Recent Posts

अखिल विश्व गायत्री परिवार के प्रतिनिधि एवं देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी ने अपने यूके-यूरोप प्रवास के अगले चरण में लंदन स्थित हाउस ऑफ लॉर्ड्स में माननीय लॉर्ड रसेल रूक तथा AI & Faith Commission से श्री ऑस्टिन टिफ़नी से औपचारिक भेंट की।
इस अवसर पर पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा प्रतिपादित आध्यात्मिक जीवन मूल्यों, अंतरधार्मिक समरसता तथा वैश्विक नैतिक नेतृत्व की आवश्यकता पर आधारित विचार साझा किए गए।
बैठक में विशेष रूप से इस बात पर संवाद हुआ कि आध्यात्मिक विवेक को नैतिक कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Ethical AI) तथा वैश्विक नीति निर्माण से कैसे जोड़ा जा सकता है। सामूहिक करुणा, चेतन नेतृत्व तथा संतुलित तकनीकी प्रगति जैसे विषयों पर भी सकारात्मक चर्चा हुई।
यह संवाद वैश्विक स्तर पर विज्ञान एवं अध्यात्म के समन्वय की दिशा में एक प्रेरणादायक पहल सिद्ध हुआ, जिससे न केवल नीति निर्माण बल्कि मानवीय मूल्यों को भी नई दिशा मिल सकती है।



हरिद्वार 17 मई।
इन दिनों पूरा देश राष्ट्र की अखंडता, संप्रभुता के साथ ही आराधना में जुटा है। गायत्री तीर्थ शांतिकुंज में जन जागरण रैली निकाली गयी। रैली में हम करें राष्ट्र का आराधन के भाव की गंगा बही। इसके अंतर्गत संगीतबद्ध देश भक्तिगीतों का गायन के साथ साथ राष्ट्र की अखण्डता एवं संप्रभुता के लिए एक जुट होकर तन मन धन से तैयार रहने के लिए संकल्प लिये गये।
इस अवसर पर संस्था की अधिष्ठात्री श्रद्धेया शैलदीदी ने अपने वर्चुअल संदेश में कहा कि राष्ट्र सेवा ही सच्ची आराधना है। जब हम अपने कर्म, चरित्र और चिंतन को राष्ट्र के हित में समर्पित करते हैं, तभी सशक्त भारत का निर्माण संभव होता है।
शांतिकुंज द्वारा समय-समय पर देश भर में ऐसे आयोजन कर नागरिकों में राष्ट्र प्रेम, सांस्कृतिक जागरूकता और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना को जाग्रत किया जाता रहा है। रैली में शांतिकुंज के कार्यकर्त्ताओं के संग विभिन्न प्रशिक्षण सत्रों में आये साधकों ने भी उत्साहपूर्वक प्रतिभाग किया।



महाराष्ट्र प्रांत के सौ से अधिक शिक्षक-शिक्षिकाएँ व अन्य शामिल
हरिद्वार 17 मई।
गायत्री परिवार की संस्थापिका माता भगवती देवी शर्मा की जन्मशताब्दी एवं सिद्ध अखण्ड दीपक की शताब्दी वर्ष (2026) के अंतर्गत गायत्री तीर्थ शांतिकुंज में दो दिवसीय शिक्षक गरिमा शिविर का शुभारंभ हुआ। शिविर की शुरुआत देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के कुलपति श्री शरद पारधी व अन्य गणमान्य व्यक्तियों द्वारा दीप प्रज्वलन के साथ हुई। शिविर में महाराष्ट्र प्रांत के १०० से अधिक शिक्षक-शिक्षिकाएँ तथा गायत्री परिवार के कार्यकर्त्ता उपस्थित हैं।
