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Books - पुरुषार्थ—मनुष्य की सर्वोपरि सामर्थ्य

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


प्रगति पथ के दो अवरोध, जिनसे बचना ही चाहिए

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मानव जीवन को भगवान का सबसे बड़ा अनुदान माना गया है। कहा गया है कि देवता भी इस पृथ्वी पर जन्म लेने को तरसते हैं, क्योंकि यही कर्मभूमि है। कर्म के द्वारा ही मनुष्य को, अपवर्ग और मुक्ति की प्राप्ति होती है। कर्म ही ऊंचा उठाने और आगे बढ़ाने की शक्ति रखता है। संसार में जो कुछ प्रशंसनीय और आदरणीय है उस सबका आधार कर्म ही होता है, वेद में कहा गया है—

देवस्य सवितुः सवेकर्म कृण्वन्तु मानुषः।
           शानो भवन्तवप औषधी शिवाः॥ (अथर्ववेद 23।3)

अर्थात्—‘‘जीवन, प्रेरणा और प्रकाश देने वाले परमात्मा के प्रसाद से हम सदैव अपने नियत कर्म पूरे करते रहें, जिससे अन्न-जल आदि पदार्थों का सुख प्राप्त हो सके।’’

        असद् भूम्या सम्भवत् तद् द्यचेति महद्व्यचः।
              तद् वै ततो विधूपायत प्रत्यक कर्तामृच्छुतु॥ 4।19।3

अर्थात्— ‘‘दुष्टता और उद्धतता पूर्ण कार्य चाहे कैसे भी क्यों न हों करने वाले को संताप ही देते हैं और उसी पर अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करते हैं।’’

मानव जन्म की सफलता और उसे सार्थक बनाने का मार्ग यही है कि मनुष्य कर्ममय जीवन व्यतीत करता रहे। अकर्मण्य जीवन संसार में बहुत बड़ा अभिशाप माना गया है। इस प्रकार कर्म विमुख, आलसी, प्रमादी व्यक्ति को संसारी लोग तो क्या देवता भी अपने अनुग्रह का पात्र नहीं समझते और वह सदा दुर्भाग्य, भगवान की प्रतिकूलता का रोना ही रोता रहता है। ‘ऋग्वेद’ में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है—

इच्छन्ति देवाः सुव्वन्तन स्वप्नाय स्पृहयन्तियन्ति प्रमादमन्द्राः॥

अर्थात्—‘‘देवता लोग भी शुभ कर्म करने वाले पुरुष की कामना करते हैं। आलसी और प्रमादी व्यक्ति को वे अपना उपहार कभी नहीं देते।’’

जो व्यक्ति कर्म से विमुख रहकर निकम्मा जीवन व्यतीत करते हैं वे वास्तव में बड़े अभागे हैं। वे उस मूर्ख की तरह हैं जो अपने पैर में आप ही कुल्हाड़ी मारते हैं अथवा एक बहुमूल्य रत्न को पाकर भी उसका मूल्य न समझकर गंवा देते हैं। सन्तों का वचन है कि ‘‘हीरा जन्म अमोल था मूरख दिया गंवाय।’’ इसका आशय यह है कि जो व्यक्ति अपने जीवन को शुभ कर्म द्वारा सार्थक नहीं बनाता उसका जन्म लेना वृथा ही हुआ। अन्य रोग तो मनुष्य के किसी एक अंग को ही थोड़े समय के लिए बेकार बनाते हैं, पर आलस्य रूपी रोग समस्त शरीर को ही सदा के लिए निरर्थक बना देता है। यह धन, सम्पत्ति, उद्योग-धन्धे को ही नष्ट नहीं करता वरन् मनुष्य के सद्गुणों यश और सुनाम को भी चौपट कर डालता है। मूर्ख व्यक्ति सुख और आराम की कल्पना करके आलस्य को अपनाता है, सोचता है कि काम का बोझ हट जाने से चैन ही जिन्दगी व्यतीत करेंगे, पर यह उसे ऐसा जड़ और निकम्मा बना देता है कि दूसरे तो उसकी सर्वथा उपेक्षा करने ही लगते हैं, कुछ समय पश्चात् स्वयं अपने को भी अपना जीवन भारस्वरूप प्रतीत होने लगता है।

