
सत्पात्रों को हमारे वर्चस का बल मिलेगा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
पिछले पृष्ठों पर जिन मूर्धन्य वर्गों के माध्यम से क्या कुछ किया जाना है, किया जा रहा है, उसका संक्षिप्त ऊहापोह हुआ है। अपना निज का संबंध अदृश्य जगत् का एक विशाल परिकर है। यह किस प्रकार क्या करेगा? इसकी चर्चा से सर्वसाधारण को यह विदित हो सकेगा कि भावी महान परिवर्तन में वे किस-किस प्रकार अपनी भूमिकाएँ सम्पन्न कर सकेंगे।
इसी प्रकार दूसरा परिकर वरिष्ठों का है जिसमें शासनाध्यक्ष और मनीषी आते हैं। मनीषियों में दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों की ही गणना होती है। इन्हें विशेष रूप से शक्तिशाली माना जाता है और यह आशा की जाती है कि वे जिस प्रकार समाज के अन्यान्य लोगों को प्रभावित करते हैं उसी प्रकार सामयिक समस्याओं के समाधान में भी अपना योगदान प्रस्तुत करेंगे, तो किसी प्रकार उनसे बलपूर्वक कराया जाएगा।
परोक्ष जगत्, जहाँ अदृश्य आत्माएँ रहती हैं, जिनके सहचर सहयोगी हम बनने जा रहे हैं, को छोड़ दिया जाय तो अब एक वर्ग और रह जाता है जाग्रत् आत्माओं का। इन्हें युग प्रहरी, अग्रगामी, वर्चस्व सम्पन्न आदि नाम भी दिए जाते रहे हैं। यह समाज का मेरुदंड है जो अपनी सत्ता एवं प्रभुता का परिचय हर जगह देता है। समाज के सभी सुधारात्मक एवं निर्माणात्मक कार्य इसी के बलबूते संपन्न होते हैं।
उपयोगी वर्ग को उभारना है-
बड़े आदमी और दरिद्र दोनों ही एक प्रकार से निरर्थक गिने जाने योग्य हैं। बड़ों की तृष्णाएँ इतनी बढ़ी-चढ़ी होती हैं कि उन्हें अपने गोरख धंधे के बाहर की कोई बात सोचने तक का अवसर नहीं मिलता। कर पाना तो बाद की बात है। संग्रह, विलास, प्रदर्शन यही इतने भारी पड़ते हैं कि उनका भार वहन करने के उपरान्त और कुछ कर सकने की स्थिति में ही वे नहीं रहते। कुछ करना भी चाहें तो इर्द-गिर्द घिरी हुई चाण्डाल-चौकड़ी उन्हें चंगुल से न निकलने देने में सावधान रहती है और किसी ऐसे काम में हाथ नहीं डालने देती, जिसका अंतिम परिणाम उन्हीं का पत्ता काटने के रूप में सामने आए।
दरिद्रों का कहना ही क्या? वे पहले से इतना लम्बा चौड़ा और कुसंस्कारी परिवार जमा कर चुके होते हैं कि जिसके लिए उदरपूर्ति तक कठिन पड़ती है। अन्न, वस्त्र तक के साधन नहीं जुट पाते, शिक्षा, चिकित्सा आदि के प्रसंग आने पर लाले पड़े रहते हैं। अतिथि सत्कार और विवाह शादियों के खर्च और भी रही बची कमर तोड़ डालते हैं। वे अपने लिए ही जिस-तिस की सहायता चाहते रहते हैं। फिर आदर्शों के परिपालन में, सत्प्रवृत्तियों के परिपोषण में वे किस प्रकार, क्या कर पायेंगे?