शिविर के प्रथम सत्र को संबोधित करते हुए कुलपति श्री पारधी ने कहा कि युवाओं के समग्र व्यक्तित्व विकास के लिए केवल शैक्षणिक ज्ञान पर्याप्त नहीं, बल्कि जीवन मूल्यों से युक्त विद्या भी अत्यंत आवश्यक है। उन्होंने कहा कि आज शिक्षकों के कंधों पर ही राष्ट्र निर्माण की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि वही बच्चों के भविष्य को आकार देते हैं। उन्होंने समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी के साथ बच्चों को विकसित करने के लिए प्रेरित किया। डॉ गोपाल शर्मा ने भारतीय संस्कृति और नई शिक्षा नीति पर विस्तार से जानकारी दी। श्री सुधीर श्रीपाद ने भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा के संबंध में सृजनात्मक कार्य पर प्रकाश डाला।
शिविर समन्वयक ने बताया कि इस आयोजन का उद्देश्य देशभर के लाखों विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों को भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा जैसे माध्यमों से विद्यार्थियों को सनातन ज्ञान से जोड़ने के लिए प्रेरित करना है। इसी क्रम में यह विशेष शिविर आयोजित किया जा रहा है, जो शिक्षकों की संस्कृतिक भूमिका को सशक्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। यह क्रम आगे भी चलता रहेगा। शिविर में कुल बारह सत्र होंगे।



प्रत्यक्ष घटनाओं की दृष्टि से कुछ प्रकाशित किये जा रहे प्रसंगों को छोड़कर हमारे जीवनक्रम में बहुत विचित्रताएँ एवं विविधताएँ नहीं हैं। कौतुक-कौतूहल व्यक्त करने वाली उछल-कूद एवं जादू-चमत्कारों की भी उसमें गुंजाइश नहीं है। एक सुव्यवस्थित और सुनियोजित ढर्रे पर निष्ठापूर्वक समय कटता रहा है। इसलिए विचित्रताएँ ढूँढ़ने वालों को उसमें निराशा भी लग सकती है। पर जो घटनाओं के पीछे काम करने वाले तथ्यों और रहस्यों में रुचि लेंगे, उन्हें इतने से भी अध्यात्म— सनातन, के परंपरागत प्रवाह का परिचय मिल जाएगा और वे समझ सकेंगे कि सफलता-असफलता का कारण क्या है? क्रियाकांड को सब कुछ मान बैठना और व्यक्तित्व के परिष्कार की— पात्रता की प्राप्ति पर ध्यान न देना— यही एक कारण है, जिसके चलते उपासना-क्षेत्र में निराशा छाई और अध्यात्म को उपहासास्पद बनने— बदनाम होने का लांछन लगा। हमारे क्रिया-कृत्य सामान्य हैं, पर उसके पीछे उस पृष्ठभूमि का समावेश है, जो ब्रह्मतेजस् को उभारती और उसे कुछ महत्त्वपूर्ण कर सकने की समर्थता तक ले जाती है।
जीवनचर्या के घटनापरक विस्तार से कौतूहल बढ़ने के अतिरिक्त कुछ लाभ है नहीं। काम की बात है— इन क्रियाओं के साथ जुड़ी हुई अंतर्दृष्टि और उस आन्तरिक तत्परता का समावेश, जो छोटे-से बीज की खाद-पानी की आवश्यकता पूरी करते हुए विशाल वृक्ष बनाने में समर्थ होती रही। वस्तुतः साधक का व्यक्तित्व ही साधनाक्रम में प्राण फूँकता है; अन्यथा, मात्र क्रिया-कृत्य खिलवाड़ बनकर रह जाते हैं।
तुलसी का राम, सूर का हरे कृष्ण, चैतन्य का संकीर्तन, मीरा का गायन, रामकृष्ण का पूजन मात्र क्रिया-कृत्यों के कारण सफल नहीं हुआ था। ऐसा औड़म-बौड़म तो दूसरे असंख्य करते रहते हैं, पर उनके पल्ले विडंबना के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता। वाल्मीकि ने जीवन बदला तो उलटा नाम जपते ही मूर्द्धन्य हो गए। अजामिल, अंगुलिमाल, गणिका, आम्रपाली मात्र कुछ अक्षर दुहराना ही नहीं सीखे थे, उनने अपनी जीवनचर्या को भी अध्यात्म आदर्शों के अनुरूप ढाला।
