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हरिद्वार 3 जून।
गायत्री तीर्थ शांतिकुंज में तीन दिवसीय गायत्री जयंती महापर्व का आज उल्लासपूर्ण वातावरण में शुभारंभ हुआ। पर्व की शुरुआत मंगलवार प्रातः एक विशाल शोभायात्रा से हुई, जिसे शांतिकुंज के वरिष्ठ प्रतिनिधि युवा आइकॉन डॉ चिन्मय पण्ड्या ने हरी झंडी दिखाकर रवाना किया।
यह शोभायात्रा शांतिकुंज के गेट नंबर दो से आरंभ होकर हरिपुरकलां होते हुए देव संस्कृति विश्वविद्यालय पहुँची। शोभायात्रा का समापन गायत्री तीर्थ में स्थित युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं वंदनीया माताजी की पावन समाधि पर आरती के साथ हुआ।
यात्रा में शांतिकुंज के अंतेवासी कार्यकर्त्ता, विभिन्न राज्यों से आये प्रशिक्षणार्थी, गायत्री परिवार के परिजनों के साथ ही बड़ी संख्या में श्रद्धालु सम्मिलित हुए। शोभायात्रा में घर-घर अलख जगाएंगे का गगनभेदी उद्घोष करते हुए शांतिकुंज के उदगाता बंधु अग्रिम पंक्ति में चल रहे थे। ज्योतिकलश यात्रा की सुंदर झांकी, प्रज्ञा बैंड की मधुर धुनों और शांतिकुंज के बालकों द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक झलकियों ने जनमानस को आकर्षित किया।
गायत्री परिवार प्रमुखद्वय श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या एवं श्रद्धेया शैलदीदी ने अपने संदेश में कहा कि यह पर्व आत्मिक चेतना के जागरण और राष्ट्र के नव निर्माण का आधार बनेगा। युवा आइकॉन डॉ. चिन्मय पण्ड्या ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा कि उन्हें गायत्री साधना, युग निर्माण एवं समाजोत्थान के इस अभियान में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए।
सायंकाल गायत्री तीर्थ के मुख्य सभागार में भजन संध्या का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत आप हिम्मत बंधाकर हमें चल दिए, किंतु सामीप्य की याद तो आयेगी जैसे मार्मिक भजन से हुई, जिसने वातावरण को भावविभोर कर दिया।
गायत्री विद्यापीठ के किशोर बालक-बालिकाओं ने सुंदर सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ दीं। शांतिकुंज की बहिनों और संगीत विभाग के संगीतज्ञ भाइयों ने अपने सुमधुर गीतों के माध्यम से पूज्य गुरुदेव को श्रद्धांजलि अर्पित की। शांतिकुंज मीडिया विभाग ने बताया कि इस तीन दिवसीय महापर्व में विविध आध्यात्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में देश विदेश के लाखों गायत्री परिवार के सदस्य जुड़ रहे हैं।

मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:
“पूर्वकाल में ऋषिगण गोमुख से ऋषिकेश तक अपनी-अपनी रुचि और सुविधाओं के अनुसार रहते थे। वह क्षेत्र अब पर्यटकों, तीर्थयात्रियों और व्यवसायियों से भर गया है। इसलिए उसे उन्हीं लोगों के लिए छोड़ दिया गया है। अनेक देव मंदिर बन गए हैं, ताकि यात्रियों का कौतूहल, पुरातनकाल का इतिहास और निवासियों का निर्वाह चलता रहे।’’
हमें बताया गया कि थियोसोफी की संस्थापिका ‘ब्लैवेट्स्की’ सिद्धपुरुष थीं। ऐसी मान्यता है कि वे स्थूलशरीर में रहते हुए भी सूक्ष्मशरीरधारियों के संपर्क में थीं। उनने अपनी पुस्तकों में लिखा है कि दुर्गम हिमालय में ‘अदृश्य सिद्धपुरुषों की पार्लियामेंट’ है। इसी प्रकार उस क्षेत्र के दिव्य निवासियों को ‘अदृश्य सहायक’ भी कहा गया है। गुरुदेव ने कहा कि, ‘‘वह सब सत्य है। तुम अपने दिव्य चक्षुओं से यह सब उसी हिमालय-क्षेत्र में देखोगे, जहाँ हमारा निवास है।’’ तिब्बत-क्षेत्र उन दिनों हिमालय की परिधि में आता था। अब वह परिधि घट गई है। तो भी ब्लैवेट्स्की का कथन सत्य है। स्थूलशरीरधारी उसे देख नहीं पाते, पर हमें अपने मार्गदर्शक गुरुदेव की सहायता से उसे देख सकने का आश्वासन मिल गया।
