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दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
मनोरंजन के लिए एक पन्ना भी कभी नहीं पढ़ा है। अपने विषयों में मानो प्रवीणता की उपाधि प्राप्त करनी हो, ऐसी तन्मयता से पढ़ा है। इसलिए पढ़े हुए विषय मस्तिष्क में एकीभूत हो गए। जब भी कोई लेख लिखते थे या पूर्व में वार्त्तालाप में किसी गंभीर विषय पर चर्चा करते थे, तो पढ़े हुए विषय अनायास ही स्मरण हो आते थे। लोग पीठ पीछे कहते हैं— ‘‘यह तो चलता-फिरता एनसाइक्लोपीडिया है।’’ अखण्ड ज्योति पत्रिका के लेख पढ़ने वाले उसमें इतने संदर्भ पाते हैं कि लोग आश्चर्यचकित होकर रह जाते हैं और सोचते हैं कि एक लेख के लिए न जाने कितनी पुस्तकों और पत्रिकाओं से सामग्री इकट्ठी करके लिखा गया है। यही बात युगनिर्माण योजना, युगशक्ति पत्रिका के बारे में है। पर सच बात इतनी ही है कि हमने जो भी पढ़ा है, उपयोगी पढ़ा है और पूरा मन लगाकर पढ़ा है। इसलिए समय पर सारे संदर्भ अनायास ही स्मृतिपटल पर उठ आते हैं। यह वस्तुतः हमारी तन्मयता से की गई साधना का चमत्कार है।
जन्मभूमि के गाँव में प्राथमिक पाठशाला थी। सरकारी स्कूल की दृष्टि से इतना ही पढ़ा है। संस्कृत हमारी वंशपरंपरा में घुली हुई है। पिताजी संस्कृत के असाधारण प्रकांड विद्वान थे; भाई भी। सबकी रुचि भी उसी ओर थी। फिर हमारा पैतृक व्यवसाय पुराणों की कथा कहना तथा पौरोहित्य रहा है, सो उस कारण उसका भी समुचित ज्ञान हो गया। आचार्य तक के विद्यार्थियों को हमने पढ़ाया है, जबकि हमारी स्वयं की डिग्रीधारी योग्यता नहीं थी।
इसके बाद अन्य भाषाओं के पढ़ने की कहानी मनोरंजक है। जेल में लोहे के तसले पर कंकड़ की पेंसिल से अँगरेजी लिखना आरंभ किया। एक दैनिक अंक ‘लीडर’ अखबार का जेल में हाथ लग गया था। उसी से पढ़ना शुरू किया। साथियों से पूछताछ कर लेते। इस प्रकार एक वर्ष बाद जब जेल से छूटे, तो अँगरेजी की अच्छी-खासी योग्यता उपलब्ध हो गई। आपसी चर्चा से हर बार की जेलयात्रा में अँगरेजी का शब्दकोश हमारा बढ़ता ही चला गया एवं क्रमशः व्याकरण भी सीख ली। बदले में हमने उन्हें संस्कृत एवं मुहावरों वाली हिंदुस्तानी भाषा सिखा दी। अन्य भाषाओं की पत्रिकाएँ तथा शब्दकोश अपने आधार रहे हैं और ऐसे ही रास्ता चलते अन्यान्य भाषाएँ पढ़ ली हैं। गायत्री को बुद्धि की देवी कहा जाता है। दूसरों को वैसा लाभ मिला या नहीं, पर हमारे लिए यह चमत्कारी लाभ प्रत्यक्ष है। अखण्ड ज्योति की संस्कृतनिष्ठ हिंदी ने हिंदी प्राध्यापकों तक का मार्गदर्शन किया है। यह हम जब देखते हैं, तो उस महाप्रज्ञा को ही इसका श्रेय देते हैं। अतिव्यस्तता रहने पर भी विज्ञ की— ज्ञान की विभूति इतनी मात्रा में हस्तगत हो गई, जिसमें हमें परिपूर्ण संतोष होता है और दूसरों को आश्चर्य।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

