
अपनों को उत्कृष्टता के ढांचे में भी ढाला जाय
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
समाज को अनेक वस्तुओं की आवश्यकता रहती है और उसकी पूर्ति के लिए बहुमुखी चेष्टाएं होती रहती हैं। इस प्रयास में उतना और जुड़ना चाहिए कि परिष्कृत व्यक्तित्वों का निर्माण सर्वोपरि है। उन्हीं के पास वैयक्तिक और सामूहिक प्रयोजनों को पूरा कर सकने की क्षमता एवं साहसिकता होती है। शेष लोग तो खरचने और बरबाद करने में ही लगे रहते हैं। वे उत्कर्ष के स्थान पर अपकर्ष खड़ा करने में ही अपने स्वभाव और प्रयास को निरर्थक करते रहते हैं। इनके द्वारा खोदी गई खाई को भी वे प्रतिभाएं ही भरती हैं, जिनका व्यक्तित्व उस स्तर की विशेषता से संपन्न होता है। इन्हीं का उपार्जन देश-समाज की महती आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रमुख उपाय है।
प्रगति किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो, उसे प्रतिभाशाली लोग ही संपन्न करते हैं; यहां तक कि हेय दुरभिसंधियां रच सकना भी उन्हीं से बन पड़ता है, फिर श्रेष्ठता की दिशा में बढ़ सकना तो उनके बिना बन ही कैसे पड़े? सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रसंग यही है। इतिहास में जिन्होंने भी कुछ अविस्मरणीय काम किये हैं, उन सभी में ऐसी प्रतिभा विद्यमान थी, जिसमें सज्जनता का समुचित समावेश रहा। इसी प्रयोजन में अभिभावकों और अध्यापकों की सबसे बड़ी भूमिका रहती है। क्योंकि उठती उम्र उन्हीं के संरक्षण में गुजरती है। हरी लकड़ी को किसी भी दिशा में मोड़ा जा सकता है। गीली मिट्टी से किसी भी प्रकार के बरतन या खिलौने बन सकते हैं; किंतु सूखी लकड़ी या मिट्टी जैसी भी कुछ है, वैसी ही बनी रहती है, टूट जाती है पर बदलती नहीं। यही बात मनुष्यों के संबंध में भी लागू होती है। तरुण हो जाने के उपरांत प्रायः कम ही लोग सुधर पाते हैं।
परिवार की तरह विद्यालय भी सामूहिकता के साथ जुड़े हुए सद्गुणों के विकास का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचीनकाल में बालकों को गुरुकुलों में पढ़ाने के लिए इसी दृष्टि से भेजा जाता था कि वहां की पारिवारिकता उच्चकोटि की रहने से उसमें रहकर छात्रों को व्यक्तित्व-विकास का समुचित आधार मिल सके। वहां अभिभावक की भूमिका अध्यापक निभाते थे। माता का दुलार संरक्षण एवं समर्थन उन्हें गुरुपत्नी से मिल जाता था। ऐसी दशा में छात्रों को घर छोड़ने का अभाव खटकता नहीं था।
इन दिनों शिक्षा प्रणाली की उस समग्रता में बहुत कुछ कमी रह जाती है। सरकार द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम पूरा करके, किसी प्रकार पास होना ही एक मात्र लक्ष्य रह जाता है। अध्यापक और छात्र इतने भर से ही अपने स्कूली कर्त्तव्य की पूर्ति मान लेते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि अभिभावकों की कमियों को अध्यापक पूरा करें। इतना ही नहीं, सद्भाव भरा संबंध दोनों पक्षों में इस स्तर का बना रहे कि व्यक्तित्व विकास संबंध परामर्श अध्यापकों द्वारा दिये जाने पर छात्र उसे अपना सकें।
पाठ्य-पुस्तकों की पढ़ाई आवश्यक तो है, पर समझना चाहिए कि इतना ही पर्याप्त नहीं। उठती आयु ही प्रवृत्तियों को अपनाने की अवधि होती है। बड़े होने पर तो जो आदतें अपना ली जाती हैं, वे ही परिपक्व होती रहती हैं। उनमें सुधार करना कठिन पड़ता है। बचपन और किशोरावस्था में शरीर यात्रा के उपरांत का अधिकांश समय स्कूली परिसर में ही बीतता है। वहां अध्यापक वर्ग आमतौर से अभिभावकों की तुलना में अधिक योग्य भी होता है। इसलिए आशा की जाती है कि उनके संपर्क में शिक्षार्थी न केवल पढ़ाई अच्छी तरह पूरी करेंगे, वरन् उन सद्गुणों का अभ्यास भी करेंगे, जो घन की तुलना में स्कूलों के सहकारी वातावरण में अधिक अच्छी तरह उपलब्ध हो सकता है। अध्यापक यदि इस ओर भी ध्यान दें और सच्चे मन से प्रयत्न करें तो अभिभावकों की कमी को इन विद्या मंदिरों में पूरा किया जा सकता है। शिक्षा की समग्रता इसी प्रकार बनती है, अन्यथा उसे मात्र पढ़ाई का शिल्प-शिक्षण भर कहा जा सकता है।