निश्चित ही दोनों वर्ग, समाज के लिए समान रूप से निरर्थक और भारभूत हैं, बहुत ऊँचे भी बहुत नीचे भी। काम का समुदाय मध्यम वर्ग होता है। उसे ही थोड़ा अवकाश भी रहता है, थोड़े साधन भी बचते हैं। दीन-दुनिया की ओर ध्यान दे सकना उसी के लिए संभव भी होता है। यहाँ इस मध्यम वर्ग में से उनकी चर्चा की जा रही है जिसे विचारशील, भावनाशील लोकहित के प्रयोजनों में रुचि लेने वाला कहा जा सके। जाति-वंश से कोई मतलब नहीं, सभी ऐसे नहीं होते, किन्तु इतिहास का लम्बा अध्ययन करने के उपरान्त इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि देश, धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा-साधना में मध्यवर्ती समुदाय के लोग ही काम आए हैं।उनमें भी प्रौढ़ स्थिति को प्राप्त व्यक्ति। लड़के नई जवानी में अस्थिर रहते, उनमें जोश तो होता है, पर होश नहीं। अनुभव की कमी से वे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन जैसे कार्यों को उतना नहीं कर पाते, जितना अभीष्ट होता है। यही बात बुड्ढों के सम्बन्ध में भी है। ढलती आयु में शारीरिक-मानसिक क्षमताएँ चुकने लगती हैं। तब दूसरों का सहारा ताकना पड़ता है। फिर गृहस्थी के कितने ही काम लिपटे-चिपटे होते हैं। आदतों के अभ्यस्त ढर्रे को बदलना उनके लिए भी कठिन पड़ता है। मध्यवर्ती स्थिति के मध्य आयु के व्यक्ति ही प्रायः ऐसे आदर्शवादी कार्यों में कुछ शौर्य पराक्रम दिखा पाते हैं, जिनकी इन पंक्तियों में चर्चा हो रही है।
हमारा विश्वास है कि यह शक्ति समुदाय समूचे संसार में फैला पड़ा है। धर्म, सम्प्रदायों, भाषाओं एवं देशों के विभाजन ने मनुष्य को एक दूसरे से बहुत हद तक अलग अवश्य कर दिया है, तो भी हम देखते हैं कि समझदारी का माद्दा अभी भी उस समुदाय में अधिक है और वह इस आड़े समय में कुछ कहने लायक भूमिका निभा सकता है।
प्रज्ञा परिवार में कोई बीस लाख के लगभग सदस्य हैं, जिसमें से अधिकांश भारतवर्ष में हैं और हिन्दू धर्मानुयायी हैं। किन्तु यह मध्यम वर्ग तो समस्त विश्व में फैला हुआ है, जिसके साथ अभी हम प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं साध सके। न अपना साहित्य उन तक पहुँचा है और न ही उन्हें इस विचारधारा से अवगत होने का अवसर मिला है। सीमित साधनों में यह संभव भी नहीं था। अब अभीष्ट साधनों की उपलब्धि होने से इस समुदाय के साथ हम सघन संपर्क बना सकेंगे। आवश्यक नहीं कि इसके लिए प्रज्ञा अभियान का, गायत्री परिवार का नाम वे जानें, पर वे निश्चित रूप से यह अनुभव करेंगे कि कहीं से-किन्हीं के माध्यम से ऐसी विचार धारा बहती हुई आती है, जो उन्हें अनायास ही अपनी लपेट में लेती है। कुछ कहती है और कुछ करने के लिए मजबूर करती है।
[प्रज्ञा परिवार कोई संस्था नहीं है। जिसकी सदस्यता के लिए कोई फार्म या शुलक निश्चित है। यह तो विचार परिवार है, अन्तःप्रेरणा से ऋषि अनुशासनों को स्वीकार करते हुए परस्पर सहयोगपूर्वक नवसृजन के ईश्वरीय उद्देश्य की दिशा में बढ़ते-बढ़ाते रहते हैं। उक्त पंक्तियाँ लिखी जाने के समय उनकी अनुमानित संख्या २० लाख के लगभग थी, अब वह संख्या करोड़ों में पहुँच गई है। यहाँ युगऋषि वह भी स्पष्ट कर रहे हैं कि देश और संगठन विशेष की सीमाओं को लाँघ कर सत्पात्रों को नवसृजन में भागीदारी के लिए प्रेरित करेगें, भले ही वे प्रत्यक्ष रूप में इस अभियान से परिचित न भी हों। सन् २००० के बाद से ऐसा होता बहुत कुछ घटित होता अनुमान किया जा रहा है]
