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बेटे, हमारी अक्ल और हमारी समझ ऐसी बेहूदा है, हमारी समझ कि जहां आदमी का जीवन होता है, वहां तो हम सब भूल जाते हैं। और जहां इसका बाहर वाला छिलका होता है, छिलके को लिए फिरते हैं।
कोई युगों में साथ भगवान राम आए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम, समाज को मर्यादाओं की संस्थापना करने के शिक्षण देने आए थे। रामचंद्र जी की जीवात्मा तो मर गई। अब क्या रह गया है? अब रामचंद्र जी का खिलौना रह गया है, जिसको हम डनन डनन, घनन घनन, "लो रामचंद्र जी, हरे रामा हरे कृष्णा" — हार गए रामा, हार गए कृष्णा, हार गए रामा, हार गए कृष्णा, हरे रामा — रह गया है।
और वह मर्यादा? मर्यादा तो मार के डाल दी हमने। मर्यादा तो मार कर डाल दी, केवल नाम रह गया है और काम खत्म कर दिया है।
हम ऐसे अभागे हैं।
अच्छा हुआ, यह तो अच्छा हुआ बात, पहली रही, पुरानी चली गई।
अगर शिवाजी और राणा प्रताप कहीं आज से हजार-दो हजार वर्ष पहले रहे होते, तो हमने वही — "ये तोप थी हमारे ऊपर", वही आरती कौन सी?
"जय राणा प्रताप देवा, जय शिवाजी देवा, पान खाओ, खजूर खाओ और खाओ मेवा।"
"जय शिवाजी देवा, राणा प्रताप देवा, पान खाओ, गुड़ खाओ और खाओ मेवा।"
यह जाहिल जो हैं, इन जाहिलों के पल्ले एक ही पड़ी है — तोप कौन सी?
किसी तरीके से बस माला घुमाओ।
माला घुमाओ — "राणा प्रतापाय नमः, राणा प्रतापाय नमः, राणा प्रतापाय नमः।"
"शिवाजी नमः, शिवाजी नमः, शिवाजी नमः।"
यह क्या कर रहा है?
"चौबीस हजार का अनुष्ठान कर रहा हूं। शिवाजी का अनुष्ठान कर रहा हूं।"
तो क्या करेंगे शिवाजी?
"आएंगे और बस रुपए की थैली रख जाएंगे मेरे पीछे?"
आज तो बेटे, ऐसी मिट्टी पलीत हो गई है।
मैं क्या करता हूं?
मुझे क्रोध आता है और मुझे आता है रोष।
यह हमारी आध्यात्मिकता की ऐसी मिट्टी पलीत, ऐसी हो गई।
अच्छा होता, हमने वो परंपराओं को ज़िंदा रखा होता।

प्रचारात्मक, संगठनात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक चतुर्विधि कार्यक्रमों को लेकर युग निर्माण योजना क्रमशः अपना क्षेत्र बनाती और बढ़ाती चली जायेगी। निःसन्देह इसके पीछे ईश्वरीय इच्छा और महाकाल की विधि व्यवस्था काम कर रहीं है, हम केवल उसके उद्घोषक मात्र है। यह आन्दोलन न तो शिथिल होने वाला है, न निरस्त। हमारे तपश्चर्या के लिये चले जाने के बाद वह घटेगा नहीं - हजार लाख गुना विकसित होगा। सो हममें से किसी को शंका कुशंकाओं के कुचक्र में भटकने की अपेक्षा अपना वह दृढ़ निश्चय परिपक्व करना चाहिए कि विश्व का नव निर्माण होना ही है और उससे अपने अभियान को, अपने परिवार को अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका का सम्पादन करना ही है।