गुरुदेव ने कहा— ‘‘हमारे बुलावे की प्रतीक्षा करते रहना। जब परीक्षा की स्थिति के लिए उपयुक्तता एवं आवश्यकता समझी जाएगी, तभी बुलाया जाएगा। अपनी ओर से उसकी इच्छा या प्रतीक्षा मत करना। अपनी ओर से जिज्ञासावश उधर प्रयाण भी मत करना। वह सब निरर्थक रहेगा। तुम्हारे समर्पण के उपरांत वह जिम्मेदारी हमारी हो जाती है।’’ इतना कहकर वे अंतर्ध्यान हो गए।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

हम लोग प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा करके जो समय खो दिया करते हैं, वह पहले तो सामान्य ही जान पड़ता है, पर यदि हम अपने जीवन के अंतिम भाग में पहुँच कर इस प्रकार के खोये समय का हिसाब लगायें, तो उसका विशाल परिणाम देखकर आश्चर्य होगा। जिन क्षणों को छोटा समझकर हम व्यर्थ खो देते हैं उन्हीं छोटे क्षणों को काम में लाकर अनेक व्यक्तियों ने बड़े-बड़े महत्वपूर्ण कार्य कर दिखाए हैं।
संसार में अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं जिन्होंने इसी प्रकार प्रतिदिन दस-दस, बीस-बीस मिनट का समय बचाकर नई भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया है, महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिख डाले हैं, या कोई कार्य कर दिखलाया है। अगर हम यह कहें कि संसार में जितने महापुरुष हुये हैं उनकी सफलता की कुँजी वास्तव में उनके समय के सदुपयोग में ही है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं। संसार के अनेक प्रसिद्ध व्यक्ति ऐसे भी हुए हैं जिनमें कोई विशेष प्रतिभा अथवा असाधारण जन्मजात गुण नहीं था तो भी वे अविश्रान्त परिश्रम तथा समय के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करके ही इतिहास में अपना नाम स्थायी कर गये हैं।
जीवन में सिद्धि प्राप्त करनी हो तो एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए। समय का सदुपयोग करना हमारे हाथ में है। बाजार में जाकर हम रुपये देकर कोई चीज खरीदते हैं। इस तरह हम उन रुपयों को गँवाते नहीं हैं, बल्कि वस्तु के रूप में वे हमारे पास ही बने रहते हैं। समय की भी यही बात है। समय का का सदुपयोग करके हमने यदि शक्ति, सामर्थ्य और सद्गुणों की प्राप्ति की तो हमारा वह समय व्यर्थ नहीं गया, लेकिन शक्ति, सामर्थ्य और सद्गुणों के रूप में हमारे ही पास है।
जिन्होंने इस प्रकार समय का सदुपयोग किया है, उन्हें अपने जीवन में शान्ति, प्रसन्नता, धन्यता और कुतार्थता का अनुभव होता है। यही यथार्थ जीवन है। ऐसा जीवन बिताने वाले को मृत्यु का भय भी नहीं लगेगा। उस अवसर पर भी वह शान्त और स्थिर रह सकेगा। जिसने मानव-जीवन का महत्व समझकर संयम का पालन करके मानवता प्राप्त की है, वह कभी चिन्ताग्रस्त या बेचैन नहीं रहता।
मनुष्य को धन, विद्या, सत्ता, सामर्थ्य आदि का अनेक प्रकार का मद चढ़ता है। लेकिन उच्च तथा उदात्त जीवन की आकाँक्षा रखने वाला मनुष्य भिन्न प्रकार के आत्म गौरव का अनुभव करता है। वह कठिन प्रसंगों में, मृत्यु के समय भी शान्त रह सकता है। ऐसे प्रसंगों में उसका तेज बढ़ता है। यदि वह ऐसे अवसर पर निर्बल बनता है तो उसके आत्म-विश्वास में कमी समझी जायेगी। शूर का तेज रण में जाग्रत होता है, पक्षी को आकाश का भय नहीं होता, सिंह को जंगल का भय नहीं लगता। मछली पानी से नहीं डरती। इसी तरह सज्जन को संकट का भय नहीं होता। उसमें भी वह शांति का अनुभव करता है। मृत्यु के समय भी शान्ति और प्रसन्नता का भाव रह सके तभी जीवन सार्थक हुआ ऐसा कह सकते हैं।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1965 पृष्ठ 18