इस वर्ग के पास अपने निज के साधन नहीं होते, तो भी वे निज की प्रतिभा द्वारा साधन सम्पन्नों को प्रभावित कर लेते हैं और उन्हें सहयोग देने के लिए उत्साहित उत्तेजित करते हैं। साधन संपन्न एक तरह के छकड़े के समान हैं। यदि उनके साथ मजबूत बैल जोत दिए जाएँ, तो ही उन्हें इधर से उधर ले जा सकते हैं, अन्यथा जहाँ के तहाँ जड़भरत बने बैठे रहते हैं।
क्रान्तियाँ जरूरी हैं-
क्रान्तियाँ जरूरी हैं-
अगले दिनों सामाजिक क्रान्तियों में कई बड़ी क्रान्तियाँ सम्पन्न होनी हैं जैसे-
(१) नर और नारी का भेद-भाव मिटना है। शृंगार-सज्जा ने कामुकता बढ़ाई है और नारी का अवमूल्यन हुआ है। अगले दिनों नर-नारी भाई-भाई की तरह और बहिन-बहिन की तरह रहना सीखेंगे। सहयोग के हजार क्षेत्र खुले पड़े हैं, उनमें वे एक दूसरे की भरपूर सहायता करेंगे। यौन कार्य अत्यंत जिम्मेदारियों से लदा हुआ माना जाएगा, उसमें हाथ डालने से पहले दोनों पक्षों को सौ बार विचार करना पड़ेगा कि आखिर हम क्या करने जा रहे हैं और इसका परिणाम हम दोनों को दो परिवार वालों को-सारे समाज को कितने दिन तक कितनी कष्टसाध्य प्रक्रिया के साथ भुगतना पड़ेगा? कामुकता का वर्तमान माहौल गैर जिम्मेदारी की चरम सीमा है। इस संदर्भ में नए विचार नए प्रचलन करने में क्या-क्या करना पड़ेगा, किन-किन कठिनाइयों से किस-किस प्रकार निपटना पड़ेगा? यह एक बड़ी बात है। मध्यम वर्ग ही इस संदर्भ की अनेक योजनाएँ हाथ में लेकर उसे कार्यान्वित कर सकेगा।
(२) शिक्षा की दूसरी समस्या है। न केवल भारत में, वरन् समस्त संसार में तीन-चौथाई लोग अनपढ़ हैं। इनमें अधिकांश प्रौढ़ हैं। इन्हें पढ़ाने के लिए सरकारी स्कूल-कालेज काम नहीं देंगे। जनसेवा का माध्यम लेकर इसके लिए तंत्र खड़ा करना पड़ेगा। शिक्षा के विषयों का निर्धारण बिलकुल नई बात होगी। आज जो पढ़ाया जाता है वह प्रायः वही है, जो लार्ड मैकाले च्काले बाबूज् ढालने के लिए पढ़ाना चाहते थे। समर्थ नागरिक को क्या जानना चाहिए अभी तो ऐसा पाठ्यक्रम तक निर्धारित नहीं हुआ है? फिर उसे पढ़ाने वाले तंत्र का ढाँचा खड़ा करना तो और भी आगे की बात है। अगले दिनों जनशिक्षा का विशालकाय ढाँचा खड़ा होगा और उसे सहकारिता के बल-बूते मिलजुल कर ही पूरा किया जाएगा।
(३) कुटीर उद्योग तीसरा तंत्र है। बेरोजगारी मिटाने के लिए देहात-कस्बों में छोटी-छोटी मशीनों के सहारे चलने वाले कुटीर उद्योग ही काम देंगे। सहकारी समितियाँ उनके उत्पादन और विकास का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाएँगी। यह कार्य सरकारी अफसरों द्वारा हो सकने वाला नहीं है। भले ही पंचायत समितियाँ उन्हें पूरा करें-सहकारी समितियाँ अथवा कर्मठ कार्यकर्त्ताओं द्वारा गठित हुए सेवा संगठन। यह कार्य नई पीढ़ी को ही करने होंगे। नई से मतलब है मध्यवर्ती मनःस्थिति का जनसेवी समुदाय।