आलस्य का स्वभाव पड़ जाने से मनुष्य काम को टालने का प्रयत्न करने लगता और उसके लिए तरह-तरह के बहाने ढूंढ़ने लगता है। वह उपयोगी कामों को त्यागकर बैठे-ठाले निरर्थक काम करने लगता है जैसे गप्प हांकना, लम्बी-चौड़ी बातें बकते रहना, बे सिर पैर की कल्पना करते रहना। खयाली दुनिया में रहने और व्यर्थ की कल्पनाओं को ही वास्तविक समझते हुये मन के लड्डू खाया करता है। पर मन के लड्डुओं से किसी की भूख कब मिटी है? जैसे-जैसे वह कल्पना जगत में आगे बढ़ता जाता है, वास्तविकता से वंचित होता जाता है। वह अपनी खयाली दुनियां में तो अपने लिये बड़े बड़े रंगीन स्वप्न देखता है, कभी राजा बनता है, कभी नेता, कभी बड़ा अमीर। पर असली दुनियां में उसे जीवन व्यतीत करने को मामूली साधन भी नहीं मिलते। इसलिये सुख दुख की लहरों में डूबता उतरता रहता है। कभी तो वह भविष्य के लिए बड़ी बड़ी सफलता की और सुखद कल्पना करके फूल कर कुप्पा हो जाता है कभी रोग, शोक, आपत्ति का भय करके रोने लगता है। इस प्रकार कर्म को छोड़कर वह हवा में उड़ाने वाले तिनके के समान कभी आकाश में उड़ जाता है और कभी गड्ढे में गिर जाता है। उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं रहता, परिस्थितियां जिस तरफ ढकेल देती हैं उसी तरफ लुढ़क जाना पड़ता है।

इस तरह के जीवन का अधिक समय तक अभ्यस्त रहने से मनुष्य की दशा दयनीय हो जाती है। मानसिक दृष्टि से उस पर जड़ता का आक्रमण हो जाता है जिससे उत्साह और साहस का अभाव हो जाता है, दिमाग कुन्द हो जाता है, बुद्धि मन्द पड़ जाती है और मानसिक शक्तियां क्षीण होने लगती है। शारीरिक दृष्टि से भी किसी तरह के व्यायाम तथा भरपूर परिश्रम के बिना हाथ पैर कमजोर पड़ने लगते हैं, पाचन शक्ति घटने लगती है जिससे रक्त निर्बल पड़ जाता है और सम्पूर्ण शरीर में निर्बलता की अधिकता दिखाई पड़ने लगती है। ऐसी स्थिति में तरह-तरह के रोगों का आक्रमण होना स्वाभाविक ही है और मानसिक अवसाद के साथ मिलकर उनका स्वरूप और भी भयंकर हो जाता है। आलसी स्वभाव के कारण वह पहले ही कम हिम्मत डरपोक हो जाता है, रोगों के आक्रमण से घबड़ा कर उसका रोना-धोना, भाग्य और ईश्वर को कोसना और भी बढ़ जाता है। वह इस प्रकार लोगों की सहानुभूति, सहायता प्राप्त करना चाहता है, पर लोग यह देखकर कि उसने अपनी ऐसी हालत स्वयं बनाई है और हराम की कमाई का इच्छा रखने वाला है, उसकी अपेक्षा ही करते रहते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टि से भी ऐसे व्यक्ति का पतन होने लगता है, क्योंकि आलस्य तमोगुण का एक प्रधान चिह्न है। अन्य दोष-गुणों में मानसिक, नैतिक या चारित्रिक अधःपतन तो होता है पर काम, क्रोध, लोभ में फिर भी कर्मण्यता तो बनी रहती है। अपनी असद् प्रवृत्तियों के लिए ही सही, दूषित आचरण वाला व्यक्ति उल्टा-सीधा काम, उखाड़-पछाड़ तो करता ही रहता है। पर आलसी तो जड़ बनता जाता है और इससे उसके उद्धार की आशा ही समाप्त होती चली जाती है। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के एक सेवक का किस्सा विशेष शिक्षा प्रद है। वह नौकर उनके बेरूड़ आश्रम में कार्य करता था, पर स्वभाव से बड़ा आलसी था। इस दुर्गुण के कारण आयु का एक बड़ा भाग व्यतीत हो जाने पर भी वह बिल्कुल हीन अवस्था में पड़ा हुआ था वह कभी कभी स्वामी जी से कहा करता कि ‘महाराज! आप संसार को उद्धार का, मुक्ति का मार्ग दिखलाते हैं, मैं तो आपका तुच्छ सेवक हूं, मुझे भी अपनी दशा सुधारने का कोई उपाय बतला दीजिये। स्वामी जी उसे उत्तर देते कि—तुम आलस्य को त्याग दो! अगर कोई अच्छा काम न बन पड़े तो चोरी, बदमाशी, ठगी ही करने लग जाओ, पर आलस्य को छोड़ दो तो तुम्हारा उद्धार हो सकेगा।’ इस कथन का तात्पर्य यही था कि दुष्प्रवृत्तियों के पंजे में फंसे व्यक्ति में और कुछ नहीं तो सजीवता तो रहती है, जिससे कोई उत्तम संयोग मिल जाने पर वह अपना सुधार करके सत्कर्म भी कर सकता है। जैसे बाल्मीकि, अंगुलिमाल, नामदेव, रसखान आदि अनेक सन्तों के उदाहरण मिलते हैं, जो आरम्भ में कुत्सित जीवन व्यतीत करते थे और बाद में सत्संगति पाकर अनुकरणीय चरित्र वाले बन गये। परन्तु आलसी व्यक्ति, जिसने निकम्मापन अपना लिया है और खयाली दुनियां में रहने से जिसे कर्तव्य शून्यता ने घर कर लिया है, वह किस प्रकार अपने उद्धार की आशा कर सकता है?

