
प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्नता का राजमार्ग
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मनुष्य जिस स्थिति में रहता है उसी स्थिति में उसे दो प्रकार की शक्तियां मिलती हैं। एक जो उसे प्रेरणा, प्रसन्नता प्रदान करती है और उसका कल्याण चाहती है। दूसरी उसे कष्ट देती है, पतन की ओर ले जाती है। एक शक्ति भलाई की है, दूसरी बुराई की। दोनों का संयोग ही मिलकर सृष्टि के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है।
यह शक्तियां ही चेतना रूप में मनुष्यों में भरी हुई हैं, उनका कोई स्पष्ट पृथक अस्तित्व नहीं है। संसार में जितने भी प्राणी हैं सभी में कुछ गुण और कुछ दोष रहते हैं। सर्वथा निर्दोष तो परमात्मा ही माना जाता है। शेष सभी में कुछ अंश भलाई है कुछ बुराई। किसी में गुणों का आधिक्य है किसी में बुराई का बाहुल्य, जिसे एकदम अवगुणों का अवतार ही माना जाता है कुछ न कुछ अच्छाइयां उसमें भी अवश्य होती हैं। कंस महा क्रूर शासक था, रावण का अत्याचार जगत विख्यात् है किन्तु दोनों ही पराक्रमी, पुरुषार्थी और साहसी थे। सिकन्दर दूरदर्शी था। हिटलर विचारवान था, चंगेज खां में और कुछ नहीं तो संगठन शक्ति थी। बुरे से बुरे व्यक्तियों में भी प्रेरणा और प्रसन्नता देने वाला कोई न कोई गुण अवश्य होता है। जिस प्रकार संसार में कोई भी व्यक्ति पूर्ण रूप से अच्छा नहीं, न पूर्णतः बुरा। संसार में पूर्ण कोई नहीं।
बुराई करनी हो, निन्दा करनी हो तो अपने ही बहुत से गुण खराब होंगे, कई बुरी आदतें पड़ गई होंगी, उनकी की जानी चाहिए पर गुणवान बनने का, सफलता प्राप्त करने का और प्रसन्नता की मात्रा बढ़ाने की—इच्छा हो तो हमारे विचार गुणों में, कल्याण करने वाले दृश्यों, सन्दर्भों और व्यक्तियों पर केन्द्रित रहने चाहिये। ऐसे व्यक्तियों और परिस्थितियों के प्रति हमारी विचारधारा केन्द्रित रहेगी तो गुण ग्राहकता हमारा स्वभाव बन जायेगा। हृदय शुद्ध और मन बलवान होता चला जायेगा। अच्छे गुणों और कार्यों को चिन्तन करना आत्म विकास के लिये हितकर ही होता है। अच्छे विचार ही मनुष्य को सफलता और जीवन देते हैं।
मधुमक्खी गुलाब के फूल पर बैठती है और आक के फूलों पर भी। जंगली करील से लेकर सेमर, कचनार, गुलबास, बेला, चमेली और कमल सबमें मधुमक्खी बैठती है। किसी में कांटे हैं या चुभन, कोई जंगली है या शहरी, किसी को लोग खाते हैं किसी को नहीं, यह न देखने वाली मधुमक्खी केवल पराग चूसने के ही मतलब से मतलब रखती है। अपनी इसी लगन के कारण मधुमक्खी थोड़े ही दिनों में मधु का छत्ता भर लेती है, कुछ आप पीती है कुछ संसार को बांट देती है।
