
सूझ-बूझ का सुनियोजित विस्तार हो
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
विकास की दिशा में अग्रसर होने की प्रमुख पहचान यह है कि हर व्यक्ति अपने वर्तमान और भविष्य के संबंध में व्यापक विचार करे। संभावित कठिनाइयों का अनुमान लगाए और उसके निराकरण का समय रहते उपाय-उपचार सोचे। भविष्य को अधिक उज्ज्वल बनाने के लिए ऐसी रूपरेखा बनाए, जो वर्तमान परिस्थितियों और उपलब्ध साधनों के सहारे अग्रगामी बनाई जा सके। वर्तमान को भविष्य के साथ जोड़ते हुए ही सुनिश्चित कदम बढ़ाने के निर्णय तक पहुंचना चाहिए।
प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाने के अतिरिक्त देखना यह भी चाहिए कि हाथ में लिए हुए काम क्या हैं? उन पर तत्परता और तन्मयता केंद्रित करने से ही यह संभव है कि बुद्धि की तीक्ष्णता, व्यवहार की कुशलता का अभ्यास बढ़े। हाथ में आए कार्यों को सफलतापूर्वक संपन्न करते रहने से जहां अपना साहस बढ़ता है, वहां दूसरी ओर कर्त्ता की वरिष्ठता पर विश्वास होता है और उस उत्साह में अन्य लोग अधिक सहयोग देने या लेने के लिए लालायित रहने लगते हैं। यह उज्ज्वल भविष्य की ओर इंगित करने वाले अच्छे लक्षण हैं।
प्रतिभाशाली कहे जाने वालों में से प्रत्येक में व्यवस्था बुद्धि होती है। व्यवस्था तब बनती हैं, जब कार्य से संबंधित समयगत आवश्यकता के तथा भावी संभावनाओं के संबंध में जागरूकता बरती जाए और अधिक सही कल्पना कर सकने की क्षमता विकसित की जाए। साथ ही यह भी सूझ पड़े कि समस्याओं से निपटना और आवश्यकताओं को जुटाना किस प्रकार संभव हो सकता है? भूतकाल के अनुभवों से लाभ तो उठाया जा सकता है, पर ऐसा नहीं हो सकता है कि किसी समय की, किसी की क्रिया पद्धति का अनुकरण मात्र करके काम चला लिया जाए। परिस्थितियां बदलती रहती हैं, साथ ही हर किसी की शैली एवं विशेषता भी अपनी होती है। एक व्यक्ति जिस प्रकार, जिस राह से आगे बढ़ा हो, उसी का अनुकरण करके वैसी सफलता दूसरे भी प्राप्त कर लेंगे यह आवश्यक नहीं। होना यह चाहिए कि आज की अपनी परिस्थितियों के अनुरूप कदम बढ़ाए जाएं। इसके लिए प्रत्युत्पन्न मति और सामयिक सूझ-बूझ की आवश्यकता पड़ती है।
अनुपयुक्त साथियों का चयन भी आवश्यकता का ही निमित्त कारण बनता है। साधन थोड़े हों, हर्ज नहीं। साथी कम हों, तो भी काम चल जाता है, किंतु उनका स्तर सदा ऊंचा ही रखना चाहिए। उनका मिल सकना अपनी चयन संबंधी सूझ-बूझ पर निर्भर है। घटिया दृष्टि में यही प्रमुख दोष होता है कि घटिया व्यक्तियों की ओर आकर्षित हो जाती है। उन्हें अपेक्षाकृत सस्ता देखकर ललचाती है। अंततः उनके सहारे जो कुछ बन पड़ता है वह भी घटिया होता है और उनके द्वारा किया गया काम भी गए-गुजरे स्तर का होता है। इसलिए उपयुक्त कार्य के लिए उपयुक्त साथी चुनने चाहिए। यदि वैसा कुछ कर सकना संभव न हो तो अधिक अच्छा यह है कि उतावली में निजी कार्य हाथ में लेने की अपेक्षा, किसी व्यवस्था बुद्धि वाले तंत्र के साथ सहायक बनकर काम किया जाए। इसमें भले ही श्रेय कम मिले, वेतन सीमित होने से महत्त्वाकांक्षा भी बड़ी न सधे, पर अनुभव तथा सूझ-बूझ का बढ़ना तो निश्चित ही है।
उथले दृष्टिकोण वाले मात्र इतना ही कर पाते हैं कि जो प्रयोजन सामने है, उतने भर की ही बात सोचें। उसके साथ जुड़ने वाले अनेक पक्षों के संबंध में वे विचार नहीं कर पाते। पहले से यदि संबद्ध विषयों पर विस्तारपूर्वक विचार नहीं किया गया है तो अनभ्यस्त परिस्थिति सामने आते ही किंकर्त्तव्यविमूढ़-हक्का-बक्का रह जाना पड़ता है। उस स्थिति को ताड़कर धूर्त लोग अनुचित लाभ उठाते हैं, गिरे में दो लात लगाने का मजा लूटते हैं।