आलस्य की तरह बेकारी भी मनुष्य में दोष उत्पन्न करने वाली है। जिसका दिमाग खाली रहेगा वह कुछ न कुछ खुराफात ही सोचेगा और वैसा ही करेगा। आजकल बेकारी उद्योग-धन्धों की अव्यवस्था के कारण भी पैदा होती है, पर उसका एक कारण यह भी होता है कि लोग परिश्रम का काम न करके हल्का-फुल्का काम करना चाहते हैं। मेहनत-मजदूरी के बजाय कुर्सी पर बैठने के ही काम पसन्द करते हैं। अगर आदमी किसी प्रकार के छोटे-बड़े काम करने में बेइज्जती या छोटे पन का ख्याल न करे और जिस समय जो काम मिल जाये उसी को पूरी लगन से करे तो बेकारी की समस्या कभी पैदा ही नहीं हो सकती। आदमी के व्यक्तित्व में कोई कमी आती है तो खराद न होने से, यह तभी संभव है, जब आदमी सतव श्रमशील बना रहे कोई बड़ा न सही तो छोटा काम और ज्यादा वेतन का नहीं तो कम तनख्वाह वाली नौकरी करके भी मनुष्य बेकारी से अपना पीछा छुड़ा सकता है और फिर समय में मौका आने पर वह उससे अच्छा भी काम पा सकता है।