तप का अर्थ क्या है? तप का अर्थ है अनुशासन। प्रत्येक चीज़ के ऊपर, अपनी हर चीज़ के ऊपर अनुशासन — उसका नाम है तप। तप में हम तपते हैं और प्रत्येक चीज़ को हम चैलेंज करते हैं। चैलेंज करते हैं सोने को, चैलेंज करते हैं जागने को। मौन रहते हैं, ज़मीन पे सोने की कोशिश करते हैं। जाने कितनी बार तो उपवास करते हैं। मन में क्या सोचते रहते हैं? फलानी बात कहते हैं — यह क्या बात है? यह अपने आप से लड़ाई है और क्या बात है? अपने आप से लड़ाई। अपने आप से। शरीर कहता है — कपड़ा दीजिए। नहीं, हम नहीं देंगे। तो आप ऐसे ही तंग करेंगे शरीर को? नहीं बेटे, हम तंग नहीं करेंगे। तंग क्यों करेंगे? तंग हम उतने समय तक करेंगे, जब तक घोड़ा तांगे में चलना नहीं सीखता। तंग हम उतने समय तक करेंगे, जब तक बैल हमारा कहना नहीं मानता। तंग हम उतने समय तक करेंगे, जब तक कि हमारा रीछ तमाशा दिखाना नहीं सीखता। तब तक हम तंग करेंगे उसको, जब तक कि हमारा बंदर हमारी डुगडुगी के सामने उछलना नहीं शुरू कर देता। बस, इतने समय तक तंग करेंगे। फिर क्या करेंगे? फिर बंदर को मिठाई खिलाएंगे। फिर बंदर को रोटियां खिलाएंगे। फिर बंदर को सब काम करेंगे। बंदर को सब काम करेंगे। फिर आप मारेंगे तो नहीं? नहीं बेटे, फिर नहीं मारेंगे। जब बंदर कहना मान लेगा, तो फिर क्यों मारेंगे? इससे हमें कोई बैर है? कोई दुश्मनी है बंदर से कि आप पिटाई करें? पिटाई करेंगे तो आप उससे कमाई कैसे खाएंगे? इसलिए हम पिटाई नहीं करेंगे। कमा के खिलाएगा यह हमको। कमा के खिलाने वाला है — इसको हम प्यार करेंगे, मोहब्बत करेंगे। लेकिन जब तक इसकी यह परिस्थिति बनी हुई है कि हमारे मन को और हमारी जीवात्मा को और हमारे सिद्धांतों को चैलेंज करता रहेगा — तब तक हम इसकी पिटाई करेंगे, और इसकी मारकाट करेंगे, और इसको ठीक करेंगे। यह क्या चीज़ है? तप। तप किसे कहते हैं? तड़प को कहते हैं। तप किसे कहते हैं? जीवट को कहते हैं। तप किसे कहते हैं? हिम्मत को कहते हैं। तप किसे कहते हैं? संघर्ष को कहते हैं। किससे संघर्ष करना पड़ता है? अपने आप से संघर्ष करना पड़ता है बेटे। यही तो है। यही तो है संघर्ष। इसी का नाम तो आध्यात्मिक जीवन है। बहिरंग जीवन में अपनी मनोवृत्तियों से हमको संघर्ष करना पड़ता है।
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सूर्य की बिखरी किरणें मात्र गर्मी और रोशनी उत्पन्न करती हैं। किन्तु जब उन्हें छोटे से आतिशी शीशे द्वारा एक बिन्दु पर केन्द्रित किया जाता है। तो देखते-देखते चिनगारियाँ उठती हैं और भयंकर अग्नि काण्ड कर सकने में समर्थ होती है। बिखरी हुई बारूद आग लगने पर भक् से जलकर समाप्त हो जाती है, किन्तु उसे बन्दूक की नली में सीमाबद्ध किया जाय तो भयंकर धमाका करती है और गोली से निशाना बेधती है। भाप ऐसे ही जहाँ-तहाँ से गर्मी पाकर उठती रहती है, पर केन्द्रित किया जा सके तो प्रेशर कुकर पकाने और रेलगाड़ी चलाने जैसे काम आती है।
अर्जुन मत्स्य बेध करके द्रौपदी स्वयंवर इसीलिए जीत सका था कि उसने एकाग्रता की सिद्धि कर ली थी। इसी के बलबूते विद्यार्थी अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होते, निशानेबाज लक्ष्य बेधते और सरकस वाले एक से एक बढ़कर कौतूहल दिखाते हैं। संसार के सफल व्यक्तियों की, एक विशेषता अनिवार्य रूप से रही है, कि वे अपने मस्तिष्क पर काबू प्राप्त किये रहे हैं। जो निश्चय कर लिया उसी पर अविचल भाव से चलते रहे हैं, बीच में चित्त को डगमगाने नहीं दिया है। यदि उनका मन अस्त-व्यस्त डाँवाडोल रहा होता तो कदाचित ही किसी कार्य में सफल हो सके होते।