आज कुछ ऐसी विडंबना चल पड़ी है कि लोग कुछ अक्षर दुहराने और क्रिया-कृत्य करने— स्तवन-उपहार प्रस्तुत करने भर से अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। चिंतन, चरित्र और व्यवहार को उस आदर्शवादिता के ढाँचे में ढालने का प्रयत्न नहीं करते, जो आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य रूप में आवश्यक है। अपनी साधना-पद्धति में इस भूल का समावेश न होने देने का आरंभ से ही ध्यान रखा गया। अस्तु, वह यथार्थवादी भी है और सर्वसाधारण के लिए उपयोगी भी। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर ही जीवन चर्या को पढ़ा जाए।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
47 हमारे घर में होली, दिवाली होती है, तीज-त्योहार होते हैं, और उसी तरीके से पाँच आदमी उस पक्ष के आ जाएं, पाँच पक्ष के हों, यहाँ घर के हों, अपना छोटा सा घर में हवन कर लिया जाए और अपने शांति के साथ में ब्याह कर दिया जाए, दूसरे दिन विदा कर दिया जाए।
तो इस तरह के ब्याह बहुत कम दाम में हो सकते हैं। किसी को दहेज ही देना हो तो अपनी बेटी के लिए फिक्स डिपॉजिट में कोई रकम जमा कर सकता है, जो पाँच साल में दुनी हो जाएगी।
इस तरह के ब्याह चलाना भी हमारा इस वक्त का कार्यक्रम है। यह हिंदू समाज के कोढ़ है, यह हिंदू समाज के कलंक है। फिर इसको दूर करने के लिए आप लोगों को इन्हीं दिनों कार्यक्रम का प्रयास करना पड़ेगा और इन्हीं यज्ञों के साथ में इन दो कार्यक्रमों को भी मिलाना पड़ेगा।
ब्याह-शादियों का एक और तरीका है कि हमारे ज्यादा तर यह होता है कि मोहल्ले वाले, पड़ोसी, यार, दोस्त, मित्र और संबंधी कहते हैं, "नहीं साहब, नाक कट जाएगी, बात बिगड़ जाएगी।" ऐसा तो नहीं होना चाहिए।
और ऐसी धूमधाम तो होनी चाहिए। देखिए, मोहल्ले में फलाने का इतना बड़ा ब्याह हुआ था, आपको क्यों नहीं करना चाहिए?
जहाँ इस तरह की मुसीबतें हो और जहाँ इस तरह के गिद्ध-कौवे चारों ओर घिरे हुए हों, आपको यह मालूम पड़ता हो कि इस मुसीबत से निकलने का कोई रास्ता नहीं है, तो हम आपको निमंत्रित करते हैं कि आप कन्या को ले आइए, लड़के को ले आइए, पाँच-पाँच आदमी दोनों पक्षों के आ जाइए, और यहाँ शांतिकुंज में आप बड़े मजे में ब्याह कर लीजिए, बिना खर्च के।
इसीलिए इस तरह के विवाहों का मेरी समझ से यह ज्यादा अच्छा है कि आप इस रिवाज को फैलाने के लिए और स्थानीय स्तर पर सफल नहीं हो पाते हैं, तो आप इसमें तो बड़े आसानी से सफल हो जाएंगे कि हमारे जो विवाह होंगे वो हमारे गुरुद्वारे में होंगे और वो शांतिकुंज में होंगे।
शांतिकुंज में विवाहों का यह प्रचलन चले तो यह तीर्थ स्थान भी है, देवताओं का यहाँ निवास भी है, नित्य यज्ञ भी होता है। ऐसे शुभ स्थान पर किया गया जैसे कि शुभ मुहूर्त की बात सोची जाती है, आप शुभ स्थान की बात सोचिए, मुहूर्त की बात मत सोचिए।