अपने देश में ही नहीं, सारे संसार में सामूहिक श्रमदान से किए जाने योग्य कितने ही काम हैं। मनुष्यों और पशुओं के मल-मूत्र को खाद रूप में बदलना। घर आँगन और छत पर शाक-वाटिका उगाना। वृक्षारोपण के लिए सार्वजनिक उत्साह उभारना, यह ऐसे काम हैं जिसके लिए देवता स्वर्ग से उतर कर नहीं आयेंगे और न अफसरों के इशारों पर वे बन पड़ेंगे। इसके लिए अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर पीछे अनेकों को अनुकरण की प्रेरणा देनी होगी।
(४) उन्मूलन परक- बुराइयों में कितनी ही ऐसी हैं, जिन्हें एक दिन भी सहन नहीं किया जाना चाहिए। नशेबाजी इनमें प्रमुख है। स्वास्थ्य, पैसा, इज्जत और अक्ल यह चारों ही वस्तुएँ इस कारण बर्बाद होती हैं। पीढ़ियाँ खराब होती हैं और रुग्णता बढ़ती है। नशा न कोई उगाए न कोई पिये, इसके लिए प्रायः गाँधी जी के सत्याग्रह आन्दोलन जैसा ही रोकथाम कर सकने वाला मोर्चा खड़ा करना होगा।
विवाह-शादियों में होने वाला अपव्यय-दहेज-अपने देश में एक बुरी किस्म का अभिशाप है। इसी से मिलती-जुलती मृतक-भोज जैसी अन्य कुरीतियाँ भी प्रचलित हैं। इन सबको एक बारगी एक साथ उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है। भिक्षा-व्यवसाय भी एक ऐसी ही लानत है, जिसके कारण समर्थ व्यक्ति भी स्वाभिमान खोकर वेश्या वेश की आड़ में भिखारियों की पंक्ति में जा बैठता है। तलाश करने पर हर क्षेत्र में अपने ढंग की चित्र-विचित्र कुरीतियों का प्रचलन है। आलस्य और प्रमाद ऐसे दुर्गुण हैं, जिनके कारण अच्छे-खासे प्रगतिशील मनुष्य भी अपंग असमर्थों की स्थिति में जा पहुँचते हैं और दरिद्रता का पिछड़ेपन का अभिशाप भुगतते हैं। इन मुद्दतों से जन-जीवन में घुसी हुई बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंकना एक व्यक्ति का काम नहीं है। इसके लिए मोर्चाबंदी करनी होगी और देखना होगा कि इस कुचक्र में फँसे हुए जन-जीवन को किस तरह मुक्त कराया जाए।
सृजन से संबंधित इस तरह के हजारों काम हैं और उससे भी अधिक उन्मूलन स्तर के हैं। इन्हें कर सकना मात्र जीभ चलाने या विरोध व्यक्त करने भर से नहीं हो सकता। कितने लोगों द्वारा व्यवहार में लाए जाने पर यह कुरीतियाँ प्रथा बन चुकी हैं। इन्हें स्थानान्तरित करने के लिए उससे कम नहीं, वरन् अधिक ही पुरुषार्थ की अपेक्षा होगी।
[यहाँ सत्प्रवृत्ति संवर्धन के सृजनात्मक तथा दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के सुधारात्मक कार्यक्रमों में से कुछ का उल्लेख करके, उनकी संख्या हजारों में है, ऐसा संकेत भर करके बात आगे बढ़ा दी गई है। युग निर्माण के शतसूत्रीय कार्यक्रमों में इनका विस्तार मिल सकता है। वैसे सृजनशील प्रतिभाओं को अपने-अपने क्षेत्र के अनुरूप कार्यक्रमों को चुनने तथा आन्दोलनों को आगे बढ़ाने का खुला निमंत्रण युग ऋषि द्वारा दिया जाता रहा है। इस दिशा में प्रेरणा भरने तथा आगे बढ़ने वालों को अदृश्य सहायता उपलब्ध कराने का कार्य ऋषि सत्ता करती रहेगी।]देश से विश्व तक-