कारीगरों के साथ रहकर श्रमिक जिस प्रकार उस विषय की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं, यदि उतना ही स्कूलों में भी बन पड़ा तो समझना चाहिए कि गुरु-शिष्य परंपरा की गरिमा समाप्त हो गई। पढ़ाई तो घर रहकर भी की जा सकती है। ट्यूटर लगाकर या पत्राचार उपक्रम के सहारे भी पूरी की जा सकती है। स्कूलों की उपयोगिता तभी बनती है, जब वहां छात्रों को अपने व्यक्तित्व विकास का भी समुचित अवसर मिलता रहे। यह कार्य पढ़ाई जारी रहने के साथ भी चलता रह सकता है। इसके लिए छात्रों की उत्सुक जिज्ञासा और अध्यापकों की गुरु गरिमा को सजीव-सक्रिय बनाए रखने की अत्यंत आवश्यकता है। भले ही इसके लिए सरकारी अनिवार्यता न हो, पर उस पर कोई रोक भी तो नहीं है। अच्छाई सीखने और सिखाने के प्रयत्न तो सदा सराहे ही जाते हैं। इसमें छात्रों का हित होता है, अध्यापक की गरिमा बढ़ती है, अभिभावक इस सुयोग के लिए कृतज्ञ रहते हैं। समाज यह अनुभव करता है कि राष्ट्र को सुयोग्य नागरिक प्रदान करने की महती सेवा-साधना शिक्षण तंत्र द्वारा संपन्न की गई।
कारखानों में मशीनें, श्रमिक और अफसर काम करते हैं। उनके हर पक्ष की साज-संभाल किए रहने वाले को ही मैनेजर कहते हैं। वह यह भी प्रयत्न करते हैं कि बने माल को खपाने के लिए ग्राहकों को संतुष्ट रखने की व्यवस्था भी बनी रहे। कर्मचारियों को कर्त्तव्यनिष्ठ तथा कार्यकुशल बनाए रखना भी उनका दायित्व होता है। उसकी प्रतिष्ठा एवं पदोन्नति भी इसी पर निर्भर है। यही बात परिवार संचालन एवं स्कूली अध्ययन-अध्यापन पर लागू होती है। उस तंत्र का सुसंचालन ही उसकी सर्वतोमुखी सफलता का आधार है। प्रबंधक बुद्धि यों आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक कार्यों में भी इतनी ही अभीष्ट समझी जाती है, पर तब उसकी जिम्मेदारी और भी अधिक बढ़ जाती है, जब मनुष्य को अधिक शिष्ट, सभ्य और आदर्शवादी बनाने का लक्ष्य सामने हो। सरकस के प्रशिक्षकों को इसलिए अधिक सराहा जाता है कि वे अनगढ़ ही नहीं, खूंखार जानवरों को भी कलाकारों जैसे कौतुक करने के लिए अभ्यस्त बना लेते हैं। पारिवारिक वातावरण एवं स्कूल परिकर की सार्थकता-प्रतिष्ठा तब ही है, जबकि अनगढ़ स्तर के समुदाय को सुसंस्कारी बनाने में इस स्तर तक सफल हो सकें कि उनके माध्यम से प्रतिभाओं का निर्माण हो।
अभिभावक बच्चों को हंसाने, खिलाने, सजाने जैसे कृत्यों में ही लगे रहते हैं। उन्हें यह नहीं सूझता कि आंगन में खेलने वाले बालकों को यदि सुसंस्कारिता के सांचे में ढाला जा सके, तो वे अपनी गरिमा बढ़ाने और दूसरों की असाधारण सेवा साधना कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। इसके लिए केवल हंसाने-खिलाने के कौतुक काम नहीं देते, वरन् उनकी प्रवृत्तियों का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करते हुए, उनमें उत्कृष्टता के बीज सावधानीपूर्वक बोए जाने चाहिए। यह कार्य उथली दृष्टि से नहीं हो जाता, वरन् उसी प्रकार करना होता है जिस प्रकार स्वर्णकार सोने की डेली को अपने हस्त–कौशल के सहारे आकर्षक आभूषणों के रूप में गढ़कर यशस्वी एवं लाभान्वित होता है। बालकों के संबंध में भी यही नीति अपनाई जानी चाहिए।
