
यह परम्परा पुरातन है
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सूक्ष्म शरीरधारियों का वर्णन और विवरण पुरातन ग्रंथों में विस्तारपूर्वक मिलता है। यक्ष और युधिष्ठिर के मध्य विग्रह तथा विवाद का महाभारत में विस्तारपूर्वक वर्णन है। यक्ष, गंधर्व, ब्रह्मराक्षस जैसे कई वर्ग सूक्ष्म शरीरधारियों के थे। विक्रमादित्य के साथ पाँच वीर रहते थे। शिवजी के गण वीरभद्र कहलाते थे। भूत, प्रेत, जिन्न, मसानों की एक अलग ही बिरादरी थी। अलादीन का चिराग जिनने पढ़ा है, उन्हें इस समुदाय की गतिविधियों की जानकारी होगी। छाया पुरुष साधना में अपने निज के शरीर से ही एक अतिरिक्त सत्ता गढ़ ली जाती है और वह एक समर्थ अदृश्य साथी सहयोगी जैसा काम करती है।
इन सूक्ष्म शरीरधारियों में अधिकांश का उल्लेख हानिकर या नैतिक दृष्टि से हेय स्तर पर हुआ है। संभव है उन दिनों अतृप्त विक्षुब्ध स्तर के योद्धा रणभूमि में मरने के उपरांत ऐसे ही कुछ हो जाते रहे हों। उन दिनों युद्ध की मार- काट ही सर्वत्र संव्याप्त थी, पर साथ ही सूक्ष्म शरीरधारी देवर्षियों का भी कम उल्लेख नहीं है। राजर्षि और ब्रह्मर्षि तो स्थूल शरीरधारी ही होते थे, पर जिनकी गति सूक्ष्म शरीर में काम करती थी, वे देवर्षि कहलाते थे। वे वायुभूत होकर विचरण करते थे। लोक- लोकान्तरों में जा सकते थे। जहाँ आवश्यकता अनुभव करते थे, वहाँ भक्त जनों का मार्गदर्शन करने के लिए अनायास ही जा पहुँचते थे।
ऋषियों में से अन्य कइयों के भी उल्लेख मिलते हैं। वे समय- समय पर धैर्य देने, मार्गदर्शन करने या जहाँ आवश्यकता समझी है, वहाँ पहुँचे हैं, प्रकट हुए हैं। पैरों से चलकर उन्हें जाना नहीं पड़ा है। अभी भी हिमालय के कई यात्री ऐसा विवरण सुनाते हैं कि राह भटक जाने पर कोई उन्हें साथ ले गया और उपयुक्त स्थल तक छोड़ कर चला गया। कइयों ने किन्हीं गुफाओं में, शिखरों पर अदृश्य योगियों को दृश्य तथा दृश्य को अदृश्य होते देखा है। तिब्बत के लामाओं से ऐसी कितनी ही कथा गाथाएँ सुनी गई हैं। थियोसोफिकल सोसाइटी की मान्यता है कि अभी भी हिमालय के ध्रुव केन्द्र पर एक ऐसी मण्डली है कि जो विश्व शांति में योगदान करती है। इसे उन्होंने अदृश्य सहायक का नाम दिया है।
यहाँ स्मरण रखने योग्य बात यह है कि यह देवर्षि समुदाय भी मनुष्यों का ही एक विकसित वर्ग है। योगियों, सिद्ध पुरुषों और महामानवों की तरह वह सेवा- सहायता में दूसरों की अपेक्षा अधिक समर्थ पाया जाता है। पर यह मान बैठना गलती होगी कि वे सर्व समर्थ हैं और किसी की भी मनोकामना को तत्काल पूरी कर सकते हैं या अमोघ वरदान दे सकते हैं। कर्मफल की वरिष्ठता सर्वोपरि है। उसे भगवान् ही घटा या मिटा सकते हैं। मनुष्य की सामर्थ्य से वह बाहर है। जिस प्रकार बीमार की चिकित्सक, विपत्तिग्रस्त की धनी सहायता कर सकता है। ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म शरीरधारी देवर्षि भी समय- समय पर सत्कर्मों के निमित्त बुलाने पर अथवा बिना बुलाये भी सहायता के लिए दौड़ पड़ते हैं। इसमें बहुत लाभ भी मिलता है। इतने पर भी किसी को यह नहीं मान बैठना चाहिए कि पुरुषार्थ की आवश्यकता ही नहीं रही या उनके आड़े आते ही निश्चित सफलता मिल गई। यदि ऐसा रहा होता, तो लोग उन्हीं का आसरा लेकर निश्चिन्त हो जाते और फिर निजी पुरुषार्थ की आवश्यकता न समझते। निजी कर्मफल आड़े आने- परिस्थितियों के बाधक होने की बात को ध्यान में ही न रखते।
यहाँ एक अच्छा उदाहरण हमारे हिमालयवासी गुरुदेव का है। सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण ही वे उस प्रकार के वातावरण में रह पाते हैं, जहाँ जीवन निर्वाह के कोई साधन नहीं हैं। समय- समय पर हमारा मार्गदर्शन और सहायता करते रहे हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें कुछ करना ही नहीं पड़ा, कोई कठिनाई मार्ग में आई ही नहीं, कभी असफलता मिली ही नहीं। यह भी होता रहा है। पर निश्चित है कि हम एकाकी जो कर सकते थे, उसकी अपेक्षा उस दिव्य सहयोग से मनोबल बहुत बढ़ा- चढ़ा रहा है। उचित मार्गदर्शन मिला है। कठिनाई के दिनों में धैर्य और साहस यथावत स्थिर रहा है। यह कम नहीं है। इतनी ही आशा दूसरों से करनी भी चाहिए। सब काम करके कोई और रख जाएगा, ऐसी आशा तो भगवान् से भी नहीं करनी चाहिए।
[युगऋषि के हिमालयवासी गुरुदेव का यहाँ संकेत भर किया गया है। उनके बारे में तथा ऋषि तक से युगऋषि के प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष सम्बन्धों के बारे में जानने के लिए युगऋषि की जीवनी ‘हमारी वसीयत और विरासत’ पढ़ी जा सकती है।]
भूल यही होती रही कि दैवी सहायता का नाम लेते ही लोग समझते हैं कि वह जादू की छड़ी घूमी और मनचाहा काम बन गया। ऐसे ही अतिवादी लोग क्षण भर में आस्था खो बैठते देखे गये हैं। दैवी शक्तियों से, सूक्ष्म शरीरों से हमें सामाजिक सहायता की आशा करनी चाहिए। साथ ही अपनी जिम्मेदारियाँ स्वतः वहन करने के लिए कटिबद्ध भी रहना चाहिए। असफलताओं तथा कठिनाइयों को अच्छा शिक्षक मानकर अपने कदम अधिक सावधानी के, अधिक बहादुरी के उठाने की तैयारी करनी चाहिए।
सूक्ष्म शरीर की शक्ति सामान्यतः भी अधिक होती है। दूरदर्शन, दूरश्रवण, पूर्वाभास, विचार सम्प्रेषण आदि में प्रायः सूक्ष्म शरीरों की ही भूमिका रहती है। उनकी सहायता से कितनों को ही विपत्तियों से उबरने का अवसर मिला है। कइयों को ऐसी सहायताएँ मिली हैं, जिनके बिना उनका कार्य रुका ही पड़ा रहता। दो सच्चे मित्र मिलने से लोगों की हिम्मत कई गुना बढ़ जाती है। वैसा ही अनुभव अदृश्य सहायकों के साथ संबंध जुड़ने से भी करना चाहिए।