अपने भारत की तरह ही हर देश की हर क्षेत्र की अपने-अपने ढंग की अनगिनत समस्याएँ हैं। उनके समाधान में आगे-आगे कदम बढ़ा सकने वाले शूरवीरों की पग-पग पर आवश्यकता पड़ेगी। ये कहाँ से आएँ? आज तो इनका अभाव दीखता है। रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई प्रातःकाल में जिस प्रकार चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई पड़ती है, वैसा ही कुछ अगले दिनों सर्वत्र माहौल बनेगा। जन-जन को इसका पाठ कौन पढ़ाएगा, हर किसी को स्वार्थ में कटौती करके परमार्थ में हाथ डालने के लिए कौन विवश करेगा? इसका उत्तर आज तो नहीं दिया जा सकता; किन्तु कल-परसों ऐसा समय अवश्य ही आयेगा, जिसमें सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन की आँधी-तूफान जैसी हवा चलेगी। आँधी चलती है तो तिनके, पत्ते और धूल-कण तक आकाश चूमने लगते हैं। अगले ही दिनों ऐसी वासंती बयार चलेगी, जिससे ठूँठ कोपलें फोड़ने लगें और कोपलों पर फूल आने लगें।
इस संसार का इतना विकास अनायास ही नहीं हो गया है। इसमें असंख्य लोगों ने-जिसमें समझदार भी बड़ी संख्या में रहे हैं, अपना अमूल्य सहयोग दिया है। अब बचाव की बारी है, तो उसके लिए भी भाव-भरी जनशक्ति चाहिए। इसका उत्पादन समय-समय पर अनेक रचनात्मक आंदोलन करते रहे हैं। अबकी बार फिर से परोक्ष जगत् से कुछ ऐसी ही पावस आने वाली है, जो सूखे धरातल को हरियाली से भर सके। प्यासी धरती को जलाशयों से लबालब भर सके।
इसी प्रकार दूसरा परिकर वरिष्ठों का है जिसमें शासनाध्यक्ष और मनीषी आते हैं। मनीषियों में दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनों की ही गणना होती है। इन्हें विशेष रूप से शक्तिशाली माना जाता है और यह आशा की जाती है कि वे जिस प्रकार समाज के अन्यान्य लोगों को प्रभावित करते हैं उसी प्रकार सामयिक समस्याओं के समाधान में भी अपना योगदान प्रस्तुत करेंगे, तो किसी प्रकार उनसे बलपूर्वक कराया जाएगा।
परोक्ष जगत्, जहाँ अदृश्य आत्माएँ रहती हैं, जिनके सहचर सहयोगी हम बनने जा रहे हैं, को छोड़ दिया जाय तो अब एक वर्ग और रह जाता है जाग्रत् आत्माओं का। इन्हें युग प्रहरी, अग्रगामी, वर्चस्व सम्पन्न आदि नाम भी दिए जाते रहे हैं। यह समाज का मेरुदंड है जो अपनी सत्ता एवं प्रभुता का परिचय हर जगह देता है। समाज के सभी सुधारात्मक एवं निर्माणात्मक कार्य इसी के बलबूते संपन्न होते हैं।
उपयोगी वर्ग को उभारना है-
बड़े आदमी और दरिद्र दोनों ही एक प्रकार से निरर्थक गिने जाने योग्य हैं। बड़ों की तृष्णाएँ इतनी बढ़ी-चढ़ी होती हैं कि उन्हें अपने गोरख धंधे के बाहर की कोई बात सोचने तक का अवसर नहीं मिलता। कर पाना तो बाद की बात है। संग्रह, विलास, प्रदर्शन यही इतने भारी पड़ते हैं कि उनका भार वहन करने के उपरान्त और कुछ कर सकने की स्थिति में ही वे नहीं रहते। कुछ करना भी चाहें तो इर्द-गिर्द घिरी हुई चाण्डाल-चौकड़ी उन्हें चंगुल से न निकलने देने में सावधान रहती है और किसी ऐसे काम में हाथ नहीं डालने देती, जिसका अंतिम परिणाम उन्हीं का पत्ता काटने के रूप में सामने आए।
दरिद्रों का कहना ही क्या? वे पहले से इतना लम्बा चौड़ा और कुसंस्कारी परिवार जमा कर चुके होते हैं कि जिसके लिए उदरपूर्ति तक कठिन पड़ती है। अन्न, वस्त्र तक के साधन नहीं जुट पाते, शिक्षा, चिकित्सा आदि के प्रसंग आने पर लाले पड़े रहते हैं। अतिथि सत्कार और विवाह शादियों के खर्च और भी रही बची कमर तोड़ डालते हैं। वे अपने लिए ही जिस-तिस की सहायता चाहते रहते हैं। फिर आदर्शों के परिपालन में, सत्प्रवृत्तियों के परिपोषण में वे किस प्रकार, क्या कर पायेंगे?