योगाभ्यास में मनोनिग्रह को आत्मिक प्रगति की प्रधान भूमिका बताया गया है। इन्द्रिय संयम वस्तुतः मनोनिग्रह ही है। इन्द्रियां तो उपकरण मात्र हैं। वे स्वामिभक्त सेवक की तरह सदा आज्ञा पालन के लिए प्रस्तुत रहती हैं। आदेश तो मन ही देता है। उसी के कहने पर ज्ञानेन्द्रियां, कर्मेन्द्रियां ही नहीं, समूची काया भले बुरे आदेश पालन करने के लिए तैयार रहती है। अस्तु संयम साधना के लिए मन को साधना पड़ता है। संयम से शक्तियों का बिखराव रुकता है और समग्र क्षमता एक केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित होती है। फलतः उस मनःस्थिति में जो भी काम हाथ में लिया जाय, सफल होकर रहता है।
ध्यानयोग सांसारिक सफलताओं में भी आश्चर्यजनक योगदान प्रस्तुत करता है। उसके आधार पर अपना भी भला हो सकता है और दूसरों का भी किया जा सकता है।
~ समाप्त
अखण्ड ज्योति 1986 नवम्बर पृष्ठ 5
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
इस संदर्भ में प्रह्लाद का फिल्म-चित्र आँखों के आगे तैरने लगा। वह समाप्त न होने पाया था कि ध्रुव की कहानी मस्तिष्क में तैरने लगी। इसका अंत न होने पाया कि पार्वती का निश्चय उछलकर आगे आ गया। इस आरंभ के उपरांत महामानवों की— वीर बलिदानियों की— संत-सुधारक और शहीदों की अगणित कथागाथाएँ सामने तैरने लगीं। उनमें से किसी के भी घर-परिवारवालों ने— मित्र-संबंधियों ने समर्थन नहीं किया था। वे अपने एकाकी आत्मबल के सहारे कर्त्तव्य की पुकार पर आरूढ़ हुए और दृढ़ रहे। फिर यह सोचना व्यर्थ है कि इस समय अपने इर्द-गिर्द के लोग क्या करते और क्या कहते हैं? उनकी बात सुनने से आदर्श नहीं निभेंगे। आदर्श निभाने हैं, तो अपने मन की ललक-लिप्साओं से जूझना पड़ेगा। इतना ही नहीं, इर्द-गिर्द जुड़े हुए उन लोगों की भी उपेक्षा करनी पड़ेगी, जो मात्र पेट-प्रजनन के कुचक्र में ही घूमते और घुमाते रहे हैं।
निर्णय आत्मा के पक्ष में गया। मैं अनेकों विरोध और प्रतिबंधों को तोड़ता— लुक-छिपकर निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा और सत्याग्रही की भूमिका निभाता हुआ जेल गया। जो भय का काल्पनिक आतंक बनाया गया था, उसमें से एक भी चरितार्थ नहीं हुआ।
छुटपन की एक घटना इन दोनों प्रयोजनों में और भी साहस देती रही। गाँव में एक बुढ़िया मेहतरानी घावों से पीड़ित थी; दस्त भी हो रहे थे; घावों में कीड़े पड़ गए थे; बेतरह चिल्लाती थी, पर कोई छूत के कारण उसके घर में नहीं घुसता था। मैंने एक चिकित्सक से उपचार पूछा। दवाओं का एकाकी प्रबंध किया। उसके घर नियमित रूप से जाने लगा। चिकित्सा के लिए भी— परिचर्या के लिए भी— भोजन-व्यवस्था के लिए भी। यह सारे काम मैंने अपने जिम्मे ले लिए। मेहतरानी के घर में घुसना; उसके मल-मूत्र से सने कपड़े धोना आज से 65 वर्ष पूर्व गुनाह था। जाति बहिष्कार कर दिया गया। घरवालों तक ने प्रवेश न करने दिया। चबूतरे पर पड़ा रहता और जो कुछ घरवाले दे जाते, उसी को खाकर गुजारा करता। इतने पर भी मेहतरानी की सेवा छोड़ी नहीं। यह पंद्रह दिन चली और वह अच्छी हो गई। वह जब तक जीवित रही, मुझे भगवान कहती रही। उन दिनों 13 वर्ष की आयु में भी अकेला था। सारा घर और सारा गाँव एक ओर। लड़ता रहा, हारा नहीं। अब तो उम्र कई वर्ष और अधिक बड़ी हो गई थी। अब क्यों हारता?
