
धन का अपव्यय एवं फैशनपरस्ती एक ओछापन
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व्याख्यान का उद्देश्य :-
१. धन को जीवन यापन का साधन मात्र समझा जाए।
२. धन का सदुपयोग हो, निरर्थक प्रयोजनों में प्रयोग न किया जाए, न ही अनावश्यक संग्रह किया जाए।
३. लोक कल्याण हेतु धन का नियोजन हो।
४. फैशन परस्ती का खुलकर विरोध करने वाला बन जाएँ तथा स्वयं के जीवन में में सादगी की प्रतिष्ठा करें। सादगी अपनाने में गौरव का अनुभव हो। लड़कियाँ विशेष रूप से जेवर, मेकअप, फैशन को शपथपूर्वक त्यागें।
व्याख्यान क्रम :-
१. धन एक शक्ति है, साधन है, जिससे आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है, वस्तुओं को खरीदा जाता है।
२. परन्तु आज धन को ‘साध्य’ मान लिया गया है। ‘साध्य’ अर्थात् -लक्ष्य, मंजिल और साधन अर्थात् लक्ष्य या मंजिल तक पहुँचने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला माध्यम। धन साध्य तक पहुँचाने वाला साधन है। परन्तु आज सोच बदल गई है। कमाने को ही प्रमुख लक्ष्य मानकर व्यक्ति पूरे जीवन भर उसी में जुटा रहता है। (कहानी- अधिक धन बटोरने के लोभ में अपनी जान गवां बैठना।)
३. धन कमाना अनिवार्य है, उससे पद, प्रतिष्ठा, सम्मान भी मिलता है, परन्तु धन सब कुछ नहीं है। किसी व्यक्ति की सफलता व कैरियर की असली पहचान भी धन के आधार पर नहीं जा सकती, क्योंकि लोग गलत तरीके से कमाकर भी धनवान बनते हैं। आध्यात्मिक भाषा में धन को ‘लक्ष्मी’ कहते हैं। जो धन विलासिता, नशा या निरर्थक कार्यों में खर्च होती है, वह लक्ष्मी नहीं, माया रूप होती है। माता का उपभोग नहीं उपयोग करना ही हितकर है, तब माता की कृपा सुख शांति के रूप में सदुपयोगकर्ता पर बरसती है। (लक्ष्मी पुत्र बनें)
४. धन कमाना अलग बात है, परन्तु धन का सदुपयोग करना सर्वथा दूसरी बात है। बिजली की ही भांति धन के गलत उपयोग से हानि ही हानि होती है। धन के अपव्यय से व्यक्ति के चिन्तन, चरित्र, स्वास्थ्य में गिरावट आती है, जो लक्ष्मी का दुरुपयोग करता है, लक्ष्मी उसे छोड़कर चली जाती है।
५. कंजूसी और मितव्ययिता दोनों में अन्तर होता है-
१. स्वास्थ्य, शिक्षा, संस्कार व अनिवार्य वस्तुओं, आवश्यकताओं में भी खर्च न करना कंजूसी है।
२. निरर्थक कार्यों, वस्तुओं, विलासिता में खर्च न करना मितव्ययिता है। कंजूसी आत्मा का दूषण है जबकि मितव्ययिता आत्मा का भूषण (अलंकार) है। (दृष्टांत -- दो कंजूसों में धन बचाने की प्रतिस्पर्धा।)
६. धन की स्वयं की शक्ति नहीं होती, व्यर्थ संग्रहीत धन से कोई लाभ नहीं। धन की शक्ति की सार्थकता उसके सदुपयोग में ही है। धन का संचय वैसे ही है, जैसे मधुमक्खियों को शहद इकट्ठा करना।
७. धन की गति :-
१. भारतीय संस्कृति का शिक्षण -- ‘तेन व्यक्तेन भुजिथाः’ अर्थात् त्याग करके भोग करें।