परिजनों को अपनी जन्म-जन्मान्तरों की उस उत्कृष्ट सुसंस्कारिता का चिंतन करना चाहिए जिसकी परख से हमने उन्हें अपनी माला में पिरोया है। युग की पुकार, जीवनोद्देश्य की सार्थकता, ईश्वर की इच्छा और इस ऐतिहासिक अवसर की स्थिति, महामानव की भूमिका को ध्यान में रखते हुए कुछ बड़े कदम उठाने की बात सोचनी चाहिए। इस महाअभियान की अनेक दिशाएँ हैं जिन्हें पैसे से, मस्तिष्क से, श्रम सीकरों से सींचा जाना चाहिए। जिसके पास जो विभूतियाँ हैं उन्हें लेकर महाकाल के चरणों में प्रस्तुत होना चाहिए।
लोभ, मोह के अज्ञान और अंधकार की तमिस्रा को चीरते हुए हमें आगे बढ़ना चाहिए और अपने पास जो हो उसका न्यूनतम भाग अपने और अपने परिवार के लिए रख कर शेष को विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए। नव निर्माण की लाल मशाल में हमने अपने सर्वस्व का तेल टपका कर उसे प्रकाशवान् रखा है। अब परिजनों की जिम्मेदारी है कि वे उसे जलती रखने के लिए हमारी ही तरह अपने अस्तित्व के सार तत्व को टपकाएँ। परिजनों पर यही कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व छोड़कर इस आशा के साथ हम विदा हो रहे हैं कि महानता की दिशा में कदम बढ़ाने की प्रवृत्ति अपने परिजनों में घटेगी नहीं बढ़ेगी ही।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, जून 1971, पृष्ठ 62
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मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
“सहज शीत, ताप के मौसम में, जीवनोपयोगी सभी वस्तुएँ मिल जाती हैं; शरीर पर भी ऋतुओं का असह्य दबाव नहीं पड़ता, किंतु हिमालय-क्षेत्र के असुविधाओं वाले प्रदेश में स्वल्प साधनों के सहारे कैसे रहा जा सकता है, यह भी एक कला है; साधना है। जिस प्रकार नट शरीर को साधकर अनेक प्रकार के कौतूहलों का अभ्यास कर लेते हैं, लगभग उसी प्रकार का वह अभ्यास है, जिसमें नितांत एकाकी रहना पड़ता है; पत्तियों और कंदों के सहारे निर्वाह करना पड़ता है और हिंस्र जीव-जंतुओं के बीच रहते हुए अपने प्राण बचाना पड़ता है।”
“जब तक स्थूलशरीर है, तभी तक यह झंझट है। सूक्ष्मशरीर में चले जाने पर वे आवश्यकताएँ समाप्त हो जाती हैं, जो स्थूलशरीर के साथ जुड़ी हुई हैं। सरदी-गरमी से बचाव, क्षुधा-पिपासा का निवारण, निद्रा और थकान का दबाव; यह सब झंझट उस स्थिति में नहीं रहते हैं। पैरों से चलकर मनुष्य थोड़ी दूर जा पाता है, किंतु सूक्ष्मशरीर के लिए एक दिन में सैकड़ों योजनों की यात्रा संभव है। एक साथ, एक मुख से सहस्रों व्यक्तियों के अंतःकरणों तक अपना संदेश पहुँचाया जा सकता है। दूसरों की इतनी सहायता सूक्ष्मशरीरधारी कर सकते हैं, जो स्थूलशरीर रहते संभव नहीं। इसलिए सिद्धपुरुष सूक्ष्मशरीर द्वारा काम करते हैं। उनकी साधनाएँ भी स्थूलशरीर वालों की अपेक्षा भिन्न हैं।”
