
बुद्धि की तीक्ष्णता और सक्रियता को पैनी रखें
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अगणित विशेषताओं से युक्त मानवी कायकलेवर की उपलब्धि ईश्वर की देन है। इसे संजोना, संभालना उपलब्धकर्त्ता का अपना काम है। कोई चाहे तो निर्वस्त्र रहकर पागलों की तरह उपहासास्पद स्थिति में भी बना रह सकता है। किसी में शऊर हो तो उसी काया को परिधान आच्छादनों से शृंगारित, सुसज्जित करके मन मोहक बनाया जा सकता है। यह अपनी मर्जी और सम्मान का विषय है। भगवान ने मानव की बुद्धिमत्ता और पात्रता को इसी कसौटी पर परखा है कि वह दिए गए अनुदान का उपयोग करने में अपनी कुशलता और प्रगतिशीलता का परिचय दे सकता है या नहीं? प्रभावी प्रगति या अवगति की संभावना इसी कसौटी पर कसे जाने के उपरांत बन पड़ती है।
आलस्य मनुष्य का प्रथम शत्रु है। शरीर को वह सजीव होते हुए भी निर्जीव स्तर का बनाकर रख देता है। जब स्फूर्ति, उत्साह और परिश्रम को अपनाया ही न जाएगा, तो काया स्वयं ही दौड़ती और कुछ उपयोगी करती रह सके, ऐसा कहां बन पड़ेगा? सभी व्यक्ति न अपनी कमी खोज पाते हैं और न उसमें सुधार करने का कुछ प्रयास करते हैं। फलतः दिन ज्यों-त्यों करके गुजरते रहते हैं, शरीर यात्रा किसी प्रकार चलती रहती है, किंतु निरंतर श्रमरत न रहने की कुटेव उनके लिए कोई ऐसी उपलब्धि नहीं बुला सकती, जिसके आधार पर समुन्नत कहलाने का श्रेय मिल सके। जब आलस्य शरीर से आगे बढ़कर मन तक पर सवार हो जाता है, तब उसे प्रमाद कहते हैं। प्रमादी को न अवगति अखरती है और न उन्नति के लिए उमंग उठती है। यथास्थिति बने रहने में ही उसका चिंतन सिकुड़ जाता है। न उसे सीखने की इच्छा होती है और न ऐसी योजना बनाने की जिसके आधार पर आज की तुलना में आने वाला अगला कल अधिक समर्थ और समुन्नत बन सके। ऐसे लोगों को जब कभी दीनता-हीनता का आभास होता है तो किन्हीं अन्य को कारण मानकर उसी पर दोषारोपण करने लगते हैं। भाग्य, विधि-विधान, ईश्वर की इच्छा, समय का फेर, ग्रह नक्षत्र द्वारा उत्पन्न किए गए अवरोधों की बात सोचकर संतोष कर लिया जाता है। बहुत हुआ तो शासन, समाज, वातावरण, कलियुग या किन्हीं व्यक्ति को दोषी मानकर उसके प्रति बैर भाव जमा लिया जाता है। आलसी और प्रमादी प्रायः इसी अवसाद एवं अचिंत्य चिंतन में घिरे रहकर किसी प्रकार जिंदगी के दिन पूरे कर लेते हैं।
इसके बाद विकृत मस्तिष्क के लोगों की बड़ी संख्या सामने आती है। उन पर दुर्भाग्य या आक्रोध छाया रहता है। असंतोषजन्य खीझ जीवनक्रम को असाधारण रूप से प्रभावित करती है। शत्रुओं की संख्या अनायास ही बढ़ती है, या फिर वे किसी प्रसंग पर चिढ़कर कुछ छेड़खानी आरंभ करते हैं। आक्रमण-प्रत्याक्रमण का कुचक्र चल पड़ता है। विचारणा इसी जंजाल में उलझ जाती है। योजनाएं इसी परिधि में बनती रहती हैं। ऐसी दशा में यह सोचने या सूझने की गुंजाइश ही नहीं रहती कि प्रगति के लिए क्या किया जा सकता है और उसे किस प्रकार संपन्न करना चाहिए। घृणा और आक्रोश, कितनों की ही बहूमूल्य शक्तियों का विघटन और विनाश करने या उससे बचने में ही उलझाए रहता है।
