
शारीरिक और मानसिक कायाकल्प कैसे संभव हो
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सामर्थ्य का होना एक बात है और उसका सुनियोजन कर सकना दूसरी। माचिस की तीलियों में अग्नि प्रज्ज्वलन की प्रचंड क्षमता विद्यमान रहती है, फिर भी उसे जला सकना किसी बुद्धिमान प्राणी के लिए ही संभव है। कृषि कार्य और पशुपालन ऐसे काम हैं जिन्हें मामूली मजदूर और ग्वाले भी करते रहते हैं, पर उससे अतिरिक्त लाभ उठाना उन्हीं से बन पड़ता है, जो अपने विशेष ज्ञान, अतिरिक्त तत्परता एवं मनोयोग और तन्मयता का परिचय दें पाते हैं। इस विशेष विनियोग के बिना खेत मुश्किल से अपनी लागत की भरपाई कर पाते हैं। पशुओं के झुंड भी अनाड़ी ग्वालों के हाथ किसी प्रकार दिन गुजारते हैं। वे न समर्थ बन पाते हैं और न पालने वाले को ही कुछ यश या श्रेय दें पाते हैं। व्यवस्था के अभाव में समस्त साधनों के रहते हुए भी प्रगति कर सकना तो दूर, यथास्थान बने रहना भी कठिन पड़ता है। प्रगति की तरह अवनति भी पग-पग विद्यमान रहती है। जो प्रगति कर सकने में समर्थ नहीं, अवनति उनके पल्ले बंधे बिना रहेगी नहीं। यथास्थिति बनी रहने का इस संसार में कोई विधान है नहीं। सूरज या तो ऊपर चढ़ता जाता है अथवा उसका गिरना आरंभ हो जाता है और उस क्रम के चलते रहने से उसे अस्ताचल में डूब मरना पड़ता है। इसी चढ़ाव उतार के क्रम को दूसरे शब्दों में प्रगति और अवनति कहते हैं।
कौशल अनेकानेक हैं। कला की दिशा धाराएं अगणित हैं। सुयोग और कुयोग का सिलसिला भी चलता है। अंधकार और प्रकाश की तरह संपन्नता-विपन्नता का क्रम भी परिस्थितियों पर निर्भर रहता है। पर जिस सद्गुण में अधिक उत्पादन क्षमता है, उसका नाम है—सुव्यवस्था—उपलब्धियों का सुनियोजित प्रबंध कर सकने की क्षमता। भौतिक प्रगति के क्षेत्र में यदि इसे सर्वोत्तम स्तर की प्राथमिकता दी जाए तो कुछ भी अनुचित न होगा। सुनियोजन ही है जिसके कारण कम योग्यता और अभावग्रस्तता के बीच रहते हुए भी व्यक्ति न केवल प्रसन्न रह सकता है, वरन् समुन्नत भी बन सकता है।
सुदृढ़ स्वास्थ्य और दीर्घायुष्य का भंडार हर कायकलेवर में विद्यमान है। विषाणुओं को परास्त करने की क्षमता रक्त के श्वेत कणों में इतनी भरी पड़ी है, जिसे अजेय कहा जा सके। पेट के अपने रासायनिक घटक इतने उच्चकोटि के हैं कि वे भुने सत्तू जैसे शक्तिहीन कहे जाने वाले पदार्थ खोकर भी अपने बलबूते पूर्ण भोजन की आवश्यकता पूरी कराते रह सकते हैं। फिर भी अस्वस्थता क्यों आ घेरती है? अकाल मृत्यु से क्यों मरना पड़ता है? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि आरोग्य के नियमों की अवहेलना ही कुछ अपवादों को छोड़कर प्रधान कारण है। यदि आरोग्य के अनुबंधों में बंधकर आहार-विहार को सुव्यवस्थित रखा जा सके तो अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी नीरोग रह सकता है और दुर्घटनाओं के व्यवधानों को छोड़कर परिपूर्ण आयु तक जीवित रह सकता है। हमीं हैं जो शरीरचर्या के साथ अस्त-व्यस्तता अपनाकर खिलवाड़ करते हैं और दुर्बलता को आग्रहपूर्वक आमंत्रित करके उसके मुंह में हठपूर्वक जा घुसते हैं।
