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अखिल विश्व गायत्री परिवार शांतिकुंज की ‘परम वन्दनीया माताजी अन्नपूर्णा योजना’ के अंतर्गत दिनांक 23 मई 2025 को आदर्श माध्यमिक विद्यालय, तुगलकपुर, खानपुर में एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें क्षेत्र के 11 विद्यालयों के सैकड़ों विद्यार्थियों को उपयोगी शैक्षणिक सामग्री वितरित की गई।
कार्यक्रम का शुभारंभ सरस्वती पूजन से हुआ। इसके पश्चात देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी, शांतिकुंज व्यवस्थापक आदरणीय श्री योगेन्द्र गिरी जी, मुख्य शिक्षा अधिकारी हरिद्वार श्री कमलेश कुमार गुप्ता जी, श्री अजय त्रिपाठी जी एवं श्री दीपेन्द्र जी द्वारा ‘युग निर्माणी बैग (Bag)’ विद्यार्थियों को वितरित किए गए। यह पहल बच्चों में शिक्षा के प्रति उत्साहवर्धन एवं समान अवसर प्रदान करने की दिशा में एक सराहनीय कदम है।
कार्यक्रम में सभी 11 राजकीय प्राथमिक विद्यालय खानपुर ,तुगलपुर ,मोहन वाला, गुरुद्वारा बादशाहपुर , मांडोवाला वाला, शेरपुर बेला, चंद्रपुरी कला ,चंद्रपुरी खुर्द, नाईवाला,
जोगावाला और दल्लावाला के शिक्षक शिक्षिकाओं के साथ प्रधानाचार्य, पदाधिकारीगण, गायत्री परिवार के कार्यकर्ता भाई बहनों के साथ नेशनल कॉलेज खानपुर के प्रबंधक श्री घनश्याम गुप्ता जी ,तुगलपुर ग्राम प्रधान श्याम पाल , ब्लॉक अध्यक्ष श्री केहर सिंह जी , शिक्षक संघ के श्री प्रमोद कुमार ,सीआरसी के श्री बबलू सिंह ,बी आर सी के श्री पवन वर्मा जी भी उपस्थित थे।

















ओसियां, जोधपुर: अखिल विश्व गायत्री परिवार शांतिकुंज हरिद्वार की ओसियां शाखा द्वारा आज श्री वर्धमान जैन सीनियर सेकेंडरी विद्यालय, ओसियां में एक विशेष कार्यक्रम आयोजित कर कक्षा 11वीं एवं 12वीं के विद्यार्थियों सहित नगर के गणमान्य नागरिकों को प्रज्ञा अभियान पत्रिका वितरित की गई।
इस अवसर पर ओसियां के पूर्व सरपंच श्री मांगीलाल जी भासा, पूर्व उपसरपंच श्री गायड़ सिंह जी भाटी, विद्यालय के प्रिंसिपल श्री ओम सिंह जी राजपुरोहित, श्री मोहन सिंह जी राजपुरोहित (थोब), शिक्षण संस्था के ट्रस्टी श्री बाबूलाल जी टाटिया, श्री मांगिलाल जी राठी, अध्यापक श्री आशाराम जी जानी तथा गायत्री परिवार के श्री भगवानदास राठी, श्री विक्रमसिंह चौधरी, श्री मोतीलाल सोनी, श्री रामस्वरूप सोनी, श्री अजाराम चौधरी एवं श्री ओमप्रकाश सोलंकी उपस्थित रहे।
कार्यक्रम का उद्देश्य विद्यार्थियों एवं समाज के प्रबुद्धजनों को आध्यात्मिक चिंतन, नैतिक मूल्यों एवं सकारात्मक जीवन दृष्टिकोण से प्रेरित करना रहा। प्रज्ञा अभियान पत्रिका में जीवन साधना, संस्कार निर्माण एवं राष्ट्र निर्माण से जुड़ी उपयोगी व प्रेरक सामग्री उपलब्ध है, जिसे सभी ने सराहना के साथ स्वीकार किया।
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जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय:—