निश्चित ही दोनों वर्ग, समाज के लिए समान रूप से निरर्थक और भारभूत हैं, बहुत ऊँचे भी बहुत नीचे भी। काम का समुदाय मध्यम वर्ग होता है। उसे ही थोड़ा अवकाश भी रहता है, थोड़े साधन भी बचते हैं। दीन-दुनिया की ओर ध्यान दे सकना उसी के लिए संभव भी होता है। यहाँ इस मध्यम वर्ग में से उनकी चर्चा की जा रही है जिसे विचारशील, भावनाशील लोकहित के प्रयोजनों में रुचि लेने वाला कहा जा सके। जाति-वंश से कोई मतलब नहीं, सभी ऐसे नहीं होते, किन्तु इतिहास का लम्बा अध्ययन करने के उपरान्त इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि देश, धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा-साधना में मध्यवर्ती समुदाय के लोग ही काम आए हैं।उनमें भी प्रौढ़ स्थिति को प्राप्त व्यक्ति। लड़के नई जवानी में अस्थिर रहते, उनमें जोश तो होता है, पर होश नहीं। अनुभव की कमी से वे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन जैसे कार्यों को उतना नहीं कर पाते, जितना अभीष्ट होता है। यही बात बुड्ढों के सम्बन्ध में भी है। ढलती आयु में शारीरिक-मानसिक क्षमताएँ चुकने लगती हैं। तब दूसरों का सहारा ताकना पड़ता है। फिर गृहस्थी के कितने ही काम लिपटे-चिपटे होते हैं। आदतों के अभ्यस्त ढर्रे को बदलना उनके लिए भी कठिन पड़ता है। मध्यवर्ती स्थिति के मध्य आयु के व्यक्ति ही प्रायः ऐसे आदर्शवादी कार्यों में कुछ शौर्य पराक्रम दिखा पाते हैं, जिनकी इन पंक्तियों में चर्चा हो रही है।
हमारा विश्वास है कि यह शक्ति समुदाय समूचे संसार में फैला पड़ा है। धर्म, सम्प्रदायों, भाषाओं एवं देशों के विभाजन ने मनुष्य को एक दूसरे से बहुत हद तक अलग अवश्य कर दिया है, तो भी हम देखते हैं कि समझदारी का माद्दा अभी भी उस समुदाय में अधिक है और वह इस आड़े समय में कुछ कहने लायक भूमिका निभा सकता है।
प्रज्ञा परिवार में कोई बीस लाख के लगभग सदस्य हैं, जिसमें से अधिकांश भारतवर्ष में हैं और हिन्दू धर्मानुयायी हैं। किन्तु यह मध्यम वर्ग तो समस्त विश्व में फैला हुआ है, जिसके साथ अभी हम प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं साध सके। न अपना साहित्य उन तक पहुँचा है और न ही उन्हें इस विचारधारा से अवगत होने का अवसर मिला है। सीमित साधनों में यह संभव भी नहीं था। अब अभीष्ट साधनों की उपलब्धि होने से इस समुदाय के साथ हम सघन संपर्क बना सकेंगे। आवश्यक नहीं कि इसके लिए प्रज्ञा अभियान का, गायत्री परिवार का नाम वे जानें, पर वे निश्चित रूप से यह अनुभव करेंगे कि कहीं से-किन्हीं के माध्यम से ऐसी विचार धारा बहती हुई आती है, जो उन्हें अनायास ही अपनी लपेट में लेती है। कुछ कहती है और कुछ करने के लिए मजबूर करती है।
[प्रज्ञा परिवार कोई संस्था नहीं है। जिसकी सदस्यता के लिए कोई फार्म या शुलक निश्चित है। यह तो विचार परिवार है, अन्तःप्रेरणा से ऋषि अनुशासनों को स्वीकार करते हुए परस्पर सहयोगपूर्वक नवसृजन के ईश्वरीय उद्देश्य की दिशा में बढ़ते-बढ़ाते रहते हैं। उक्त पंक्तियाँ लिखी जाने के समय उनकी अनुमानित संख्या २० लाख के लगभग थी, अब वह संख्या करोड़ों में पहुँच गई है। यहाँ युगऋषि वह भी स्पष्ट कर रहे हैं कि देश और संगठन विशेष की सीमाओं को लाँघ कर सत्पात्रों को नवसृजन में भागीदारी के लिए प्रेरित करेगें, भले ही वे प्रत्यक्ष रूप में इस अभियान से परिचित न भी हों। सन् २००० के बाद से ऐसा होता बहुत कुछ घटित होता अनुमान किया जा रहा है]