२. धन की सबसे उत्तम गति है -- दान। पीड़ा पतन के निवारण के लिए जरूरतमन्दों को श्रेष्ठ उद्देश्य हेतु दान करें। परन्तु कुपात्रों को या जहाँ आवश्यकता नहीं है, अविश्वनीय व्यक्ति को दान न करें। दान विवेकपूर्ण तो, परिचित व्यक्ति को ही दिया जाए।
८. दान के स्वरूप :-
१. दान गुप्त होवे। दाया हाथ दे तो बाए हाथ को भी पता न चले, अर्थात् उसका विज्ञापन, हल्ला न करें।
२. गीता के अनुसार -- आय का दसवाँ हिस्सा दान कर देना चाहिए। अकेले खाने वाला पाप खाता है, वह चोर होता है।
३. अंशदान की परंपरा का औचित्य -- समाज को, ईश्वर को, अपने परिवार को अंग मानकर अपनी आय का एक निश्चित अंश निकालना। पहले हमारी संस्कृति में अतिथि को भोजन कराते थे, उसके बाद स्वयं लेते थे।
उदा. क. दान के प्रताप से नेवले का आधा शरीर (राजसूय यज्ञ में) भोजन पश्चात् हाथ धोने से हुए जूठे पानी में लोटने से स्वर्ण को हो जाना। (ख) पिसनहारी का कुँआ (बाल विधवा द्वारा कुँआ बनवाना) जो मथुरा में मीठे पानी का स्त्रोत है। लोक मंगल के लिए खर्च न करने वाला व्यक्ति मृतक के समान है।
९. धन का उपयोग व उपभोग में अन्तर :-
धन का उपयोग अर्थात् योजना बनाकर सोच समझकर खर्च करना, सन्त तुकाराम की कहानी -- बाजार से बिना वस्तु खरीदे खली थैला लिए वापस घर आ जाना।
धन का उपयोग अर्थात् इन्द्रिय सुखों व विलासिता हेतु बिना सोचे विचारे खर्च करना। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र महान साहित्यकार थे लेकिन वे अपव्ययी थे। जीवन के अन्तिम क्षण तक निर्धन ही रहे।
शुकदेव जी महाराज राजा परीक्षित से कहते हैं -- अजितेन्द्रिय पुरुष के शरीर बल, तेज व धन सम्पत्तियों का कुमार्ग में उपयोग होता है।
१०. धन की अधोगति :- दिखावा, दुर्व्यसन, बीमारियाँ एवं कोर्ट कचहरी में व्यय धन की अधोगति है।
११. धन कैसे कमाए :-
१.नीतिपूर्वक २. परिश्रमपूर्वक व ईमानदारी से। अनीति का धन दुर्व्यसन, बीमारी शेखीखोरी व कोर्ट कचहरी के रास्ते निकल जाता है। अनीति की कमाई से परिवार पालन से बच्चे कुसंस्कारी, दुर्व्यसनी, आलसी, निकम्मे बनते हैं। धनवान नहीं चरित्रवान बनें। टाटा, बिड़ला की तुलना में समाज में गाँधी, विवेकानन्द की प्रतिष्ठा अधिक है।
१२. वर्तमान में धन का भारी अपव्यय हो रहा है :-
अपव्यय के क्षेत्र हैं -- मृतक भोज, दोस्तों के साथ मौजमस्ती, मार्केटिंग व होटलिंग की आदत, खर्चीले विवाह के प्रदर्शन में, कुरीतियाँ, दुर्व्यसन- बीड़ी, सिगरेट, नशा आदि में, भोजन के पाखण्ड (भोजन की थाली में नाना प्रकार की खाद्य सामग्री में) विलासिता में, फैशन में, अधिक कपड़े, शरीर सज्जा, जेवरात आदि में।
फैशन परस्ती एक ओछापन
१. फैशन -- अर्थात् बनने की जगह दूसरों से अलग दिखने की चाह। फैशन क्यों करते हैं? दूसरों को दिखाने के लिए? सुन्दर दिखने के लिए? उससे क्या होता है? आप उस आधार पर कोई सम्मान प्रतिष्ठा पा सकते हैं? आपका क्या विचार है?