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
स्वतंत्रता-संग्राम की कई बार जेलयात्रा— 24 महापुरश्चरणों का व्रत धारण— इसके साथ ही मेहतरानी की सेवा-साधना, यह तीन परीक्षाएँ मुझे छोटी उम्र में ही पास करनी पड़ीं। आंतरिक दुर्बलताएँ और संबद्ध परिजनों के दुहरे मोर्चे पर एक साथ लड़ा। उस आत्मविजय का ही परिणाम है कि आत्मबल-संग्रह में अधिक लाभ से लाभान्वित होने का अवसर मिला। उन घटनाक्रमों से हमारा आपा बलिष्ठ होता चला गया एवं वे सभी कार्यक्रम हमारे द्वारा बखूबी निभते चले गए, जिनका हमें संकल्प दिलाया गया था।
महापुरश्चरणों की शृंखला नियमित रूप से चलती रही। जिस दिन गुरुदेव के आदेश से उस साधना का शुभारंभ किया था, उसी दिन घृतदीप की अखण्ड ज्योति भी स्थापित की। उसकी जिम्मेदारी हमारी धर्मपत्नी ने सँभाली, जिन्हें हम भी माता जी के नाम से पुकारते हैं। छोटे बच्चे की तरह उस पर हर घड़ी ध्यान रखे जाने की आवश्यकता पड़ती थी; अन्यथा, वह बच्चे की तरह मचल सकता था; बुझ सकता था। वह अखंड दीपक इतने लंबे समय से बिना किसी व्यवधान के अब तक नियमित जलता रहा है। इसके प्रकाश में बैठकर जब भी साधना करते हैं, तो मनःक्षेत्र में अनायास ही दिव्य भावनाएँ उठती रहती हैं। कभी किसी उलझन को सुलझाना अपनी सामान्य बुद्धि के लिए संभव नहीं होता, तो इस अखंड ज्योति की प्रकाश-किरणें अनायास ही उस उलझन को सुलझा देती हैं।
नित्य 66 माला का जप; गायत्री माता के चित्र-प्रतीक का धूप, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प, जल से पूजन; जप के साथ-साथ प्रातःकाल के उदीयमान सविता देवता का ध्यान; अंत में सूर्यार्घ्यदान। इतनी छोटी-सी विधि-व्यवस्था अपनाई गई। उसके साथ बीजमंत्र का संपुट आदि का कोई तांत्रिक विधि-विधान जोड़ा नहीं गया, किंतु श्रद्धा अटूट रही। सामने विद्यमान गायत्री माता के चित्र के प्रति असीम श्रद्धा उमड़ती रही। लगता रहा कि वे साक्षात् सामने बैठी हैं। कभी-कभी उनके आँचल में मुँह छिपाकर प्रेमाश्रु बहाने के लिए मन उमड़ता। कभी ऐसा नहीं हुआ कि मन न लगा हो; कहीं अन्यत्र भागा हो। तन्मयता निरंतर प्रगाढ़ स्तर की बनी रही। समय पूरा हो जाता, तो अलग अलार्म बजता; अन्यथा, उठने को जी ही नहीं करता था। उपासनाक्रम में कभी एक दिन भी विघ्न न आया।
यही बात अध्ययन के संबंध में रही। उसके लिए अतिरिक्त समय न निकालना पड़ा। कांग्रेस-कार्यों के लिए प्रायः काफी-काफी दूर चलना पड़ता। जब परामर्श या कार्यक्रम का समय आता, तब पढ़ना बंद हो जाता। जहाँ चलना आरंभ हुआ, वहीं पढ़ना भी आरंभ हो गया। पुस्तक साइज के चालीस पन्ने प्रतिघंटे पढ़ने की स्पीड रही। कम-से-कम दो घंटे नित्य पढ़ने के लिए मिल जाते। कभी-कभी ज्यादा भी। इस प्रकार दो घंटे में 80 पृष्ठ। महीने में 2400 पृष्ठ। साल भर में लगभग 29000 पृष्ठ। साठ वर्ष की कुल अवधि में लगभग साढ़े सत्रह लाख पृष्ठ हमने मात्र अपनी अभिरुचि के पढ़े हैं। लगभग 3 हजार पृष्ठ नित्य विहंगम रूप से पढ़ लेने की बात भी हमारे लिए स्नान-भोजन की तरह आसान व सहज रही है। यह क्रम प्रायः 60 वर्ष से अधिक समय से चलता आ रहा है और इतने दिन में अनगिनत पृष्ठ उन पुस्तकों के पढ़ डाले, जो हमारे लिए आवश्यक विषयों से संबंधित थे। महापुरश्चरणों की समाप्ति के बाद समय अधिक मिलने लगा। तब हमने भारत के विभिन्न पुस्तकालयों में जाकर ग्रंथों— पांडुलिपियों का अध्ययन किया। वह हमारे लिए अमूल्य निधि बन गई।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