आप कभी भी ले आइए, यहाँ हमेशा ब्याह हो जाता है। चूंकि शुभ वातावरण है, शुभ भूमि है, शुभ पुनीत है, पुनीत स्थान है, इसीलिए यहाँ मुहूर्त की जरूरत नहीं है।

शिक्षित, सम्पन्न और सम्मानित होने के बावजूद भी कई बार व्यक्ति के सम्बन्ध में गलत धारणाएँ उत्पन्न हो जाती हैं और यह समझा जाने लगता है कि योग्य होते हुए भी अमुक व्यक्ति के व्यक्तित्व में कमियाँ हैं। इसका कारण यह है कि शिक्षित और सम्पन्न होते हुए भी व्यक्ति के आचरण से, उसके व्यवहार से कहीं न कहीं ऐसी फूहड़ता टपकती है जो उसे सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी अशिष्ट कहलवाने लगती है। विश्व स्तर पर एक बड़ी संख्या में लोग सम्पन्न और शिक्षित भले ही हों, किन्तु उनके व्यवहार में यदि शिष्टता और शालीनता नहीं है, तो उनका लोगों पर प्रभाव नहीं पड़ता। उनकी विभूतियों की चर्चा सुनकर लोग भले ही प्रभावित हो जायें, परन्तु उनके सम्पर्क में आने पर अशिष्ट आचरण की छाप उस प्रभाव को धूमिल कर देती है।
इसलिए शिक्षा, सम्पन्नता और प्रतिष्ठा की दृष्टि से कोई व्यक्ति ऊँचा हो और उसे हर्ष के अवसर पर हर्ष, शोक के अवसर पर शोक की बातें करना न आये, तो लोग उसका मुँह देखा सम्मान भले ही करें, परन्तु मन में उसके प्रति कोई अच्छी धारणाएँ नहीं रख सकेंगे। शिष्टाचार और लोक-व्यवहार का यही अर्थ कि हमें समयानुकूल आचरण तथा बड़े छोटों से उचित बर्ताव करना आये। यह गुण किसी विद्यालय में प्रवेश लेकर अर्जित नहीं किया जा सकता। इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए सम्पर्क और पारस्परिक व्यवहार का अध्ययन तथा क्रियात्मक अभ्यास ही किया जाना चाहिए।
अधिकांश व्यक्ति यह नहीं जानते कि किस अवसर पर, कैसे व्यक्ति से, कैसा व्यवहार करना चाहिए? कहाँ, किस प्रकार उठना-बैठना चाहिए और किस प्रकार चलना-रुकना चाहिए। यदि खुशी के अवसर पर शोक और शोक के समय हर्ष की बातें की जाएँ, या बच्चों के सामने दर्शन और वैराग्य तथा वृद्धजनों की उपस्थिति में बालोचित या युवजनोचित्त शरारतें, हास्य विनोद भरी बातें की जायें अथवा गर्मी में चुस्त, गर्म, भडक़ीले वस्त्र और शीत ऋतु में हल्के कपड़े पहने जायें, तो देखने सुनने वालों के मन में आदर नहीं, उपेक्षा और तिरस्कार की भावनाएँ ही आयेंगी।
कोई भी क्षेत्र क्यों न हों? हम घर में हों या बाहर कार्यालय में। दुकान पर और मित्रों-परिचितों के बीच हों अथवा अजनबियों के बीच। हर पल व्यवहार करते समय शिष्टाचार ही जीवन का वह दर्पण है जिसमें हमारे व्यक्तित्व का स्वरूप दिखाई देता है। इसके द्वारा मनुष्य का समाज से प्रथम परिचय होता है। यह न हो तो व्यक्ति समाज में रहते हुए भी समाज से कटा-कटा सा रहेगा और किसी प्रकार आधा-अधुरा जीवन जीने के लिए बाध्य होगा। जीवन साधना के साधक व उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों को यह शोभा नहीं देता। उसे जीवन में पूर्णता लानी ही चाहिए। अस्तु, शिष्टाचार को भी जीवन में समुचित स्थान देना ही चाहिए।