२. फैशन की सामग्री का विवरण। युवाओं व युवतियों द्वारा अपनाए जाने वाले फैशन के साधनों की चर्चा। इस क्षेत्र में पैसों का भारी अपव्यय।
३. फैशन परस्ती के दुष्परिणाम -- शोषण के शिकार होते हैं। दरिद्रता, अपवित्रता आती है। व्यक्ति की प्रामाणिकता घट जाती है। ईर्ष्या पैदा होती है। फैशन करने वाले के चरित्र को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। चोरों की नजर जेवर गहने को साफ करने पर टिक जाती है। समाज में अपमान होता है। नैतिकता का पतन होता है। चरित्र भी गिरता है, पाश्चात्य शैली के रहन सहन, सज्जन, शालीन नहीं फूहड़ बनाती है। नारी का सौंदर्य सादगी में है। वन्दनीया माताजी ने किताब लिखा है -- ‘‘नारी श्रृंगारिता नहीं पवित्रता’’ उसे जरूर पढ़े।
४. पाश्चात्य संस्कृति से प्रेरित फैशनपरस्त व विलासितापूर्ण जीवन जीने वालों का समुदाय नक्ककट्टा समुदाय की भांति है, जो पहले धोखे से अपना नाक ईश्वर से साक्षात्कार करने के लालच में कटवा लेते हैं, फिर शर्म के मारे अपनी संख्या बढ़ाने के लिए औरों को भी नाक कटवाने हेतु प्रेरित करते हैं।
५. यह शराब से भी बड़ा नशा है। फैशन परस्ती व्यक्तित्व का ओछापन है। यह व्यक्ति की मानसिक गुलामी तथा आन्तरिक खोखलेपन की निशानी है। खोखलेपन को छुपाने के लिए फैशन व दिखावा करने की जरूरत होती है।
सारांश
१. धन का अपव्यय एक भयंकर दुर्व्यसन है, कुसंस्कार है।
२. केश वेश विन्यास सादगी भरा सभ्यों जैसा हो। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ सज्जन व विचारशील व्यक्तियों की पहचान है।
३. गुल्लक रखें, नेक कार्य में धन का सदुपयोग करें। आड़े समय के लिए, एक सीमा तक धन को संचित कर सकते हैं।
‘‘जो धन का दुरुपयोग करते हैं, वे कष्ट भोगते हैं, तिरष्कार सहते हैं।’’ -- परमपूज्य गुरुदेव।
प्रश्नावली
१. धन कैसे कमाएँ?
२. धन की उत्तम गति क्या है?
३. जीवन में धन का कितना महत्त्व है?
४. धन का अपव्यय आप कहाँ- कहाँ करते हैं?
५. फैशन की जीवन में कितनी आवश्यकता है? और क्यों?
६. यदि आपको अभी १०,००० रुपये दे दिये जाए तो आप उसे क्या करेंगे?
७. फैशनपरस्त होना आज के समाज में क्या जरूरी है? यदि हाँ तो क्यों?
१. धन को जीवन यापन का साधन मात्र समझा जाए।
२. धन का सदुपयोग हो, निरर्थक प्रयोजनों में प्रयोग न किया जाए, न ही अनावश्यक संग्रह किया जाए।
३. लोक कल्याण हेतु धन का नियोजन हो।
४. फैशन परस्ती का खुलकर विरोध करने वाला बन जाएँ तथा स्वयं के जीवन में में सादगी की प्रतिष्ठा करें। सादगी अपनाने में गौरव का अनुभव हो। लड़कियाँ विशेष रूप से जेवर, मेकअप, फैशन को शपथपूर्वक त्यागें।
व्याख्यान क्रम :-
१. धन एक शक्ति है, साधन है, जिससे आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है, वस्तुओं को खरीदा जाता है।
२. परन्तु आज धन को ‘साध्य’ मान लिया गया है। ‘साध्य’ अर्थात् -लक्ष्य, मंजिल और साधन अर्थात् लक्ष्य या मंजिल तक पहुँचने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला माध्यम। धन साध्य तक पहुँचाने वाला साधन है। परन्तु आज सोच बदल गई है। कमाने को ही प्रमुख लक्ष्य मानकर व्यक्ति पूरे जीवन भर उसी में जुटा रहता है। (कहानी- अधिक धन बटोरने के लोभ में अपनी जान गवां बैठना।)