मनुष्य को चाहिये कि वह सदा ही किसी न किसी भले काम, भले व्यक्ति और भलाई के गुण का चिन्तन किया करे, इससे उसके अन्तःकरण से अपने आप भलाई की शक्ति जन्मती है। उसे प्रेरणा और पुलक प्रदान करती है। इस तरह निरन्तर पुलकित रहने का जिसका स्वभाव बन जाता है, संसार में उसके लिये न तो कुछ अमंगल रह जाता है न अहितकर। उसके संसार में सर्वत्र अच्छाइयां ही अच्छाइयां, आनन्द ही आनन्द, प्रेम ही प्रेम, पुलक ही पुलक शेष रह जाती है। केवल अपने मन को गुण—ग्रहण की दिशा में लगा देने का चमत्कार मात्र है।
ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार चक्षु और मन क्रमशः मित्र और वरुण कहे गये हैं। चक्षु उपलक्षण से पंच ज्ञानेन्द्रियों का वाचक है। इनको संयत करके मन को शुद्ध भावों से उपेत करना वशिष्ठ का लक्षण है। वशिष्ठ का अर्थ श्रेष्ठ होना बताया गया है और लिखा गया है कि इस प्रकार व्यावहारिक दृष्टि से शुद्ध भावोपेत होना और केवल गुणों का संग्रह करते रहना वशिष्ठ होने का प्रथम लक्षण है।
किसी व्यक्ति में मित्रता का गुण होता है। मित्रता आनन्द देने वाली वस्तु है उससे मित्रता का गुण सीख लें। दूसरा व्यक्ति संयमी है उससे शरीर को सुदृढ़ बनाने और सौन्दर्य तथा यौवन बचाये रखने की धारणा पुष्ट करलें। एक व्यक्ति में और सब दुर्गुण हैं किन्तु वह स्वच्छ, सुथरा रहता है। यह गुण प्रसन्नता और प्रेरणा ग्रहण करने के लिये कम महत्वपूर्ण नहीं। मौन से मनःशक्तियों के संरक्षण का पाठ पढ़ लें तो वाणी विलास प्रिय व्यक्ति से विनोद और हास्य युक्त जीवन की सीख ले सकते हैं। वेश-भूषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, संस्कार-संस्कृति, समाज-व्यवस्था, वर्णाश्रम-व्यवस्था, शासन पद्धति, नगर-ग्राम, शिक्षा-दीक्षा, इतिहास, भूगोल, स्मृति-कर्मकांड, उपासना, पर्व उत्सव, नदी, नाले, जंगल, पर्वत, खेत, खलिहान, परिपाटी प्रक्रिया, आशा विश्वास, मन्तव्य—मान्यताओं आदि में से ढेर से सद्गुणों का संचय कर हम अपनी मनोवृत्ति को सतोगुणी बना सकते हैं और आत्म-पुलक का शाश्वत सुख उपलब्ध कर सकते हैं।
जीवन की सफलता किस बात पर निर्भर है? इसका एक ही उत्तर है—अपनी भावनाओं पर। मनुष्य अपनी कल्पना से ही अपने आपको सफल अथवा विफल बनाता है। जैसी कल्पना की जाती है, अपने आस-पास उसी प्रकार की दृष्टि रच जाती है। कसाई की कल्पना जानवरों का वध करना होता है, उस तरह की अन्य क्रियायें और सहयोगी उसे अपने आप मिल जाते हैं। भेड़-बकरियां बेचने वाले, खाल और मांस खरीदने वाले, वध करने का स्थान और औजार सब कुछ उसकी इच्छा शक्ति जुटा देती है। यदि एक कसाई के लिये मनोवांछित सृष्टि जुटा लेना कुछ असम्भव नहीं होता तो उत्कृष्ट मनोभूमि द्वारा उत्कृष्ट वातावरण और उच्च सफलतायें प्राप्त कर लेना भी कोई असंभव बात नहीं है। केवल मनुष्य की मानसिक शक्ति का भलाई की दिशा में विकेन्द्रीकरण होना चाहिये।
