
उमड़ती विनाशकारी विभीषिकाएँ
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समय की विपन्नता दिन- दिन बढ़ती जा रही है, इसमें संदेह नहीं। दृश्यमान और अदृश्य क्षेत्रों में सर्वनाशी विभीषिकाएँ जिस क्रम में गहरा रही हैं, उसे देखते हुए कभी भी ऐसा अनिष्ट हो सकता है, जिसके कारण पृथ्वी को ऐसे ही चूरे में बदलना पड़ा, जैसा कि मंगल और बृहस्पति के बीच निरंतर एक अंधड़ की तरह घूमता रहता है। अणु आयुधों की, रासायनिक अस्त्रों की घातक किरणों की संख्या एवं विचित्रता इतनी बढ़ गई है कि उनके द्वारा बिना आमने- सामने का युद्ध छिड़े भी ऐसा हो सकता है कि रात को अच्छे- खासे सोये हुए आदमी मृतक या अर्द्ध मृतक जैसी स्थिति में मिलें। समर्थ राष्ट्र विनाश की क्षमता बढ़ाने में इस कदर लगे हैं और उस स्तर के पराक्रम को इस प्रकार प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रहे हैं कि कदाचित् पीछे कदम हटाने की हेठी कराने को कोई भी तैयार नहीं। मृत्यु के साधन जब चरम सीमा पर पहुँचेंगे, तो कोई भी पगला इस बारूद के ढेर में एक तीली फेंक कर उस प्रलय को क्षण भर में प्रत्यक्ष कर सकता है, जिसके आने में पौराणिक प्रतिपादनों के अनुसार अभी लाखों वर्ष की देर है।
महायुद्ध न भी हो तो भी वायु प्रदूषण, विकिरण, जनसंख्या विस्फोट, खनिज सम्पदा का समापन, पृथ्वी की उर्वरता का घटना, वृक्ष कटना, पशुओं का मिटना- जैसे अनेक ऐसे कारण विद्यमान हैं, जो शीतयुद्ध बनकर वही काम करें, जो शहतीर में लगने वाला घुन धीरे- धीरे, किन्तु निश्चित रूप से करता है। विषाणु कितने छोटे होते हैं, किन्तु वह अच्छे खासे पहलवान को क्षय, कैंसर जैसे रोगों से ग्रसित करके देखते- देखते मौत के मुँह में धकेल देते हैं।
कुविचारों और कुकर्मों से चरम सीमा तक पहुँच जाने पर अब मर्यादा और वर्जनाएँ लगभग समाप्त होती जा रही हैं। उच्छृंखलता, उद्दण्डता, अपराध, अनाचार अति की सीमा लाँघ रहे हैं। छल- प्रपंच कौशल के रूप में मान्यता प्राप्त कर चला है। परिवार बुरी तरह टूट और बिखर रहे हैं। चरित्र कहने- सुनने भर की वस्तु रह गई है। आदर्शों का अस्तित्व इसलिए है कि वे कथन प्रवचन को लच्छेदार बनाने के काम आते हैं। लिखते समय भी उनका पुट लगाने की आवश्यकता पड़ती है। मूर्धन्यों ने इस विग्रह को अपने लिए तो अपनाया ही है, छुटभइयों को भी अनुगमन की प्रेरणा देकर वैसा ही अभ्यस्त कर दिया है। प्रचलन और आन्दोलन उस दिशा में चल रहे हैं, जिनका अंत सर्वनाशी परिणतियों के अतिरिक्त और कहीं कुछ हो ही नहीं सकता। न व्यक्ति को चैन है, न समाज में शांति। पीढ़ियाँ अपने जन्मकाल से ही ऐसे दुर्गुण साथ लेकर जन्मती हैं कि अपना, परिवार और समाज का सर्वनाश करके ही रहें।
गरम युद्ध से मरना पड़े या शीतयुद्ध से, अंतर कुछ नहीं पड़ता। ‘सरदार जी का झटका’ ठीक कि ‘कसाई का हलाल’। अंतर क्या पड़े? बकरे की परिणति तो एक ही हुई। अपने इस जनसमुदाय का- इस विश्व उद्यान का विनाश तो होना ही ठहरा। लू में सुलझने पर या पाला मारने पर फसल का बंटाधार ही होना है। अविश्वास, आशंका, अनिश्चितता, असुरक्षा और आतंक के घुटन भरे वातावरण में मानवीय गरिमा देर तक सुरक्षित नहीं रह सकती। भेड़िये और कुत्ते जब पागल होते हैं, तो आपस में ही एक- दूसरे को नोंच खाते हैं। मनुष्य जब पागल होते हैं, तो मरघट के भूत- पिशाचों जैसे आचरण करते हैं। जलने और जलाने, डरने और डराने के अतिरिक्त और कुछ उन्हें सूझता ही नहीं। ऐसी दशा में व्यक्ति और समाज को पतन पराभव के किस गर्त में गिरना पड़ेगा? इसकी सहज कल्पना की जा सकती है, जो तथ्य सामने हैं, वे किसी भी विचारशील का दिल दहलाने के लिए काफी हैं।