३. धन कमाना अनिवार्य है, उससे पद, प्रतिष्ठा, सम्मान भी मिलता है, परन्तु धन सब कुछ नहीं है। किसी व्यक्ति की सफलता व कैरियर की असली पहचान भी धन के आधार पर नहीं जा सकती, क्योंकि लोग गलत तरीके से कमाकर भी धनवान बनते हैं। आध्यात्मिक भाषा में धन को ‘लक्ष्मी’ कहते हैं। जो धन विलासिता, नशा या निरर्थक कार्यों में खर्च होती है, वह लक्ष्मी नहीं, माया रूप होती है। माता का उपभोग नहीं उपयोग करना ही हितकर है, तब माता की कृपा सुख शांति के रूप में सदुपयोगकर्ता पर बरसती है। (लक्ष्मी पुत्र बनें)
४. धन कमाना अलग बात है, परन्तु धन का सदुपयोग करना सर्वथा दूसरी बात है। बिजली की ही भांति धन के गलत उपयोग से हानि ही हानि होती है। धन के अपव्यय से व्यक्ति के चिन्तन, चरित्र, स्वास्थ्य में गिरावट आती है, जो लक्ष्मी का दुरुपयोग करता है, लक्ष्मी उसे छोड़कर चली जाती है।
५. कंजूसी और मितव्ययिता दोनों में अन्तर होता है-
१. स्वास्थ्य, शिक्षा, संस्कार व अनिवार्य वस्तुओं, आवश्यकताओं में भी खर्च न करना कंजूसी है।
२. निरर्थक कार्यों, वस्तुओं, विलासिता में खर्च न करना मितव्ययिता है। कंजूसी आत्मा का दूषण है जबकि मितव्ययिता आत्मा का भूषण (अलंकार) है। (दृष्टांत -- दो कंजूसों में धन बचाने की प्रतिस्पर्धा।)
६. धन की स्वयं की शक्ति नहीं होती, व्यर्थ संग्रहीत धन से कोई लाभ नहीं। धन की शक्ति की सार्थकता उसके सदुपयोग में ही है। धन का संचय वैसे ही है, जैसे मधुमक्खियों को शहद इकट्ठा करना।
७. धन की गति :-
१. भारतीय संस्कृति का शिक्षण -- ‘तेन व्यक्तेन भुजिथाः’ अर्थात् त्याग करके भोग करें।
२. धन की सबसे उत्तम गति है -- दान। पीड़ा पतन के निवारण के लिए जरूरतमन्दों को श्रेष्ठ उद्देश्य हेतु दान करें। परन्तु कुपात्रों को या जहाँ आवश्यकता नहीं है, अविश्वनीय व्यक्ति को दान न करें। दान विवेकपूर्ण तो, परिचित व्यक्ति को ही दिया जाए।
८. दान के स्वरूप :-
१. दान गुप्त होवे। दाया हाथ दे तो बाए हाथ को भी पता न चले, अर्थात् उसका विज्ञापन, हल्ला न करें।
२. गीता के अनुसार -- आय का दसवाँ हिस्सा दान कर देना चाहिए। अकेले खाने वाला पाप खाता है, वह चोर होता है।
३. अंशदान की परंपरा का औचित्य -- समाज को, ईश्वर को, अपने परिवार को अंग मानकर अपनी आय का एक निश्चित अंश निकालना। पहले हमारी संस्कृति में अतिथि को भोजन कराते थे, उसके बाद स्वयं लेते थे।
उदा. क. दान के प्रताप से नेवले का आधा शरीर (राजसूय यज्ञ में) भोजन पश्चात् हाथ धोने से हुए जूठे पानी में लोटने से स्वर्ण को हो जाना। (ख) पिसनहारी का कुँआ (बाल विधवा द्वारा कुँआ बनवाना) जो मथुरा में मीठे पानी का स्त्रोत है। लोक मंगल के लिए खर्च न करने वाला व्यक्ति मृतक के समान है।
९. धन का उपयोग व उपभोग में अन्तर :-
धन का उपयोग अर्थात् योजना बनाकर सोच समझकर खर्च करना, सन्त तुकाराम की कहानी -- बाजार से बिना वस्तु खरीदे खली थैला लिए वापस घर आ जाना।
धन का उपयोग अर्थात् इन्द्रिय सुखों व विलासिता हेतु बिना सोचे विचारे खर्च करना। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र महान साहित्यकार थे लेकिन वे अपव्ययी थे। जीवन के अन्तिम क्षण तक निर्धन ही रहे।
शुकदेव जी महाराज राजा परीक्षित से कहते हैं -- अजितेन्द्रिय पुरुष के शरीर बल, तेज व धन सम्पत्तियों का कुमार्ग में उपयोग होता है।
१०. धन की अधोगति :- दिखावा, दुर्व्यसन, बीमारियाँ एवं कोर्ट कचहरी में व्यय धन की अधोगति है।