बुराई की शक्ति अपनी सम्पूर्ण प्रबलता के साथ टक्कर लेती है। इसमें सन्देह नहीं है। ऐसे भी व्यक्ति संसार में हैं जिनसे ‘‘कुशल क्षेम तो है’’ पूछने पर ‘‘आपको क्या गरज पड़ी’’ जैसे उत्तर मिल जाते हैं। ऐसे प्रसंगों से आये दिन भेंट होती है। इनसे टकराया जाये तो मनुष्य का सारा जीवन टकराने में ही चला जाता है। उनसे निबटा न जाय यह तो नहीं कहा जाता, पर किसी भी काम में हमारी विचार और ग्रहण शक्ति सात्विक और ऊर्ध्ववती रहनी चाहिये। शत्रु से युद्ध करते हुये भी उसके गुण, साहस और सूझ-बूझ की प्रशंसा करनी चाहिये।
यही बात भगवान कृष्ण ने अर्जुन को सिखाई। जब उसे पता चला कि इस संसार में सब विरोधी ही विरोधी हैं तो भगवान कृष्ण ने समझाया—अर्जुन! भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये इस संसार संग्राम में तू भद्र मनस्कता के साथ युद्ध कर। कोई भी काम करते समय अपने मन को उच्च भावों और संस्कारों से ओत-प्रोत रखना ही सांसारिक जीवन में सफलता का मूल मन्त्र है। यहां निरन्तर टकराने वाले से जो ‘‘अच्छा है सो सब मेरा’’ ‘‘बुरे से प्रयोजन नहीं’’ की धारणा रखने वाला व्यक्ति निश्चय ही अपने जीवन को ऊंचा उठाता और मनुष्य जीवन का वीरोचित लाभ प्राप्त करता है।
हम जहां रह रहे हैं, उसे नहीं बदल सकते पर अपने आपको बदल कर हर स्थिति से आनन्द ले सकते हैं। सामान्य सतह पर खड़े होकर दीखने वाला दृश्य कम अच्छा लगता है। अट्टालिका पर चढ़ जाने से वही वातावरण और भी व्यापक और अच्छा लगने लगता है। स्वतः की उच्च या निम्न स्थिति के कारण ही संसार अच्छा या बुरा लगता है। जब यह अपने ही हाथ की बात है तो संसार को क्यों बुरा देखें, क्यों बुराइयों का चिन्तन करें। हम भलाई की शक्ति में निमग्न रहकर उच्च स्थिति प्राप्त कर सकते हैं तो ऐसी सुन्दर जीवन व्यवस्था को छोड़ कर अपने आपको दुःखी और दलित क्यों बनावें?
यह शक्तियां ही चेतना रूप में मनुष्यों में भरी हुई हैं, उनका कोई स्पष्ट पृथक अस्तित्व नहीं है। संसार में जितने भी प्राणी हैं सभी में कुछ गुण और कुछ दोष रहते हैं। सर्वथा निर्दोष तो परमात्मा ही माना जाता है। शेष सभी में कुछ अंश भलाई है कुछ बुराई। किसी में गुणों का आधिक्य है किसी में बुराई का बाहुल्य, जिसे एकदम अवगुणों का अवतार ही माना जाता है कुछ न कुछ अच्छाइयां उसमें भी अवश्य होती हैं। कंस महा क्रूर शासक था, रावण का अत्याचार जगत विख्यात् है किन्तु दोनों ही पराक्रमी, पुरुषार्थी और साहसी थे। सिकन्दर दूरदर्शी था। हिटलर विचारवान था, चंगेज खां में और कुछ नहीं तो संगठन शक्ति थी। बुरे से बुरे व्यक्तियों में भी प्रेरणा और प्रसन्नता देने वाला कोई न कोई गुण अवश्य होता है। जिस प्रकार संसार में कोई भी व्यक्ति पूर्ण रूप से अच्छा नहीं, न पूर्णतः बुरा। संसार में पूर्ण कोई नहीं।