जिस प्रकार अपना दृश्य संसार है और उसमें दृश्य शरीर वाले जीवधारी रहते हैं। ठीक उसी प्रकार उससे जुड़ा हुआ एक अदृश्य लोक भी है। उसमें सूक्ष्म शरीरधारी निवास करते हैं। इनमें कुछ बिलकुल साधारण, कुछ दुरात्मा और कुछ अत्यन्त उच्चस्तर के होते हैं। वे मनुष्य शोक में समुचित दिलचस्पी लेते हैं। बिगड़ों को सुधारने और सुधरों को अधिक सफल बनाने में यथोचित सहायता करते रहते हैं। फिर सहयोग माँगने का प्रयोजन और माँगने वाले का स्तर उपयुक्त होने पर तो वह सहायता अच्छी तरह और भी बड़ी मात्रा में मिलती है।
इन सूक्ष्म शरीरधारियों में अधिकांश का उल्लेख हानिकर या नैतिक दृष्टि से हेय स्तर पर हुआ है। संभव है उन दिनों अतृप्त विक्षुब्ध स्तर के योद्धा रणभूमि में मरने के उपरांत ऐसे ही कुछ हो जाते रहे हों। उन दिनों युद्ध की मार- काट ही सर्वत्र संव्याप्त थी, पर साथ ही सूक्ष्म शरीरधारी देवर्षियों का भी कम उल्लेख नहीं है। राजर्षि और ब्रह्मर्षि तो स्थूल शरीरधारी ही होते थे, पर जिनकी गति सूक्ष्म शरीर में काम करती थी, वे देवर्षि कहलाते थे। वे वायुभूत होकर विचरण करते थे। लोक- लोकान्तरों में जा सकते थे। जहाँ आवश्यकता अनुभव करते थे, वहाँ भक्त जनों का मार्गदर्शन करने के लिए अनायास ही जा पहुँचते थे।
ऋषियों में से अन्य कइयों के भी उल्लेख मिलते हैं। वे समय- समय पर धैर्य देने, मार्गदर्शन करने या जहाँ आवश्यकता समझी है, वहाँ पहुँचे हैं, प्रकट हुए हैं। पैरों से चलकर उन्हें जाना नहीं पड़ा है। अभी भी हिमालय के कई यात्री ऐसा विवरण सुनाते हैं कि राह भटक जाने पर कोई उन्हें साथ ले गया और उपयुक्त स्थल तक छोड़ कर चला गया। कइयों ने किन्हीं गुफाओं में, शिखरों पर अदृश्य योगियों को दृश्य तथा दृश्य को अदृश्य होते देखा है। तिब्बत के लामाओं से ऐसी कितनी ही कथा गाथाएँ सुनी गई हैं। थियोसोफिकल सोसाइटी की मान्यता है कि अभी भी हिमालय के ध्रुव केन्द्र पर एक ऐसी मण्डली है कि जो विश्व शांति में योगदान करती है। इसे उन्होंने अदृश्य सहायक का नाम दिया है।
यहाँ स्मरण रखने योग्य बात यह है कि यह देवर्षि समुदाय भी मनुष्यों का ही एक विकसित वर्ग है। योगियों, सिद्ध पुरुषों और महामानवों की तरह वह सेवा- सहायता में दूसरों की अपेक्षा अधिक समर्थ पाया जाता है। पर यह मान बैठना गलती होगी कि वे सर्व समर्थ हैं और किसी की भी मनोकामना को तत्काल पूरी कर सकते हैं या अमोघ वरदान दे सकते हैं। कर्मफल की वरिष्ठता सर्वोपरि है। उसे भगवान् ही घटा या मिटा सकते हैं। मनुष्य की सामर्थ्य से वह बाहर है। जिस प्रकार बीमार की चिकित्सक, विपत्तिग्रस्त की धनी सहायता कर सकता है। ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म शरीरधारी देवर्षि भी समय- समय पर सत्कर्मों के निमित्त बुलाने पर अथवा बिना बुलाये भी सहायता के लिए दौड़ पड़ते हैं। इसमें बहुत लाभ भी मिलता है। इतने पर भी किसी को यह नहीं मान बैठना चाहिए कि पुरुषार्थ की आवश्यकता ही नहीं रही या उनके आड़े आते ही निश्चित सफलता मिल गई। यदि ऐसा रहा होता, तो लोग उन्हीं का आसरा लेकर निश्चिन्त हो जाते और फिर निजी पुरुषार्थ की आवश्यकता न समझते। निजी कर्मफल आड़े आने- परिस्थितियों के बाधक होने की बात को ध्यान में ही न रखते।