शिष्टता मनुष्य के मानसिक विकास का भी परिचायक है। कहा जा चुका है कि कोई व्यक्ति कितना ही शिक्षित हो, किन्तु उसे शिष्टï और शालीन व्यवहार न करना आये, तो उसे अप्रतिष्ठा ही मिलेगी, क्योंकि पुस्तकीय ज्ञान अर्जित कर लेने से तो ही बौद्धिक विकास नहीं हो जाता। अलमारी में ढेरों पुस्तकें रखी होती हैं और पुस्तकों में ज्ञान संचित रहती हैं।
इससे आलमारी ज्ञानी और विद्वान तो नहीं कही जाती। वह पुस्तकीय ज्ञान केवल मस्तिष्क में आया मस्तिष्क की तुलना आलमारी से ही की जायेगी। उस कारण यह नहीं कहा जा सकता कि व्यक्ति मानसिक दृष्टि से विकसित है। मानसिक विकास अनिवार्य रूप से आचरण में भी प्रतिफलित होता है। व्यवहार की शिष्टïता और आचरण में शालीनता ही मानसिक विकास की परिचायक है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

“सर्वे भवन्तु सुखिनः… सर्वे सन्तु निरामयाः।”
उक्त दिव्य प्रार्थना के साथ लंदन स्थित मंधाता हॉल में एक विशेष दीप यज्ञ का भव्य आयोजन संपन्न हुआ। विश्वशांति तथा भारत की सुरक्षा की सामूहिक भावना के साथ सम्पन्न इस यज्ञ में दीपों की शुभ्र ज्योति ने संपूर्ण वातावरण को भक्तिमय, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दिव्यता से आलोकित कर दिया।
यह दिव्य आयोजन अखिल विश्व गायत्री परिवार के अंतरराष्ट्रीय प्रवास के अंतर्गत सम्पन्न हुआ, जिसकी गरिमामयी उपस्थिति देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति, आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी ने प्रदान की। उन्होंने अपने प्रेरणाप्रद उद्बोधन में गायत्री यज्ञ को मानव मात्र के कल्याण का माध्यम बताते हुए उपस्थित साधकों का मार्गदर्शन किया।
ब्रिटेन के विभिन्न नगरों से पधारे सैकड़ों गायत्री परिजन इस आयोजन में सपरिवार उपस्थित हुए। दीप यज्ञ के माध्यम से सभी ने विश्वशांति के साथ-साथ भारतवर्ष की सुरक्षा हेतु विशेष आहुतियाँ अर्पित कीं तथा यह संकल्प लिया कि वे नित्य सामूहिक साधना द्वारा राष्ट्ररक्षा एवं वैश्विक कल्याण हेतु अपने जीवन को समर्पित करेंगे।
परम पूज्य गुरुदेव के पावन विचारों से अनुप्राणित यह आयोजन केवल एक यज्ञ न होकर भारतीय संस्कृति, साधना, और समर्पण का जीवंत उत्सव बन गया।


























इस जीवन यात्रा के गम्भीरता पूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता
हमारी जीवनगाथा सब जिज्ञासुओं के लिए एक प्रकाश-स्तंभ का काम कर सकती है। वह एक बुद्धिजीवी और यथार्थवादी द्वारा अपनाई गई कार्यपद्धति है। छद्म जैसा कुछ उसमें है नहीं। असफलता का लांछन भी उन पर नहीं लगता। ऐसी दशा में जो गंभीरता से समझने का प्रयत्न करेगा कि सही लक्ष्य तक पहुँचने का सही मार्ग हो सकता था— शार्टकट के फेर में भ्रम-जंजाल न अपनाए गए होते, तो निराशा, खीज और थकान हाथ न लगती; तब या तो मँहगा समझकर हाथ ही न डाला जाता; यदि पाना ही था तो उसका मूल्य चुकाने का साहस पहले से ही सँजोया गया होता— ऐसा अवसर उन्हें मिला नहीं। इसी को दुर्भाग्य कह सकते हैं। यदि हमारा जीवन पढ़ा गया होता; उसके साथ आदि से अंत तक गुथे हुए अध्यात्मतत्त्व दर्शन और क्रिया-विधान को समझने का अवसर मिला होता, तो निश्चय ही प्रच्छन्न भ्रमग्रस्त लोगों की संख्या इतनी न रही होती, जितनी अब है।
