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Books - व्यवस्था बुद्धि की गरिमा

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महत्त्वाकांक्षा, व्यवस्था बुद्धि की

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मनुष्य स्वभावतः महत्त्वाकांक्षी है। सुखोपभोग की इच्छा हर प्राणी में पाई जाती है। इसी हेतु वह अनेक प्रकार के क्रिया-कलापों में संलग्न रहता पाया जाता है। घटिया स्तर के व्यक्ति मात्र शरीरचर्या तक सीमित रहते हैं। वे अच्छे खाने, अच्छा पहनने, मनोरंजक दृश्य देखने, कामुकता की ललक संजोने में लगे रहते हैं। शृंगार सज्जा इसी के अंतर्गत आती है। इससे एक कदम आगे बढ़ने पर महत्त्वाकांक्षी के मन को उल्लसित करने वाले पक्ष सामने आ खड़े होते हैं। ठाठ-बाट, संपत्ति संग्रह, पदवीधारी, सत्ताधारी होने की इच्छाएं मनःक्षेत्र में ही उठती हैं। दूसरों से अधिक समर्थ संपन्न होने की अभिलाषा से प्रेरित होकर लोग अनेक प्रतिस्पर्द्धा में उतरते हैं और विजयी होने पर गर्व जताते हैं। चुनाव जीतने में लोकसेवा की भावना कम और अपने को विशिष्ट सिद्ध करने की आकांक्षा अधिक होती है। अखबारों में नाम छापने, समारोहों में प्रमुख पद पर आसीन होने, तीर्थयात्रा आदि के माध्यम से लोगों की दृष्टि में धर्मात्मा जंचने जैसे ताने-बाने इसीलिए बुने जाते हैं। विवाह-शादियां, प्रीतिभोजों में खर्चीली धूम-धाम खड़ी करने में भी अपनी संपन्नता का विज्ञापन करने का भाव ही प्रधान होता है। निर्वाह के साधन तो सरलतापूर्वक कम समय और कम परिश्रम में भी जुट सकते हैं, पर निरंतर व्यस्तता से ग्रसित रहने का प्रमुख कारण एक ही पाया जाता है—दूसरों की तुलना में अपनी विशिष्टता सिद्ध करना। इसी का सरंजाम जुटाने में जीवन का अधिकांश समय, श्रम एवं कौशल खप जाता है।

यह भुला दिया जाता है कि संसार में एक से बढ़कर एक बड़े आदमी भरे पड़े हैं। उनकी तुलना में भरपूर प्रयत्न करने पर भी कदाचित अपनी बढ़ी-चढ़ी सफलता भी नगण्य समझी जा सके। फिर उत्साह तभी तक रहता है जब तक कि इच्छित वस्तु या स्थिति प्राप्त नहीं हो जाती। उपलब्धि के कुछ क्षण ही पानी के बबूले जैसा उत्साह प्रदान करते हैं। इसके बाद तो जो मिलता है, उसका बोझ और दायित्व वहन करते रहना ही कठिन पड़ जाता है। विवाह से पूर्व जोड़ीदार के संबंध में परी लोक जैसी कल्पनाएं मस्तिष्क में ज्वार-भाटे की तरह उठती रहती हैं। पर जब कुछ ही दिन में गृहस्थी की भारी भरकम गाड़ी खींचने की बारी आती है, तब पता चलता है कि ललक ने सुविधा कम और झंझट बहुत भारी लाद दिया। जो पाया है, उसे बनाए रहना भी कठिन होता है। ईर्ष्यालु उठ खड़े होते हैं और छीनने या नीचा दिखाने की दुरभिसंधियां रचने लगते हैं। फिर जो हर्ष या यश मिला था वह भी थोड़े ही समय स्थिर रहता है। व्यस्तताग्रस्त दूसरे लोग तो उसे कब तक स्मरण रखे रहेंगे। स्वयं अपने को ही अपनी पिछली बातें याद नहीं रहतीं।