यहाँ एक अच्छा उदाहरण हमारे हिमालयवासी गुरुदेव का है। सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण ही वे उस प्रकार के वातावरण में रह पाते हैं, जहाँ जीवन निर्वाह के कोई साधन नहीं हैं। समय- समय पर हमारा मार्गदर्शन और सहायता करते रहे हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें कुछ करना ही नहीं पड़ा, कोई कठिनाई मार्ग में आई ही नहीं, कभी असफलता मिली ही नहीं। यह भी होता रहा है। पर निश्चित है कि हम एकाकी जो कर सकते थे, उसकी अपेक्षा उस दिव्य सहयोग से मनोबल बहुत बढ़ा- चढ़ा रहा है। उचित मार्गदर्शन मिला है। कठिनाई के दिनों में धैर्य और साहस यथावत स्थिर रहा है। यह कम नहीं है। इतनी ही आशा दूसरों से करनी भी चाहिए। सब काम करके कोई और रख जाएगा, ऐसी आशा तो भगवान् से भी नहीं करनी चाहिए।
[युगऋषि के हिमालयवासी गुरुदेव का यहाँ संकेत भर किया गया है। उनके बारे में तथा ऋषि तक से युगऋषि के प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष सम्बन्धों के बारे में जानने के लिए युगऋषि की जीवनी ‘हमारी वसीयत और विरासत’ पढ़ी जा सकती है।]
भूल यही होती रही कि दैवी सहायता का नाम लेते ही लोग समझते हैं कि वह जादू की छड़ी घूमी और मनचाहा काम बन गया। ऐसे ही अतिवादी लोग क्षण भर में आस्था खो बैठते देखे गये हैं। दैवी शक्तियों से, सूक्ष्म शरीरों से हमें सामाजिक सहायता की आशा करनी चाहिए। साथ ही अपनी जिम्मेदारियाँ स्वतः वहन करने के लिए कटिबद्ध भी रहना चाहिए। असफलताओं तथा कठिनाइयों को अच्छा शिक्षक मानकर अपने कदम अधिक सावधानी के, अधिक बहादुरी के उठाने की तैयारी करनी चाहिए।
सूक्ष्म शरीर की शक्ति सामान्यतः भी अधिक होती है। दूरदर्शन, दूरश्रवण, पूर्वाभास, विचार सम्प्रेषण आदि में प्रायः सूक्ष्म शरीरों की ही भूमिका रहती है। उनकी सहायता से कितनों को ही विपत्तियों से उबरने का अवसर मिला है। कइयों को ऐसी सहायताएँ मिली हैं, जिनके बिना उनका कार्य रुका ही पड़ा रहता। दो सच्चे मित्र मिलने से लोगों की हिम्मत कई गुना बढ़ जाती है। वैसा ही अनुभव अदृश्य सहायकों के साथ संबंध जुड़ने से भी करना चाहिए।
जिस प्रकार अपना दृश्य संसार है और उसमें दृश्य शरीर वाले जीवधारी रहते हैं। ठीक उसी प्रकार उससे जुड़ा हुआ एक अदृश्य लोक भी है। उसमें सूक्ष्म शरीरधारी निवास करते हैं। इनमें कुछ बिलकुल साधारण, कुछ दुरात्मा और कुछ अत्यन्त उच्चस्तर के होते हैं। वे मनुष्य शोक में समुचित दिलचस्पी लेते हैं। बिगड़ों को सुधारने और सुधरों को अधिक सफल बनाने में यथोचित सहायता करते रहते हैं। फिर सहयोग माँगने का प्रयोजन और माँगने वाले का स्तर उपयुक्त होने पर तो वह सहायता अच्छी तरह और भी बड़ी मात्रा में मिलती है।