एक और वर्ग है— विवेकदृष्टि वाले यथार्थवादियों का। वे ऋषिपरंपरा पर विश्वास करते हैं और सच्चे मन से विश्वास करते हैं कि वे आत्मबल के धनी थे। उन विभूतियों से उनने अपना, दूसरों का और समस्त विश्व का भला किया था। भौतिक विज्ञान की तुलना में जो अध्यात्म विज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं, उनकी एक जिज्ञासा यह भी रहती है कि वास्तविक स्वरूप और विधान क्या है? कहने को तो हर कुंजड़ी अपने बेरों को मीठा बताती है, पर कथनी पर विश्वास न करने वालों द्वारा उपलब्धियों का जब लेखा-जोखा लिया जाता है, तब प्रतीत होता है कि कौन, कितने पानी में है ?
सही क्रिया, सही लोगों द्वारा, सही प्रयोजनों के लिए अपनाए जाने पर उसका सत्परिणाम भी होना चाहिए। इस आधार पर जिन्हें ऋषिपरंपरा के अध्यात्म का स्वरूप समझना हो, उन्हें निजी अनुसंधान करने की आवश्यकता नहीं है। वे हमारी जीवनचर्या को आदि से अंत तक पढ़ और परख सकते हैं। विगत साठ वर्षों में प्रत्येक वर्ष इसी प्रयोजन के लिए व्यतीत हुआ है। उसके परिणाम भी खुली पुस्तक की तरह सामने हैं। इन पर गंभीर दृष्टिपात करने पर यह अनुमान निकल सकता है कि सही परिणाम प्राप्त करने वालों ने सही मार्ग भी अवश्य अपनाया होगा। ऐसा अद्भुत मार्ग दूसरों के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है। आत्म-विद्या और अध्यात्म विज्ञान की गरिमा से जो प्रभावित है; उसका पुनर्जीवन देखना चाहते हैं; प्रतिपादनों को परिणतियों की कसौटी पर कसना चाहते हैं, उन्हें निश्चय ही हमारी जीवनचर्या के पृष्ठों का पर्यवेक्षण, संतोषप्रद और समाधानकारक लगता है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। यह तो हमने आपको पच्चीसियों बार कहा है और कहते रहेंगे हमेशा।
हमारा देश जो तबाह हुआ है, जो गरीब हुआ है, जो बर्बाद हुआ है, इसमें ब्याह-शादियों वाली बात ऐसी है कि इसे कोई खर्चीला बनाए रखा गया तो आप समझिए कि हमारे आय बढ़ाने का चाहे जितना आप प्रयास करें, तो भी हम गरीब के गरीब रहेंगे।
इसके लिए क्या करना चाहिए? आप सब लोगों में से यह प्रतिज्ञाएं करनी चाहिए। अभिभावकों को यह प्रतिज्ञाएं करनी चाहिए कि हम अपने बच्चे और बच्चियों के ब्याह-शादियों में धूमधाम नहीं करेंगे।
एक, दिखावा नहीं करेंगे। दो, दहेज नहीं लेंगे- देंगे। तीन, और आभूषण (जेवर) नहीं चढ़ाएंगे।
यह आभूषण और दहेज का कितना बड़ा समन्वय है, आपको मालूम नहीं है। लड़के वाला मांगता है दहेज, क्यों मांगता है? कि उससे आभूषण (जेवर) मांगा जाएगा।
लड़की वाला मांगता है आभूषण, लड़के वाला मांगता है दहेज। यह दोनों ही बातें मरेगी तो एक साथ ही मरेगी, और जिंदा रहेंगी तो दोनों ही बातें जिंदा रहेंगी।
आप अकेले दहेज को बंद करना चाहें और यह चाहें कि आभूषण हमारी लड़की पर जरूर चढ़ाया जाए, तो बेचारा वो बेटे वाला कहां से लाएगा आभूषण के लिए?