वह पावन दिन वसंत पर्व का दिन था। प्रातः ब्रह्ममुहूर्त्त था। नित्य की तरह संध्यावंदन का नियम-निर्वाह चल रहा था। प्रकाश-पुंज के रूप में देवात्मा का दिव्य दर्शन, उसी कौतूहल से मन में उठी जिज्ञासा और उसके समाधान का यह उपक्रम चल रहा था। मैंने अपना पिछला जन्म आदि से अंत तक देखा। इसके बाद दूसरा भी। तदुपरांत तीसरा भी। तीनों ही जन्म दिव्य थे; साधना में निरत रहे थे एवं तीनों ही में समाज के नवनिर्माण की महती भूमिका निभानी पड़ी थी। उन सामने उपस्थित देवात्मा के मार्गदर्शन तीनों ही जन्मों में मिलते रहे थे, इसलिए उस समय तक जो अपरिचित जैसा कुछ लगता था, वह दूर हो गया। एक नया भाव जगा— घनिष्ठ आत्मीयता का। उनकी महानता, अनुकंपा और साथ ही अपनी कृतज्ञता का। इस स्थिति ने मन का कायाकल्प कर दिया। कल तक जो परिवार अपना लगता था, वह पराया लगने लगा और जो प्रकाश-पुंज अभी-अभी सामने आया था, वह प्रतीत होने लगा कि मानो यही हमारी आत्मा है। इसी के साथ हमारा भूतकाल बँधा हुआ था और अब जितने दिन जीना है, वह अवधि भी इसी के साथ जुड़ी रहेगी। अपनी ओर से कुछ कहना नहीं; कुछ चाहना नहीं, किंतु दूसरे का जो आदेश हो, उसे प्राणपण से पालन करना— इसी का नाम समर्पण है। समर्पण मैंने उसी दिन प्रकाश-पुंज देवात्मा को किया और उन्हीं को न केवल मार्गदर्शक, वरन् भगवान् के समतुल्य माना। उस संबंध-निर्वाह को प्रायः साठ वर्ष होने को आते हैं। बिना कोई तर्कबुद्धि लड़ाए; बिना कुछ नननुच किए, एक ही इशारे पर— एक ही मार्ग पर गतिशीलता होती रही है। संभव है, या नहीं; अपने बूते यह हो सकेगा या नहीं; इसके परिणाम क्या होंगे? इन प्रश्नों में से एक भी प्रश्न आज तक मन में उठा नहीं।
उस दिन मैंने एक और नई बात समझी कि सिद्धपुरुषों की अनुकंपा मात्र लोकहित के लिए— सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन के निमित्त होती है। उनका न कोई सगा-संबंधी होता है, न उदासीन-विरोधी। किसी को ख्याति, संपदा या कीर्ति दिलाने के लिए उनकी कृपा नहीं बरसती। विराट ब्रह्म— विश्वमानव ही उनका आराध्य होता है। उसी के निमित्त अपने स्वजनों को वे लगाते हैं। अपनी इस नवोदित मान्यता के पीछे रामकृष्ण-विवेकानन्द का— समर्थ रामदास-शिवाजी का— चाणक्य-चंद्रगुप्त का— गाँधी-विनोबा का— बुद्ध-अशोक का गुरु-शिष्य-संबंध स्मरण हो आया। जिनकी आत्मीयता में ऐसा कुछ न हो; सिद्धि-चमत्कार, कौतुक-कौतूहल, दिखाने या सिखाने का क्रियाकलाप चलता रहा हो, समझना चाहिए कि वहाँ गुरु और शिष्य की क्षुद्र प्रवृत्ति है और जादूगर-बाजीगर जैसा कोई खेल-खिलवाड़ चल रहा है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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हमारी आंतरिक गरिमा उत्कृष्ट, ऊँचे स्तर पर, पहाड़ के बराबर होनी चाहिए। ज़मीन पर हम रहे तो रहे, लंगोटी पहनने को न मिले तो न मिले, कमंडल स्टेनलेस स्टील का न हो, लौकी का बन जाए तो क्या? रहने के लिए मकान न हो, हम पेड़ के नीचे गुज़ारा कर लें तो क्या? पहनने के लिए कपड़े न हो, हम खाक और भस्म को मिलाकर शरीर से लपेट लें तो क्या?