तप क्या चक्कर है? तप, बेटे, यही चक्कर है कि प्रत्येक अपनी वृत्ति को चैलेंज कर, चैलेंज कर, चैलेंज कर। शरीर को चैलेंज कर। शरीर क्या कहता है? यह कहता है हम आराम से सोएंगे, गर्मी बर्दाश्त नहीं करेंगे, ठंडक बर्दाश्त नहीं करेंगे। अच्छा-अच्छा, तेरी हुकूमत हमारे ऊपर है कि हमारी हुकूमत तेरे ऊपर है? हमारी हुकूमत पहले मंजूर कर, तब हम देखेंगे। तुझे जो कुछ भी बात कहेगा, तो हम तुझे मानेंगे। पहले हमारी हुकूमत मंजूर कर, तब बात करेंगे। हम हुकूमत चलाते हैं, इसलिए हम तुझे ठंडक पर रखेंगे। नहीं साहब, ठंडक में नहीं रहेंगे। रहना पड़ेगा। यह क्या है? तप। गर्मी में चल। अरे साहब, गर्मी में कैसे चलेंगे? नहीं, नंगे पैर चलना पड़ेगा। नंगे पैर परिक्रमा लगानी पड़ेगी। काहे की? गोवर्धन की। काहे की परिक्रमा लगवा दूं गोवर्धन की? नंगे पैर से क्या फायदा? नंगे पैर चल, चलना पड़ेगा। गरम बालू में चलना पड़ेगा, रेत में चलना पड़ेगा। क्यों? क्योंकि हम तुझे "शू" बुलवा देंगे। "शू" बोल पहले, तब हम देखेंगे। पहले "शू" बोल, फिर हम तेरी बात सुनेंगे। तू हमारी हुकूमत मान, सिक्का मान। तू शरीर है हमारा। हमारी हुकूमत भी नहीं मानना चाहता? नहीं साहब, शरीर हमारे ऊपर हावी होता है और यह कहता है कि शरीर की मर्जी से मन को चलना पड़ेगा। नहीं, अब हमने यह कसम खाई है कि हमारा शरीर, हमारे मन की आज्ञा पर चलेगा। यह तो नहीं मानता है साहब! मानना पड़ेगा इसको, मानना पड़ेगा! मैंने हुकुम दिया — चल, आज तुझे यह करना पड़ेगा। आज हमने हुकुम दिया है किसको? अपने पेट को। क्या हुकुम दिया है? खाना नहीं मिलेगा। साहब, खाना नहीं खाएंगे तो पेट में भूख लगेगी! लगेगी साहब। खाना नहीं खाएंगे तो हमको नींद नहीं आएगी! नहीं आएगी। खाना नहीं खाएंगे तो क्या? आज एकादशी का उपवास है। एकादशी का उपवास है तो कुछ खा सकते... खा तो लें बेटे, खाने में क्या हर्ज है? अच्छा, ठीक है — यह नहीं खाएंगे तो पकौड़ी खा लेंगे। वह नहीं खाने देंगे तुझे। क्यों नहीं खाने देंगे तुझे? हमारा हुकुम मानना पड़ेगा तुझे। हमारा हुकुम मानना पड़ेगा तुझे। यह क्या चीज़ है? यह, बेटे, कड़ाई है। यह अनुशासन है। यह ऋषि वर्ण है। और कहना मानना पड़ेगा। अबाउट टर्न! राइट हील! लेफ्ट हील! सिपाही जब सारी की सारी कवायदें कर देता है, हुकुम देने के बाद, तब यह समझा जाता है कि मोर्चे पर जाने लायक है। अरे साहब, मोर्चे पर भेज दीजिए, वहां देखिएगा हमारे कमाल! वहां हम बंदूक चलाएंगे और वहां देखना — क्या-क्या हम कर-करके जोहर जाते हैं। हां, वहां तो आप जोहर करेंगे, पर यहां जो हम आपको हुकुम देते हैं, कौशल देते हैं — उनको पालन करके दिखाइए। नहीं साहब, यहां पर क्या फायदा? यहां कोई लड़ाई हो रही है क्या? जहां लड़ाई होगी, वहां करेंगे? नहीं, लड़ाई जहां नहीं होती, वहां क्या करेगा?