बुराई करनी हो, निन्दा करनी हो तो अपने ही बहुत से गुण खराब होंगे, कई बुरी आदतें पड़ गई होंगी, उनकी की जानी चाहिए पर गुणवान बनने का, सफलता प्राप्त करने का और प्रसन्नता की मात्रा बढ़ाने की—इच्छा हो तो हमारे विचार गुणों में, कल्याण करने वाले दृश्यों, सन्दर्भों और व्यक्तियों पर केन्द्रित रहने चाहिये। ऐसे व्यक्तियों और परिस्थितियों के प्रति हमारी विचारधारा केन्द्रित रहेगी तो गुण ग्राहकता हमारा स्वभाव बन जायेगा। हृदय शुद्ध और मन बलवान होता चला जायेगा। अच्छे गुणों और कार्यों को चिन्तन करना आत्म विकास के लिये हितकर ही होता है। अच्छे विचार ही मनुष्य को सफलता और जीवन देते हैं।
मधुमक्खी गुलाब के फूल पर बैठती है और आक के फूलों पर भी। जंगली करील से लेकर सेमर, कचनार, गुलबास, बेला, चमेली और कमल सबमें मधुमक्खी बैठती है। किसी में कांटे हैं या चुभन, कोई जंगली है या शहरी, किसी को लोग खाते हैं किसी को नहीं, यह न देखने वाली मधुमक्खी केवल पराग चूसने के ही मतलब से मतलब रखती है। अपनी इसी लगन के कारण मधुमक्खी थोड़े ही दिनों में मधु का छत्ता भर लेती है, कुछ आप पीती है कुछ संसार को बांट देती है।
मनुष्य को चाहिये कि वह सदा ही किसी न किसी भले काम, भले व्यक्ति और भलाई के गुण का चिन्तन किया करे, इससे उसके अन्तःकरण से अपने आप भलाई की शक्ति जन्मती है। उसे प्रेरणा और पुलक प्रदान करती है। इस तरह निरन्तर पुलकित रहने का जिसका स्वभाव बन जाता है, संसार में उसके लिये न तो कुछ अमंगल रह जाता है न अहितकर। उसके संसार में सर्वत्र अच्छाइयां ही अच्छाइयां, आनन्द ही आनन्द, प्रेम ही प्रेम, पुलक ही पुलक शेष रह जाती है। केवल अपने मन को गुण—ग्रहण की दिशा में लगा देने का चमत्कार मात्र है।
ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार चक्षु और मन क्रमशः मित्र और वरुण कहे गये हैं। चक्षु उपलक्षण से पंच ज्ञानेन्द्रियों का वाचक है। इनको संयत करके मन को शुद्ध भावों से उपेत करना वशिष्ठ का लक्षण है। वशिष्ठ का अर्थ श्रेष्ठ होना बताया गया है और लिखा गया है कि इस प्रकार व्यावहारिक दृष्टि से शुद्ध भावोपेत होना और केवल गुणों का संग्रह करते रहना वशिष्ठ होने का प्रथम लक्षण है।
किसी व्यक्ति में मित्रता का गुण होता है। मित्रता आनन्द देने वाली वस्तु है उससे मित्रता का गुण सीख लें। दूसरा व्यक्ति संयमी है उससे शरीर को सुदृढ़ बनाने और सौन्दर्य तथा यौवन बचाये रखने की धारणा पुष्ट करलें। एक व्यक्ति में और सब दुर्गुण हैं किन्तु वह स्वच्छ, सुथरा रहता है। यह गुण प्रसन्नता और प्रेरणा ग्रहण करने के लिये कम महत्वपूर्ण नहीं। मौन से मनःशक्तियों के संरक्षण का पाठ पढ़ लें तो वाणी विलास प्रिय व्यक्ति से विनोद और हास्य युक्त जीवन की सीख ले सकते हैं। वेश-भूषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, संस्कार-संस्कृति, समाज-व्यवस्था, वर्णाश्रम-व्यवस्था, शासन पद्धति, नगर-ग्राम, शिक्षा-दीक्षा, इतिहास, भूगोल, स्मृति-कर्मकांड, उपासना, पर्व उत्सव, नदी, नाले, जंगल, पर्वत, खेत, खलिहान, परिपाटी प्रक्रिया, आशा विश्वास, मन्तव्य—मान्यताओं आदि में से ढेर से सद्गुणों का संचय कर हम अपनी मनोवृत्ति को सतोगुणी बना सकते हैं और आत्म-पुलक का शाश्वत सुख उपलब्ध कर सकते हैं।
