
व्यवस्था बुद्धि के विकास के मूलभूत आधार
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आत्मविस्तार के क्रम में प्रथम शरीर, द्वितीय चिंतन, तीसरे उपयोग में आने वाले साधनों की बारी आती है। इन तीनों के आधार पर लोग बड़े काम संपन्न करते हैं। यही गुण-कर्म-स्वभाव में परिलक्षित होते हैं।
गुण-कर्म-स्वभाव को सुसंस्कृत बना लेना ऐसी, बड़ी जादुई सफलता है, जिसके सहारे शत्रुता बरतने वालों को ठंडा और अन्यमनस्क लोगों को मित्रों में परिणत किया जा सकता है। दुर्गुणी व्यक्ति अपने समर्थक, प्रशंसक, सहयोगी घटाता जाता है। विरोधी बढ़ते जाते हैं। ऐसी दशा में मनुष्य घाटे में ही रहता है। आग जहां भी रहती है सर्वप्रथम उसी को जलाती है। दुर्गुणों के संबंध में भी यही बात है। भले ही वे प्रत्यक्षतः किसी को उतनी बड़ी हानि न कर सकते हों, पर उससे विरोध, बैर भाव का वातावरण तो बनता ही है। इनसे किसी को भी कुछ लाभ नहीं है।
अव्यवस्थित वाणी सबसे अधिक खतरनाक है। निंदा-चुगली से अन्य लोगों के प्रति तो विद्वेष पैदा होता ही है, साथ ही लोगों को यह भी अनुभव होने लगता है कि अपनी कही बात इसके पेट में पड़ जाने पर इधर-उधर फैले बिना रहेगी नहीं। इस आशंका के कारण उसे अविश्वासी बनकर रहना पड़ता है और कोई स्वजन भी उसके सामने पेट खोलकर बात नहीं करता।
क्रोध, आवेश के द्वारा होने वाली क्षति का हाथों-हाथ दुष्परिणाम देखा जा सकता है। कटु वचन कहते देर नहीं होती कि प्रत्युत्तर और भी बड़े रूप में सामने आने लगता है। कई बार तो कटु वचनों का प्रभाव इतना भयंकर होता है कि वह स्थायी जड़ जमा लेता है और समय आने पर प्रतिशोध का सर्प बनकर डसता रहता है। द्रौपदी द्वारा दुर्योधन को कहे गए व्यंग्य वचन, कालांतर में महाभारत जैसे महाविनाश के निमित्त कारण बने।
अपना अहंकार और दूसरों का असम्मान ही मिलकर, कटु वचन और अशिष्ट व्यवहार के रूप में प्रकट होता है। यह दोनों ही परस्पर एक दूसरे से बढ़कर हैं। इनके योग से मिला हुआ कटु भाषण यों दृश्य रूप में तो कोई बड़ी बात प्रतीत नहीं होता, पर उसकी परिणति ऐसी होती हैं, जिसके कारण खोदी गई खाई कदाचित कभी न पाटी जा सके।
शिष्टता और शालीनता का ध्यान रखकर बोली गई वाणी सदा नम्रता और मधुरता से भरी-पूरी ही होती है। उसका प्रभाव बदले हुए तेवरों को यथा स्थान लाने में समर्थ होता है। मधुरभाषी लोग वैमनस्य को शांत करते और सद्भावना का नए सिरे से शुभारंभ करते देखे गए हैं। इस बुराई को छोड़ देना और उसे अच्छाई के रूप में बदल लेना यह कुछ ही दिनों के अभ्यास पर निर्भर है। अपने आप पर नम्रता का आरोपण करते हुए, दूसरों को मानवोचित सम्मान प्रदान करते हुए, सोच-समझकर बिना उतावली अपनाएं बोला जाए, तो उसका सत्परिणाम सुखद प्रतिक्रिया के रूप में परिलक्षित होता देखा जा सकेगा। शिष्टता, सज्जनता, मधुरता जैसी विशेषताओं से संभाषण कर सकना थोड़े दिनों के अभ्यास पर निर्भर है। कटु वचनों को सर्प के दांत और बिच्छु के डंक के समतुल्य माना जाए, तो कुछ अत्युक्ति न होगी। जिनमें यह दुर्गुण थोड़े अंशों में भी स्वभाव का अंग बन गया हो, उन्हें उसका निराकरण करने के लिए तत्काल प्रबल प्रयत्न आरंभ कर देना चाहिए। यह कौए का कोयल में, बगुले का हंस में कायाकल्प हो जाने जैसी कहावत का प्रत्यक्ष दर्शन है।