यह कल्पनाएँ, मान्यताएँ या आकांक्षाएँ नहीं, वरन् ऐसी परिस्थितियाँ हैं, जो दर्पण की तरह सामने हैं। उन्हें ज्योतिषियों, भविष्यवक्ताओं की अटकलें भी नहीं कहा जा सकता। प्रस्तुत तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक विचार कर सकने में समर्थ राजनेता, अर्थशास्त्री, समाज विज्ञानी, विज्ञानवेत्ता, अपनी- अपनी कसौटी पर कसकर एक स्तर से यही कहते पाये जाते हैं कि मनुष्य सामूहिक आत्महत्या की राह पर बदहवास होकर सरपट दौड़ता चला जा रहा है। कुछ समय बाद ही स्थिति ऐसी उत्पन्न हो जायेगी, जिसमें पीछे लौट सकना भी संभव न रहेगा। वापसी की भी एक सीमा होती है। सुधार की गुंजाइश भी एक समय तक ही रहती है। वह निकल चले, तो फिर पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ रहता नहीं।
हम निश्चित रूप से इन दिनों ऐसी विषम परिस्थितियों के बीच रह रहे हैं। पौराणिक विवेचन के अनुसार इसे असुरता के हाथों देवत्व का पराभव होना कहा जा सकता है। कभी हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, वृत्तासुर, भस्मासुर आदि ने आतंक उत्पन्न किये थे और देवताओं को खदेड़ दिया था। आलंकारिक रूप से किया गया वह वर्णन आज की परिस्थितियों के साथ पूरी तरह तालमेल खाता है। रावण और कंस काल की परिस्थितियों के साथ आज के वातावरण की तुलना करते हैं, तो पुनरावृत्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है। उन दिनों शासक वर्ग का ही आतंक था, पर आज तो राजा- रंक धनी- निर्धन, शिक्षित- अशिक्षित, वक्ता- श्रोता, सभी एक राह पर चल रहे हैं। छद्म और अनाचार ही सबका इष्टदेव बन चला है। नीति और मर्यादा का पक्ष दिनों- दिन दुर्बल होता जाता है।
उपाय दो ही हैं। एक यह कि शुतुरमुर्ग की तरह आँखें बंद करके भवितव्यता के सामने सिर झुका दिया जाय। जो होना है, उसे होने दिया जाय। दूसरा यह कि जो सामर्थ्य के अंतर्गत है, उसे करने में कुछ उठा न रखा जाय। टिटहरी समुद्र से लड़कर अण्डे वापस ले सकती है, तो अपने से कुछ न बन पड़े, ऐसा नहीं होना चाहिए।
महायुद्ध न भी हो तो भी वायु प्रदूषण, विकिरण, जनसंख्या विस्फोट, खनिज सम्पदा का समापन, पृथ्वी की उर्वरता का घटना, वृक्ष कटना, पशुओं का मिटना- जैसे अनेक ऐसे कारण विद्यमान हैं, जो शीतयुद्ध बनकर वही काम करें, जो शहतीर में लगने वाला घुन धीरे- धीरे, किन्तु निश्चित रूप से करता है। विषाणु कितने छोटे होते हैं, किन्तु वह अच्छे खासे पहलवान को क्षय, कैंसर जैसे रोगों से ग्रसित करके देखते- देखते मौत के मुँह में धकेल देते हैं।
कुविचारों और कुकर्मों से चरम सीमा तक पहुँच जाने पर अब मर्यादा और वर्जनाएँ लगभग समाप्त होती जा रही हैं। उच्छृंखलता, उद्दण्डता, अपराध, अनाचार अति की सीमा लाँघ रहे हैं। छल- प्रपंच कौशल के रूप में मान्यता प्राप्त कर चला है। परिवार बुरी तरह टूट और बिखर रहे हैं। चरित्र कहने- सुनने भर की वस्तु रह गई है। आदर्शों का अस्तित्व इसलिए है कि वे कथन प्रवचन को लच्छेदार बनाने के काम आते हैं। लिखते समय भी उनका पुट लगाने की आवश्यकता पड़ती है। मूर्धन्यों ने इस विग्रह को अपने लिए तो अपनाया ही है, छुटभइयों को भी अनुगमन की प्रेरणा देकर वैसा ही अभ्यस्त कर दिया है। प्रचलन और आन्दोलन उस दिशा में चल रहे हैं, जिनका अंत सर्वनाशी परिणतियों के अतिरिक्त और कहीं कुछ हो ही नहीं सकता। न व्यक्ति को चैन है, न समाज में शांति। पीढ़ियाँ अपने जन्मकाल से ही ऐसे दुर्गुण साथ लेकर जन्मती हैं कि अपना, परिवार और समाज का सर्वनाश करके ही रहें।