इस वर्ग के पास अपने निज के साधन नहीं होते, तो भी वे निज की प्रतिभा द्वारा साधन सम्पन्नों को प्रभावित कर लेते हैं और उन्हें सहयोग देने के लिए उत्साहित उत्तेजित करते हैं। साधन संपन्न एक तरह के छकड़े के समान हैं। यदि उनके साथ मजबूत बैल जोत दिए जाएँ, तो ही उन्हें इधर से उधर ले जा सकते हैं, अन्यथा जहाँ के तहाँ जड़भरत बने बैठे रहते हैं।
क्रान्तियाँ जरूरी हैं-
क्रान्तियाँ जरूरी हैं-
अगले दिनों सामाजिक क्रान्तियों में कई बड़ी क्रान्तियाँ सम्पन्न होनी हैं जैसे-
(१) नर और नारी का भेद-भाव मिटना है। शृंगार-सज्जा ने कामुकता बढ़ाई है और नारी का अवमूल्यन हुआ है। अगले दिनों नर-नारी भाई-भाई की तरह और बहिन-बहिन की तरह रहना सीखेंगे। सहयोग के हजार क्षेत्र खुले पड़े हैं, उनमें वे एक दूसरे की भरपूर सहायता करेंगे। यौन कार्य अत्यंत जिम्मेदारियों से लदा हुआ माना जाएगा, उसमें हाथ डालने से पहले दोनों पक्षों को सौ बार विचार करना पड़ेगा कि आखिर हम क्या करने जा रहे हैं और इसका परिणाम हम दोनों को दो परिवार वालों को-सारे समाज को कितने दिन तक कितनी कष्टसाध्य प्रक्रिया के साथ भुगतना पड़ेगा? कामुकता का वर्तमान माहौल गैर जिम्मेदारी की चरम सीमा है। इस संदर्भ में नए विचार नए प्रचलन करने में क्या-क्या करना पड़ेगा, किन-किन कठिनाइयों से किस-किस प्रकार निपटना पड़ेगा? यह एक बड़ी बात है। मध्यम वर्ग ही इस संदर्भ की अनेक योजनाएँ हाथ में लेकर उसे कार्यान्वित कर सकेगा।
(२) शिक्षा की दूसरी समस्या है। न केवल भारत में, वरन् समस्त संसार में तीन-चौथाई लोग अनपढ़ हैं। इनमें अधिकांश प्रौढ़ हैं। इन्हें पढ़ाने के लिए सरकारी स्कूल-कालेज काम नहीं देंगे। जनसेवा का माध्यम लेकर इसके लिए तंत्र खड़ा करना पड़ेगा। शिक्षा के विषयों का निर्धारण बिलकुल नई बात होगी। आज जो पढ़ाया जाता है वह प्रायः वही है, जो लार्ड मैकाले च्काले बाबूज् ढालने के लिए पढ़ाना चाहते थे। समर्थ नागरिक को क्या जानना चाहिए अभी तो ऐसा पाठ्यक्रम तक निर्धारित नहीं हुआ है? फिर उसे पढ़ाने वाले तंत्र का ढाँचा खड़ा करना तो और भी आगे की बात है। अगले दिनों जनशिक्षा का विशालकाय ढाँचा खड़ा होगा और उसे सहकारिता के बल-बूते मिलजुल कर ही पूरा किया जाएगा।
(३) कुटीर उद्योग तीसरा तंत्र है। बेरोजगारी मिटाने के लिए देहात-कस्बों में छोटी-छोटी मशीनों के सहारे चलने वाले कुटीर उद्योग ही काम देंगे। सहकारी समितियाँ उनके उत्पादन और विकास का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाएँगी। यह कार्य सरकारी अफसरों द्वारा हो सकने वाला नहीं है। भले ही पंचायत समितियाँ उन्हें पूरा करें-सहकारी समितियाँ अथवा कर्मठ कार्यकर्त्ताओं द्वारा गठित हुए सेवा संगठन। यह कार्य नई पीढ़ी को ही करने होंगे। नई से मतलब है मध्यवर्ती मनःस्थिति का जनसेवी समुदाय।
अपने देश में ही नहीं, सारे संसार में सामूहिक श्रमदान से किए जाने योग्य कितने ही काम हैं। मनुष्यों और पशुओं के मल-मूत्र को खाद रूप में बदलना। घर आँगन और छत पर शाक-वाटिका उगाना। वृक्षारोपण के लिए सार्वजनिक उत्साह उभारना, यह ऐसे काम हैं जिसके लिए देवता स्वर्ग से उतर कर नहीं आयेंगे और न अफसरों के इशारों पर वे बन पड़ेंगे। इसके लिए अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर पीछे अनेकों को अनुकरण की प्रेरणा देनी होगी।
(४) उन्मूलन परक- बुराइयों में कितनी ही ऐसी हैं, जिन्हें एक दिन भी सहन नहीं किया जाना चाहिए। नशेबाजी इनमें प्रमुख है। स्वास्थ्य, पैसा, इज्जत और अक्ल यह चारों ही वस्तुएँ इस कारण बर्बाद होती हैं। पीढ़ियाँ खराब होती हैं और रुग्णता बढ़ती है। नशा न कोई उगाए न कोई पिये, इसके लिए प्रायः गाँधी जी के सत्याग्रह आन्दोलन जैसा ही रोकथाम कर सकने वाला मोर्चा खड़ा करना होगा।