आलस्य की तरह गन्दगी भी मनुष्य के लिए कलंक स्वरूप और पतनकारी है। यह एक ऐसा दुर्गुण है कि जिससे मनुष्य निन्दा का पात्र बनता है और लोग उससे घृणा करने लगते हैं। गन्दगी का एक कारण तो आलस्य होता है और दूसरा लापरवाही तथा गन्दा रहने का स्वभाव। शरीर की, वस्त्रों की मकान की सफाई करने में समय और परिश्रम लगता ही है। जिन लोगों में निकम्मेपन की आदत पड़ जाती है और कामचोर बन जाते हैं, वे आलस्यवश गन्दे बने रहते है। एक कहावत है कि ‘‘कुत्ता भी जहां बैठता है वहां पूंछ से झाड़ कर बैठता है।’’ पर मनुष्य कहलाने वाले ऐसे प्राणियों की कमी नहीं जो अपने निजी घर को ही गन्दा नहीं रखते वरन् जहां बैठते हैं उसे भी गन्दा करके छोड़ जाते हैं। ऐसे आदमी अगर धर्मशाला में ठहरते हैं तो उसमें कूड़े का ढेर लगा आते हैं, मुसाफिर खाने में बैठते हैं तो वहां पर थूक, पीक, नाक आदि गिरा देते हैं, रेल में जाते हैं तो उसे पानी और छिलकों से दूसरों के बैठने के नाकाबिल बना देते हैं। ऐसे ही लोग नालियों में बच्चों को टट्टी पाखाने को ऐसा गन्दा रखते हैं कि किसी समय व्यक्ति के लिए उनका उपयोग करना भी कठिन होता है। ऐसे लोग गन्दगी का अनुभव भी नहीं करते न उसमें अपने लिए कोई शर्म की बात समझते हैं। इनमें से बहुत से कपड़े-लत्ते के फैशन और चमक-दमक का तो बहुत शौक रखते हैं, पर जहां वे रहते हैं वहां उसके आस-पास सफाई रखने का ध्यान उन्हें कभी नहीं आता।

गन्दा रहना एक शारीरिक दुर्गुण ही नहीं मानसिक दृष्टि से भी हीनता का द्योतक है। जिसका शरीर गन्दा रहेगा उसका मन भी कदाचित ही स्वच्छ रह सकेगा। जो अपनी सफाई नहीं रख सकता वह किसी दूसरे की सेवा, सहायता क्या कर सकेगा? ऐसे व्यक्ति में आलस्य, प्रमाद, अनुत्साह, निराशा, अव्यवस्था, दीर्घसूत्रता, पेटूपन आदि दुर्गुण भी प्रायः उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसे आदमी से पुरुषार्थ और प्रगति की आशा तो की ही कैसे जा सकती है। वह जीवन के सच्चे सुख से अपरिचित होता है केवल जिन्दगी के भार को ढोता है। उसके चारों ओर भी परमात्मा के वही अमूल्य वरदान बिखरे होते हैं जिनका उपयोग करके अन्य लोग सुखी और समृद्ध बन जाते हैं, पर ऐसे निकम्मे लोग ‘पानी में भी मीन पियासी’ वाली कहावत के अनुसार सदा भूखे-नंगे ही बने रहेंगे। वे अपनी दुर्व्यवस्था के लिये दूसरों को दोषी समझते हैं, पर दरअसल उनका आलसी स्वभाव और गन्दापन ही उनके पतन और दुर्दशा का कारण होता है।

कुछ लोग गन्दगी का सम्बन्ध गरीबी से जोड़ा करते हैं। वे कहते हैं कि हमारे पास इतना पैसा, ऐसे साधन ही नहीं कि हम सफाई से रह सकें। पर इस कथन में वास्तव में कुछ भी सचाई नहीं है। सफाई, स्वच्छता में गरीबी को बाधक कहना एक बहाना मात्र है। आप अपने चारों तरफ ध्यान देकर देखेंगे तो सैकड़ों गरीब लोगों के घरों को सदा लिपापुता और झाड़ा बुहारा पायेंगे जबकि अनेक अमीर कहलाने वालों ने यहां घर के पदार्थ अस्त-व्यस्त पड़े रहते हैं और सिगरेटों के टुकड़े, पान की पीक आदि की गन्दगी फैली रहती है। शारीरिक दृष्टि से भी बहुसंख्यक गरीब नहा-धोकर स्वच्छ रहते हैं जबकि अनेक विलासी धनी लोग चाहे कपड़े भले ही बढ़िया पहिन लें स्वच्छता की निगाह में बड़े गन्दे होते हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि स्वच्छता और सफाई मन की स्थिति पर है। जिनमें आलस्य न होगा वह चाहे तो प्रत्येक अवस्था में गन्दगी से बच कर रह सकता है। ऐसा मनुष्य ही अपना और दूसरों का कुछ उपकार कर सकता है। आलसी और अकर्मण्य व्यक्ति तो संसार के लिए भार स्वरूप हैं जो दूसरों के परिश्रम पर चैन करना चाहते हैं।
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