन्ता आशंका, रोष आवेश, शोक वियोग की कल्पनाओं में उलझे रहकर एक प्रकार से मन्द आत्महत्या की राह पर चलते हैं और तनावजन्य रोगों के शिकार होकर बेमौत मरते हैं।
हमें श्रम का महत्व समझना चाहिए। मस्तिष्क से समुचित काम लेते हुए सफलताओं के शिखर पर पहुंचना चाहिए पर साथ ही यह भूल न जाना चाहिए कि अव्यवस्थित रूप से उत्तेजनात्मक स्थिति में किया जाने वाला श्रम न सफलता प्राप्त कराने में सहायक होता है और न स्वास्थ्य को स्थिर रखने में।
पौष्टिक आहार की महत्ता लोगों ने समझी है। और ‘‘विटामिन’’ ‘‘टॉनिकों’’ की ओर ध्यान दिया है, पर यह तथ्य भुला दिया गया है कि शक्ति के अनावश्यक अपव्यय की पूर्ति बिन विश्राम की उपयुक्त व्यवस्था के संभव नहीं। शरीर के आराम की व्यवस्था तो बहुत लोग कर लेते हैं। आलसी स्वभाव और जिम्मेदारी की कमी वाले व्यक्ति भी समय बिगाड़ते और मटरगश्ती करते देखे गये हैं। यह विश्राम नहीं है। सुस्ताने की आवश्यकता उन्हें है जो काम का महत्व समझते हैं—श्रम की गरिमा का जिन्हें ज्ञान है। उन्हीं के लिए यह पंक्तियां लिखी जा रही हैं। आलसी लोगों से तो क्रियाशीलता बढ़ाने की ही बात कही जा सकती है।
मस्तिष्क को विश्राम देने के लिए— हंसने, मुस्कराने, प्रफुल्लित और प्रसन्न चित्त रहने की आदत डालनी चाहिए। कठिनाइयों के सामने होने पर तो इस अभ्यास की और भी अधिक आवश्यकता है। मुसीबत के समय यदि मानसिक सन्तुलन गंवा दिया जाय—और शोक संताप में उलझ जाया जाय तो उस आपत्ति को पार करने के लिए सही उपाय ही न सूझ पड़ेगा। घबराया हुआ व्यक्ति अपनी सोचने की मशीन को ही बिगाड़ लेता है। गलत या अधूरे निर्णय लेता है। हड़बड़ी में कुछ करते भी नहीं बनता। ऐसी दशा में विपत्ति और भी अधिक बढ़ती चली जाती है।
कठिन समय को पार करने का उत्तम उपाय मानसिक सन्तुलन की स्थिरता ही है। इसे एक प्रकार से मस्तिष्कीय दबाव हलका करने वाली विश्राम पद्धति ही कहना चाहिए। हंसते-खेलते मुसीबत के दिन आसानी से काटे जा सकते हैं। प्रसन्न चित्त रहने वाला हंसोड़ स्वभाव वाला आदमी आधी-आपत्ति तो अच्छे स्वभाव के द्वारा ही हलकी कर लेता है। यह कथन सर्वथा सत्य है कि जो कठिनाई से नहीं डरता उससे कठिनाई डर जाती है।
मनःसंस्थान शरीर से भी अधिक सामर्थ्य का स्रोत है। लगातार श्रम से उसे थकाया न जाय तो वह अधिक मात्रा में और अधिक सही काम करेगा। इसी प्रकार उद्विग्नता के तनाव से उसकी रक्षा की जानी चाहिए। सन्तुलित और बिना तनाव की मानसिक स्थिति बनाये रखकर अधिक बुद्धिमत्ता दूर-दर्शिता और तज्जनित प्रगतिशीलता का लाभ सहज ही उठाया जा सकता है।