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Books - सुख-शांति की साधना

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


दुःखों का कारण और निवारण

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सन्त फ्रांसिस का कथन है—‘दुःखी रहना शैतान का काम है।’ इस कथन का तात्पर्य इसके सिवाय और क्या हो सकता है कि दुःखी रहना मानवीय प्रवृत्ति नहीं है। यह एक निकृष्ट प्रवृत्ति है जो मनुष्य को शोभा नहीं देती। तथापि, अधिकतर लोग दुःखी ही दिखलाई पड़ते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है कि जब दुःखी रहना मानवीय प्रवृत्ति नहीं है, तब आखिर मनुष्य दुःखी क्यों रहते हैं? क्या कोई ऐसी अदृश्य शक्ति है जो मनुष्य को उसकी प्रवृत्ति के विरुद्ध दुःखी रहने को विवश करती है?

इस विषय में एक नहीं अनेक ऐसे प्रश्न और शंकायें उठ सकती हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि कोई बाह्य कारण अथवा अदृश्य शक्ति मनुष्य को दुःखी नहीं रखती है, मनुष्य अपने स्वयं के अज्ञान और दुर्बलता के कारण, अकारण ही दुःखी रहता है। वैसे न सुख का और न दुःख का, अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व है। ये मनुष्य की अपनी निर्बल अनुभूतियां ही हैं जो सुख-दुःख के रूप में आभासित होती हैं।

अदृश्य शक्ति को इस प्रसंग के बीच से निकाल ही दिया जाये, यही ठीक होगा। क्योंकि अदृश्य शक्ति तटस्थ और निरपेक्ष शक्ति होती है। वह चेतना प्रदान करने के सिवाय मनुष्य के जीवन में अधिक हस्तक्षेप नहीं करती। उसको इस प्रसंग में खींच लाने पर मानवीय धरातल पर सुख-दुःख और उसके कारणों का विवेचन कर सकना कठिन हो जायेगा।

दुःख का एक स्थूल-सा कारण है वांछा का विरोध। जो हम चाहते हैं उसको न पा सकने पर जो क्षोभ अथवा निराशा होती है वही दुःख रूप में अनुभव होती है। मनुष्य को समझना चाहिए कि किसी की सभी वांछाएं कभी पूरी नहीं होतीं। वांछाएं वे ही पूरी होती हैं जो उचित और उपयुक्त होती हैं। किन्तु अज्ञानी व्यक्ति इसका विचार न कर अपनी वांछाएं बढ़ाते चले जाते हैं, और चाहते हैं कि वे सब बिना विरोध के पूरी होती रहें। ऐसे आदमी यह नहीं सोच पाते कि इस संसार में और दूसरे लोग भी हैं। उनकी भी अपनी कुछ वांछाएं होती हैं, जिनकी पूर्ति का अधिकार उन्हें भी है। यदि किसी एक की ही सारी वांछाएं पूरी होती रहें तो क्या दूसरे लोग अपनी वांछा पूर्ति के अधिकार से वंचित न रह जायेंगे? किसी एक की सारी वांछाएं पूरी होती रहें यह सम्भव नहीं।

किन्तु स्वार्थी मनुष्य जिनको केवल अपनेपन का ही ध्यान रहता है इस न्याय पर ध्यान नहीं दे पाते। उन्हें अपना स्वार्थ, अपना हित और अपना लाभ ही दीखता रहता है। दूसरों के हित-अहित, हानि-लाभ से जैसे कोई मतलब ही नहीं रखते। ऐसे संकीर्णमना व्यक्तियों का दुःखी रहना स्वाभाविक ही है। वे स्वार्थ पूर्ण वांछाएं करते ही रहेंगे वे असफल और अपूर्ण होती रहेंगी, उनके मन में क्षोभ और निराशा उत्पन्न होगी और जिसके फलस्वरूप वे दुःख अनुभव ही करते रहेंगे। इस क्रम में न बाधा आ सकती है और न व्यवधान।

ऐसे संकीर्ण, स्वार्थ, लिप्सु और हीन-भावना वाले किसी भी व्यक्ति से मिलकर, फिर चाहे वह अमीर हो या गरीब, सम्पन्न हो अथवा अभावग्रस्त, पढ़ा हो अथवा अनपढ़, स्त्री हो या पुरुष मालूम किया जा सकता है कि क्या वह अपने में जरा भी सुखी है? निश्चय ही वह दुःखी ही निकलेगा। विश्वासपूर्वक पूछने पर वह बतलायेगा कि वह बहुत दुःखी है, सारा संसार उसे दुःख क्लेशों से परिपूर्ण विदित होता है। निश्चय ही ऐसे लोगों के दुःख का कारण उनकी हीन और स्वार्थपूर्ण भावनायें ही होती हैं। दुःख दुर्भावनाओं के कारण होता है। दुर्भावना रखने वाला शैतान ही तो माना गया है, इसलिये महात्मा फ्रांसिस ने कहा है—‘दुःखी रहना शैतान का काम है।’