“स्थूलशरीरधारियों की एक छोटी सीमा है। उनकी बहुत सारी शक्ति तो शरीर की आवश्यकताएँ जुटाने में— दुर्बलता, रुग्णता, जीर्णता आदि के व्यवधानों से निपटने में खरच हो जाती है, किंतु लाभ यह है कि प्रत्यक्ष दृश्यमान कार्य स्थूलशरीर से ही हो पाते हैं। इस स्तर के व्यक्तियों के साथ घुलना-मिलना— आदान-प्रदान इसी के सहारे संभव है। इसलिए जनसाधारण के साथ संपर्क साधे रहने के लिए प्रत्यक्ष शरीर से ही काम लेना पड़ता है। फिर वह जरा-जीर्ण हो जाने पर अशक्त हो जाता है और त्यागना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उसके द्वारा आरंभ किए गए काम अधूरे रह जाते हैं। इसलिए जिन्हें लंबे समय तक ठहरना है और महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के अंतराल में प्रेरणाएँ एवं क्षमताएँ देकर बड़े काम कराते रहना है, उन्हें सूक्ष्मशरीर में ही प्रवेश करना पड़ता है।”

देवी-भागवत् पुराण में भगवती गायत्री महाशक्ति की महत्ता का विस्तारपूर्वक वर्णन है। उसे समस्त देवताओं का उपास्य और समस्त मन्त्रों का शिरोमणि बताया गया है। अनादि काल से सर्वत्र उसी की महिमा गायी जाती है और उपासना को प्रधानता दी जाती है। शास्त्र-इतिहास में ऐसा ही विवरण मिलता है और देवताओं, अवतारी देवदूतों द्वारा अपनी उपासना का रहस्योद्घाटन करते हुए इसी महाशक्ति को अपना इष्टदेव प्रतिपादित किया जाता रहा है। शक्तियों का केन्द्र वस्तुतः यही महामंत्र है। इसकी महत्ता का प्रतिपादन करते हुए शास्त्र कहते हैं-
न गायत्र्याः परो धर्मा न गायत्र्याः परन्तपः। न गायत्र्याः समो देवो न गायत्र्याः पाते मनुः॥ गातरं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन सोच्चते।
अर्थात्-गायत्री से परे कोई नहीं है, गायत्री से परम अन्य कोई भी तपश्चर्या नहीं है। गायत्री के समान अन्य कोई देवता नहीं है। गायत्री का मंत्र सब मंत्रों में श्रेष्ठ है। जो कोई इस गायत्री का गायन अर्थात् जप किया करता है, उसकी यह गायत्री त्राण-रक्षा किया करती है। इसीलिए इसका गायत्री-यह नाम कहा जाता है। इसी की उपासना से मनुष्यों से लेकर त्रिदेवों तथा अन्य देवताओं तक का कल्याण होना सिद्ध होता रहा है। प्रज्ञातत्व की अधिष्ठात्री गायत्री ही है।
आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा आत्मिक प्रगति के लिए जिस शक्ति की आवश्यकता पड़ती है, वह प्रज्ञातत्व ही है। प्रज्ञा की अभीष्ट मात्रा यदि अपने पास विद्यमान हो तो फिर आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति करने के लिए कोई बाधा नहीं रह जाती है। वह सुविधा और परिस्थितियाँ आसानी से बन जाती हैं, जिनके आधार पर मनुष्य नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम और आत्मा से परमात्मा बन जाता है। इसके लिए कोई विशेष श्रम या मनोयोग लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में उतना ही श्रम और मनोयोग लगाना पर्याप्त रहता है जितना कि भौतिक आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए जरूरी होता है। लोभ और मोह की पूर्ति में जितना पुरुषार्थ करना और जितना जोखिम उठाना पड़ता है, आत्मिक प्रगति के लिए उससे कम में ही काम चल जाता है।