विचारक, मनीषी, बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार वैज्ञानिक आदि अपनी कल्पना शक्ति को एक सीमित क्षेत्र में ही जुटाये रहने के कारण तद्विषयक असाधारण सूझबूझ का परिचय देते हैं और ऐसी कृतियाँ-उपलब्धियाँ प्रस्तुत कर पाते हैं, जिन पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यह एकाग्रता का चमत्कार है। बुद्धि की तीव्रता जन्मजात नहीं होती। वह चिन्तन को विषय विशेष में तन्मय करने के फलस्वरूप हस्तगत होती है।
चाकू, उस्तरा जैसे औजारों को पत्थर पर घिस देने से वे चमकने लगते हैं और पैनी धार के बन जाते हैं। बुद्धि के संबंध में भी यही बात है। उसे तन्मयता की खराद पर खराद कर हीरे जैसा चमकीला बनाना पड़ता है। जिनका मन एक काम पर न लगेगा, जो शारीरिक, मानसिक दृष्टि से उचकते मचकते रहेंगे, वे अपना समय, श्रम बर्बाद करने के अतिरिक्त उपहासास्पद भी बनकर रहेंगे।
प्रवीणता और प्रतिभा निखारने के लिए- प्रगति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए- एकाग्रता का सम्पादन आवश्यक है। शरीरगत संयम बरतने से मनुष्य स्वस्थ रहता और दीर्घ जीवी बनता है, उसी प्रकार मनोगत संयम-एकाग्रभाव सम्पादित करने से वह बुद्धिमान, विचारकों की गणना में गिना जाने लगता है।
कछुए और खरगोश की कहानी बहुतों ने सुनी होगी, जिसमें अनवरत चलते रहने वाला उस खरगोश से आगे निकल गया था, जो अहंकार में इतराता हुआ अस्त-व्यस्त चलता था। वरदराज और कालिदास जैसे मूढ़मति समझे जाने वाले जब दत्तचित्त होकर पढ़ने में प्रवृत्त हुए तो मूर्धन्य विद्वान बन गये। यह तत्परता और तन्मयता के संयुक्त होने का चमत्कार है। बिजली के दोनों तार जब संयुक्त होते हैं तो करेण्ट बहने लगता है। गंगा और यमुना के मिलने पर पाताल से सरस्वती की तीसरी धारा उमड़ती है। ज्ञान और कर्म का प्रतिफल भी ऐसे ही चमत्कार उत्पन्न करता है। मन और चित्त के समन्वय से उत्पन्न होने वाली एकाग्रता के भी ऐसे ही असाधारण प्रतिफल उत्पन्न होते देखे गये हैं।
.... क्रमशः जारी
अखण्ड ज्योति 1986 नवम्बर पृष्ठ 4
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

उत्तराखण्ड, हिमाचल, दक्षिण भारतीय आदि राज्यों के दो दिवसीय राष्ट्रीय शिक्षक गरिमा का शुभारंभ
हरिद्वार 7 जून।
शांतिकुंज के मुख्य सभागार में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय शिक्षक गरिमा शिविर के उद्घाटन सत्र के अवसर पर शांतिकुंज महिला मंडल प्रमुख श्रीमती शैफाली पण्ड्या ने कहा कि जीवन में किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए साधना अनिवार्य है। चाहे वह विद्यार्थी का अध्ययन हो या खिलाड़ी का खेल हो,अभ्यास और साधना ही उन्हें सफलता तक पहुँचाती है। उन्होंने कहा कि व्यक्तित्व का समग्र विकास भी साधना से ही संभव है।
इस शिविर में उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश,पंजाब, दिल्ली,हरियाणा,बिहार एवं दक्षिण भारतीय राज्यों के शिक्षक-शिक्षिकाएं तथा भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा के सक्रिय कार्यकर्त्ता बड़ी संख्या में सम्मिलित हुए।