दुःख के कुछ मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं। उनमें से एक संवेदनशीलता भी है। यों तो सामान्य रूप में संवेदनशीलता एक गुण है। किन्तु जब यह औचित्य की सीमा से परे निकल जाती है तब दुर्गुण बन जाती है जिसका परिणाम दुःख ही होता है। अति संवेदनशील व्यक्ति का हृदय भावुकता के कारण बड़ा निर्बल हो जाता है। वह यथार्थ दुःख तो दूर काल्पनिक दुःखों से भी व्यग्र एवं व्याकुल होता रहता है। इस क्षण-क्षण बदलते रहने वाले संसार का एक साधारण-सा थपेड़ा ही उन्हें व्याकुल कर देने के लिए बहुत होता है। क्षण-क्षण परिवर्तित और बनने बिगड़ने वाले पदार्थ, परिस्थितियों और संयोगों के प्रभाव से सुरक्षित रह सकना उनके वश की बात नहीं होती। उन्हें संसार की एक नगण्य सी परिस्थिति झकझोर कर रख देती है और वे क्षुब्ध होकर दुःख अनुभव करने लगते हैं।

इस प्रकार के संवेदनशील व्यक्ति भावुकता के कारण अपनी ही एक काल्पनिक दुनिया बनाए और उसमें ही विचरण करते रहते हैं। विशेषता यह होती है कि उनकी वह काल्पनिक दुनिया इस यथार्थ संसार से सर्वथा भिन्न होती है। होना भी चाहिए यदि उनका संसार इस संसार से भिन्न न हो तो उसके बनाने का प्रयोजन ही क्या रह जाता है? इस भिन्नता के कारण इस यथार्थ संसार और उनकी काल्पनिक दुनिया में टकराव पैदा होता रहता है। कमजोर एवं निराधार होने से उनकी दुनिया टूटती है, जिसके शोक में वे दुःखी और व्यग्र होते रहते हैं। यदि मनुष्य भावुकता का परित्याग कर, यथार्थ के कठोर धरातल पर ही रहे, उसी के अनुसार व्यवहार करे, हर तरह की आने वाली परिस्थिति को संसार का स्वाभाविक क्रम समझकर खुशी-खुशी स्वागत करने को तत्पर रहे तो वह बहुत कुछ दुःख के आक्रमण से अपनी रक्षा कर सकता है।

अज्ञान को तो सारे दुःखों का मूल ही माना गया है। मनुष्य को अधिकांश दुःख तो उसके अज्ञान के कारण ही होते हैं। सुख-दुःखों के विषय में यदि मनुष्य का अज्ञान दूर हो जाये तो वह एक बड़ी सीमा तक दुःखों से छुटकारा पा सकता है। सुख-दुःख का अपना कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। उनका अनुभव भ्रम अथवा अज्ञान के कारण ही होता है। यदि मनुष्य एक बार यह समझ सके और विश्वास कर सके कि सुख-दुःखों का सम्बन्ध किन्हीं बाह्य परिस्थितियों से नहीं है, यह मनुष्य की अपनी अनुभूति विशेष के ही परिणाम होते हैं तो शायद वह उनसे उतना प्रभावित न हो जितना कि होता रहता है। मनुष्य की मान्यता, कल्पना, अनुभूति विशेष और उसकी अपनी मानसिक अवस्था से ही सुख-दुःख का जन्म होता है। यदि इन अवस्थाओं में अनुकूल परिवर्तन लाया जा सके तो दुःख से छूटने की सम्भावना कोई काल्पनिक बात नहीं है। यदि मनुष्य के दुःखों का सम्बन्ध बाह्य परिस्थितियों से होता तो उनका प्रभाव सब पर एक समान ही पड़ना चाहिए! किन्तु ऐसा होता नहीं है। जिन एक तरह की परिस्थितियों में कोई एक दुःख और शोक का अनुभव करता है, उन्हीं परिस्थितियों में दूसरा हर्षित और प्रसन्न होता है।

दुःख का आधार अपनी अनुभूति विशेष को न मान कर किन्हीं बाह्य परिस्थितियों को मानना अज्ञान है। इस अज्ञान को दूर किए बिना यदि कोई चाहे कि दुःख से छुटकारा हो जाये तो यह सम्भव न होगा। अनुकूल परिस्थितियों में हर्षातिरेक के वशीभूत हो जाना और प्रतिकूलताओं में रोने-झींकने का स्वभाव स्वयं एक अज्ञान है। इससे मनुष्य का मस्तिष्क असन्तुलित सा हो जाता है। वह यथार्थ से हटकर अधिकतर भ्रम में ही भटकता और ठोकरें खाता रहता है। उसके ठीक-ठीक समझने और मूल्यांकन करने की क्षमता नष्ट हो जाती है। वह किसी बात में ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता कि जिन बातों में मैं दुःख मना रहा हूं वह दुःख के योग्य हैं भी या नहीं। असन्तुलित स्थिति में मनुष्य गलत-गलत सोचता और वैसा ही व्यवहार करता है, जिससे दुःख का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है।