महामानवों को उससे अधिक कष्ट नहीं सहने पड़ते जितने कि साधारण लोगों को सामान्य जीवन में नित्यप्रति उठाने पड़ते हैं। फिर कठिनाई क्या है ? ऋषि-मुनियों ने अध्यात्मवेत्ताओं एक ही कठिनाई बताई है और वह है-प्रज्ञा प्रखरता की। यदि प्रज्ञा को प्रखर बनाया जा सके, वह प्राप्त हो सके, तो समझना चाहिए कि जीवन को सच्चे अर्थों में सार्थक बनाने वाली ऋद्धि-सिद्धियों की उपलब्धियों से भर देने वाली संभावनाएँ हस्तगत हो गयी हैं।
गायत्री महाशक्ति की उपासना का प्रतिफल प्रज्ञा के रूप में-दूरदर्शी विवेकशीलता और आत्मबल के रूप में प्राप्त होता है और उसके बल पर साधक अपने को आत्मिक दृष्टि से सुविकसित एवं सुसम्पन्न बनाता है। परिणामस्वरूप उसके आत्मिक जीवन का स्तर ऊँचा उठता है और वह व्यक्ति सामान्य न रहकर देवात्मा, महात्मा तथा परमात्मा के स्तर तक जा पहुँचता है। इस संदर्भ में मनुस्मृति 2/87 में उल्लेख है- “गायत्री उपासना समस्त सिद्धियों का आधारभूत है। गायत्री उपासक अन्य कोई अनुष्ठान या साधना न करे, तो भी सबसे मित्रवत आचरण करता हुआ वह ब्रह्मं को प्राप्त करता है, क्योंकि इस महामंत्र के जप से उसका चित ब्राह्मीचेतना की तरह शुद्ध व पवित्र हो जाता है।” निश्चय ही जहाँ इस स्तर की आन्तरिक सम्पन्नता होगी, वहाँ कहने की आवश्यकता नहीं कि आत्मिक सम्पन्नता की अनुचरी भौतिक सम्पन्नता भी अनिवार्य रूप से होगी ही।
आत्मिक दृष्टि से सुसम्पन्न और सुविकसित व्यक्ति इन भौतिक विभूतियों का उद्धत प्रदर्शन नहीं करते, उन्हें श्रेष्ठ सत्कार्यों में ही लगाते हैं। इसलिए वे साँसारिक दृष्टि से अन्य मनुष्यों की अपेक्षा साधारण स्तर के ही दिखाई देते हैं। कइयों को उनकी यह सादगी देखकर उनके दरिद्र होने का भ्रम भी हो जाता है। दूसरे उन्हें क्या समझते हैं, इसकी परवाह न कर वे आत्मिक पूँजी के धनी अपने आप में ही संतुष्ट रहते हैं और सच्चे अर्थों में सुसम्पन्न बनते हैं।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1965 पृष्ठ 12

भगवान बुद्ध आए थे इस हिंदुस्तान में, और ऐसे जबरदस्त, ऐसे जबरदस्त लड़ाकू आदमी, योद्धा आदमी थे। योद्धा आदमी, योद्धा आदमी। उन्होंने हर एक को चैलेंज दिया। उस जमाने में वैदिक हिंसा, हिंसा, अंधभक्ति का नारा लगाया जा रहा था, और यज्ञों में जानवर काट-काट के हवन किए जा रहे थे।
उस जमाने में, जिस जमाने में बुद्ध हुए, बुद्ध भगवान ने कहा — "अरे आदमियों, यह क्या करते हो?" उन्होंने कहा — "साहब, यह तो यज्ञ है। उसके बिना नहीं हो सकता, बलि के बिना नहीं हो सकता।"
तो ऐसा यज्ञ करने से क्या फायदा आपका कि जिसमें बलि देनी पड़ती है? तुमको इतना ज्ञान नहीं है, तुम्हारा इतना ईमान नहीं है कि यज्ञ में तुम जानवर काटते हो?
"नहीं साहब, यह तो उसमें लिखा हुआ है।"
"काहे में लिखा हुआ है?"
"वेद में लिखा हुआ है।"
उन्होंने कहा — "यह यज्ञ तो हमारी धार्मिक परंपरा है।"
"यह गलत है, अधर्म का काम है। अगर यज्ञ में जानवर होमे बिना हवन नहीं हो सकता, तो यह गलत परंपरा है। इसके लिए विवेक कहता है, ईमान कहता है, समझ कहती है भाई यह गलत चीज है।"
तो फिर आप क्यों नहीं मानते?