अव्यवस्था का दूसरा नाम है—असंयम। अनुशासनहीनता और उच्छृंखलता भी इसी को कहते हैं। यही कभी अराजकता जैसी दुर्गंध और दूरगामी दुष्परिणाम उत्पन्न करती देखी गई है। असंयम का स्वरूप होता है—उपलब्ध उपयोगी वस्तुओं को निरर्थक या हानिकर प्रयोजनों में बिखेर देना। इसे स्वेच्छापूर्वक लुटेरों का शिकार होने जैसी मूर्खता भी कहा जा सकता है।
असंयमों में चार प्रमुख हैं—(1) इंद्रिय असंयम, (2) समय असंयम, (3) अर्थ असंयम, (4) विचार असंयम। समझा जाना चाहिए कि ये चारों ईश्वरप्रदत्त अति महत्त्वपूर्ण शक्तियों को बड़े छिद्रों वाले फूटे घड़े में डालकर बहा देने के समान है। यदि इन छिद्रों को बंद कर दिया जाए, तो दैवी अनुकंपा की तरह निरंतर बरसती और अंतराल के उद्गम में उभरती रहने वाली क्षमताओं के भंडार किसी भी व्यक्ति को अति समर्थ एवं असाधारण कार्य कर सकने योग्य बना सकते हैं।
देखा यह जाता है कि सामान्य जन, चटोरेपन की आदतों में रहकर अपना स्वास्थ्य खोखला कर लेते हैं। दुर्बल और रोगी रहकर अकाल मृत्यु मरते हैं। यदि जिह्वा और जननेंद्रिय को संयम में रखा जा सके, तो शरीर समर्थ एवं मन समुन्नत स्तर का बना रहेगा। अर्थसंयम रखा जाए—सादा जीवन उच्च विचार की नीति का परिपालन किया जाए—औसत नागरिक स्तर का निर्वाह अपनाया जाए, तो ईमानदारी से सीमित आजीविका कमाते हुए भी व्यक्ति सुखी और संतुष्ट रह सकता है।
समय ही जीवन है। एक-एक क्षण को बहुमूल्य मणि मुक्तक मानकर सदुपयोग करते रहा जाए, तो व्यक्ति एक ही जीवन में कई जीवनों के बराबर महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकता है। व्यस्त रहने वालों को न तो खुराफातें सूझती हैं और न कुसंग में पड़कर दुर्व्यसन सीखने की संभावना रहती है।
विचारों की शक्ति असाधारण है। यदि मस्तिष्क में कल्पनाएं, आकांक्षाएं, योजनाएं उच्चस्तरीय बनती रहें, तो पतन की आशंका समाप्त होगी और सर्वतोमुखी अभ्युदय की पृष्ठभूमि बनती चलेगी। विचार ही व्यक्ति को ऊंचा उठाते हैं, आवश्यक संपर्क बनाते और साधन जुटाते हैं। उन चारों का असंयम ही व्यक्ति की अगणित क्षमताओं का अपहरण कर लेता है। इन्हें बचाया जा सके, तो समझना चाहिए कि लुट जाने वाला वैभव अपने ही हाथों में रह गया।
व्यवस्था बनाने व सिखाने के लिए आमतौर से किसी कारखाने, उद्योग परिसर, विभाग आदि की आवश्यकता पड़ सकती है। वह शिक्षार्थी को उपलब्ध हो ही जाए, यह आवश्यक नहीं। फिर जहां प्रबंध करने के लिए पहुंचा गया है, वहां आवश्यक साधन एवं सहयोग मिल ही जाए, इसका कोई निश्चय नहीं। ऐसी दशा में यही सबसे सरल पड़ता है कि अपने आप में ही व्यवस्था प्रक्रिया का अभ्यास किया जाए। अपने शरीर पर अपना पूरा अधिकार है। तनिक सी इच्छाशक्ति का दबाव देते ही उसे कुछ भी करने के लिए तत्पर किया जा सकता है। शरीर सध गया, तो समझना चाहिए कि सुदृढ़ स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन का आधार स्रोत हाथ लग गया। पैसे का अपव्यय न हो, तो कम कमाने वाला व्यक्ति भी आय के अनुरूप व्यय का बजट बनाकर काम चलाता और सुखी-संतुष्ट रह सकता है। समय की बरबादी न हो तो योग्यता, संपदा और साधनों के उपार्जन में आश्चर्यजनक सफलता मिल सकती है। विचारों का उत्पादन हम स्वयं करते हैं। उनकी लगाम पूरी तरह अपने हाथ में है। इस बहुमूल्य पूंजी को अस्त-व्यस्त रूप में बिखेरने के स्थान पर यदि उन्हें किन्हीं रचनात्मक कामों में लगाते रहा जाए, तो कोई भी व्यक्ति अपने अभीष्ट प्रयोजनों में आशातीत सफलता प्राप्त कर सकता है।