देव उद्यान की तरह हरा-भरा, फूला-फूला, शोभा-सुषमा से भरापूरा सुगंधित एवं समृद्ध है यह अपना संसार-अपना भूलोक। इसे रंगमंच की तरह किसी ने चित्र-विचित्र और मणि-मुक्तकों से सुसज्जित इस स्तर का बनाया है कि इसके कण-कण को निहारते हुए हर घड़ी आनंद-विभोर रहा जा सके। प्रकृति की अपनी शोभा है। उमड़ते बादल, झिलमिलाते सितारे, चहकते पक्षी, हरियाली बिछे मखमली फर्श, सरिता-सरोवरों की हिलोरें, किसका मन पुलकन से नहीं भर सकती? जहां सूर्य रोशनी-गरमी और चंद्रमा शांति-शीतलता बरसाने के लिए अपनी-अपनी ड्यूटी देते हों, जहां पवन पंखा चलाता है, जहां निद्रा की परी अपनी गोदी में सुलाने के लिए रात्रि होते-होते दौड़ आती हो, जहां की वनस्पतियां नन्हें-मुन्ने शिशुओं की तरह खिलती-खिलाती हैं, प्राणिगण सहकार के लिए बढ़कर खड़े रहते हैं, वहां किसी को असुविधा, हैरानी और विपन्नता से खिन्न रहने की क्या और क्यों आवश्यकता पड़ेगी? इतने पर भी किसी का मन खिन्न-विपन्न रहता है तो समझना चाहिए कि खोट परिस्थितियों का नहीं, मनःस्थिति में ही कहीं से आंख में आ पड़ने वाली धूल-किरकिरी की भांति घुस पड़ी है। दृष्टिकोण के गड़बड़ाने से ही झाड़ी का भूत, रस्सी का सांप दिख पड़ता है। अस्त-व्यस्त मन ही इस सुरम्य उद्यान को जलते-जलाते मरघट जैसा बना लेते हैं और कुकल्पनाओं के भूत-पलीत यहां नंगे होकर नाचने, डरने-डराने का खेल खेलते हैं। यह संसार दर्पण भर है, जिसमें अपने प्रतिबिंब के अतिरिक्त और कुछ मिलता नहीं। इसी विशाल आकार वाला गुंबद भी कह सकते हैं, जिसमें भय की प्रतिध्वनि गूंजती और मीठे कड़वे शब्द कह-कहकर हंसाती रुलाती रहती है।
मन को यदि दिशा-विहीन घोड़े की तरह किधर भी बेहिसाब दौड़ पड़ने से रोका जा सके तो वह शत्रु न रहकर मित्र भी बन सकता है। आरोपित विषमताओं के स्थान पर संभावनाओं का अंबार लगा सकता है। छिद्रान्वेषण यदि हट सके तो गुण ग्राहकता के उदय होते ही यह सब कुछ शुभ, सुंदर और सहयोग में निरत ही होते देखा जा सकेगा। यह अपना मन ही है जो रंगीन चश्मा पहन-पहनकर अपनी दृष्टि में स्वयं इच्छित रंग का आरोपण कर लेता है। चश्मा उतरे तो यथार्थता दीखे। नरक जैसे डरावने भ्रम-जंजाल अनगढ़ मन ही बुनता है और उनमें अपने आप को फंसाकर रोता-कलपता रहता है।
यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि विपन्नताओं के पीछे सारा खोट कसूर अपना ही होता है, दूसरे कोई उसमें दोषी नहीं होते, विपरीत परिस्थितियों की उनमें कोई साझेदारी नहीं होती। स्पष्ट है कि यह संसार गुण-दोषों का बना हुआ है। यहां प्रकाश भी है और अंधकार भी। सर्दी और गर्मी की तरह अनुकूलताएं भी आती-जाती रहती हैं। उन सबको सुधार या बदल सकना, अपने वश की बात नहीं। सब कुछ अपनी इच्छा के अनुरूप ही बनकर रहे, यह संभव नहीं। दूसरों को अपने से सहमत करने के लिए एक सीमा तक ही समझाया या दबाया जा सकता है। ऐसी सर्वशक्तिमान सत्ता किसी के पास नहीं है कि जो कहना न माने, उसे तोप के गोले से उड़ा दिया जाए। यहां तालमेल बिठाकर चलना ही एक सरल और संभव तरीका है। अनौचित्य के प्रति असहयोग या अधिक से अधिक विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं। पुलिस, जेल तक की नौबत दैनिक व्यवहार में नहीं आती। हर काम में लड़ाई भी नहीं ठानी जा सकती है। संघर्ष सिद्धांततः तो अच्छा है, पर उसके आक्रमण-प्रत्याक्रमण का सिलसिला चल पड़ता है, जो कई समस्याएं उत्पन्न करने के अतिरिक्त भारी भी पड़ता, उससे भी यह निश्चित नहीं होता कि जैसा चाहा गया, वैसा ही प्रतिफल निकलेगा। वस्तुस्थिति को समझते हुए बुद्धिमानी इसी में रहती है कि तालमेल बिठाए रखा जाए और विचार-विनिमय द्वारा पूरे या आंशिक समाधान का कोई स्वरूप बनाया जाए, इसी में व्यावहारिकता भी है और बुद्धिमत्ता भी।