"नहीं साहब, यह परंपरा है।"
"भाड़ में डालिए परंपरा को। यज्ञ को हम नहीं मानते।"
किसने कहा?
बुद्ध ने कहा।
बुद्ध ने कहा, और फिर क्या कहा? लोगों ने यह कहा कि —
"नहीं साहब, यह जो है, यज्ञ तो वेदों में लिखा हुआ है।"
बुद्ध तो बेचारे पढ़े नहीं थे संस्कृत, वेद भी नहीं जानते थे।
तो उन्होंने कहा — "ऐसे वेद को मानने की जरूरत नहीं है।"
वेद को चैलेंज... वेद को जो हिंदू धर्म का प्राण था, जिसके बारे में बुद्ध ने यह कहा —
"नहीं, यह वेद गलत है।"
यह गलत है। यह तो बेचारे नहीं कह सके — "वेद की व्याख्या हम अलग तरीके से कर सकते हैं, और आपकी व्याख्या गलत है।"
यह तो — "वेद गलत है।"
अच्छा वेद गलत है?
"वेद तो भगवान ने बनाए। भगवान ऐसे वेद बनाए जिसमें कि यज्ञ में हवन करना लिखा हुआ है?"
"हाँ साहब, ऐसे बताओ — हम ऐसे भगवान को नहीं मानते।"
कौन? बुद्ध।
बुद्ध जो था क्रांतिकारी।
बुद्ध ने एक ही बुलावा और एक ही बात कही —
बुद्धं शरणं गच्छामि।
हम बुद्ध की शरण में जाते हैं, विवेक की शरण में जाते हैं, समझदारी की शरण में जाते हैं, इंसाफ की शरण में जाते हैं, और हम किसी परंपरा के शरण में नहीं जाते।
क्रांतिकारी बुद्ध, मित्रों, ऐसा संघर्षशील बुद्ध इस हिंदुस्तान में से उन अवांछनीय विचारधाराओं को लात मार के फेंक दिया और कमर तोड़ कर डाल दी।
एक आदमी ने — एक आदमी — कितना साहसी, कितना शौर्यवान और पराक्रमी बुद्ध।

व्यासजी ने जनमेजय से कहा-एक बार पंद्रह वर्षों तक वर्षा नहीं हुई इस अनावृष्टि के कारण भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। असंख्य प्राणी भूख से तड़प कर मर गये। उनकी लाशें घरों में सड़ने लगी। तब सज्जनों ने इकट्ठे होकर विचार किया कि गायत्री के परम उपासक तपोनिष्ठ गौतम ऋषि के पास चलना चाहिए, वे इस विपत्ति को दूर सकेंगे। वे तब सब मिलाकर गौतम ऋषि के पास गये और कष्ट सुनाया।
आगन्तुकों को सम्मानपूर्वक आश्वासन देकर गौतम ऋषि ने सर्व शक्तिमान गायत्री से उस संकट के निवारण के लिए प्रार्थना की। जगन्माता गायत्री ने प्रसन्न होकर गौतम ऋषि को समस्त प्राणियों का पोषण कर सकने में समर्थ एक पूर्ण पात्र दिया और कहा-इससे तुम्हारी समस्त अभीष्ट कामनाएँ पूर्ण हो जाया करेंगी। यह कहकर वेदमाता अन्तर्ज्ञान हो गयी और उस पात्र की कृपा से अन्न के पर्वतों जैसे ढेर लगे गये।
अखण्ड ज्योति नवंबर 1997 पृष्ठ 44

इन्द्र देवता की सहायता के लिए दशरथ जी अपना रथ लेकर गये थे। पहिया गड़बड़ाने लगा तो कैकेयी ने अपनी अंगुली लगाकर विपत्ति का समाधान किया था। ठीक इसी प्रकार एक और वर्णन यह मिलता है कि अर्जुन इन्द्र की सहायता करने गये थे, प्रसन्न होकर इन्द्र ने अर्जुन को उर्वशी का उपहार दिया था, जिसे उसने अस्वीकार कर दिया था। जहाँ मनुष्यों का आवागमन सम्भव हो सके, ऐसा स्वर्ग धरती पर ही हो सकता है।