गायत्री विद्यापीठ व्यवस्था मण्डल की प्रमुख श्रीमती पण्ड्या ने कहा कि जैसे बीज को विकसित होने के लिए उपजाऊ व संस्कारित भूमि की आवश्यकता होती है, वैसे ही बच्चों को ऐसा वातावरण और संस्कार मिलने चाहिए जहाँ उनकी प्रतिभा का समुचित विकास हो सके।
शिक्षकों की यह जिम्मेदारी है कि वे विद्यार्थियों को केवल पाठ्यक्रम की शिक्षा न दें, बल्कि उनके जीवन में आदर्शों,आत्मविश्वास,सेवा, सच्चाई व आत्मविकास के मूल्यों का भी सिंचन करें। उन्होंने आगामी वर्ष में परम वंदनीया माताजी की जन्मशताब्दी वर्ष की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा कि उनके संगठनात्मक व सांस्कृतिक योगदानों को जन-जन तक पहुँचाना हम सभी का नैतिक कर्तव्य है।
शिविर के पहले दिन विविध सत्रों में भारतीय संस्कृति, नैतिक शिक्षा, मूल्यनिष्ठ जीवनशैली और आधुनिक शैक्षिक चुनौतियों पर चर्चा हुई। इस अवसर पर श्री केपी दुबे ने समस्त विश्व को भारत का अजस्र अनुदान विषय पर विशेष जानकारी दी। शिविर के अन्य वक्ताओं में श्री नमोनारायण पाण्डेय, सुधीर श्रीपाद, गोपाल शर्मा और कमल नारायण ने भी संबोधित किया। समापन वंदनीया माताजी के आदर्शों को नमन करते हुए हुआ। सभी शिक्षकों ने जन्मशताब्दी वर्ष की तैयारियों में सक्रिय योगदान भागीदारी करने का संकल्प भी लिया।





ध्यान भूमिका की साधना में शरीर को ढीला और मन को खाली रखना चाहिए। इसके लिए शिथिलीकरण मुद्रा तथा उन्मनी मुद्रा का अभ्यास करना पड़ता है। शिथिलीकरण का स्वरूप यह है कि देह को मृतक-निष्प्राण मूर्छित, निद्रित, निश्चेष्ट स्थिति में किसी आराम कुर्सी या किसी अन्य सहारे की वस्तु से टिका दिया जाय और ऐसा अनुभव किया जाय मानो शरीर प्रसुप्त स्थिति में पड़ा हुआ है। उसमें कोई हरकत हलचल नहीं हो रही है। यह मुद्रा शरीर को असाधारण विश्राम देती और तनाव दूर करती है। ध्यानयोग के लिए यही स्थिति सफलता का पथ प्रशस्त करती है।
मन मस्तिष्क को ढीला करने वाली उन्मनी मुद्रा यह है कि इस समस्त विश्व को पूर्णतया शून्य रिक्त अनुभव किया जाय। प्रलय के समय ऊपर नील आकाश, नीचे नील जल स्वयं अबोध बालक की तरह कमल पत्र पर पड़े हुए तैरना अपने पैर का अँगूठा अपने मुख से चूसना, इस प्रकार का प्रलय चित्र बाज़ार में भी बिकता है। मन को शान्त करने की दृष्टि से यह स्थिति बहुत ही उपयुक्त है संसार में कोई व्यक्ति, वस्तु , हलचल, समस्या, आवश्यकता है ही नहीं, सर्वत्र पूर्ण नीरवता ही भरी पड़ी है- यह मान्यता प्रगाढ़ होने पर मन के लिए भोगने, सोचने, चाहने का कोई पदार्थ या कारण रह ही नहीं जाता।
अबोध बालक के मन में कल्पनाओं की घुड़दौड़ की कोई गुँजाइश नहीं रहती। अपने पैर के अँगूठे में से निसृत अमृत का जब आप ही परमानन्द उपलब्ध हो रहा है तो बाहर कुछ ढूँढ़ने खोजने की आवश्यकता ही क्या रही? इस उन्मनी मुद्रा में आस्था पूर्वक यदि मन जमाया जाय तो उसके खाली एवं शान्त होने की कोई कठिनाई नहीं रहती। कहना न होगा कि शरीर को ढीला और मन को खाली करना ध्यानयोग के लिए नितान्त आवश्यक