मित्रों, एकांगी शिक्षण — हमारी अध्यात्म में से अगर निकल गया होता, तो हमारा शौर्य, हमारा पराक्रम और हमारा तेज अक्षुण्ण बना रहता। हम ज्ञानवान रहते, लेकिन हम पराक्रमी भी रहते। पराक्रमी और ज्ञान की परंपरा — यह हमारे इतिहास में प्राचीन काल से, अनादि काल से अब तक चली आई थी। कल, परसों भी हमने देखा कि एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला की नसीहत देने वाले कुछ लोग आए, कुछ संत आए। उन्होंने हमारे हाथ में माला थमाई और कहा कि बाण की भी ज़रूरत है, करछे की भी ज़रूरत है, केस की भी ज़रूरत है और अकड़ की भी ज़रूरत है। एक हाथ में माला लेकर चलिए और एक हाथ में भाला लेकर चलिए। शौर्य और पराक्रम की परंपरा — यह भारतीय धर्म और संस्कृति का प्राण है, और यही जीवन है। जीवन है — दोनों को मिलाए बिना हम जिंदा नहीं रह सकेंगे। दोनों को मिलाकर ही हम रक्षा कर सकेंगे।
खेत में बीज बोया जाना चाहिए, लेकिन रखवाली भी की जानी चाहिए। अगर आप रखवाली नहीं करेंगे, तो चिड़िया खा जाएंगी और आपका परिश्रम बेकार चला जाएगा। रखवाली का इंतजाम कीजिए, पानी का इंतजाम कीजिए। यदि कोई कहे, "हमने पेड़ में, बगीचे में पानी का इंतजाम किया," तो यह अच्छा है। फिर कहे, "हमने बगीचे में खाद डाला," तो यह और भी अच्छा है। लेकिन अगर वह यह नहीं बता सके कि उसने निराई-गुड़ाई की है या नहीं, तो समस्या है। क्योंकि नीचे से उगने वाले पौधे सारी खुराक खा जाएंगे और पेड़ बढ़ ही नहीं पाएगा। यदि वह निराई नहीं करता, तो उसका बगीचा नहीं चल सकता। और यदि उसने रखवाली का भी कोई इंतजाम नहीं किया है, तो जब मक्की पककर तैयार होगी, तब कौवे, तोते, सूअर, सियार, चमगादड़ सब आकर खेत को साफ कर देंगे। अंत में उसे कुछ भी नहीं मिलेगा। उसका परिश्रम, उसकी खाद, उसका पानी — सब बेकार चला जाएगा। अगर चिड़ियों की रखवाली नहीं की गई, तो नतीजा यही होगा।
इसलिए रखवाली का इंतजाम करना चाहिए। हमारे भीतर एक और माद्दा होना चाहिए, जिसका नाम है — तेज। यदि आपके भीतर तेज नहीं है, तो बेटे, फिर बात बनेगी नहीं।
मित्रों, एकांगी शिक्षण — हमारी अध्यात्म में से अगर निकल गया होता, तो हमारा शौर्य, हमारा पराक्रम और हमारा तेज अक्षुण्ण बना रहता। हम ज्ञानवान रहते, लेकिन हम पराक्रमी भी रहते। पराक्रमी और ज्ञान की परंपरा — यह हमारे इतिहास में प्राचीन काल से, अनादि काल से अब तक चली आई थी। कल, परसों भी हमने देखा कि एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला की नसीहत देने वाले कुछ लोग आए, कुछ संत आए। उन्होंने हमारे हाथ में माला थमाई और कहा कि बाण की भी ज़रूरत है, करछे की भी ज़रूरत है, केस की भी ज़रूरत है और अकड़ की भी ज़रूरत है। एक हाथ में माला लेकर चलिए और एक हाथ में भाला लेकर चलिए। शौर्य और पराक्रम की परंपरा — यह भारतीय धर्म और संस्कृति का प्राण है, और यही जीवन है। जीवन है — दोनों को मिलाए बिना हम जिंदा नहीं रह सकेंगे। दोनों को मिलाकर ही हम रक्षा कर सकेंगे।
खेत में बीज बोया जाना चाहिए, लेकिन रखवाली भी की जानी चाहिए। अगर आप रखवाली नहीं करेंगे, तो चिड़िया खा जाएंगी और आपका परिश्रम बेकार चला जाएगा। रखवाली का इंतजाम कीजिए, पानी का इंतजाम कीजिए। यदि कोई कहे, "हमने पेड़ में, बगीचे में पानी का इंतजाम किया," तो यह अच्छा है। फिर कहे, "हमने बगीचे में खाद डाला," तो यह और भी अच्छा है। लेकिन अगर वह यह नहीं बता सके कि उसने निराई-गुड़ाई की है या नहीं, तो समस्या है। क्योंकि नीचे से उगने वाले पौधे सारी खुराक खा जाएंगे और पेड़ बढ़ ही नहीं पाएगा। यदि वह निराई नहीं करता, तो उसका बगीचा नहीं चल सकता। और यदि उसने रखवाली का भी कोई इंतजाम नहीं किया है, तो जब मक्की पककर तैयार होगी, तब कौवे, तोते, सूअर, सियार, चमगादड़ सब आकर खेत को साफ कर देंगे। अंत में उसे कुछ भी नहीं मिलेगा। उसका परिश्रम, उसकी खाद, उसका पानी — सब बेकार चला जाएगा। अगर चिड़ियों की रखवाली नहीं की गई, तो नतीजा यही होगा।