इन्द्र और चन्द्र देवताओं का गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या से छल करना धरती पर ही सम्भव है। दधीचि ने अपनी अस्थियाँ याचक देवताओं को प्रदान की थीं, आदि-आदि अगणित उपाख्यान ऐसे हैं जिसमें देवताओं और मनुष्यों के पारस्परिक घनिष्ठ सहयोग की चर्चा है। इन पर विवेचनात्मक दृष्टि से विचार करें तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि स्वर्ग कहीं भूमि पर होना चाहिए। यह क्षेत्र उत्तराखण्ड देवात्मा हिमालय का हृदय-क्षेत्र ही है।
अखण्ड ज्योति नवंबर 1997 पृष्ठ 29
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मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
हमारा अनुभव यह रहा है कि जितनी उत्सुकता साधकों को सिद्धपुरुष खोजने की होती है, उससे असंख्यों गुनी उत्कंठा सिद्धपुरुषों को सुपात्र साधकों की तलाश करने के निमित्त होती है। साधक सत्पात्र चाहिए। जिसने अपना चिंतन, चरित्र और व्यवहार परिष्कृत कर लिया हो, वही सच्चा साधक है। उसे मार्गदर्शक खोजने नहीं पड़ते, वरन् वे दौड़कर स्वयं उनके पास आते और उँगली पकड़कर आगे चलने का रास्ता बताते हैं। जहाँ वे लड़खड़ाते हैं, वहाँ गोदी में उठाकर— कंधे पर बिठाकर पार लगाते हैं। हमारे संबंध में यही हुआ है। घर बैठे पधारकर अधिक सामर्थ्यवान बनाने के लिए 24 वर्ष का गायत्री पुरश्चरण उन्होंने कराया एवं उसकी पूर्णाहुति में सहस्रकुंडी गायत्री यज्ञ संपन्न कराया है। धर्मतंत्र से लोक-शिक्षण के लिए एक लाख अपरिचित व्यक्तियों को परिचित ही नहीं, घनिष्ठ बनाकर कंधे-से-कंधा— कदम-से-कदम मिलाकर चलने योग्य बना दिया।
अपने प्रथम दर्शन में ही चौबीस महापुरश्चरण पूरे होने एवं चार बार एक-एक वर्ष के लिए हिमालय बुलाने की बात गुरुदेव ने कही।
हमें हिमालय पर बार-बार बुलाए जाने के कई कारण थे। एक, यह जानना कि सुनसान प्रकृति के सान्निध्य में— प्राणियों एवं सुविधाओं के अभाव में— आत्मा को एकाकीपन कहीं अखरता तो नहीं? दूसरे, यह कि इस क्षेत्र में रहने वाले हिंस्र पशुओं के साथ मित्रता बना सकने लायक आत्मीयता विकसित हुई या नहीं? तीसरे, वह समूचा क्षेत्र देवात्मा है। उसमें ऋषियों ने मानवी काया में रहते हुए देवत्व उभारा और देवमानव के रूप में ऐसी भूमिकाएँ निभाईं, जो साधन और सहयोग के अभाव में साधारणजनों के लिए कर सकना संभव नहीं थीं। उनसे हमारा प्रत्यक्षीकरण कराया जाना था।
उनका मूक निर्देश था कि अगले दिनों उपलब्ध आत्मबल का उपयोग हमें ऐसे ही प्रयोजन के लिए एक साथ करना है, जो ऋषियों ने समय-समय पर तात्कालिक समस्याओं के समाधान के निमित्त अपने प्रबल पुरुषार्थ से संपन्न किया है। यह समय ऐसा है, जिसमें अगणित अभावों की एक साथ पूर्ति करनी है; साथ ही एक साथ चढ़ दौड़ी अनेकानेक विपत्तियों से जूझना है। यह दोनों ही कार्य इसी उत्तराखंड, कुरुक्षेत्र में पिछले दिनों संपन्न हुए हैं। पुरातन