हमारे जीवात्मा का स्तर ऊँचा होना चाहिए, अरमान महान होना चाहिए। बड़े आदमी न हों तो न हों। ऐसी गज़ब की फिलॉसफी थी यह। मैं सोचता हूँ, अगर कोई फिलॉसफी उसको फिर इस हिंदुस्तान में लाकर के वापस कर सके, तो मैं सोचता हूँ स्वर्ग फिर ज़मीन पर आ सकता है और मनुष्य के भीतर देवत्व का फिर उदय हो सकता है।
यह हमारी ब्रह्मविद्या की बात थी। हम भूल गए और हमने सारी दुनिया में, और सारी दुनिया में, सातवें आसमान पे खुदा रहता है — रहता होगा बेटा। क्षीर सागर में विष्णु भगवान सोते हैं — अच्छी बात है, मुबारक रहे उनका क्षीरसागर और उनका साँप। नहीं साहब, वह बहुत अच्छी तरीके से सो रहे हैं, और रात को 12 बजे जगते हैं तो उनकी बीवी को खबर रखनी चाहिए। हमें क्या मतलब है?
शेषशैया पर सोते हैं तो सोते रहें। महादेव बाबा कैलाश पर सोते हैं बेटे, तो अच्छी बात है। उनके लिए रहने के लिए वही मुनासिब जगह होगी। सफेद रंग के रीछ भी तो कैलाश पर सोते हैं। वहाँ सोते रहते हैं पहाड़ पर, महादेव जी भी सोते होंगे — हमें क्या लेना देना?
नहीं साहब, यह ब्रह्मविद्या नहीं बेटे। यह कोई ब्रह्मविद्या नहीं। ब्रह्मविद्या तो वह है जिसमें कि आदमी अपने व्यक्तित्व के संबंध में, अपनी समस्याओं के संबंध में, अपनी मूलभूत सत्ता के संबंध में विचार करता है। उसको हम ब्रह्मविद्या कहते हैं।
मैं विचार करता हूँ कि शिक्षा का विकास होना चाहिए, लेकिन विद्या का भी विकास होना चाहिए। विद्या — विद्या अगर लोगों के पास न रही, विद्या से मतलब मेरा ब्रह्मविद्या से है।
ब्रह्मविद्या का अर्थ, इसका अर्थ मैं नहीं कहता जिसमें कि पढ़ाई आती है — गणित आता है, भूगोल आता है, केमिस्ट्री आता है। मैंने विद्या का अर्थ कभी इस अर्थ में नहीं किया। "विद्या अमृतम", "मनुस्मृति"।
विद्या को मैं उस मायने में अर्थ करता हूँ, जिसको पा करके आदमी अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। वह विद्या, वह विद्या हमारी संपदा थी — वह खो गई। हमसे खो गई। कोई ले गया। और उसके स्थान पर जो कुछ भी दे गया है — ऐसा झमेला और ऐसा जाल-जंजाल दे गया है कि जाल-जंजाल में हम मकड़ी की तरह फँसते चले जाते हैं।
अपने बारे में विचार नहीं करते। खुदा के बारे में विचार करते हैं। खुदा कहाँ रहेगा? अरे भाड़ में रहेगा! हमें नहीं मालूम खुदा कहाँ रहेगा।
अपने बारे में विचार कर। अपने बारे में विचार नहीं करता — खुदा के पीछे डंडा लेकर पड़ा हुआ है। भगवान कहाँ रहता है? भगवान क्या खाता है? भगवान कहाँ जाएगा? कहीं भी जाएगा भगवान! भगवान का काम भगवान के जिम्मे, हमारा काम हमारे जिम्मे।
मित्रों, अपने आप के संबंध में जिसमें हम बारीकी से विचार करते हैं और अपनी समस्याओं के समाधान करते हैं — यह ब्रह्मविद्या है।
मैं सोचता हूँ, ब्रह्मविद्या का प्रचार और ब्रह्मविद्या का प्रसार फिर से होना चाहिए।

परमात्मा, ईश्वर, ब्रह्म परमपिता आदि कई नामों से पुकारी जाने वाली एक अनादि शक्ति का प्रकाश और उसकी प्रेरणा से ही इस जगत का और जगत के पदार्थों को स्फुरण मिल रहा है। उसी के प्रभाव से सृष्टि के विभिन्न पदार्थो का ज्ञान, कार्य एवं सौर्न्दय प्रतिभासित होता है।
वही अपने समय रुप् में अवतीर्ण होता रहता और सत्य रुप् में प्रतिष्ठित होता रहता है। साधक जब विराट् ‘जगत ‘ के रुप् में परमात्मा का दर्शन करता है, उन्हीं चेतना को सूर्य, पृथ्वी चन्द्रमा तारागण आदि में प्रकाशित होते देखता है तो सत्य का दर्शन होता है जगत और अध्यात्म का स्थूल और सूक्ष्म का, दृश्य और तत्व का जहाँ परिपूर्ण सामंजस्य होता है, वहीं सत्य की परिभाषा पूर्ण होती है।