है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि ध्यानयोग का चुम्बकत्व ही आत्मा और परमात्मा की प्रगाढ़ घनिष्ठता को विकसित करके द्वैत को अद्वैत बनाने में सफल होता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग जितना गहरा होगा उतना ही परस्पर लय होने की-सम्भावना बढ़ेगी इस एकता के आधार पर ही बिन्दु को सिन्धु बनने का अवसर मिलता है। जीव के ब्रह्म बनने का अवसर ऐसे ही लय समर्पण पर एकात्म भाव पर निर्भर रहता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मार्च 1973 पृष्ठ 50

आध्यात्मिकता के साथ योग और तप। योग और तप की दो धाराएं। योग और तप की दो धाराएं, और दोनों मिली हुई हैं। दोनों में से हम किसी को अलग नहीं कर सकते।
योग किसे कहते हैं? योग, बेटे, ध्यान को कहते हैं।
योग किसे कहते हैं? भावना की दृष्टि से आत्मा और परमात्मा को जो हम मिलाने का संकल्प करते हैं, उस वृत्ति का नाम योग है। हम दोनों को मिलाते हैं — अपनी आत्मा को परमात्मा से मिलाते हैं, शरणागत होते हैं, समर्पण करते हैं, भक्ति भावना से ओतप्रोत हो जाते हैं।
"यह क्या चीज़ कह रहे हैं आप?"
"यह, बेटे, मैं वह कह रहा हूं — योग की बात कह रहा हूं तुझसे, जिसको मैंने अपनी शिक्षण पद्धति में ब्रह्मविद्या के नाम से कहा है।"
योग यह भावनात्मक उछाल है, भावनात्मक उबाल है। भावनाओं को हम परिष्कृत करेंगे, श्रेष्ठ करेंगे, भावनाओं को उज्ज्वल बनाएंगे, भावनाओं को पवित्र बनाएंगे, भावनाओं को कोमल बनाएंगे, भावनाओं को संवेदनशील बनाएंगे — ताकि हमारी भावनाएं वैसी हो जाएं, जिसमें कि हम ब्रह्म से मिल सकने के लायक जीवात्मा को मिला सकें। हम इसलिए इतना कोमल अपने आप को बनाएंगे कि जितना दम, और हम अपने आप को इतना गर्म करेंगे कि जितना ब्रह्म। दोनों को एक ही क्वालिटी का मिलाकर के, हम साथ-साथ मिला देंगे और हम दोनों जुड़ने की कोशिश करेंगे।
पानी, पानी मिल सकता है दूध में।
"नहीं साहब, यह मिला दीजिए।"
"क्या मिला दें?"
"यह पत्थर का चूरा?"
"यह नहीं मिलेगा। यह पत्थर का चूरा नहीं मिल सकता। हाँ, दूध में कुछ मिलाना है तो पानी मिल सकता है। लिक्विड, लिक्विड भी मिल सकता है।"
"नहीं साहब, ऐसे ही कुछ मिला दीजिए। आप तो यह मिट्टी का तेल मिला दीजिए।"
"बेटे, मिट्टी के तेल की परत आ जाएगी ऊपर, पानी नीचे रह जाएगा।"
"नहीं साहब, मिला दीजिए।"
"नहीं मिल सकता। पानी भारी और मिट्टी का तेल हल्का है — दोनों नहीं मिल सकते।"
ब्रह्म और जीव को मिलाने के लिए अपनी संवेदनाओं को, अपनी विचारणाओं को, अपनी मन:स्थिति को हम कोमल बनाते हैं, नम्र बनाते हैं, शीलवान बनाते हैं, चरित्रवान बनाते हैं, दिव्य बनाते हैं — जिसका नाम योग है।
"तो फिर महाराज जी, योग से सिद्धि मिल जाएगी?"
"नहीं, योग से सिद्धि नहीं मिलेगी। योग का एक और भाई है। भाई को लेकर के तू नहीं चलेगा, तो सिद्धि नहीं मिलेगी। मैं बताये देता हूं तुझे।"
"महाराज जी, मैं खूब समाधि लगाया करूंगा, ध्यान लगाया करूंगा।"
"बेटे, तो नहीं मिलेगी। हम कह रहे तुझसे — उसका एक और सहायक है, उसको लेके चल।"
"सहायक कौन सा?"
"उसका नाम है तप।"