ऐसा ही एक और भी भारी व्यवधान है, जो मनुष्य की आधी से अधिक शक्तियों का अपहरण कर लेता है। उसका नाम है लिप्सा-लालसा, जो कभी तृप्त होने का नाम ही नहीं लेती। कामुकता का यौनाचार स्वरूप तो स्वल्प है। उसे तो कुछ क्षणों में ही तृप्ति मिल जाती है, पर उसका चिंतनपरक अश्लील कलेवर ऐसा है जो मस्तिष्क पर कल्पनाओं के रूप में समय-कुसमय छाया ही रहता है और महत्वपूर्ण चिंतन को कुछ करने के लिए अवकाश ही नहीं देता। धन की ललक भी ऐसी ही है। उसका कितना ही संग्रह क्यों न बन पड़े, पर तृष्णा कितना ही मिलने पर भी बलवती बनी रहती है। ठीक उसी प्रकार महत्त्वाकांक्षाओं का समुच्चय है जो बड़प्पन प्रदर्शन, अधिक अधिकार के द्वारा अपने को अधिक प्रतापी बनाने के लिए उद्वेग स्तर पर छाया रहता है। न दिन चैन पड़ता है और न रात। चुनाव के दिनों में प्रत्याशियों को किस प्रकार पापड़ बेलने पड़ते हैं, इसे सभी ने देखा होगा।
यह आवेशग्रस्त मनःस्थितियां हैं। वे चिंता, निराशा, आशंका, भय, क्रोध, आवेश, तनाव आदि के रूप में हैं तो कितने ही प्रकार की, पर उनमें से चार प्रमुख हैं। (1) बैर भावना, (2) कामुकता, (3) तृष्णा, (4) बड़प्पन की असीम महत्वाकांक्षा। इसका अनुपात जितना बढ़ा-चढ़ा होगा, मनुष्य उसी अनुपात में नशेबाजों जैसी खुमारी से ग्रस्त रहेगा। मन पर बुखार चढ़ा रहेगा और शरीर ऐसा अशक्त दीख पड़ेगा, मानो लंघन में पड़ा हुआ रोगी हो। आलसी-प्रमादी, पक्षाघात पीड़ित-अपंगों की तरह एक प्रकार से किसी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि की दृष्टि से अशक्त-असमर्थ ही माने जाते हैं। उस पर स्वार्थ, लोलुपता, कामुकता, बेतुकी महत्त्वाकांक्षाओं की तिजारी चढ़ बैठे, तो समझना चाहिए कि दुहरा संकट सवार हो गया। वे अपने जीवनक्रम को ही सुव्यवस्थित न रख सकेंगे, फिर उच्चस्तरीय प्रगति की योजना बनाना तथा लोकमंगल के क्षेत्र में प्रवेश करके, कोई कहने लायक श्रेय साधन अर्जित कर सकना तो और भी अधिक कठिन पड़ेगा। इन आधि-व्याधियों से छुटकारा पाने का उपाय एक ही है कि जो अवसाद-आवेश, शरीर और मन पर छाए रहते हैं, उन्हें उतार फेंका जाए और संतुलन इस प्रकार बनाया जाए कि गहराई में उतर सकना, गंभीरतापूर्वक विचार कर सकना, समस्याओं का समाधान खोज सकना संभव हो सके। प्रगति का मार्ग ऐसी ही मनःस्थिति में खोजा और अपनाया जा सकता है।
शारीरिक, मानसिक विशेषताओं वाले, स्रष्टा के अनुदानों का सही प्रकार सही उपयोग बन सके, इसके लिए चिंतन को सदा हलका-फुलका बनाए रखने की आवश्यकता है। उसे सदा तीक्ष्ण बनाने और क्रियाशील रखने की आवश्यकता है। संयम अपनाने, सूझ-बूझ उभारने और दूरवर्ती परिणामों को ध्यान में रखते हुए जागरूकता बनाए रहने की आवश्यकता है। इसी मनःस्थिति को प्रतिभा कहते हैं। प्रस्तुत आधारों के अनेक पक्षों पर विचार करने के साथ ही अपनी तथा दूसरों की गतिविधियों का निर्धारण सुव्यवस्था के आधार पर बनाए रहना प्रतिभावानों के लिए संभव होता है। प्रमादी तो आरंभ का कुछ कार्य करते और शेष को फिर कभी के लिए किसी और की ओर खिसका देने के लिए अधूरा छोड़ देते हैं। फलतः वह आरंभ किया गया थोड़ा सा काम भी उपहास और तिरस्कार का निमित्त बनता है। जिम्मेदार व्यक्ति जिस कार्य को भी हाथ में लेते हैं, उसे पूरी तरह संजोते हैं और आरंभ का उत्साह अंत तक बनाए रहकर, समग्रता का—कुशलता का प्रमाण देकर, अपनी जिम्मेदारी का परिचय देते हैं।