और यह सत्य जब जीवन साधना का आधार बनता है तब जगत की प्रेरक और सर्जन शक्ति का परिचय प्राप्त होता है। इसलिए शास्त्रकारों ने सत्य को ही जीवन का सहज दर्शन माना है महर्षि विश्वामित्र ने कहा है -”सत्येनार्क प्रतपति सत्ये तिष्ठति मेदिनी। सत्य व्यक्ति परोधर्मः स्वर्गे सत्ये प्रतिष्ठितः॥ अर्थात सत्य से ही सूर्य तप रहा है, सत्य पर ही पृथ्वी टिकी हुई है। सत्य सबसे बड़ा धर्म है और सत्य पर ही र्स्वग प्रतिष्ठित है।”
समग्र अध्यात्म दर्शन का मूल आधार सत्य हैं पूर्व और पशिचम जिस प्रकार का एक ही अखण्ड क्षितिज में स्थित है उसी प्रकार जगतृ और अध्यात्म, दृश्य और अदृश्य सत्ता एक ही सत्य के दर्शन असम्भव है। सत्य के साथ शिव और सुन्दर भी जुड़े हुए है। शिव अर्थात आनन्द कल्याण और सुन्द अर्थात् पुलक उत्पन्न करने वाली भावनशत्मक विशेषत।
सब जगत् की समस्त घटनाओं को केवल ब्राह्म घटनाएँ समझकर उनका विश्लेषण किया जाता है तो उनसे कोई आनन्द नहीं मिलता। उस स्थिति में घटनाएँ और विश्लेश्षण केवल एक शुष्क मशीनी उपक्रम मात्र बन कर रह जाते है। पटरी पर रेल के समान सड़क पर मोटर के समान, शिलाखंडी पर नदी की धारा के समान मन मानस पर भी जगत की धारा बहती रहती है।
चित्त पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला। और सब कुछ निर्जिव नीरसा, अरुचिकर परस्पर और अहोभाव का समावेश कर लिया जाये तो परमपित परमात्मा की यह सृष्टि के निर्माण में अपनी पूरी कलात्मकता का परिचय दिया है और इस सृष्टि को इतना सुन्दर बनाया है कि उसमें रस भाव से देखा जाये तो यह उपवन असंख्य प्रकार के पुष्पों से मंहकता पुलकता अनुभव होने लगे। रात को तारों भरे आकाश में कितने सुन्दर, टिमटिमाते हुए दिये जला दिये है, नीले आकाश की काली चादर में कैसे चमकते हुए मोती टाँग दिये है।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, मई १९८० पृष्ठ ०६

We were privileged to welcome Shri Yogesh Verma, Chairman and Managing Director of Anya Softek Ltd., to the campus of Dev Sanskriti Vishwavidyalaya. During his visit, Shri Verma ji had an insightful interaction with the Pro Vice Chancellor, Respected Dr. Chinmay Pandya.
Their dialogue centered around the transformative role of technology in nurturing and disseminating spiritual, cultural, and educational values in contemporary society. Shri Verma ji expressed deep appreciation for the university’s pioneering efforts in harmonizing modern scientific education with the timeless wisdom of Indian culture.
He especially lauded the vision laid down by Param Pujya Gurudev a vision that inspires the institution to build value-based leadership for a better, more conscious world. The university stands as a living embodiment of Gurudev’s dream, where tradition and technology converge to serve humanity.
This visit reaffirmed our belief in collaborative efforts toward nation-building through spiritually inspired, ethically rooted education.




It was an honour to host the distinguished parents of Ms. Parvati, our international student from Japan, who has recently completed her graduation in Yoga from Dev Sanskriti Vishwavidyalaya.
Her father, the Head of the Jain Association of Japan, and her mother, the Head of the Buddhist Association of Japan, visited the campus and had the privilege of meeting Respected Dr. Chinmay Pandya, Pro Vice Chancellor of the university.