विकसित व्यक्ति की पहचान यह है कि वह अपनी ही नहीं साथियों की प्रस्तुत या भावी समस्याओं के संबंध में समय रहते विस्तृत विचार करे और किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचे। इतना ही नहीं इसकी पूर्व तैयारी में भी लगा रहे।
मार वही खाते हैं, जो व्यापक जानकारी और अभीष्ट अनुभव एकत्र करने में उपेक्षा बरतते रहते हैं। बहुज्ञ, दूरदर्शी, वस्तुस्थिति की गहराई तक पहुंचने वाले लोग उलझनों को व्यावहारिक स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न करते हैं। आवेशग्रस्त, आतुर या चिंता में डूबते-उतराते रहने वाले लोग अव्यवस्थित चित्त से प्रायः कुछ ऐसा कर बैठते हैं, जिससे कठिनाइयां हल होने के स्थान पर और भी अधिक बढ़ जाती हैं। मानसिक संतुलन बनाए रहने पर ही कोई छोटी से लेकर बड़ी व्यवस्थाएं बना सकने में समर्थ हो सकता है।
युद्ध मोर्चे पर कितने ही सैनिक मरते और घायल होते रहते हैं। उनमें सेनापति के कोई निकटवर्ती या घनिष्ठ भी हो सकते हैं। उनका शोक मनाने वाला सेनापति क्षण-क्षण में बदलती रणनीति को सही रूप में संभाल ही न सकेगा और स्वयं को तथा समूची सेना को खतरे में डालेगा। हानि हो या लाभ, दोनों ही परिस्थितियों में जो आवेशग्रस्त नहीं होते, उन्हीं के लिए यह संभव है कि वर्तमान का निरीक्षण और भविष्य का निर्धारण सही रूप में कर सकें। व्यवस्था के लिए मानसिक संतुलन बनाए रहने में समर्थ होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
हर कार्य में विचार-विनियम की—सहयोग और आदान-प्रदान की आवश्यकता पड़ती है। यह मनुष्यों में ही एक दूसरे के बीच चलता है। सभी की प्रकृति एक दूसरे से भिन्न होती है। स्वभाव सर्वथा एक जैसे ही हों यह आवश्यक नहीं। आपसी ताल-मेल बिठाने, कमियों को निभाने और सहयोग के लिए आकर्षित करने की नीति ही सदैव काम देती है। समझदार उसे कहा जाता है, जो टूटे को बनाने और रूठे को मनाने का प्रयत्न करता है। वैमनस्य में अपनी और पराये की हानि ही हानि है, जबकि स्नेह सद्भाव बने रहने में हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है। इस तथ्य को उन्हें तो समझना ही चाहिए, जो किन्हीं व्यवस्थाओं को बनाए रहने का दायित्व संभालते हैं।
शतरंज का खेल खेलने वाले को अनेक गोटियों की चाल पर एक साथ नजर रखनी पड़ती है। जो एकाध पर ही ध्यान रखते और बाकी के संबंध में कुछ सोचते नहीं, वे मात खाते हैं। प्रत्येक कार्य शतरंज की तरह है। उसके हर पक्ष पर ध्यान रखना पड़ता है। कल्पना शक्ति का इतना विकास करना होता है कि संबंधित सभी उतार-चढ़ावों पर पूरा ध्यान रहे।
नया कारखाना जमाना हो या बीमार फैक्टरी को नये हेर-फेर के साथ नये स्तर पर नया मोड़ देना हो तो उस निमित्त प्रखर कल्पना शक्ति द्वारा संबंधित सभी पक्षों पर समुचित ध्यान देना होता है और तदनुरूप जो परिवर्तन किया जाना हो उसका सरंजाम आद्योपांत जुटाना होता है। यदि इसमें एक दो छोटी-मोटी भूलें भी रह जाएं तो उन्हीं के कारण काम रुका पड़ा रहता है और ढेरों समय बरबाद होता तथा ढेरों घाटा पड़ता है। कारखानेदारों को अपनी व्यवस्था के सभी पक्षों पर समग्र ध्यान देना पड़ता है। इतना सोचने से ही काम नहीं चल जाता कि उत्पादन कार्य होता रहे, वरन् कच्चा माल खरीदने, बने माल को बेचने के लिए विक्रेता और ग्राहक जुटाने की समूची प्रक्रिया ध्यान में रखनी पड़ती है। सोचना यह भी होता है कि बाजार में माल का स्तर या मूल्य टिक सकेगा या नहीं? उधार देन-लेन को भी तो समय पर निपटाना पड़ता है। जिनकी इतनी विस्तृत और पैनी सूझ-बूझ है, व्यवस्था करना- कारखानों को चलाना उन्हीं के लिए संभव है। जो एक ही काम को पकड़कर रह जाते हैं, वे कारखानेदार नहीं बन सकते, मात्र कर्मचारी भर रहकर दिन गुजारते हैं।
