
तरह-तरह के असमंजस
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सर्वप्रथम अपने को- जिसने आजीवन एक से एक बढ़कर कठिन और महत्त्वपूर्ण काम करने की आदत डाली और प्रसन्नता अनुभव की हो, उसको समर्थ रहते निष्क्रिय होकर बैठना कितना कठिन पड़ेगा। कितना मन मारना पड़ेगा। इसे कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है। निष्क्रिय पड़े लोहे को जंग खा जाती है। प्रकृति के नियम सब पर एक समान लागू होते हैं। निठल्लापन चढ़ते ही हाथ- पैर जकड़ सकते हैं, ऊब चढ़ सकती है, भारभूत जिन्दगी जल्दी समाप्त हो सकती है।
द्वितीय वर्ग वह आता है, जो हमें लोकसेवक की दृष्टि से देखता है। उसे आघात लगेगा- स्थूल दृष्टि से करनी और कथनी में अन्तर देखकर अपने द्वारा हर किसी को युग धर्म निभाने के समय निकालने के उपदेश दिये जाते रहे हैं। लाखों ने उन्हें अपनाया भी है। तथाकथित भजनानन्दी लोगों को कुटिया छोड़कर प्रव्रज्या पर निकल पड़ने की प्रेरणा मिली है। जिनके पास जो समय बचता है, उसे जन कल्याण में लगाने का नया व्रत लिया है औरों को ऐसा उपदेश देने के उपरान्त स्वयं एकान्तसेवी बन जाना, हर किसी को अटपटा लगेगा। सामने न सही पीठ पीछे तो लोग इसमें करनी और कथनी का अंतर देखेंगे ही और जो मन में है, उसे प्रकट भी करेंगे। इस प्रकार प्रशंसा निन्दा में बदलेगी। कहने वाले इसे समाज के साथ विश्वासघात भी कहेंगे। जिनके पास है और वे दें नहीं, तो कृपण या निष्ठुर कहे जाते हैं, ऐसा लांछन अपने ऊपर भी तो लग सकता है। संचित प्रशंसा और प्रतिष्ठा पर इस कारण हड़ताल और फिर कालिख भी पुत सकती है।
तीसरा वर्ग वह है कि जो कन्धे से कन्धा और कदम से कदम मिलाकर साथ देता और साथ चलता रहा है। इस वर्ग में से जो अधिक साहसी हैं, वे प्रथम पंक्ति में आकर जीवनदानी बने हैं। शांतिकुंज, ब्रह्मवर्चस एवं गायत्री तपोभूमि में आकर रह रहे हैं। सन्त और ब्राह्मण की जीवनचर्या जिनने अपनाई है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह और बारह घण्टे जमकर काम करने का जिनने ऋषि- मुनियों जैसा जीवनक्रम अपनाया है। फिर ऐसे परिवार बड़ी संख्या में हैं, जो हरिद्वार तो नहीं बुलाये गये, पर अपने- अपने कार्यक्षेत्रों में रहकर काम करने के लिए नियुक्त कर दिये गये हैं। प्रज्ञा पीठों का संचालन प्रायः ऐसे ही लोग कर रहे हैं। वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों की परिव्राजक की भूमिका निरन्तर निभा रहे हैं।
चौथा वर्ग समाज सेवा से जिनका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है, जो व्यक्तिगत जीवन तक सीमित हैं, जो पत्रिकाओं के- साहित्य के माध्यम से प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं, जो पत्र- व्यवहार द्वारा गुत्थियों को सुलझाने और सुखी- समुन्नत बनने के लिए प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं, उनकी संख्या भी कम नहीं है। जिनका सहज स्नेह है वे ऐसे ही जब मन में उमंग उठती है, तब हरिद्वार अकारण भी दौड़ पड़ते हैं। तीर्थयात्रा पर्यटन के बहाने परिवार को लेकर हजारों- लाखों हर वर्ष आते हैं। ठहरने की सुविधा शहर में होते हुए भी ढेरों मार्ग व्यय और आने जाने का झंझट उठाते हुए भी शांतिकुंज पहुँचते हैं, ठहरते हैं। इस समुदाय में हैरानियों से राहत पाने के इच्छुक ही नहीं, उत्साहवर्धक प्रगति पथ प्राप्त करने के उत्सुक ही नहीं, बल्कि ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिनका सहज स्नेह है। वह स्नेह ही उन्हें ढेरों पैसा और समय खर्च करके दर्शन करने का नाम लेकर एक बार नहीं, बार- बार आने को विवश करता है। इनकी सहज और सघन आत्मीयता सहज ही जानी और छलकती देखी जा सकती है।
इस समुदाय को जब विदित होगा कि निष्क्रियता ही नहीं अपनाई गई, मिल- जुल कर बोलना, बात करना भी बन्द कर दिया गया, तो निश्चित ही उन्हें चोट लगेगी। जो लोग हमें प्रेम, बटोरने और लुटाने वाला मानते रहे हैं, उन्हें नीरस- निष्ठुर कहते भी देर न लगेगी। इसमें उनका कसूर भी नहीं है, जो आँखों के सामने प्रत्यक्ष देखा जा रहा है, उसे झुठलाया भी कैसे जाय?