इन सब तथ्यों का गंभीर विवेचन करने वाले तत्त्वदर्शियों ने क्षुद्र महत्त्वाकांक्षाओं को हेय माना है। उनकी उपमा बाल कौतुक से दी है और कहा है कि जीवन को सार्थक बनाने वाले विचारशीलों को इस क्षुद्रता भरी भूल-भुलैया से बचना चाहिए। शक्ति गंवाने और बदले में मिथ्या अहंकार सिर पर लाद लेने में कोई बुद्धिमानी नहीं है। आकांक्षा से शक्ति उत्पन्न होती है और प्रयास में निरत रहने का उत्साह उभरता है। इस तथ्य को प्रगति की प्रारंभिक स्थिति के अनुरूप मानते हुए भी यह देखना चाहिए कि क्या इनकी अपेक्षा ऐसे महत्त्वपूर्ण निर्धारणों का चयन किया जा सकता है, जो आत्मसंतोष के साथ-साथ चिरकाल तक टिकने वाला श्रद्धा भरा लोक-सम्मान प्रदान कर सकें? इस प्रकार का चयन न कर पाने से ही लोग अजगर को खिलौना मानकर उसकी ओर लपकते और लाभ के स्थान पर भारी घाटे में रहते हैं।

उच्चस्तरीय महत्त्वाकांक्षा एक ही हो कि अपने को इस स्तर तक सुविकसित बनाया जाए कि दूसरों का मार्गदर्शन कर सकना संभव हो सके। यही सच्चा नेतृत्व है। अभिनेता स्तर के नेता क्षणिक उथली और सस्ती वाहवाही लूटकर अपना मन बहलाते हैं। इसके लिए जो प्रपंच रचने पड़ते हैं, उसी में अपनी बहुमूल्य क्षमता खप जाती है। यदि उसका सदुपयोग हुआ होता तो अपना और दूसरों का कल्याण कर सकने का ऐसा सुयोग बन पड़ता, जिसका अनुकरण अभिनंदन करते हुए लोग अपने को धन्य मानते रहते।

सेवा का प्रत्यक्ष पक्ष दीन-दुखियों की सेवा करना, पिछड़ों को ऊंचा उठाना, पीड़ितों की व्यथा पूछना, अभावग्रस्तों के लिए साधन जुटाना है। यह सभी कार्य उचित हैं और दया धर्म की अभिवृद्धि करते हैं। अपने निर्वाह की तरह दुखियारों को भी अपने सुख-साधनों में सहभागी बनाना मानवोचित कर्त्तव्य है। इसका निर्वाह हर सद्गृहस्थ को करना चाहिए।

इससे ऊंची दूसरी सेवा साधना है, जिसे धर्मधारणा कहा जाता है। इसका स्वरूप है, अव्यवस्था को व्यवस्था में और अनगढ़ता को कुसंस्कारिता में बदलने वाले मार्गदर्शन हेतु कटिबद्ध होना। यही सच्ची सेवा है। इसी पर वैयक्तिक और सामूहिक प्रगति  का आधार बनता है। लोग अभावों से जितने पीड़ित हैं, उसकी अपेक्षा कहीं अधिक इसलिए दुखी हैं कि वे प्रगति और शांति का मार्ग ढूंढ़ने और अपनाने का सुयोग प्राप्त न कर सके। इस अभाव की पूर्ति कर सकने वाले ही भौतिक एवं आध्यात्मिक अभ्युदय का राजमार्ग विनिर्मित करते हैं। साधु-ब्राह्मण, पुरोहित और लोक-सेवी इसीलिए जन-जन के श्रद्धा-भोजन बनते हैं कि उन्होंने अपने जीवन भर सर्व साधारण को अधिक उत्कर्ष के मार्ग पर चलाने का प्रयत्न किया और उसमें तत्परता बरतने के कारण सफलता भी पाई। ऐसे मार्गदर्शकों को ऋषिकल्प माना जाता है और उनकी गणना भूसुरों में—धरती के देवताओं में होती है।