इमारतें बनाने वाले कारीगर जिंदगी भर उसी मजूरी में लगे रहते हैं। पर जिनका दिमाग चलता है, वे निर्माण कार्य से संबंधित सभी पक्षों को समझ लेते हैं। उसी अनुभव के आधार पर छोटे ठेके लेने लगते हैं और बड़े ठेकेदार बन जाते हैं। एक ही योग्यता वाले दो व्यक्तियों में से एक का जहां का तहां बना रहना और दूसरे का कहीं से कहीं जा पहुंचना, यह सुनियोजित कल्पना शक्ति के होने न होने का चमत्कार भर है।
आयोजनों, समारोहों, उत्सवों, प्रीतिभोजों में भी ऐसा ही बहुमुखी और भारी उतार-चढ़ाव वाला झंझट जुड़ा रहता है। जो संबंधित पक्षों की समग्र कल्पना कर सकते हैं और उन्हें जुटाने के लिए आवश्यक आधार खड़ा कर लेते हैं, उन्हीं को सफलता का श्रेय मिलता है। घटिया लोग थोड़ा सोचते और बहुत कुछ बिना सोचे छोड़ देते हैं, फलतः थोड़ी सी गलतियां सारा मजा किरकिरा कर देती हैं। नब्बे प्रतिशत किया गया परिश्रम, दस प्रतिशत रही हुई भूलों के कारण अपयश का निमित्त कारण बनता है। इसलिए अपेक्षा की जाती है कि व्यवस्थापक मन, सौंपे गए कार्य से जुड़ी हुई गतिविधियों को आदि से अंत तक सही कल्पना कर सकने की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए।
साहित्यकार अपनी संरचना का पहले आद्योपांत खाका खड़ा करते हैं, उसे बार-बार सुधारते और अधिक ऊंचे स्तर तक पहुंचाने के लिए भरपूर प्रयत्न करते हैं। जो ऐसा नहीं कर पाते उनकी रचनाएं दोषपूर्ण रह जाती हैं। चित्रकारों, मूर्तिकारों, अभिनेता आदि कलाकारों के संबंध में भी यही बात है।
पदों में गवर्नर का पद सबसे बड़ा माना जाता है। इसका अर्थ भी मैनेजर से मिलता-जुलता है। जो इस कला में जितना प्रवीण है, वह अपने कार्यक्षेत्र में उतनी ही अधिक सफलता प्राप्त करेगा और यशस्वी बनेगा। इस विशेषता के अभाव में ही साधन संपन्न होते हुए भी लोग घाटा उठाते और असफल रहते देखे गए हैं। नेताओं में यही गुण होता है कि वे न केवल अपने निजी काम संभालते हैं, वरन् सुनिश्चित क्षेत्र में उन्हें जिन गतिविधियों को अग्रगामी बनाना है, उसके लिए दौड़धूप करते और मानसिक ताना-बाना बुनते हैं। चुनाव जीतने की रणनीति ऐसे ही कौशलों पर, जोड़-तोड़ों पर निर्भर रहती है। किसानों से लेकर शिल्पियों तक में से जिन्हें अधिक सफलता मिलती है और जो अधिक सम्मान पाते हैं, ऊंचा उठते हैं, उन्हें उनकी विकसित सूझ-बूझ ही काम देती है।
शारीरिक दृष्टि से आलसी और मानसिक दृष्टि से प्रमादी भी निकम्मों जैसी भूमिका ही निभाते हैं। पूर्व तैयारी न कर पाने पर समय पर भाग-दौड़ भी बहुत करते हैं और आधा-अधूरा ही काम बन पड़ने के कारण घाटे में भी रहते हैं। जो विद्यार्थी अपनी पढ़ाई में सोते हैं, अस्तव्यस्तता बरतते हैं, उन्हें फेल होते ही देखा गया है। खिलाड़ियों को भी इन्हीं कमियों के कारण असफलता का मुंह देखना पड़ता है।
जिंदगी जीना अपने आप में एक बहुत बड़ा व्यवसाय है। सूक्ष्मदर्शी, क्रिया कुशल, सुव्यवस्था का आश्रय लेने वाले ही अपने आयुष्य का ठीक तरह उपयोग कर पाते हैं। समय, श्रम, चिंतन और कौशल को सही दिशा में सही योजना बनाकर जो जीवन पद्धति का निर्धारण करते हैं, उन्हीं सूझ-बूझ के धनियों को महामानव बनने का श्रेय मिलता है। दीर्घसूत्री लोग तो हाथ मलते हुए ही देखे जाते हैं।