हरिद्वार से शान्तिकुंज जाने वाले ताँगे- रिक्शे वाले तक यह कहते सुने गये हैं कि गुरुजी अब समाधि ले रहे हैं, तो हरिद्वार के सबसे अधिक चहल -पहल वाले आश्रम में भी सन्नाटा छा जायेगा। जब वे मिलेंगे- दिखेंगे ही नहीं, तो दर्शनार्थियों- शिविरार्थियों की भीड़ क्यों आयेगी? हमारी भी रोजी- रोटी में कटौती होगी और आश्रम की शोभा महत्ता तो घट ही जायेगी। ईर्ष्यालुओं को भी अच्छा नहीं लग रहा है। वे तरह- तरह की नुक्ताचीनी करते रहने का एक बहाना तो पा जाते थे। अब बहाना भी न रहेगा, तो चुहल- बाजों का एक प्रसंग भी हाथ से चला जायेगा। अब किसी और को भड़ास निकालने के लिए तलाशना पड़ेगा।
पाँचवाँ वर्ग- अनेकों ने अध्यात्म की सजीव प्रतिमा के रूप में हमें समझा है और उस तत्त्वज्ञान को अपनाये जाने का वास्तविक स्वरूप क्या हो सकता है? उसे समझने- समझाने के लिए एक जीवन्त उदाहरण सामने पाया है। साधना से सिद्धि के सिद्धांत पर जिन्हें अनेकों संदेह थे, जो फल श्रुतियों को प्रत्यक्ष की कसौटी पर खरा उतरते नहीं देखते थे, उन्हें ऋद्धि- सिद्धियों की बात कपोल- कल्पना भर लगती थी, ऐसे निराश, उदास, दुःखी, असंतुष्ट, अन्यमनस्क और अविश्वास की ओर चल पड़े लोगों में से अनेकों ने अपने विचार बदले हैं। प्रत्यक्ष परिणति देखकर उनके डगमगाते हुए पैर रुके हैं। अब जब वह प्रत्यक्ष प्रकाश भी बुझने जा रहा है, तो किसी दूसरे का कब किस प्रकार वह विश्वास और साहस प्राप्त कर सकेगा, जो पिछले दिनों करता रहा है?