इसलिए रखवाली का इंतजाम करना चाहिए। हमारे भीतर एक और माद्दा होना चाहिए, जिसका नाम है — तेज। यदि आपके भीतर तेज नहीं है, तो बेटे, फिर बात बनेगी नहीं।

मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
‘‘जब तक तुम्हारे स्थूलशरीर की उपयोगिता रहेगी, तभी तक वह काम करेगा। इसके उपरांत इसे छोड़कर सूक्ष्मशरीर में चला जाना होगा। तब साधनाएँ भिन्न होंगी; क्षमताएँ बढ़ी-चढ़ी होंगी। विशिष्ट व्यक्तियों से संपर्क रहेगा। बड़े काम इसी प्रकार हो सकेंगे।’’
गुरुदेव ने कहा— ‘‘उचित समय आने पर तुम्हारा परिचय देवात्मा हिमालय-क्षेत्र से कराना है। गोमुख से पहले संत-महापुरुष स्थूलशरीर समेत निवास करते हैं। इस क्षेत्र में भी कई प्रकार की कठिनाइयाँ हैं। इनके बीच निर्वाह करने का अभ्यास करने के लिए, एक-एक साल वहाँ निवास करने का क्रम बना देने की योजनाएँ बनाई हैं। इसके अतिरिक्त हिमालय का हृदय जिसे ‘अध्यात्म का ध्रुवकेंद्र’ कहते हैं, उसमें चार-चार दिन ठहरना होगा। हम साथ रहेंगे। स्थूलशरीर जैसी स्थिति सूक्ष्मशरीर की बनाते रहेंगे। वहाँ कौन रहता है; किस स्थिति में रहता है; तुम्हें कैसे रहना होगा, यह भी तुम्हें विदित हो जाएगा। दोनों शरीरों का— दोनों क्षेत्रों का अनुभव क्रमशः बढ़ते रहने में तुम उस स्थिति में पहुँच जाओगे, जिसमें ऋषि अपने निर्धारित संकल्पों की पूर्ति में संलग्न रहते हैं। संक्षेप में यही है तुम्हें चार बार हिमालय बुलाने का उद्देश्य। इसके लिए जो अभ्यास करना पड़ेगा; जो परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ेगी, यह उद्देश्य भी इस बुलावे का है। तुम्हारी यहाँ पुरश्चरण साधना में इस विशिष्ट प्रयोग से कोई विघ्न न पड़ेगा।”
“सूक्ष्मशरीरधारी उसी क्षेत्र में इन दिनों निवास करते हैं। पिछले हिमयुग के बाद परिस्थितियाँ बदल गई हैं। जहाँ धरती का स्वर्ग था, वहाँ का वातावरण अब देवताओं के उपयुक्त नहीं रहा, इसलिए वे अंतरिक्ष में रहते हैं।”
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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बेटे, हमारी अक्ल और हमारी समझ ऐसी बेहूदा है, हमारी समझ कि जहां आदमी का जीवन होता है, वहां तो हम सब भूल जाते हैं। और जहां इसका बाहर वाला छिलका होता है, छिलके को लिए फिरते हैं।
कोई युगों में साथ भगवान राम आए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम, समाज को मर्यादाओं की संस्थापना करने के शिक्षण देने आए थे। रामचंद्र जी की जीवात्मा तो मर गई। अब क्या रह गया है? अब रामचंद्र जी का खिलौना रह गया है, जिसको हम डनन डनन, घनन घनन, "लो रामचंद्र जी, हरे रामा हरे कृष्णा" — हार गए रामा, हार गए कृष्णा, हार गए रामा, हार गए कृष्णा, हरे रामा — रह गया है।
और वह मर्यादा? मर्यादा तो मार के डाल दी हमने। मर्यादा तो मार कर डाल दी, केवल नाम रह गया है और काम खत्म कर दिया है।
हम ऐसे अभागे हैं।
अच्छा हुआ, यह तो अच्छा हुआ बात, पहली रही, पुरानी चली गई।
अगर शिवाजी और राणा प्रताप कहीं आज से हजार-दो हजार वर्ष पहले रहे होते, तो हमने वही — "ये तोप थी हमारे ऊपर", वही आरती कौन सी?