विवाह-शादियों में होने वाला अपव्यय-दहेज-अपने देश में एक बुरी किस्म का अभिशाप है। इसी से मिलती-जुलती मृतक-भोज जैसी अन्य कुरीतियाँ भी प्रचलित हैं। इन सबको एक बारगी एक साथ उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है। भिक्षा-व्यवसाय भी एक ऐसी ही लानत है, जिसके कारण समर्थ व्यक्ति भी स्वाभिमान खोकर वेश्या वेश की आड़ में भिखारियों की पंक्ति में जा बैठता है। तलाश करने पर हर क्षेत्र में अपने ढंग की चित्र-विचित्र कुरीतियों का प्रचलन है। आलस्य और प्रमाद ऐसे दुर्गुण हैं, जिनके कारण अच्छे-खासे प्रगतिशील मनुष्य भी अपंग असमर्थों की स्थिति में जा पहुँचते हैं और दरिद्रता का पिछड़ेपन का अभिशाप भुगतते हैं। इन मुद्दतों से जन-जीवन में घुसी हुई बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंकना एक व्यक्ति का काम नहीं है। इसके लिए मोर्चाबंदी करनी होगी और देखना होगा कि इस कुचक्र में फँसे हुए जन-जीवन को किस तरह मुक्त कराया जाए।
सृजन से संबंधित इस तरह के हजारों काम हैं और उससे भी अधिक उन्मूलन स्तर के हैं। इन्हें कर सकना मात्र जीभ चलाने या विरोध व्यक्त करने भर से नहीं हो सकता। कितने लोगों द्वारा व्यवहार में लाए जाने पर यह कुरीतियाँ प्रथा बन चुकी हैं। इन्हें स्थानान्तरित करने के लिए उससे कम नहीं, वरन् अधिक ही पुरुषार्थ की अपेक्षा होगी।
[यहाँ सत्प्रवृत्ति संवर्धन के सृजनात्मक तथा दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के सुधारात्मक कार्यक्रमों में से कुछ का उल्लेख करके, उनकी संख्या हजारों में है, ऐसा संकेत भर करके बात आगे बढ़ा दी गई है। युग निर्माण के शतसूत्रीय कार्यक्रमों में इनका विस्तार मिल सकता है। वैसे सृजनशील प्रतिभाओं को अपने-अपने क्षेत्र के अनुरूप कार्यक्रमों को चुनने तथा आन्दोलनों को आगे बढ़ाने का खुला निमंत्रण युग ऋषि द्वारा दिया जाता रहा है। इस दिशा में प्रेरणा भरने तथा आगे बढ़ने वालों को अदृश्य सहायता उपलब्ध कराने का कार्य ऋषि सत्ता करती रहेगी।]देश से विश्व तक-
अपने भारत की तरह ही हर देश की हर क्षेत्र की अपने-अपने ढंग की अनगिनत समस्याएँ हैं। उनके समाधान में आगे-आगे कदम बढ़ा सकने वाले शूरवीरों की पग-पग पर आवश्यकता पड़ेगी। ये कहाँ से आएँ? आज तो इनका अभाव दीखता है। रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई प्रातःकाल में जिस प्रकार चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई पड़ती है, वैसा ही कुछ अगले दिनों सर्वत्र माहौल बनेगा। जन-जन को इसका पाठ कौन पढ़ाएगा, हर किसी को स्वार्थ में कटौती करके परमार्थ में हाथ डालने के लिए कौन विवश करेगा? इसका उत्तर आज तो नहीं दिया जा सकता; किन्तु कल-परसों ऐसा समय अवश्य ही आयेगा, जिसमें सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन की आँधी-तूफान जैसी हवा चलेगी। आँधी चलती है तो तिनके, पत्ते और धूल-कण तक आकाश चूमने लगते हैं। अगले ही दिनों ऐसी वासंती बयार चलेगी, जिससे ठूँठ कोपलें फोड़ने लगें और कोपलों पर फूल आने लगें।
इस संसार का इतना विकास अनायास ही नहीं हो गया है। इसमें असंख्य लोगों ने-जिसमें समझदार भी बड़ी संख्या में रहे हैं, अपना अमूल्य सहयोग दिया है। अब बचाव की बारी है, तो उसके लिए भी भाव-भरी जनशक्ति चाहिए। इसका उत्पादन समय-समय पर अनेक रचनात्मक आंदोलन करते रहे हैं। अबकी बार फिर से परोक्ष जगत् से कुछ ऐसी ही पावस आने वाली है, जो सूखे धरातल को हरियाली से भर सके। प्यासी धरती को जलाशयों से लबालब भर सके।