गरम युद्ध से मरना पड़े या शीतयुद्ध से, अंतर कुछ नहीं पड़ता। ‘सरदार जी का झटका’ ठीक कि ‘कसाई का हलाल’। अंतर क्या पड़े? बकरे की परिणति तो एक ही हुई। अपने इस जनसमुदाय का- इस विश्व उद्यान का विनाश तो होना ही ठहरा। लू में सुलझने पर या पाला मारने पर फसल का बंटाधार ही होना है। अविश्वास, आशंका, अनिश्चितता, असुरक्षा और आतंक के घुटन भरे वातावरण में मानवीय गरिमा देर तक सुरक्षित नहीं रह सकती। भेड़िये और कुत्ते जब पागल होते हैं, तो आपस में ही एक- दूसरे को नोंच खाते हैं। मनुष्य जब पागल होते हैं, तो मरघट के भूत- पिशाचों जैसे आचरण करते हैं। जलने और जलाने, डरने और डराने के अतिरिक्त और कुछ उन्हें सूझता ही नहीं। ऐसी दशा में व्यक्ति और समाज को पतन पराभव के किस गर्त में गिरना पड़ेगा? इसकी सहज कल्पना की जा सकती है, जो तथ्य सामने हैं, वे किसी भी विचारशील का दिल दहलाने के लिए काफी हैं।
यह कल्पनाएँ, मान्यताएँ या आकांक्षाएँ नहीं, वरन् ऐसी परिस्थितियाँ हैं, जो दर्पण की तरह सामने हैं। उन्हें ज्योतिषियों, भविष्यवक्ताओं की अटकलें भी नहीं कहा जा सकता। प्रस्तुत तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक विचार कर सकने में समर्थ राजनेता, अर्थशास्त्री, समाज विज्ञानी, विज्ञानवेत्ता, अपनी- अपनी कसौटी पर कसकर एक स्तर से यही कहते पाये जाते हैं कि मनुष्य सामूहिक आत्महत्या की राह पर बदहवास होकर सरपट दौड़ता चला जा रहा है। कुछ समय बाद ही स्थिति ऐसी उत्पन्न हो जायेगी, जिसमें पीछे लौट सकना भी संभव न रहेगा। वापसी की भी एक सीमा होती है। सुधार की गुंजाइश भी एक समय तक ही रहती है। वह निकल चले, तो फिर पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ रहता नहीं।
हम निश्चित रूप से इन दिनों ऐसी विषम परिस्थितियों के बीच रह रहे हैं। पौराणिक विवेचन के अनुसार इसे असुरता के हाथों देवत्व का पराभव होना कहा जा सकता है। कभी हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, वृत्तासुर, भस्मासुर आदि ने आतंक उत्पन्न किये थे और देवताओं को खदेड़ दिया था। आलंकारिक रूप से किया गया वह वर्णन आज की परिस्थितियों के साथ पूरी तरह तालमेल खाता है। रावण और कंस काल की परिस्थितियों के साथ आज के वातावरण की तुलना करते हैं, तो पुनरावृत्ति स्पष्ट परिलक्षित होती है। उन दिनों शासक वर्ग का ही आतंक था, पर आज तो राजा- रंक धनी- निर्धन, शिक्षित- अशिक्षित, वक्ता- श्रोता, सभी एक राह पर चल रहे हैं। छद्म और अनाचार ही सबका इष्टदेव बन चला है। नीति और मर्यादा का पक्ष दिनों- दिन दुर्बल होता जाता है।
उपाय दो ही हैं। एक यह कि शुतुरमुर्ग की तरह आँखें बंद करके भवितव्यता के सामने सिर झुका दिया जाय। जो होना है, उसे होने दिया जाय। दूसरा यह कि जो सामर्थ्य के अंतर्गत है, उसे करने में कुछ उठा न रखा जाय। टिटहरी समुद्र से लड़कर अण्डे वापस ले सकती है, तो अपने से कुछ न बन पड़े, ऐसा नहीं होना चाहिए।