११. धन कैसे कमाए :-
१.नीतिपूर्वक २. परिश्रमपूर्वक व ईमानदारी से। अनीति का धन दुर्व्यसन, बीमारी शेखीखोरी व कोर्ट कचहरी के रास्ते निकल जाता है। अनीति की कमाई से परिवार पालन से बच्चे कुसंस्कारी, दुर्व्यसनी, आलसी, निकम्मे बनते हैं। धनवान नहीं चरित्रवान बनें। टाटा, बिड़ला की तुलना में समाज में गाँधी, विवेकानन्द की प्रतिष्ठा अधिक है।
१२. वर्तमान में धन का भारी अपव्यय हो रहा है :-
अपव्यय के क्षेत्र हैं -- मृतक भोज, दोस्तों के साथ मौजमस्ती, मार्केटिंग व होटलिंग की आदत, खर्चीले विवाह के प्रदर्शन में, कुरीतियाँ, दुर्व्यसन- बीड़ी, सिगरेट, नशा आदि में, भोजन के पाखण्ड (भोजन की थाली में नाना प्रकार की खाद्य सामग्री में) विलासिता में, फैशन में, अधिक कपड़े, शरीर सज्जा, जेवरात आदि में।
फैशन परस्ती एक ओछापन
१. फैशन -- अर्थात् बनने की जगह दूसरों से अलग दिखने की चाह। फैशन क्यों करते हैं? दूसरों को दिखाने के लिए? सुन्दर दिखने के लिए? उससे क्या होता है? आप उस आधार पर कोई सम्मान प्रतिष्ठा पा सकते हैं? आपका क्या विचार है?
२. फैशन की सामग्री का विवरण। युवाओं व युवतियों द्वारा अपनाए जाने वाले फैशन के साधनों की चर्चा। इस क्षेत्र में पैसों का भारी अपव्यय।
३. फैशन परस्ती के दुष्परिणाम -- शोषण के शिकार होते हैं। दरिद्रता, अपवित्रता आती है। व्यक्ति की प्रामाणिकता घट जाती है। ईर्ष्या पैदा होती है। फैशन करने वाले के चरित्र को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। चोरों की नजर जेवर गहने को साफ करने पर टिक जाती है। समाज में अपमान होता है। नैतिकता का पतन होता है। चरित्र भी गिरता है, पाश्चात्य शैली के रहन सहन, सज्जन, शालीन नहीं फूहड़ बनाती है। नारी का सौंदर्य सादगी में है। वन्दनीया माताजी ने किताब लिखा है -- ‘‘नारी श्रृंगारिता नहीं पवित्रता’’ उसे जरूर पढ़े।
४. पाश्चात्य संस्कृति से प्रेरित फैशनपरस्त व विलासितापूर्ण जीवन जीने वालों का समुदाय नक्ककट्टा समुदाय की भांति है, जो पहले धोखे से अपना नाक ईश्वर से साक्षात्कार करने के लालच में कटवा लेते हैं, फिर शर्म के मारे अपनी संख्या बढ़ाने के लिए औरों को भी नाक कटवाने हेतु प्रेरित करते हैं।
५. यह शराब से भी बड़ा नशा है। फैशन परस्ती व्यक्तित्व का ओछापन है। यह व्यक्ति की मानसिक गुलामी तथा आन्तरिक खोखलेपन की निशानी है। खोखलेपन को छुपाने के लिए फैशन व दिखावा करने की जरूरत होती है।
सारांश
१. धन का अपव्यय एक भयंकर दुर्व्यसन है, कुसंस्कार है।
२. केश वेश विन्यास सादगी भरा सभ्यों जैसा हो। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ सज्जन व विचारशील व्यक्तियों की पहचान है।
३. गुल्लक रखें, नेक कार्य में धन का सदुपयोग करें। आड़े समय के लिए, एक सीमा तक धन को संचित कर सकते हैं।
‘‘जो धन का दुरुपयोग करते हैं, वे कष्ट भोगते हैं, तिरष्कार सहते हैं।’’ -- परमपूज्य गुरुदेव।
प्रश्नावली
१. धन कैसे कमाएँ?
२. धन की उत्तम गति क्या है?
३. जीवन में धन का कितना महत्त्व है?
४. धन का अपव्यय आप कहाँ- कहाँ करते हैं?
५. फैशन की जीवन में कितनी आवश्यकता है? और क्यों?
६. यदि आपको अभी १०,००० रुपये दे दिये जाए तो आप उसे क्या करेंगे?
७. फैशनपरस्त होना आज के समाज में क्या जरूरी है? यदि हाँ तो क्यों?