दूसरों को समझाना, संभालना, सुधारना कठिन हो सकता है, पर अपने सुधार-परिष्कार में तो मनोबल की कमी के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं हो सकती। हिम्मत और दूरदर्शिता को अपनाए रहा जाए, तो अपने शरीर और मन को नहीं, गुण-कर्म-स्वभाव को भी उच्चस्तरीय बनाने में सफलता मिल सकती हैं। आदतें बदली और सुधारी जा सकती हैं। जिस वातावरण में हम रहते हैं, वह अपना ही चुना और पसंद किया हुआ है। यदि उत्कंठा हो तो उसे पूरी तरह बदला जा सकता है। जिस प्रकार पिछले दिनों हेय स्तर का संपर्क बनाया गया था, उसी प्रकार उच्चस्तरीय वातावरण के साथ भी संपर्क साधा और प्रतिपथ पर बढ़ चलने के लिए उत्साहवर्द्धक वातावरण में प्रवेश किया जा सकता है। परिष्कृत व्यक्तित्व और वातावरण के साथ जुट जाना ही अभ्युदय की अनेकानेक संभावनाओं से भरा-पूरा रहना है।
काम में आने वाली वस्तुओं को भी अपने लिए परीक्षा के प्रश्नपत्र मानकर चलना चाहिए, जो सदा यह देखती रहती हैं कि हमें संभालकर-संजोकर ठीक तरह देखा गया या नहीं? जिनकी उपेक्षा की गई है, वे कुरूप लगेंगे और समय से पहले ही समाप्त होकर पलायन कर जाएंगे। इसके विपरीत यदि उन्हें सम्मान दिया गया है, संभालकर सम्मानपूर्वक यथास्थान रखा गया है, तो बदले में वे हाथों हाथ उसे सदाशयता का प्रतिफल प्रदान करेंगे। लोगों की आंखों में सुसंस्कारिता-कलाकारिता की छाप बिठाएंगे। बाहर वाले उस स्थान में प्रवेश करते ही यह अनुभव करेंगे कि यहां कोई सभ्य, सुसंस्कृत एवं कलाकार स्तर का व्यक्ति निवास करता है। इसके विपरीत बिखरी हुई, बेतरतीब पड़ी वस्तुएं हर किसी से यह चुगली करती हैं कि जिसके यहां वह आया है, वह आदत में फूहड़ किस्म का और सभ्यता की कसौटी पर अनगढ़ स्तर का है। भले ही वह पैसे वाला या अधिक पढ़ा-लिखा ही क्यों न हो।
परिवार में कई सदस्य रहते हैं। उन सभी को साफ-सुथरा और कायदे का बनाना पड़ता है। उनमें से कुछ ही बेशऊर होते और आने वाले पर पूरे परिवार के संबंध में बुरी छाप छोड़ते हैं। ठीक उसी प्रकार यदि प्रयोग में आने वाली वस्तुएं अस्वच्छ एवं अव्यवस्थित स्थिति में रखी हुई हैं, तो वे निर्जीव होते हुए भी सजीव मुखर लोगों की तरह से इशारे ही इशारे में सारी पोल खोलकर रख देंगी। धन, पद और शिक्षा आदि के आधार पर बड़प्पन की छाप डालने की जो कोशिश की गई थी, उस पर पानी फिर जाएगा। मैली-कुचैली, अस्त-व्यस्त, टूटी-फूटी, बेसिलसिले रखी हुई वस्तुएं घर में रहने वालों के घटिया स्वभाव और व्यवस्था बुद्धि से अपरिचित होने का इजहार करती हैं। स्वयं ही अपने आप को अपेक्षित अनुभव करती हैं और वहां से जल्दी ही कहीं चले जाने का मन बनाती हैं। भले ही वे किसी और के हाथ में पड़ें या कबाड़ी की दुकान में जाकर आधे चौथाई दाम में बिकें। अनेक लोग पुरानी वस्तुओं को गंवाते और नई खरीदते रहने में इतना पैसा लुटाते हैं, जिसकी बचत से कितनी ही उपयोगी एवं आवश्यक वस्तुएं खरीदी जा सकती थीं।
सभ्यता का पहला शिक्षण यही है कि अपने घर में रखी जाने वाली वस्तुओं में से प्रत्येक को सही प्रकार से, सुनियोजित और सुव्यवस्थित ढंग से सजाकर रखा जाए। यदि यह सब सीखा जा सके, तो समझना चाहिए कि व्यवस्था बुद्धि में एक महत्त्वपूर्ण मंजिल पार कर ली। अध्यात्म का क, ख, ग यहीं से आरंभ हुआ समझना चाहिए। एक सुव्यवस्थित व्यक्ति ही श्रेष्ठ साधक बन सकता है।