
अपरिग्रह सीखें अग्नि से
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साथियो! अभी दो विशेषताएँ और हैं। ये दोनों एक−दूसरे से मिलती जुलती हैं। इन्हें आप पाँचवीं कह सकते हैं। छठवीं कहने में भी कोई एतराज नहीं कर सकता लेकिन आप पाँचवीं कह लीजिए। हम गायत्री की पंचमुखी उपासना सिखाते हैं तो आप इस पंचमुख भी कह सकते हैं। कौन सी पाँचवीं उपासना है? उसका नाम है-अपरिग्रह। अपरिग्रह के साथ में एक और बात जुड़ी है, इसलिए इसे दो भी कह सकते हैं। उसका अर्थ है—वितरण! क्यों साहब! आपने दो क्यों कहा और एक क्यों नहीं कहा? बेटे! मैंने इसलिए कहा कि अपरिग्रह का चिह्न यह नहीं है कि हम पैदावार न करें पैदावार न करना, काहिल की तरह बैठ जाना यह अपरिग्रह का अर्थ नहीं होता है। हम अपरिग्रही हैं तो क्या करते हैं? हम तो साहब! बैठे रहते हैं। हमारे पास कुछ है नहीं। नहीं बेटे! अपरिग्रह का अर्थ यह नहीं है, अपरिग्रह का अर्थ यह है कि आप कमाएँ तो बहुत, सौ हाथों से कमाएँ लेकिन हजार हाथ से बाँट दें। जमाखोरी न करें। आपके कमाने की मैं तारीफ करता हूँ और कहता हूँ कि आप में क्षमता और योग्यता बहुत कमाने लायक होनी चाहिए लेकिन मैं यह कहता हूँ कि आप अकेले सब खाइए मत। जब आप अकेले खाते हैं, तब मुश्किल खड़ी हो जाती है। तब आप स्वार्थी हो जाते हैं। जो आदमी या वर्ग क्षमता सम्पन्न है, अगर वह अपनी सारी कमाई खाता रहेगा तो हम पूछते हैं कि जो पिछड़े हुए हैं, जो दरिद्र हैं, जो अपंग हैं, जो पतित हैं, उनका क्या होगा, उनका हिस्सा कहाँ से आएगा?