देवताओं-ऋषियों में से कुछ आंशिक रूप से सफल हुए हैं; कुछ असफल भी रहे हैं। इस बार एकाकी वे सब प्रयत्न करने और समय की माँग को पूरा करना है। इसके लिए जो मोर्चेबंदी करनी है, उसकी झलक-झाँकी समय रहते कर ली जाए, ताकि कंधों पर आने वाले उत्तरदायित्वों की पूर्व जानकारी रहे और पूर्वज किस प्रकार दाँव-पेंच अपनाकर विजयश्री को वरण करते रहे हैं, इस अनुभव से कुछ-न-कुछ सरलता मिले। यह तीनों ही प्रयोजन समझने, अपनाने और परीक्षा में उत्तीर्ण होने के निमित्त ही हमारी भावी हिमालययात्राएँ होनी हैं, ऐसा उनका निर्देश था। आगे उन्होंने बताया— ‘‘हम लोगों की तरह तुम्हें भी सूक्ष्मशरीर के माध्यम से अतिमहत्त्वपूर्ण कार्य करने होंगे। इसका पूर्वाभ्यास करने के लिए यह सीखना होगा कि स्थूलशरीर से हिमालय के किस भाग में— कितने समय तक— किस प्रकार ठहरा जा सकता है और निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न रहा जा सकता है।’’
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
हमारा अनुभव यह रहा है कि जितनी उत्सुकता साधकों को सिद्धपुरुष खोजने की होती है, उससे असंख्यों गुनी उत्कंठा सिद्धपुरुषों को सुपात्र साधकों की तलाश करने के निमित्त होती है। साधक सत्पात्र चाहिए। जिसने अपना चिंतन, चरित्र और व्यवहार परिष्कृत कर लिया हो, वही सच्चा साधक है। उसे मार्गदर्शक खोजने नहीं पड़ते, वरन् वे दौड़कर स्वयं उनके पास आते और उँगली पकड़कर आगे चलने का रास्ता बताते हैं। जहाँ वे लड़खड़ाते हैं, वहाँ गोदी में उठाकर— कंधे पर बिठाकर पार लगाते हैं। हमारे संबंध में यही हुआ है। घर बैठे पधारकर अधिक सामर्थ्यवान बनाने के लिए 24 वर्ष का गायत्री पुरश्चरण उन्होंने कराया एवं उसकी पूर्णाहुति में सहस्रकुंडी गायत्री यज्ञ संपन्न कराया है। धर्मतंत्र से लोक-शिक्षण के लिए एक लाख अपरिचित व्यक्तियों को परिचित ही नहीं, घनिष्ठ बनाकर कंधे-से-कंधा— कदम-से-कदम मिलाकर चलने योग्य बना दिया।
अपने प्रथम दर्शन में ही चौबीस महापुरश्चरण पूरे होने एवं चार बार एक-एक वर्ष के लिए हिमालय बुलाने की बात गुरुदेव ने कही।
हमें हिमालय पर बार-बार बुलाए जाने के कई कारण थे। एक, यह जानना कि सुनसान प्रकृति के सान्निध्य में— प्राणियों एवं सुविधाओं के अभाव में— आत्मा को एकाकीपन कहीं अखरता तो नहीं? दूसरे, यह कि इस क्षेत्र में रहने वाले हिंस्र पशुओं के साथ मित्रता बना सकने लायक आत्मीयता विकसित हुई या नहीं? तीसरे, वह समूचा क्षेत्र देवात्मा है। उसमें ऋषियों ने मानवी काया में रहते हुए देवत्व उभारा और देवमानव के रूप में ऐसी भूमिकाएँ निभाईं, जो साधन और सहयोग के अभाव में साधारणजनों के लिए कर सकना संभव नहीं थीं। उनसे हमारा प्रत्यक्षीकरण कराया जाना था।