"जय राणा प्रताप देवा, जय शिवाजी देवा, पान खाओ, खजूर खाओ और खाओ मेवा।"
"जय शिवाजी देवा, राणा प्रताप देवा, पान खाओ, गुड़ खाओ और खाओ मेवा।"
यह जाहिल जो हैं, इन जाहिलों के पल्ले एक ही पड़ी है — तोप कौन सी?
किसी तरीके से बस माला घुमाओ।
माला घुमाओ — "राणा प्रतापाय नमः, राणा प्रतापाय नमः, राणा प्रतापाय नमः।"
"शिवाजी नमः, शिवाजी नमः, शिवाजी नमः।"
यह क्या कर रहा है?
"चौबीस हजार का अनुष्ठान कर रहा हूं। शिवाजी का अनुष्ठान कर रहा हूं।"
तो क्या करेंगे शिवाजी?
"आएंगे और बस रुपए की थैली रख जाएंगे मेरे पीछे?"
आज तो बेटे, ऐसी मिट्टी पलीत हो गई है।
मैं क्या करता हूं?
मुझे क्रोध आता है और मुझे आता है रोष।
यह हमारी आध्यात्मिकता की ऐसी मिट्टी पलीत, ऐसी हो गई।
अच्छा होता, हमने वो परंपराओं को ज़िंदा रखा होता।

प्रचारात्मक, संगठनात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक चतुर्विधि कार्यक्रमों को लेकर युग निर्माण योजना क्रमशः अपना क्षेत्र बनाती और बढ़ाती चली जायेगी। निःसन्देह इसके पीछे ईश्वरीय इच्छा और महाकाल की विधि व्यवस्था काम कर रहीं है, हम केवल उसके उद्घोषक मात्र है। यह आन्दोलन न तो शिथिल होने वाला है, न निरस्त। हमारे तपश्चर्या के लिये चले जाने के बाद वह घटेगा नहीं - हजार लाख गुना विकसित होगा। सो हममें से किसी को शंका कुशंकाओं के कुचक्र में भटकने की अपेक्षा अपना वह दृढ़ निश्चय परिपक्व करना चाहिए कि विश्व का नव निर्माण होना ही है और उससे अपने अभियान को, अपने परिवार को अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका का सम्पादन करना ही है।
परिजनों को अपनी जन्म-जन्मान्तरों की उस उत्कृष्ट सुसंस्कारिता का चिंतन करना चाहिए जिसकी परख से हमने उन्हें अपनी माला में पिरोया है। युग की पुकार, जीवनोद्देश्य की सार्थकता, ईश्वर की इच्छा और इस ऐतिहासिक अवसर की स्थिति, महामानव की भूमिका को ध्यान में रखते हुए कुछ बड़े कदम उठाने की बात सोचनी चाहिए। इस महाअभियान की अनेक दिशाएँ हैं जिन्हें पैसे से, मस्तिष्क से, श्रम सीकरों से सींचा जाना चाहिए। जिसके पास जो विभूतियाँ हैं उन्हें लेकर महाकाल के चरणों में प्रस्तुत होना चाहिए।
लोभ, मोह के अज्ञान और अंधकार की तमिस्रा को चीरते हुए हमें आगे बढ़ना चाहिए और अपने पास जो हो उसका न्यूनतम भाग अपने और अपने परिवार के लिए रख कर शेष को विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए। नव निर्माण की लाल मशाल में हमने अपने सर्वस्व का तेल टपका कर उसे प्रकाशवान् रखा है। अब परिजनों की जिम्मेदारी है कि वे उसे जलती रखने के लिए हमारी ही तरह अपने अस्तित्व के सार तत्व को टपकाएँ। परिजनों पर यही कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व छोड़कर इस आशा के साथ हम विदा हो रहे हैं कि महानता की दिशा में कदम बढ़ाने की प्रवृत्ति अपने परिजनों में घटेगी नहीं बढ़ेगी ही।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, जून 1971, पृष्ठ 62