किसी समय इसी समुदाय की बहुलता थी, फलतः सतयुगी वातावरण बना रहा। स्वल्प साधनों में ही लोग हिल−मिलकर रहते मिल-बांटकर खाते, स्नेह-सौजन्य बरतते एवं परिस्थितियों को स्वर्गोपम बनाते थे। यह भावना, विचारणा और क्रिया-कलाप का स्तर ऊंचा उठाने की ही परिणति थी  कि मनुष्य में देवत्व की झलक-झांकी का आभास मिलता रहा। आज की विषम परिस्थितियों में ऐसे मार्गदर्शकों की महती आवश्यकता अनुभव की जा रही है। उन्हीं के अभाव में सर्वत्र समस्याओं और विपत्तियों का सामना करना पड़ रहा है। अच्छा होता मनीषी वर्ग की प्रतिभाएं अपनी लेखनी, वाणी और आदर्शवादी जीवनचर्या के आधार पर पुरातन ब्राह्मण धर्म का परिपालन करतीं और पिछड़ेपन को सर्वतोमुखी प्रगतिशीलता में परिवर्तित कर सकतीं। इस समूची प्रक्रिया को सुसंस्कारिता का अभिवर्द्धन कह सकते हैं। धर्म और अध्यात्म का यही वास्तविक क्षेत्र भी है।

इस क्षेत्र में प्रवेश करने वालों को लोभ, लिप्सा और पारिवारिक मोह पर अंकुश रखने की तरह ही लोकैषणा से भी बचना चाहिए। नेता कहलाने के प्रलोभन में तथाकथित लोकसेवी आपस में बुरी तरह टकराते देखे गए हैं। इससे उस समूचे तंत्र के प्रति अश्रद्धा फैलती है, जिसकी सेवा करने की दुहाई उन लोगों द्वारा दी जाती है। सार्वजनिक संस्थाएं प्रायः इसी एक चट्टान से टकराकर टूटती और डूबती रही हैं, क्योंकि कितने ही महत्त्वाकांक्षी अपनी वरिष्ठता के लिए, अन्य साथियों को नीचे गिराने के लिए मल्लयुद्ध करते रहे। इस खतरे को ध्यान में रखते हुए लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व ही अपने आप को अति विनम्र बना लेना चाहिए। बड़प्पन का श्रेय दूसरे साथियों को देने और स्वयं को अकिंचन स्वयंसेवक मानते हुए परम पुरुषार्थ करने में निरत रहने की मनःस्थिति परिपक्व कर लेनी चाहिए। ऐसे लोग किसी भी पंक्ति में गिने जाते रहें, पर वे सबके मन-मस्तिष्क में राजहंस की तरह सम्मान पाते रहेंगे।

लौकिक क्षेत्र में व्यवस्थापक का पद सर्वोच्च है। अपना काम तो किसी प्रकार सभी निपटाते हैं, पर महत्त्वपूर्ण वे हैं जो सम्बद्ध तंत्र के हर पक्ष पर ध्यान रखते और उसकी व्यवस्था बनाते हैं। सरकारी काम-काल में जनरल मैनेजर का पद सर्वोपरि होता है। अंग्रेजी राज में भारत का सर्वोच्च अधिकारी गवर्नर जनरल कहा जाता था। गवर्नर का अर्थ है—‘व्यवस्थापक’ जो व्यवस्थित रहता और व्यवस्था बनाना जानता है। समझना चाहिए कि उसकी गरिमा एवं उपयोगिता ऊंचे दर्जे की है। कारखानों को, व्यवसायों को, समुदायों को, योजनाओं को ऐसे ही लोग सफल बनाते हैं।

जिन्हें छोटे या बड़े परिवार की सुव्यवस्था बनाकर सफलता के किनारे पर पहुंचाने की महत्त्वाकांक्षा हो, उन्हें सर्वप्रथम अपने आपको व्यवस्थित करना चाहिए। वाणी की मधुरता इस संदर्भ में प्रथम गुण है। मीठा बोलने वाले विरोधी प्रतिस्पर्द्धा का भी मन जीत लेते हैं, जबकि कटुवादी, कर्कश प्रकृति के अशिष्ट व्यक्ति बिना कुछ हानि पहुंचाये संपर्क में आने वालों के मन में अश्रद्धा उत्पन्न करते रहते हैं। उनके मित्र कम और शत्रु अधिक होते हैं। अधिकतर तो लोग उनसे बचते ही रहते हैं।