विग्रहों के पीछे दूसरों की खोट भी हो सकती है, पर अपने पक्ष की कमी इतनी तो रह ही जाती है कि तालमेल बिठाने की सोचना छोड़कर, मात्र अड़ या डट जाने को ही प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया गया। दुनिया का काम ऐसे नहीं चलता। परिवार के सदस्यों के बीच उसी प्रकार की तनातनी रहे तो विघटन निश्चित है। मित्रों के बीच साधारण से मतभेदों को लेकर शत्रुता चल पड़ती है और एक दूसरे के लिए सहयोग का मार्ग छोड़कर संकट खड़ा करने पर उतर आते हैं। सभी प्रयास निष्फल हो जाने पर ही ऐसी स्थिति आने देनी चाहिए। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि उसमें लाभ कम और घाटा अधिक है।
गड्ढों वाली ऊबड़-खाबड़ सड़क पर मोटर जैसे वाहन तभी चल पाते हैं, जब उनके स्प्रिंग लचकदार हों। ताली दोनों हाथ से बजती है। एक हाथ तैयार न हो तो दूसरा चाहते हुए भी टकरा नहीं सकता। अनिवार्य संकट आ खड़ा होने पर तो दो देशों की सेना भी एक दूसरे के सामने डट जाती है, पर यह नीति बड़े क्षेत्रों में ही अपनाई जाती है। सामान्य जीवन में तो आएदिन सुलह-सफाई की नीति अपनाकर ही चलना पड़ता है। अन्यथा उलझते-उलझाते रहने पर कोई सृजनात्मक प्रयास बन पड़ना और प्रगति की दिशा में आगे बढ़ सकना संभव नहीं हो सकेगा। विग्रहों को इसी नीति के अनुसार टाला जाए। सुधार दूसरों में बन ही पड़ेगा, यह अनिश्चित मानकर अपनी भूलों को सुधारते रहने का एकपक्षीय फैसला करना चाहिए।
मन को खिन्न करने वाले प्रसंगों को यथासंभव उपेक्षित करना चाहिए और वह सोचना चाहिए जिसके आधार पर मनोबल बनाए रहने वाली स्थिति बनी रहे। भूतकाल की अनुपयुक्तताओं को भूलकर, हमें उज्ज्वल भविष्य की संरचना पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए। जो उपलब्ध है उस पर संतोष किया जाए और आगे अधिक प्राप्त करने के लिए आतुर-व्याकुल होने की अपेक्षा उस दिशा में योजनाबद्ध रीति से, क्रमिक गति से आगे बढ़ा जाए।
अमीरों के साथ तुलना करने पर अपनी स्थिति गरीब जैसी प्रतीत होती है और गरीबों के साथ माप करने पर आज की स्थिति कहीं अच्छी प्रतीत होती है। संतोष का सुख पाने के लिए यही नीति अपनानी चाहिए। प्रयत्न अच्छे से अच्छे तो किए जाएं पर बुरे से बुरा फल पाने के लिए भी तैयार रहा जाए। असफलता का प्रभाव इतना न पड़ने दिया जाए कि वह निराशा बनकर उभर आए और भविष्य की आशा को ही धूमिल कर दें। हमें खिलाड़ियों की तरह जीवन का खेल खेलना चाहिए। जिसमें हार और जीत को हलके मन से लिया जाता है और हर स्थिति में उत्साह बनाए रखा जाता है। हंसती-हंसाती फूल की जिंदगी ही सफल और सुखद मानी जाती है। क्षति और पराजय को भूलकर भावी उपक्रम बनाने और जिस स्थिति में है उससे अधिक प्राप्त करने के लिए प्रयत्नरत होना चाहिए।
गड़बड़ाती हुई मशीन को ठीक करने से पहले मिस्त्री वह जांच-पड़ताल करता है कि कहां क्या नुक्स आ जाने से मशीन बंद हुई है? ठीक करने का क्रिया-कलाप इसके बाद ही चलता है। चिकित्सक रोग का कारण जांचता और इसके बाद इलाज आरंभ करता है। सब कुछ ठीक-ठाक रहने पर भी यह देखभाल होती रहती है कि अगले दिनों किसी अड़चन की आशंकाएं तो नहीं? कारण भूतकाल में छिपे मिलते हैं, गड़बड़ी वर्तमान में दीख पड़ती है, आशंका का अनुमान भविष्य के संदर्भ में लगाया जाता है। सड़क पार करते समय सामने ही नहीं, दोनों ओर देखकर चला जाता है। ठीक इसी प्रकार शरीर और मन की वर्तमान स्थिति के संबंध में पिछली गलतियां, अब की आदतों और अगले दिनों घटित हो सकने वाली आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय करना पड़ता है कि किस सुधार-परिवर्तन की आवश्यकता है? उसे किस प्रकार कार्य रूप में परिणत किया जाना चाहिए?