अध्यापकों का काम भी इससे कम गंभीर एवं कम जटिल नहीं है। मोटेतौर पर निर्धारित पाठ्यक्रम को पूरा करा देना ही उनका काम माना जाता है। छात्र भी उतने से ही संतुष्ट हो जाते हैं और अभिभावक इससे अधिक आशा−अपेक्षा नहीं करते। यह शिथिलता उपेक्षा एवं अपूर्णता, तीनों ही पक्षों पर लांछन लगाती है और छात्र के भविष्य तथा समाज के प्रति कर्त्तव्यपालन में एक बाधा बनकर अड़ी रहती है। अच्छे श्रेणी से पास होने और अच्छी-अच्छी नौकरी पा लेने भर से उसकी उपयोगिता सिद्ध नहीं हो सकती। कमाई की दृष्टि से तो कई बहुत कम पढ़े व्यवसायी भी उनसे कहीं अधिक कमा लेते हैं। शिक्षा की सार्थकता तब बनती है, जब उसकी छत्रछाया में अधिक सुसंस्कृत, अधिक प्रतिभावान एवं अधिक क्रिया कुशल व्यक्तित्व का निर्माण हो। इसके लिए उपयुक्त वातावरण बनाना अध्यापक तंत्र का कर्तव्य है।
सामूहिक उपदेश देने भर से बात नहीं बनती, वरन् यह भी आवश्यक हो जाता है कि प्रत्येक छात्र की मनःस्थिति एवं रुझान प्रवाह पर भी ध्यान दिया जाय। उसके साथ आत्मीयता का संबंध सूत्र जोड़ा जाय और परिस्थितियों के अनुरूप, ऐसा ज्ञान देते रहा जाय, जिससे भटकाव से बचना और प्रगतिपथ पर सही रूप से चल सकना संभव हो सके। इसके लिए मार्गदर्शक का निज का व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिए, जो न केवल ज्ञान की दृष्ट से वरन् चरित्र की दृष्टि से भी प्रभाव छोड़ने में समर्थ हो। जिन विद्यालयों के छात्र न केवल बुद्धिमान, वरन् चरित्रनिष्ठ एवं समाजनिष्ठ बनकर निकलें, समझना चाहिए कि शिक्षा को सार्थक करने वाली विशिष्टता बन पड़ी। हर शिक्षक, हर विद्यालय इन विशेषताओं को उत्पन्न करने के लिए प्राण-प्रण से प्रयत्न करे तभी उसका गौरव है।
+++++++++++++++++++++++++
उद्योग व्यवसाय के क्षेत्र में भी कारखानों, दफ्तरों के अंतर्गत बड़ी जनसंख्या काम करती है। यदि वहां श्रमिकों को रोटी और मालिकों को रोजी भर मिल सकी, तो समझना चाहिए कि वहां शरीर रक्षा के काम आने वाले निर्वाह भर की व्यवस्था है। इतना ही पर्याप्त नहीं, होना यह भी चाहिए कि जितने व्यक्ति जिस परिकर में काम करते हैं, उन्हें जीवन के हर क्षेत्र में कर्त्तव्यपरायण होने की शिक्षा प्रेरणा भी मिलती रहे। वे न केवल कारखाने के प्रति निष्ठावान रहें, वरन् अपने निजी जीवन में भी क्रियाकुशल, सुव्यवस्थित एवं नीतिवान बनकर रहें। राष्ट्रीय प्रगति का वास्तविक आधार उत्पादन भर बढ़ा लेना नहीं है, वरन् यह भी है कि नागरिकों में आदर्शवाद के प्रति निष्ठा और समाज में सद्भाव बनाए रहने वाली शालीनता अपनाये रहने की लोकरुचि समुन्नत स्तर की बनी रहे। ऐसा प्रशिक्षण एवं वातावरण भी उन सभी परिसरों में होना चाहिए, जहां अनेक लोग एकत्रित होते हैं। भले ही वे रोटी पाने के लिए आते हो, पर उन्हें वहां से वेतनों के अतिरिक्त ऐसा उत्साह भी साथ लेकर लौटना चाहिए जो निजी जीवन को मानवी मर्यादाओं के अनुरूप विकसित कर सके और अपने संबद्ध क्षेत्र में श्रेष्ठता की छाप छोड़ सके। जहां प्रत्यक्ष प्रयोजनों के लिए कार्यक्रम बनते हैं, वहीं एक कड़ी यह भी जुड़ी रहनी चाहिए कि बिना किसी दबाव के जुड़े हुए घटक सिद्धान्तवादी और कर्त्तव्यपरायण बन सकें। इस व्यवस्था के बन पड़ने पर वे दफ्तर एवं कारखाने सराहने योग्य बन सकते हैं, जहां अभीष्ट उत्पादन ही नहीं होता वरन् लोगों को चरित्रों की उत्कृष्टता के ढांचे में ढाला जाता है।
कामगार अधिक सुविधा चाहते हैं और मालिक अपने लाभांश अथवा निर्धारण की पूर्तिभर से संतुष्ट हो जाते हैं। होना यह भी चाहिए कि जैसे सेना में युद्ध कौशल की तरह ही अनुशासन, देश-भक्ति एवं कर्त्तव्यपालन सिखाने के लिए प्रयत्न किया जाता है, वैसा ही व्यक्तित्व को विकसित करने वाली प्रेरणा उन सभी संस्थाओं में संचरित हो, जो छात्रों या व्यक्तियों को अपने साथ जोड़कर रखती है।