मधुर बोलने का अर्थ चापलूसी नहीं है और न यह है कि ऐसा कुछ कहा जाए जो वास्तविक नहीं है। जो सहयोग अपने से न बन पड़े उसके लिए झूठे आश्वासन देते समय तो अच्छा लगता है, पर पीछे जब उपेक्षा बरतते देखी जाती है, तो फिर मिथ्याचारी होने का लांछन लगता है। अस्तु, मधुरता के साथ स्पष्टवादिता भी जुड़ी रहनी चाहिए। यह शिष्ट भाषा में शालीनता का निर्वाह करते हुए, हंसते-मुस्कराते अपनी विवशता स्पष्ट करते हुए इस प्रकार कहा जा सकता है कि दूसरा बुरा माने बिना वस्तुस्थिति को समझ ले। वाणी की सुसंस्कारिता का स्वरूप इसी प्रकार बनता है।

अपने समय का नियोजन व्यवस्थापक की दूसरी विशेषता है। जो समय का विभाजन ठीक तरह नहीं कर पाता, अस्त व्यस्तता के बीच अपनी दिनचर्या गुजारता है, उसके लिए दूसरे साथियों को वैसा उपदेश देने पर उचित प्रभाव नहीं पड़ता। अनुशासन के अनेक पक्ष हैं। उन्हें नियमितता भी कह सकते हैं और लगन या जिम्मेदारी का निर्वाह भी। इसी प्रकार स्वयं व्यवस्थित रहने वाले के साथी भी संचालक की प्रकृति, मनोरथ, मर्जी, अपेक्षा सभी समझ जाते हैं और तदनुरूप आचरण स्वेच्छापूर्वक करने लगते हैं।

उचित रीति से काम न होने या व्यवहार में गैर-जिम्मेदारी बरते जाने पर अप्रसन्नता होना स्वाभाविक है। पर उसे इस प्रकार व्यक्त नहीं करना चाहिए कि गलती करने वाला शरमाकर उसे सुधारने की अपेक्षा, कटुता को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना ले और अधिक उद्दण्डता पर उतरे। इसमें तो दूनी हानि है। अच्छा हो उसके पिछले अच्छे कार्यों की कुछ चर्चा करते हुए इस प्रकार की भूल किए जाने पर आश्चर्य भर प्रकट किया जाय और उसे शर्माने-सुधरने की क्षतिपूर्ति करने का अवसर मिल जाता है।

अति घनिष्ठता और अतिशत्रुता के दोनों ही अतिवाद किसी व्यवस्थापक के स्वभाव में नहीं होने चाहिए। मध्यवर्ती व्यवहार से ही वास्तविकता निभती है। अवांछनीय दबाव डालने की स्थिति तभी आती है, जब मध्यवर्ती सौजन्य से हटकर व्यवहार में अतिवाद का छिछोरापन भर लिया जाए। इस भूल को न करने पर अनेकों असमंजस भरे क्षण आने से सहज बचा जा सकता है। स्वयं और साथियों को तनाव मुक्त रहने, रखने की आदत बनाना भी बड़प्पन है। तनिक सी प्रतिकूलता में खिन्न-उद्विग्न हो जाने और तनिक सी सफलता में शेखी बघारने लगने की आदतें बहुत बुरी हैं। गंभीर लोग आमतौर से हर स्थिति में संतुलन बनाए रखते हैं। मुस्कराते रहने की मुद्रा बनाए रहते हैं। ऐसी संतुलित मनःस्थिति में ही प्रतिकूलता से निपटने और अनुकूलता लाने के लिए नया प्रयत्न करने की सूझ उभरती है। आवेशग्रस्त तो आपा खो बैठने पर दुहरी मुसीबत खड़ी कर लेते हैं।