प्रतिभा निखारने के लिए जिस सूक्ष्म दृष्टि को अपनाना पड़ता है, उसका आरंभिक अभ्यास निरंतर बनी रहने वाली दो समस्याओं के साथ जोड़ा जाना चाहिए। शरीर से लंबे समय तक महत्त्वपूर्ण काम लेने हैं, इसलिए इस मशीन को इस प्रकार चलाया जाए कि उसमें न कहीं अड़चन खड़ी हो और न गतिशीलता में न्यूनता ही पड़े। इसके लिए इतनी सतर्कता भर से काम चल जाता है कि उसके आहार, विश्राम एवं क्रिया-कलाप को सही संतुलित रखा जाए। स्वस्थता की गारंटी, इन तीन प्रयोजनों को सही रखने तक से चल जाती है। प्रतिभा का प्रथम चरण, स्वास्थ्य संरक्षण की सफलता को महत्त्व देकर जगाया जा सकता है। अगली सीढ़ी है चिंतन को गड़बड़ाने न देना। अवसादग्रस्त या उत्तेजित न होकर, शांत चित्त रहने पर ही सही निष्कर्ष निकालना और निर्धारण करना संभव होता है। जब तक कार्य की सुसंतुलित रूप रेखा न बने, तब तक उसको उस रूप में संपन्न नहीं किया जा सकता कि करने वाले की गरिमा एवं दक्षता बढ़ी-चढ़ी समझी जा सके। अच्छी तरह किए गए काम ही सफल होते तथा अपनी विशिष्टता का परिचय देकर प्रशंसा का पात्र बनते हैं।
शरीर और मन की व्यवस्था बना लेना, बाह्य जीवन या बाह्य संसार की सफलता का पूर्वार्द्ध पूरा कर लेना है। यह दोनों हर घड़ी साथ रहते हैं। अवसर मिलते ही इन्हें टटोलने और सुधारने के क्रम निर्धारित किए जाते रह सकते हैं। अनुशासन की साधना और गतिविधियों का निर्धारण, इन दो माध्यमों के सहारे बुद्धि की तीव्रता विकसित की जाती रहे तो समझना चाहिए कि उसकी तीक्ष्णता कुछ ही समय में इतनी बढ़ी-चढ़ी स्थिति अपना लेगी, जिसके सहारे उलझनों को सुलझाना और श्रेयस्कर दिशा धारा अपना सकना संभव हो सके।
नित्य कर्म तथा दैनिक क्रिया-कलाप से जोड़ने वाली वस्तुओं को साफ-सुथरा, सुनियोजित व्यवस्थित रखना तीसरा काम है, जिसके सहारे सुव्यवस्थित बुद्धि के विकसित होने का प्रमाण मिलता है। कपड़ों का साफ-सुथरा होना तथा तरीके से पहना जाना इस बात का प्रमाण है कि व्यवस्था बुद्धि ठीक तरह काम करने की दिशा में चल पड़ी है। कागज, पुस्तकें, हजामत बनाने के सामान, जूते-चप्पल, बिस्तर, बरतन, साबुन आदि ऐसी अनेक वस्तुएं होती हैं, जो दैनिक जीवन में आमतौर से काम आती रहती हैं। इनकी स्थिति अस्त-व्यस्त न रहे, तो देखने वालों को जागरूकता के स्तर का पता चलता है। इसके एक कदम आगे घर, दफ्तर, फर्नीचर आदि का नंबर आता है। उन्हें टूटी-फूटी स्थिति में नहीं रहना चाहिए, अस्त-व्यस्त भी नहीं। सही जगह पर सही रीति से रखी हुई वस्तु सज्जा कहलाती है। यदि उसी को अस्त-व्यस्त ढंग से बिखरा दिया जाए तो फिर समझना चाहिए कि वस्तुतः वे अपनी मूक भाषा में हर दर्शक के कान में चुगली करती हैं—‘जो हमारी और हम जैसी सदा काम आने वाली वस्तुओं की साज-संभाल नहीं कर सकता, उसकी जिम्मेदारी, तत्परता और सफलता पर विश्वास कोई किस प्रकार कर सकता है?’
गंदगी और टूट-फूट पर हर घड़ी ध्यान रखा जाना चाहिए। वस्तुएं साफ करने तथा सही स्थिति में रखने के लिए तुरंत प्रयत्न होना चाहिए। ऐसे काम प्रायः नौकरों पर या घर के दूसरे लोगों पर छोड़ दिए जाते हैं। समय काटने के नाम पर यह सब होता रहता है। ऐसी टाल-मटोल करने वाले अपने स्वभाव और कौशल में जो तीक्ष्णता का समावेश कर सकते थे, उस लाभ का अनुमान लगाना भूल जाते हैं। प्रश्न यह नहीं कि दूसरों के कंधों पर खिसकाया गया काम कम महत्त्व का था या अधिक मूल्यवान। दूसरों की ओर खिसकाए गए काम के संबंध में यह आशा नहीं की जा सकती कि वह सही समय पर सही रीति से संपन्न हो जाएगा। जो अनख-आलस स्वयं अपनाया गया है, उसे सहयोगी लोग क्यों न अपनाएंगे? इस प्रकार व्यवस्थाओं के अनेक छोटे-मोटे कामों में औरों को फंसाने और स्वयं निश्चिंत हो जाने की आदत ऐसी है, जो प्रतिभा के विकास एवं व्यवस्था बुद्धि के परिष्कार में बहुत बड़ी अड़चन उत्पन्न करती रहती है।