[सूक्ष्मीकरण साधना के दौरान युगऋषि कायारूप में लोगों से मिल जुल नहीं रहे थे। लेकिन चेतना स्तर पर वे जनसामान्य से लेकर विशिष्ट सहयोगियों तक के मनों का अध्ययन कितनी गहराई से कर रहे थे, यह तथ्य यहाँ स्पष्ट होता है। यही नहीं, वे उन सब के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी अनुभव करते हैं और सहज संवेदना के नाते सबके समुचित समाधान का भी प्रयास करते हैं।]
ऐसे- ऐसे अनेकों आक्षेप, असमंजस इस नये निर्णय से उठते हैं। विगत वसंत पर्व से यह नया निर्णय घोषित होने के उपरान्त फरवरी, मार्च एवं अप्रैल के महीनों में जितने भी प्रज्ञा परिजन वसन्त के सत्रों में अथवा सहानुभूतिवश शांतिकुंज आये हैं, उन सबके चेहरों पर इस असमंजस को उभरता देखा गया है। उचित समझा गया कि उसका निराकरण समय रहते कर दिया जाय। विपन्न मनोदशा में न स्वयं ही रहना चाहिए और न दूसरों को रहने देना चाहिये। यही उचित है। यह लेखमाला विशेष रूप से इसी निराकरण हेतु लिखी गई है।
द्वितीय वर्ग वह आता है, जो हमें लोकसेवक की दृष्टि से देखता है। उसे आघात लगेगा- स्थूल दृष्टि से करनी और कथनी में अन्तर देखकर अपने द्वारा हर किसी को युग धर्म निभाने के समय निकालने के उपदेश दिये जाते रहे हैं। लाखों ने उन्हें अपनाया भी है। तथाकथित भजनानन्दी लोगों को कुटिया छोड़कर प्रव्रज्या पर निकल पड़ने की प्रेरणा मिली है। जिनके पास जो समय बचता है, उसे जन कल्याण में लगाने का नया व्रत लिया है औरों को ऐसा उपदेश देने के उपरान्त स्वयं एकान्तसेवी बन जाना, हर किसी को अटपटा लगेगा। सामने न सही पीठ पीछे तो लोग इसमें करनी और कथनी का अंतर देखेंगे ही और जो मन में है, उसे प्रकट भी करेंगे। इस प्रकार प्रशंसा निन्दा में बदलेगी। कहने वाले इसे समाज के साथ विश्वासघात भी कहेंगे। जिनके पास है और वे दें नहीं, तो कृपण या निष्ठुर कहे जाते हैं, ऐसा लांछन अपने ऊपर भी तो लग सकता है। संचित प्रशंसा और प्रतिष्ठा पर इस कारण हड़ताल और फिर कालिख भी पुत सकती है।
तीसरा वर्ग वह है कि जो कन्धे से कन्धा और कदम से कदम मिलाकर साथ देता और साथ चलता रहा है। इस वर्ग में से जो अधिक साहसी हैं, वे प्रथम पंक्ति में आकर जीवनदानी बने हैं। शांतिकुंज, ब्रह्मवर्चस एवं गायत्री तपोभूमि में आकर रह रहे हैं। सन्त और ब्राह्मण की जीवनचर्या जिनने अपनाई है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह और बारह घण्टे जमकर काम करने का जिनने ऋषि- मुनियों जैसा जीवनक्रम अपनाया है। फिर ऐसे परिवार बड़ी संख्या में हैं, जो हरिद्वार तो नहीं बुलाये गये, पर अपने- अपने कार्यक्षेत्रों में रहकर काम करने के लिए नियुक्त कर दिये गये हैं। प्रज्ञा पीठों का संचालन प्रायः ऐसे ही लोग कर रहे हैं। वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों की परिव्राजक की भूमिका निरन्तर निभा रहे हैं।
चौथा वर्ग समाज सेवा से जिनका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है, जो व्यक्तिगत जीवन तक सीमित हैं, जो पत्रिकाओं के- साहित्य के माध्यम से प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं, जो पत्र- व्यवहार द्वारा गुत्थियों को सुलझाने और सुखी- समुन्नत बनने के लिए प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं, उनकी संख्या भी कम नहीं है। जिनका सहज स्नेह है वे ऐसे ही जब मन में उमंग उठती है, तब हरिद्वार अकारण भी दौड़ पड़ते हैं। तीर्थयात्रा पर्यटन के बहाने परिवार को लेकर हजारों- लाखों हर वर्ष आते हैं। ठहरने की सुविधा शहर में होते हुए भी ढेरों मार्ग व्यय और आने जाने का झंझट उठाते हुए भी शांतिकुंज पहुँचते हैं, ठहरते हैं। इस समुदाय में हैरानियों से राहत पाने के इच्छुक ही नहीं, उत्साहवर्धक प्रगति पथ प्राप्त करने के उत्सुक ही नहीं, बल्कि ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिनका सहज स्नेह है। वह स्नेह ही उन्हें ढेरों पैसा और समय खर्च करके दर्शन करने का नाम लेकर एक बार नहीं, बार- बार आने को विवश करता है। इनकी सहज और सघन आत्मीयता सहज ही जानी और छलकती देखी जा सकती है।
इस समुदाय को जब विदित होगा कि निष्क्रियता ही नहीं अपनाई गई, मिल- जुल कर बोलना, बात करना भी बन्द कर दिया गया, तो निश्चित ही उन्हें चोट लगेगी। जो लोग हमें प्रेम, बटोरने और लुटाने वाला मानते रहे हैं, उन्हें नीरस- निष्ठुर कहते भी देर न लगेगी। इसमें उनका कसूर भी नहीं है, जो आँखों के सामने प्रत्यक्ष देखा जा रहा है, उसे झुठलाया भी कैसे जाय?