उनका मूक निर्देश था कि अगले दिनों उपलब्ध आत्मबल का उपयोग हमें ऐसे ही प्रयोजन के लिए एक साथ करना है, जो ऋषियों ने समय-समय पर तात्कालिक समस्याओं के समाधान के निमित्त अपने प्रबल पुरुषार्थ से संपन्न किया है। यह समय ऐसा है, जिसमें अगणित अभावों की एक साथ पूर्ति करनी है; साथ ही एक साथ चढ़ दौड़ी अनेकानेक विपत्तियों से जूझना है। यह दोनों ही कार्य इसी उत्तराखंड, कुरुक्षेत्र में पिछले दिनों संपन्न हुए हैं। पुरातन देवताओं-ऋषियों में से कुछ आंशिक रूप से सफल हुए हैं; कुछ असफल भी रहे हैं। इस बार एकाकी वे सब प्रयत्न करने और समय की माँग को पूरा करना है। इसके लिए जो मोर्चेबंदी करनी है, उसकी झलक-झाँकी समय रहते कर ली जाए, ताकि कंधों पर आने वाले उत्तरदायित्वों की पूर्व जानकारी रहे और पूर्वज किस प्रकार दाँव-पेंच अपनाकर विजयश्री को वरण करते रहे हैं, इस अनुभव से कुछ-न-कुछ सरलता मिले। यह तीनों ही प्रयोजन समझने, अपनाने और परीक्षा में उत्तीर्ण होने के निमित्त ही हमारी भावी हिमालययात्राएँ होनी हैं, ऐसा उनका निर्देश था। आगे उन्होंने बताया— ‘‘हम लोगों की तरह तुम्हें भी सूक्ष्मशरीर के माध्यम से अतिमहत्त्वपूर्ण कार्य करने होंगे। इसका पूर्वाभ्यास करने के लिए यह सीखना होगा कि स्थूलशरीर से हिमालय के किस भाग में— कितने समय तक— किस प्रकार ठहरा जा सकता है और निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न रहा जा सकता है।’’
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

हरिद्वार 30 मई।
भारत निर्वाचन आयोग के निर्वाचन आयुक्त डॉ विवेक जोशी सपरिवार देवसंस्कृति विश्वविद्यालय शांतिकुंज पहुंचे। देसंविवि के प्रतिकुलपति युवा आइकान डॉ चिन्मय पण्ड्या ने पुष्प गुच्छ भेंटकर आत्मीय स्वागत किया।
निर्वाचन आयुक्त डॉ जोशी देसंविवि के हृदय स्थल माने जाने वाले प्रज्ञेश्वर महादेव मंदिर में पूजा अर्चना कर देश की उन्नति व समृद्धि की कामना की। डॉ जोशी आम्रकुंजों के बीच बसा देसंविवि के विभिन्न प्रकल्पों का अध्ययन किया। उन्होंने विवि की गतिविधियों से अवगत हो इसे युवाओं के विकास के लिए उत्तम बताया।
युवा आइकॉन डॉ चिन्मय पण्ड्या और डॉ विवेक जोशी के बीच विभिन्न विषयों पर संवाद हुआ। डॉ जोशी ने विश्वविद्यालय की प्राकृतिक छटा और शांत वातावरण की प्रशंसा करते हुए कहा कि ऐसी संस्थाएं देश के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। उन्होंने युवाओं को राष्ट्र सेवा के लिए प्रेरित करने में देसंविवि की भूमिका को सराहा।
युवा आइकॉन डॉ पण्ड्या ने भी निर्वाचन आयुक्त डॉ जोशी को युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के विचारों और देसंविवि की स्थापना के उद्देश्यों से अवगत कराया और युगऋषि रचित युगसाहित्य आदि भेंटकर सम्मानित किया। पूज्य गुरुदेव की प्रेरणा से संचालित यह अभियान जनजागरण, चरित्र निर्माण एवं युग निर्माण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रकाशपुंज के रूप में कार्य कर रहा है ।