यहाँ सोने का कितना महंगा भाव है, 4000 रुपये का 10 ग्राम बिक रहा है। इसमें अगर मान लें कोई आदमी 50 ग्राम का भी आभूषण बनवाना चाहे, तो उसे 20 हजार रुपये चाहिए।
यह कहां से आएगा? अगर वो दहेज के लिए दहेज मांगता है, तो क्या बेजा करता है?
दहेज को बंद करने की बात करनी चाहिए, तो आभूषण को भी बंद करने वाली बात करनी चाहिए।
चाहे आपको ब्याह-शादियाँ इस तरीके से करानी पड़ी कि जिसमें ना दहेज लिया जाए, न आभूषण लिया जाए।
.jpg)
क्या तुम सच्चे सेवक बनना चाहते हो? सच्ची समाज सेवा करने की इच्छा मन में है? तो आओ, आज हम कुछ ऐसे सच्चे सेवकों का परिचय आपसे करायें, जो हमारे लिए मार्ग दर्शक हो सकते है। संध्या समय पश्चिम आकाश में अस्त होने वाले सूर्य को देखो। बारह बारह घंटों तक पृथ्वी को प्रकाश देने के पश्चात् भी वह निश्चित होकर विश्राम लेने जाना नहीं चाहते हैं।
मैं चला जाऊँगा फिर सृष्टि को प्रकाश कौन देगा? उसे अन्धकार से कौन उभारेगा? इस चिन्ता में देखो उनका मुख मंडल म्लान हो गया है। सच्चे सेवक की सेवा की भूख कभी शांत नहीं होती। चन्द्र के पास स्वयं का प्रकाश नहीं है। फिर भी वह दूसरे का तेज उधार लेकर अपने को आलोकित करता है। सच्चे सेवक को साधन का अभाव कभी नहीं खटकता।
हमारी शक्ति बहुत थोड़ी है, इसलिए हमसे क्या सेवा हो सकेगी। क्या तुम ऐसा सोचते हो? नहीं, नहीं, ऐसा कभी मत सोचो। आकाश के तारों की ओर देखो। ब्रह्माण्ड की तुलना में कितने अल्प हैं, फिर भी यथाशक्ति सेवा करने- भूमण्डल को प्रकाशित करने - लाखों की संख्या में प्रकट होते है और अमावस्या की अँधेरी रात में अनेकों का पथ -प्रदर्शन करते हैं।
थक कर, ऊब कर सेवा क्षेत्र का त्याग करने का विचार कर रहे हो? तुम्हारे सामने बहने वाली इस सरिता को देखो। उद्गम से सागर तक संगम होने तक कभी मार्ग में वह रुकती है? ‘सतत कार्यशीलता’ यही उसका मूल मंत्र है। मार्ग में आने वाले विघ्नों से वह डरती नहीं तो तुम क्यों साधारण संकटों एवं अवरोधों से घबराते हो? वह नदी कभी ऊँच-नीच का भाव जानती ही नहीं। मनुष्य मात्र ही नहीं, पशु-पक्षी या वनस्पति सबकी निरपेक्ष सेवा करना ही वह अपना धर्म समझती है। सेवक के लिए कौन ऊँच और कौन नीच?
इन अज्ञानी लोगों की क्या सेवा करें? इनका सुधरना असम्भव है ऐसा मत सोचो। देखो कीचड़ में यह कैसा सुन्दर कमल खिला है? तुम भी अज्ञान के कीचड़ में कमल के समान खिलकर कीचड़ की सुरभि पैदा करो, सच्चे सेवक की यही कसौटी है।
स्वामी विवेकानन्द
अखण्ड ज्योति 1969 अप्रैल पृष्ठ 1