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मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवनक्रम संबंधी निर्देश:—
“सहज शीत, ताप के मौसम में, जीवनोपयोगी सभी वस्तुएँ मिल जाती हैं; शरीर पर भी ऋतुओं का असह्य दबाव नहीं पड़ता, किंतु हिमालय-क्षेत्र के असुविधाओं वाले प्रदेश में स्वल्प साधनों के सहारे कैसे रहा जा सकता है, यह भी एक कला है; साधना है। जिस प्रकार नट शरीर को साधकर अनेक प्रकार के कौतूहलों का अभ्यास कर लेते हैं, लगभग उसी प्रकार का वह अभ्यास है, जिसमें नितांत एकाकी रहना पड़ता है; पत्तियों और कंदों के सहारे निर्वाह करना पड़ता है और हिंस्र जीव-जंतुओं के बीच रहते हुए अपने प्राण बचाना पड़ता है।”
“जब तक स्थूलशरीर है, तभी तक यह झंझट है। सूक्ष्मशरीर में चले जाने पर वे आवश्यकताएँ समाप्त हो जाती हैं, जो स्थूलशरीर के साथ जुड़ी हुई हैं। सरदी-गरमी से बचाव, क्षुधा-पिपासा का निवारण, निद्रा और थकान का दबाव; यह सब झंझट उस स्थिति में नहीं रहते हैं। पैरों से चलकर मनुष्य थोड़ी दूर जा पाता है, किंतु सूक्ष्मशरीर के लिए एक दिन में सैकड़ों योजनों की यात्रा संभव है। एक साथ, एक मुख से सहस्रों व्यक्तियों के अंतःकरणों तक अपना संदेश पहुँचाया जा सकता है। दूसरों की इतनी सहायता सूक्ष्मशरीरधारी कर सकते हैं, जो स्थूलशरीर रहते संभव नहीं। इसलिए सिद्धपुरुष सूक्ष्मशरीर द्वारा काम करते हैं। उनकी साधनाएँ भी स्थूलशरीर वालों की अपेक्षा भिन्न हैं।”
“स्थूलशरीरधारियों की एक छोटी सीमा है। उनकी बहुत सारी शक्ति तो शरीर की आवश्यकताएँ जुटाने में— दुर्बलता, रुग्णता, जीर्णता आदि के व्यवधानों से निपटने में खरच हो जाती है, किंतु लाभ यह है कि प्रत्यक्ष दृश्यमान कार्य स्थूलशरीर से ही हो पाते हैं। इस स्तर के व्यक्तियों के साथ घुलना-मिलना— आदान-प्रदान इसी के सहारे संभव है। इसलिए जनसाधारण के साथ संपर्क साधे रहने के लिए प्रत्यक्ष शरीर से ही काम लेना पड़ता है। फिर वह जरा-जीर्ण हो जाने पर अशक्त हो जाता है और त्यागना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उसके द्वारा आरंभ किए गए काम अधूरे रह जाते हैं। इसलिए जिन्हें लंबे समय तक ठहरना है और महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के अंतराल में प्रेरणाएँ एवं क्षमताएँ देकर बड़े काम कराते रहना है, उन्हें सूक्ष्मशरीर में ही प्रवेश करना पड़ता है।”

देवी-भागवत् पुराण में भगवती गायत्री महाशक्ति की महत्ता का विस्तारपूर्वक वर्णन है। उसे समस्त देवताओं का उपास्य और समस्त मन्त्रों का शिरोमणि बताया गया है। अनादि काल से सर्वत्र उसी की महिमा गायी जाती है और उपासना को प्रधानता दी जाती है। शास्त्र-इतिहास में ऐसा ही विवरण मिलता है और देवताओं, अवतारी देवदूतों द्वारा अपनी उपासना का रहस्योद्घाटन करते हुए इसी महाशक्ति को अपना इष्टदेव प्रतिपादित किया जाता रहा है। शक्तियों का केन्द्र वस्तुतः यही महामंत्र है। इसकी महत्ता का प्रतिपादन करते हुए शास्त्र कहते हैं-
न गायत्र्याः परो धर्मा न गायत्र्याः परन्तपः। न गायत्र्याः समो देवो न गायत्र्याः पाते मनुः॥ गातरं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन सोच्चते।