This heartfelt meeting was a confluence of cultures and spiritual values. Dr. Pandya expressed appreciation for their lifelong dedication to preserving and promoting ancient Indian wisdom in Japan, and shared his best wishes for their continued efforts in building spiritual unity and cultural harmony.
Their presence symbolised a beautiful blend of Jain, Buddhist, and Yogic traditions—coming together on the sacred soil of Dev Sanskriti.





We were honored to host Ms. Shankari Shaktini Chaitanya, esteemed Personal Secretary to Swami Shankaratilaka Saraswati Ji, Chancellor of the Vedic Foundation International—an institution with a spiritual presence in Rishikesh, Budapest, and Spain.
As an alumna of Dev Sanskriti Vishwavidyalaya, we take great pride in her accomplishments and her continued dedication to the global dissemination of Indian culture and values.
During her recent visit to the university, she had the privilege of meeting our Pro Vice Chancellor Respected Dr. Chinmay Pandya. Their enriching interaction focused on building global collaborations in the realms of spirituality, education, and cultural renaissance.





जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय:—
‘‘हम सूक्ष्मदृष्टि से ऐसे सत्पात्र की तलाश करते रहे, जिसे सामयिक लोक-कल्याण का निमित्तकारण बनाने के लिए प्रत्यक्ष कारण बनावें। हमारा यह सूक्ष्मशरीर है। सूक्ष्मशरीर से स्थूल कार्य नहीं बन पड़ते। इसके लिए किसी स्थूलशरीरधारी को ही माध्यम बनाना और शस्त्र की तरह प्रयुक्त करना पड़ता है। यह विषम समय है। इसमें मनुष्य का अहित होने की अधिक संभावनाएँ हैं। उन्हीं का समाधान करने के निमित्त तुम्हें माध्यम बनाना है। जो कमी है, उसे दूर करना है। अपना मार्गदर्शन और सहयोग देना है। इसी निमित्त तुम्हारे पास आना हुआ है। अब तक तुम अपने सामान्य जीवन से ही परिचित थे। अपने को साधारण व्यक्ति ही देखते थे। असमंजस का एक कारण यह भी है। तुम्हारी पात्रता का वर्णन करें, तो भी कदाचित् तुम्हारा संदेह-निवारण न हो। कोई किसी बात पर अनायास ही विश्वास करे, ऐसा समय भी कहाँ है। इसीलिए तुम्हें पिछले तीन जन्मों की जानकारी दी गई।’’
तीनों ही जन्मों का विस्तृत विवरण जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत तक का दर्शाने के बाद उन्होंने बताया कि किस प्रकार वे इन सभी में हमारे साथ रहे और सहायक बने।
वे बोले— ‘‘यह तुम्हारा चौथा जन्म है। तुम्हारे इस जन्म में भी सहायक रहेंगे और इस शरीर से वह करावेंगे, जो समय की दृष्टि से आवश्यक है। सूक्ष्मशरीरधारी प्रत्यक्ष जनसंपर्क नहीं कर सकते और न घटनाक्रम स्थूलशरीरधारियों द्वारा ही संपन्न होते हैं, इसलिए योगियों को उन्हीं का सहारा लेना पड़ता है।