कमजोरियों और खराबियों को सहन न करने की नीति अपनाई जानी चाहिए। उनके बारे में अपनी सहमति वाली प्रतिक्रिया व्यक्त करने में चूकना नहीं चाहिए। गलतियों से असहमति के प्रति आरंभिक उपेक्षा बरतने पर, उन्हें दूसरे लोग अपना अधिकार मानने लगते हैं और अभ्यस्त हो जाने पर उन्हें छोड़ने में अपने साथ अन्याय हुआ समझने लगते हैं। ऐसे उदाहरण भी देने लगते हैं कि अमुक की गलतियां सहन की गईं और हमें धमकाया गया। ऐसे अवसर नहीं आने पाएं, इसलिए उत्साहीजनों की प्रशंसा करने और लापरवाही बरतने वालों को रोकने का क्रम जारी रखना चाहिए। इस सुधार-परिष्कार का क्रम समय के अनुरूप बनाए रखना हर व्यवस्थापक के लिए आवश्यक होता है। योग अपनापन, सौहार्द्र, सौजन्य हर किसी के साथ बरते जाने का उपक्रम रहना चाहिए। इससे पिछली कहा-सुनी को लोग भुला देते हैं और सद्भावना की छाप बनाए रहने पर वफादार बने रहते हैं।

मनुष्यों के बीच खाई प्रायः गलतफहमियों के कारण खुदती है। वास्तविक कारण कम और काल्पनिक भ्रम अधिक गड़बड़ी फैलाते हैं। इसलिए होना यह चाहिए कि जहां भी, जिनके बीच भी, जब गलतफहमी पनप रही हो, तभी उसे आमने-सामने या बिचौलियों की मारुत निरस्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। गलतफहमियां पैदा न होने पाएं, न पनपे, न बढ़ें, इसके लिए हर व्यवस्था बुद्धि को, संपर्क के लोगों को वस्तुस्थिति से अवगत कराते रहने का प्रयत्न करना चाहिए। अधिक जिम्मेदारी और अधिक वफादारी रखे रहने पर व्यक्ति किस प्रकार आगे बढ़ता और नफे में रहता है, यह तथ्य यदि परिवार के लोगों को हृदयंगम कराया जाता है, तो वे भटकाने वालों के चंगुल में फंसने से बचे रहते हैं।

प्रतिकूलताएं आती हैं और प्रतिकूल व्यवहार लोग करते ही रहते हैं। इतने पर भी उनसे अपने चिंतन को प्रभावित नहीं होने देना चाहिए। अपना चिंतन सदा सकारात्मक रहना चाहिए। सोचना यही चाहिए कि बिगड़ी को बनाया कैसे जाए? क्षति की पूर्ति कैसे हो? खाई किस प्रकार पटे? खोया सद्भाव कैसे वापस लौटे? इसके लिए धैर्य रखना और समय पर उचित उपक्रम अपनाया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं कि अनीति के आगे झुका और तुष्टिकरण की नीति अपनाकर अवांछनीय तत्त्वों को हौसला बढ़ाया जाए, वरन् यह है कि विद्वेष के कारण अपना चिंतन नकारात्मक, निषेधात्मक एवं आक्रामक न होने लगे। ईर्ष्या, प्रतिशोध, प्रत्याक्रमण की नीति अपनाने में बहादुरी तो अवश्य प्रतीत होती है, पर उसके कारण एक ऐसा कुचक्र चल पड़ता है, जिसमें शक्ति का अपव्यय ही होता है और जो किया जा सकता था, वह न बन पड़ने के कारण अंततः विजयी होने पर भी पराजित होने जैसा प्रतिफल सामने आता है। व्यवस्थापक को पहले अपनी व्यवस्था बनानी चाहिए, ताकि दूसरे व्यक्तियों तथा कार्यों को भी ठीक तरह संभाल सकना संभव हो सके। यही व्यवस्था बुद्धि की सच्ची परख है।

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