अर्थात्-गायत्री से परे कोई नहीं है, गायत्री से परम अन्य कोई भी तपश्चर्या नहीं है। गायत्री के समान अन्य कोई देवता नहीं है। गायत्री का मंत्र सब मंत्रों में श्रेष्ठ है। जो कोई इस गायत्री का गायन अर्थात् जप किया करता है, उसकी यह गायत्री त्राण-रक्षा किया करती है। इसीलिए इसका गायत्री-यह नाम कहा जाता है। इसी की उपासना से मनुष्यों से लेकर त्रिदेवों तथा अन्य देवताओं तक का कल्याण होना सिद्ध होता रहा है। प्रज्ञातत्व की अधिष्ठात्री गायत्री ही है।
आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा आत्मिक प्रगति के लिए जिस शक्ति की आवश्यकता पड़ती है, वह प्रज्ञातत्व ही है। प्रज्ञा की अभीष्ट मात्रा यदि अपने पास विद्यमान हो तो फिर आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति करने के लिए कोई बाधा नहीं रह जाती है। वह सुविधा और परिस्थितियाँ आसानी से बन जाती हैं, जिनके आधार पर मनुष्य नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम और आत्मा से परमात्मा बन जाता है। इसके लिए कोई विशेष श्रम या मनोयोग लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में उतना ही श्रम और मनोयोग लगाना पर्याप्त रहता है जितना कि भौतिक आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए जरूरी होता है। लोभ और मोह की पूर्ति में जितना पुरुषार्थ करना और जितना जोखिम उठाना पड़ता है, आत्मिक प्रगति के लिए उससे कम में ही काम चल जाता है।
महामानवों को उससे अधिक कष्ट नहीं सहने पड़ते जितने कि साधारण लोगों को सामान्य जीवन में नित्यप्रति उठाने पड़ते हैं। फिर कठिनाई क्या है ? ऋषि-मुनियों ने अध्यात्मवेत्ताओं एक ही कठिनाई बताई है और वह है-प्रज्ञा प्रखरता की। यदि प्रज्ञा को प्रखर बनाया जा सके, वह प्राप्त हो सके, तो समझना चाहिए कि जीवन को सच्चे अर्थों में सार्थक बनाने वाली ऋद्धि-सिद्धियों की उपलब्धियों से भर देने वाली संभावनाएँ हस्तगत हो गयी हैं।
गायत्री महाशक्ति की उपासना का प्रतिफल प्रज्ञा के रूप में-दूरदर्शी विवेकशीलता और आत्मबल के रूप में प्राप्त होता है और उसके बल पर साधक अपने को आत्मिक दृष्टि से सुविकसित एवं सुसम्पन्न बनाता है। परिणामस्वरूप उसके आत्मिक जीवन का स्तर ऊँचा उठता है और वह व्यक्ति सामान्य न रहकर देवात्मा, महात्मा तथा परमात्मा के स्तर तक जा पहुँचता है। इस संदर्भ में मनुस्मृति 2/87 में उल्लेख है- “गायत्री उपासना समस्त सिद्धियों का आधारभूत है। गायत्री उपासक अन्य कोई अनुष्ठान या साधना न करे, तो भी सबसे मित्रवत आचरण करता हुआ वह ब्रह्मं को प्राप्त करता है, क्योंकि इस महामंत्र के जप से उसका चित ब्राह्मीचेतना की तरह शुद्ध व पवित्र हो जाता है।” निश्चय ही जहाँ इस स्तर की आन्तरिक सम्पन्नता होगी, वहाँ कहने की आवश्यकता नहीं कि आत्मिक सम्पन्नता की अनुचरी भौतिक सम्पन्नता भी अनिवार्य रूप से होगी ही।