दुःख के कारणों में आसक्ति भी एक बड़ा कारण है। यहां पर आसक्ति का एक मोटा-सा अर्थ यह लिया जा सकता है—अत्यधिक अपनेपन का लगाव। जिन बातों में अत्यधिक लगाव होता है, उनको सर्वथा अपने अनुकूल रखने की कामना रहती है किन्तु किसी भी वस्तु या व्यक्ति को हर स्थिति में सर्वथा अपने अनुकूल रख सकना संभव नहीं होता। वे अपनी गति में कभी किसी समय भी विपरीत दशा में घूम सकती हैं। ऐसी दशा में उनके प्रति अत्यधिक अपनत्व के कारण दुख की अनुभूति से बचा नहीं जा सकता। यदि वस्तुओं और व्यक्तियों का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार किया जा सके और उन्हें सर्वथा अपने अनुकूल देखने की इच्छा का त्याग किया जा सके तो कोई कारण नहीं कि व्यर्थ में अनुभव होने वाले बहुत से दुःखों का सामना करना पड़े।

ऐसे लोग जो संसार नाटक के तट परिवर्तन से जल्दी प्रभावित नहीं होते दुःखों के आक्रमण से बचे रहते हैं। कामनाओं की पूर्ति के समय उल्लसित हो उठने और आपूर्ति के समय मलीन मन हो जाने का यदि अपना स्वभाव बदला जा सके तो दुःखों के बहुत से कारण आप से आप ही नष्ट हो जायें। यदि संसार में उदार गम्भीर और यथार्थ जीवन लेकर चला जा सके और आसक्ति के साथ अत्यधिक संवेदना को संक्षेप किया जा सके तो हमारी मनोभूमि निश्चय ही इतनी दृढ़, परिपक्व हो सकती है कि उस पर सुख-दुःख की कोई प्रतिक्रिया ही न हो।

‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः, सर्वे भडारिक पश्यन्तु या कश्चिद्दुःख भाग्वेत्’’—का ऋषि सिद्धान्त लेकर चलने वालों को संसार में किसी प्रकार दुःख शेष नहीं रह जाता। इस सार्वभौमिक भाव से मनुष्य की स्वार्थपूर्ण संकीर्णता विस्तृत एवं व्यापक हो जाती है। वह अपने को पीछे रख कर दूसरों के हित के लिए सोचता है, दूसरों के लाभ के लिए काम करता है और दूसरों के कल्याण के लिए जीता है। हृदय में जब अपनत्व का स्थान सर्वत्व ले लेता है तो मनुष्य की अनुभूतियां भी उसकी नहीं रह जातीं। वह दूसरे के दुःख से दुःखी और दूसरे के सुख से सुखी होने लगता है। ऐसी दशा में परदुःख से कातर मनुष्य को उस कष्ट उस क्लेश में भी एक आध्यात्मिक सुख आध्यात्मिक सन्तोष मिला करता है। अपने को समष्टि में मिला देने पर तो दुःख का सर्वथा अभाव ही हो जाता है।

तथापि बहुत से लोगों यह प्रक्रिया कठिन तथा दुरूह दिखलाई दे सकती है। उनकी मनोभूमि इस योग्य न होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। ऐसा हो सकता है। अस्तु मध्यम मनोभूमि वाले व्यक्तियों को मध्यम मार्ग का अवलम्बन ले ही लेना चाहिये। वह मध्यम मार्ग इस प्रकार का हो सकता है। अपनी स्थिति, शक्ति और अधिकार सीमा में रहकर वांछाएं की जायें। उन्हें पूरा करने का प्रयत्न किया जाये। फिर भी यदि उनमें से कोई अपूर्ण रह जायें तो इसे संसार की एक साधारण प्रक्रिया मानकर सन्तोष किया जाये। अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों अवस्थाओं में तटस्थ रहकर अपना कर्तव्य किया जाए और किसी वस्तु अथवा व्यक्ति के प्रति आसक्ति रखकर कोई अपेक्षा न की जाये। दुःख से बचने का यह मध्यम उपाय ऐसा नहीं है जो साधारण मनोभूमि वालों के लिए कठिन हो।

सामान्य मध्यम अथवा उच्च जो भी उपाय किया जा सके दुःख से बचने के लिए करना ही चाहिए—क्योंकि दुःखी रहना शैतान का काम है, मनुष्य का नहीं। हमारे लिये मानवोचित रीति-नीति अपनाकर ही चलना बुद्धिमानी भी है और कल्याणकारी भी।
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