हरिद्वार से शान्तिकुंज जाने वाले ताँगे- रिक्शे वाले तक यह कहते सुने गये हैं कि गुरुजी अब समाधि ले रहे हैं, तो हरिद्वार के सबसे अधिक चहल -पहल वाले आश्रम में भी सन्नाटा छा जायेगा। जब वे मिलेंगे- दिखेंगे ही नहीं, तो दर्शनार्थियों- शिविरार्थियों की भीड़ क्यों आयेगी? हमारी भी रोजी- रोटी में कटौती होगी और आश्रम की शोभा महत्ता तो घट ही जायेगी। ईर्ष्यालुओं को भी अच्छा नहीं लग रहा है। वे तरह- तरह की नुक्ताचीनी करते रहने का एक बहाना तो पा जाते थे। अब बहाना भी न रहेगा, तो चुहल- बाजों का एक प्रसंग भी हाथ से चला जायेगा। अब किसी और को भड़ास निकालने के लिए तलाशना पड़ेगा।
पाँचवाँ वर्ग- अनेकों ने अध्यात्म की सजीव प्रतिमा के रूप में हमें समझा है और उस तत्त्वज्ञान को अपनाये जाने का वास्तविक स्वरूप क्या हो सकता है? उसे समझने- समझाने के लिए एक जीवन्त उदाहरण सामने पाया है। साधना से सिद्धि के सिद्धांत पर जिन्हें अनेकों संदेह थे, जो फल श्रुतियों को प्रत्यक्ष की कसौटी पर खरा उतरते नहीं देखते थे, उन्हें ऋद्धि- सिद्धियों की बात कपोल- कल्पना भर लगती थी, ऐसे निराश, उदास, दुःखी, असंतुष्ट, अन्यमनस्क और अविश्वास की ओर चल पड़े लोगों में से अनेकों ने अपने विचार बदले हैं। प्रत्यक्ष परिणति देखकर उनके डगमगाते हुए पैर रुके हैं। अब जब वह प्रत्यक्ष प्रकाश भी बुझने जा रहा है, तो किसी दूसरे का कब किस प्रकार वह विश्वास और साहस प्राप्त कर सकेगा, जो पिछले दिनों करता रहा है?
[सूक्ष्मीकरण साधना के दौरान युगऋषि कायारूप में लोगों से मिल जुल नहीं रहे थे। लेकिन चेतना स्तर पर वे जनसामान्य से लेकर विशिष्ट सहयोगियों तक के मनों का अध्ययन कितनी गहराई से कर रहे थे, यह तथ्य यहाँ स्पष्ट होता है। यही नहीं, वे उन सब के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी अनुभव करते हैं और सहज संवेदना के नाते सबके समुचित समाधान का भी प्रयास करते हैं।]
ऐसे- ऐसे अनेकों आक्षेप, असमंजस इस नये निर्णय से उठते हैं। विगत वसंत पर्व से यह नया निर्णय घोषित होने के उपरान्त फरवरी, मार्च एवं अप्रैल के महीनों में जितने भी प्रज्ञा परिजन वसन्त के सत्रों में अथवा सहानुभूतिवश शांतिकुंज आये हैं, उन सबके चेहरों पर इस असमंजस को उभरता देखा गया है। उचित समझा गया कि उसका निराकरण समय रहते कर दिया जाय। विपन्न मनोदशा में न स्वयं ही रहना चाहिए और न दूसरों को रहने देना चाहिये। यही उचित है। यह लेखमाला विशेष रूप से इसी निराकरण हेतु लिखी गई है।