व्यवस्था बुद्धि उसी को कहते हैं, जिसमें मात्र तात्कालिक स्थिति को ही नहीं उससे जुड़े हुए भूतकालीन तथ्यों पर भी ध्यान दिया जाता है और उनमें जो हेर-फेर करना हो, उसे करने के लिए बिना समय गंवाए कदम उठाया जाता है। भविष्य को और भी अधिक अच्छा बनाने के लिए यह निर्धारण भी किया जाता है कि अधिक महत्त्वपूर्ण को पाने के लिए क्या मूल्य चुकाना पड़ेगा और उसे जुटाने के लिए क्या तारतम्य बिठाना पड़ेगा? इस प्रकार के समग्र चिंतन को ही व्यवस्था कहते हैं, भले ही वह किसी भी प्रयोजन के लिए अपनाई गई है। शारीरिक और मानसिक स्वस्थता, समर्थता का महत्वपूर्ण आधार है। इसलिए उसकी रखवाली और प्रगति के लिए उसी प्रकार सतर्क रहना चाहिए, जैसा कि कोई अनेक दिशा धाराओं वाले उद्योग-व्यवसाय को चलाने, समस्याओं को हल निकालने के लिए तत्पर रहता है।
घर में रोज बुहारी लगाई जाती है। उपयोग में आने वाली वस्तुओं को सही स्थिति में रखने के लिए उन्हें प्रतिदिन झाड़ा-पोंछा जाता है। शरीर और मन चूंकि जीवन का समूचा भार वहन करते हैं, उसके लिए उनमें उत्पन्न होते रहने वाली गड़बड़ियों को बिना आलस्य किए सुधारते रहना आवश्यक है। घोड़े से लंबी अवधि तक काम लेना हो तो उसके चारे दाने का प्रबंध तो करना ही पड़ता है, साथ ही उसे सर्दी-गर्मी, गंदगी से बचाने की भी सतर्कता रखनी होती है। शरीर और मन की दोनों साधना दो हाथों या दो पैरों की तरह है। इनके गड़बड़ा जाने पर अपनी समूची क्षमताएं अस्त-व्यस्त हो जाती हैं। प्रगति करना तो दूर यथास्थिति बनाए रहना और अवगति से बचना तक कठिन हो जाता है। अन्यान्य जिम्मेदारियों का वहन करते हुए जिस प्रकार जीवनचर्या चलाई जाती है, उसी में एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी जुड़ा रहना चाहिए कि आरोग्य की स्थिति ठीक है या नहीं? भूख, नींद और मल विसर्जन के तीन कार्य यथावत हो रहे हैं या नहीं? मन-उत्साह, साहस और उल्लास की तीनों विशेषताओं को अपने स्थान पर ठीक से रखे हुए है या नहीं? यदि नहीं तो उपेक्षा में समय गंवाने की अपेक्षा तुरंत उसके उपचार में लगना चाहिए।
यहां यह ध्यान रखने की बात है कि चिकित्सकों की सहायता से किसी भी रोग में नगण्य जितना ही सुधार होता है। सुधार तो अपने निज का आहार-विहार व्यवस्थित करने के रूप में करना पड़ता है। नियमितता अपनाना, संयम बरतना और स्वच्छता के लिए स्फूर्ति बनाए रहना ऐसा प्रयास है कि जिसके आधार पर खोए स्वास्थ्य को फिर से पाया जा सकता है। अच्छा हो तो उसे और भी अधिक अच्छा बनाया जा सकता है।
मन के संबंध में भी यही बात है। दूसरों की ओर से जो अवांछनीयता बरती गई है, उसका प्रतिशोध लेने की अपेक्षा यह सोचना चाहिए कि अपनी ढाल कैसे मजबूत की जाए जिस पर किसी आक्रमणकारी का प्रहार कारगर न हो सके। इसी प्रकार अपने संतुलन को बनाए रहकर यह सोचना चाहिए कि अगणित असुविधाओं से निपटने का क्या उपाय हो सकता है और उसे वर्तमान परिस्थितियों में किस आधार पर, किस सीमा तक निरस्त किया जा सकता है? इतने पर भी यदि कुछ संकट आ ही खड़ा हो तो इतना धैर्य और साहस संजोए रहना चाहिए कि आगत आपदा से हंसते-हंसते किसी प्रकार निपट लेने का उपक्रम बन सके। अपनी स्थिति सुधार लेना बाहर की अनेकों प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदल लेने का गुरुमंत्र है।