जीवन की सफलता किस बात पर निर्भर है? इसका एक ही उत्तर है—अपनी भावनाओं पर। मनुष्य अपनी कल्पना से ही अपने आपको सफल अथवा विफल बनाता है। जैसी कल्पना की जाती है, अपने आस-पास उसी प्रकार की दृष्टि रच जाती है। कसाई की कल्पना जानवरों का वध करना होता है, उस तरह की अन्य क्रियायें और सहयोगी उसे अपने आप मिल जाते हैं। भेड़-बकरियां बेचने वाले, खाल और मांस खरीदने वाले, वध करने का स्थान और औजार सब कुछ उसकी इच्छा शक्ति जुटा देती है। यदि एक कसाई के लिये मनोवांछित सृष्टि जुटा लेना कुछ असम्भव नहीं होता तो उत्कृष्ट मनोभूमि द्वारा उत्कृष्ट वातावरण और उच्च सफलतायें प्राप्त कर लेना भी कोई असंभव बात नहीं है। केवल मनुष्य की मानसिक शक्ति का भलाई की दिशा में विकेन्द्रीकरण होना चाहिये।
बुराई की शक्ति अपनी सम्पूर्ण प्रबलता के साथ टक्कर लेती है। इसमें सन्देह नहीं है। ऐसे भी व्यक्ति संसार में हैं जिनसे ‘‘कुशल क्षेम तो है’’ पूछने पर ‘‘आपको क्या गरज पड़ी’’ जैसे उत्तर मिल जाते हैं। ऐसे प्रसंगों से आये दिन भेंट होती है। इनसे टकराया जाये तो मनुष्य का सारा जीवन टकराने में ही चला जाता है। उनसे निबटा न जाय यह तो नहीं कहा जाता, पर किसी भी काम में हमारी विचार और ग्रहण शक्ति सात्विक और ऊर्ध्ववती रहनी चाहिये। शत्रु से युद्ध करते हुये भी उसके गुण, साहस और सूझ-बूझ की प्रशंसा करनी चाहिये।
यही बात भगवान कृष्ण ने अर्जुन को सिखाई। जब उसे पता चला कि इस संसार में सब विरोधी ही विरोधी हैं तो भगवान कृष्ण ने समझाया—अर्जुन! भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये इस संसार संग्राम में तू भद्र मनस्कता के साथ युद्ध कर। कोई भी काम करते समय अपने मन को उच्च भावों और संस्कारों से ओत-प्रोत रखना ही सांसारिक जीवन में सफलता का मूल मन्त्र है। यहां निरन्तर टकराने वाले से जो ‘‘अच्छा है सो सब मेरा’’ ‘‘बुरे से प्रयोजन नहीं’’ की धारणा रखने वाला व्यक्ति निश्चय ही अपने जीवन को ऊंचा उठाता और मनुष्य जीवन का वीरोचित लाभ प्राप्त करता है।
हम जहां रह रहे हैं, उसे नहीं बदल सकते पर अपने आपको बदल कर हर स्थिति से आनन्द ले सकते हैं। सामान्य सतह पर खड़े होकर दीखने वाला दृश्य कम अच्छा लगता है। अट्टालिका पर चढ़ जाने से वही वातावरण और भी व्यापक और अच्छा लगने लगता है। स्वतः की उच्च या निम्न स्थिति के कारण ही संसार अच्छा या बुरा लगता है। जब यह अपने ही हाथ की बात है तो संसार को क्यों बुरा देखें, क्यों बुराइयों का चिन्तन करें। हम भलाई की शक्ति में निमग्न रहकर उच्च स्थिति प्राप्त कर सकते हैं तो ऐसी सुन्दर जीवन व्यवस्था को छोड़ कर अपने आपको दुःखी और दलित क्यों बनावें?