
दो मित्र की की गति परिणति
दो मित्र एक साथ खेले, बड़े हुए। पढ़ाई में भी दोनों आगे रहते थे। एक धनी घर का था और उसे खर्च की खुली छूट थी। दूसरा निर्धन पर संस्कारवान घर से आया था व सदैव सीमित खर्च करता। धनी मित्र जब तक साथ रहा उसे अपनी फिजूलखर्ची में साथ रहने को आमंत्रित करता रहा। पर उसने उसकी यही बात न मानी शेष बातों पर सदैव परामर्श लेता भी रहा और उसे सुझाव देता भी कि अक्षय सम्पदा होते हुए भी तुम्हें खर्च अनावश्यक नहीं करना चाहिए।
दोनों कालान्तर में अलग हुए। निर्धन मित्र ने अध्यापक की नौकरी स्वीकार कर ली व धनी मित्र ने व्यापार में धन लगाकर अपना कारोबार अलग बना लिया। १० वर्ष बाद दोनों की सहसा मुलाकात एक औषधालय में हुई। धनी मित्र अपना धन तो चौपट कर ही चुका था, अन्य दुव्यर्सनों के कारण जिगर खराब होने से औषधालय में चिकित्सार्थ भर्ती था। दूसरी ओर उसका मित्र अब एक विद्यालय का प्रधानाचार्य था। पति-पत्नी व एक बालक सीमित खर्च में निर्वाह करते थे। प्रसन्न उल्लास युक्त जीवन जीते थे। दोनों ने एक दूसरे की कथा-गाथा सुनी। धनी मित्र की आँखों से आँसू लुढ़क पड़े "मित्र ! मैंने तुम्हारा कहा माना होता तो आज मेरी यह स्थिति न होती। अनावश्यक खर्च की मेरी वृत्ति ने आज मुझे यहाँ तक पहुँचा दिया।'' दूसरे ने सहानुभूति दर्शायी, यथा सम्भव आर्थिक सहयोग देकर उसे नये सिरे से जीवन जीने योग्य बना दिया।
धनार्जने यथा बुद्धेरपेक्षा व्ययकर्मणि।
ततोऽधिकैव सापेक्ष्या तत्रौचित्सस्य निश्चये।। प्रज्ञा पुराण ।।
धन कमाने में जितनी बुद्धिमत्ता की आवश्यकता पड़ती है, उससे अनेक गुनी व्यय के औचित्य का निर्धारण करते समय लगनी चाहिए।।
सही तरीके से कमाना व सही कामों में औचित्य-अनौचित्य का ध्यान रखकर खर्च करना ही लक्ष्मी का सम्मान है। इसलिए अर्थ संतुलन के मितव्ययिता पक्ष को प्रधानता दी जाती है। ध्यान यही रखा जाय कि जो भी बचाया जाय उसको उचित प्रयोजनों में नियोजित कर दें।
प्रज्ञा पुराण भाग १ से