आत्मिक दृष्टि से सुसम्पन्न और सुविकसित व्यक्ति इन भौतिक विभूतियों का उद्धत प्रदर्शन नहीं करते, उन्हें श्रेष्ठ सत्कार्यों में ही लगाते हैं। इसलिए वे साँसारिक दृष्टि से अन्य मनुष्यों की अपेक्षा साधारण स्तर के ही दिखाई देते हैं। कइयों को उनकी यह सादगी देखकर उनके दरिद्र होने का भ्रम भी हो जाता है। दूसरे उन्हें क्या समझते हैं, इसकी परवाह न कर वे आत्मिक पूँजी के धनी अपने आप में ही संतुष्ट रहते हैं और सच्चे अर्थों में सुसम्पन्न बनते हैं।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1965 पृष्ठ 12

भगवान बुद्ध आए थे इस हिंदुस्तान में, और ऐसे जबरदस्त, ऐसे जबरदस्त लड़ाकू आदमी, योद्धा आदमी थे। योद्धा आदमी, योद्धा आदमी। उन्होंने हर एक को चैलेंज दिया। उस जमाने में वैदिक हिंसा, हिंसा, अंधभक्ति का नारा लगाया जा रहा था, और यज्ञों में जानवर काट-काट के हवन किए जा रहे थे।
उस जमाने में, जिस जमाने में बुद्ध हुए, बुद्ध भगवान ने कहा — "अरे आदमियों, यह क्या करते हो?" उन्होंने कहा — "साहब, यह तो यज्ञ है। उसके बिना नहीं हो सकता, बलि के बिना नहीं हो सकता।"
तो ऐसा यज्ञ करने से क्या फायदा आपका कि जिसमें बलि देनी पड़ती है? तुमको इतना ज्ञान नहीं है, तुम्हारा इतना ईमान नहीं है कि यज्ञ में तुम जानवर काटते हो?
"नहीं साहब, यह तो उसमें लिखा हुआ है।"
"काहे में लिखा हुआ है?"
"वेद में लिखा हुआ है।"
उन्होंने कहा — "यह यज्ञ तो हमारी धार्मिक परंपरा है।"
"यह गलत है, अधर्म का काम है। अगर यज्ञ में जानवर होमे बिना हवन नहीं हो सकता, तो यह गलत परंपरा है। इसके लिए विवेक कहता है, ईमान कहता है, समझ कहती है भाई यह गलत चीज है।"
तो फिर आप क्यों नहीं मानते?
"नहीं साहब, यह परंपरा है।"
"भाड़ में डालिए परंपरा को। यज्ञ को हम नहीं मानते।"
किसने कहा?
बुद्ध ने कहा।
बुद्ध ने कहा, और फिर क्या कहा? लोगों ने यह कहा कि —
"नहीं साहब, यह जो है, यज्ञ तो वेदों में लिखा हुआ है।"
बुद्ध तो बेचारे पढ़े नहीं थे संस्कृत, वेद भी नहीं जानते थे।
तो उन्होंने कहा — "ऐसे वेद को मानने की जरूरत नहीं है।"
वेद को चैलेंज... वेद को जो हिंदू धर्म का प्राण था, जिसके बारे में बुद्ध ने यह कहा —
"नहीं, यह वेद गलत है।"
यह गलत है। यह तो बेचारे नहीं कह सके — "वेद की व्याख्या हम अलग तरीके से कर सकते हैं, और आपकी व्याख्या गलत है।"
यह तो — "वेद गलत है।"
अच्छा वेद गलत है?
"वेद तो भगवान ने बनाए। भगवान ऐसे वेद बनाए जिसमें कि यज्ञ में हवन करना लिखा हुआ है?"
"हाँ साहब, ऐसे बताओ — हम ऐसे भगवान को नहीं मानते।"
कौन? बुद्ध।
बुद्ध जो था क्रांतिकारी।
बुद्ध ने एक ही बुलावा और एक ही बात कही —
बुद्धं शरणं गच्छामि।
हम बुद्ध की शरण में जाते हैं, विवेक की शरण में जाते हैं, समझदारी की शरण में जाते हैं, इंसाफ की शरण में जाते हैं, और हम किसी परंपरा के शरण में नहीं जाते।
क्रांतिकारी बुद्ध, मित्रों, ऐसा संघर्षशील बुद्ध इस हिंदुस्तान में से उन अवांछनीय विचारधाराओं को लात मार के फेंक दिया और कमर तोड़ कर डाल दी।
एक आदमी ने — एक आदमी — कितना साहसी, कितना शौर्यवान और पराक्रमी बुद्ध।