तुम्हारा विवाह हो गया, सो ठीक हुआ। यह समय ऐसा है, जिसमें एकाकी रहने से लाभ कम और जोखिम अधिक है। प्राचीनकाल में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, गणेश, इंद्र आदि सभी सपत्नीक थे। सातों ऋषियों की पत्नियाँ थीं; कारण कि गुरुकुल आरण्यक स्तर के आश्रम चलाने में माता की भी आवश्यकता पड़ती है और पिता की भी। भोजन, निवास, वस्त्र, दुलार आदि के लिए भी माता चाहिए और अनुशासन, अध्यापन, अनुदान पिता की ओर से ही मिलता है। गुरु ही पिता है और गुरु की पत्नी ही माता। ऋषिपरंपरा के निर्वाह के लिए यह उचित भी है, आवश्यक भी। आजकल भजन के नाम पर जिस प्रकार आलसी लोग संत का बाना पहनते और भ्रम-जंजाल फैलाते हैं, तुम्हारे विवाहित होने से मैं प्रसन्न हूँ। इसमें बीच में व्यवधान तो आ सकता है, पर पुनः तुम्हें पूर्वजन्म में तुम्हारे साथ रही सहयोगिनी पत्नी के रूप में मिलेगी, जो आजीवन तुम्हारे साथ रहकर महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहेगी। पिछले दो जन्मों में तुम्हें सपत्नीक रहना पड़ा है। यह न सोचना कि इससे कार्य में बाधा पड़ेगी। वस्तुतः, इससे आज कीपरिस्थितियों में सुविधा ही रहेगी एवं युग परिवर्तन के प्रयोजन में भी सहायता मिलेगी।’’
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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एक राजकुमार था, नाम था जिसका सिद्धार्थ। सिद्धार्थ था, उसने अपने आप की धुलाई मज़ाई शुरू कर दी, और धुलाई मज़ाई शुरू करने के बाद में मज़ा आ गया उसको। हमने भगवान कहा, बुद्धा अवतारे। बुद्ध को हम अवतार मानते हैं, उसके लिए प्रणाम करते हैं और यह करते हैं।
छोटे-छोटे आदमी, छोटे-छोटे आदमी कहाँ से पैदा हुए थे? बहुत से अवतार पैदा हुए थे। कोई कच्छ पैदा हुआ, कोई मच्छ पैदा हुआ, कोई परशुराम पैदा हो गए, कौन-कौन रामचंद्र जी, किशन चंद्र जी पैदा हो गए। लोगों ने अपने आप को इस स्तर तक विकसित कर लिया कि हम उनको भगवान कहते हैं और भगवान का रूप देंगे।
भगवान आप क्यों कहते हैं बेटे? हम भगवान ही कहेंगे और भगवान की सारी की सारी विशेषताएँ जिनके भीतर पाई जा सकती हैं, हम क्यों भगवान न कहें? यह ब्रह्मविद्या, मैं समझता हूँ, इस संसार की सबसे बड़ी विद्या होनी चाहिए — जो आदमी के व्यक्तित्व को उछालती है, व्यक्तित्व को उभारती है, व्यक्तित्व को परिष्कृत करती है, व्यक्तित्व को श्रेष्ठ और शालीन बनाती है।
इतना शालीन बना सकती है कि हम इंसान की काया में भगवान का साक्षात्कार कर सकते हैं, देवता का साक्षात्कार कर सकते हैं। इसी काया के भीतर हम ऋषि का साक्षात्कार कर सकते हैं, और इसी काया के अंदर महात्मा और परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं।
ऐसी विद्या, ऐसी स्नायु, ऐसी साइंस के लिए मैं क्या कह सकता हूँ? फिलॉसफी के लिए क्या कह सकता हूँ? यह ब्रह्मविद्या हमारी संपदा है। इसी ने नर रत्नों को गढ़ा। जगह-जगह से, प्रत्येक खदान में से, प्रत्येक कुटुंब में से, नवरत्न निकल के आते थे किसी ज़माने में। यह किसका चमत्कार था, किसका जादू था बेटे? यह ब्रह्मविद्या का जादू था जिसमें कि आदमी सोचता था — हम मर नहीं सकते, और मरने वाले का माद्दा हमारे भीतर नहीं है।
शरीर को हम बदलते हैं और हम किस तरीके से मर सकते हैं? मरने वालों ने हँसते हुए कहा — आत्मा हूँ, बदल डालूँगा यह फ़ौरन चोला। कैसे आ जाएगी अगर मेरी कजा जाएगी? कजा को, कजा को हँसते हुए और हँसाते हुए, गीता की पुस्तक को कलेजे से चिपका करके लोग फाँसी के फंदे पर झूल गए।
मित्रों, यह साइंस और यह फिलॉसफी हमारी महत्वपूर्ण फिलॉसफी थी। इसमें मनुष्य ने अपने शरीर की दृष्टि से विचार ही नहीं किया कभी। शरीर को खाना कब मिलेगा तो क्या? कपड़ा कब मिलेगा तो क्या? शरीर को विषय कब मिलेंगे तो क्या? भोग मिलेगा तो क्या? इससे क्या बनता है?
हमारी जीवात्मा का स्तर और हमारा स्वाभिमान ऊँचा उठा रहना चाहिए।