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दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह:—
इस संदर्भ में प्रह्लाद का फिल्म-चित्र आँखों के आगे तैरने लगा। वह समाप्त न होने पाया था कि ध्रुव की कहानी मस्तिष्क में तैरने लगी। इसका अंत न होने पाया कि पार्वती का निश्चय उछलकर आगे आ गया। इस आरंभ के उपरांत महामानवों की— वीर बलिदानियों की— संत-सुधारक और शहीदों की अगणित कथागाथाएँ सामने तैरने लगीं। उनमें से किसी के भी घर-परिवारवालों ने— मित्र-संबंधियों ने समर्थन नहीं किया था। वे अपने एकाकी आत्मबल के सहारे कर्त्तव्य की पुकार पर आरूढ़ हुए और दृढ़ रहे। फिर यह सोचना व्यर्थ है कि इस समय अपने इर्द-गिर्द के लोग क्या करते और क्या कहते हैं? उनकी बात सुनने से आदर्श नहीं निभेंगे। आदर्श निभाने हैं, तो अपने मन की ललक-लिप्साओं से जूझना पड़ेगा। इतना ही नहीं, इर्द-गिर्द जुड़े हुए उन लोगों की भी उपेक्षा करनी पड़ेगी, जो मात्र पेट-प्रजनन के कुचक्र में ही घूमते और घुमाते रहे हैं।
निर्णय आत्मा के पक्ष में गया। मैं अनेकों विरोध और प्रतिबंधों को तोड़ता— लुक-छिपकर निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा और सत्याग्रही की भूमिका निभाता हुआ जेल गया। जो भय का काल्पनिक आतंक बनाया गया था, उसमें से एक भी चरितार्थ नहीं हुआ।
छुटपन की एक घटना इन दोनों प्रयोजनों में और भी साहस देती रही। गाँव में एक बुढ़िया मेहतरानी घावों से पीड़ित थी; दस्त भी हो रहे थे; घावों में कीड़े पड़ गए थे; बेतरह चिल्लाती थी, पर कोई छूत के कारण उसके घर में नहीं घुसता था। मैंने एक चिकित्सक से उपचार पूछा। दवाओं का एकाकी प्रबंध किया। उसके घर नियमित रूप से जाने लगा। चिकित्सा के लिए भी— परिचर्या के लिए भी— भोजन-व्यवस्था के लिए भी। यह सारे काम मैंने अपने जिम्मे ले लिए। मेहतरानी के घर में घुसना; उसके मल-मूत्र से सने कपड़े धोना आज से 65 वर्ष पूर्व गुनाह था। जाति बहिष्कार कर दिया गया। घरवालों तक ने प्रवेश न करने दिया। चबूतरे पर पड़ा रहता और जो कुछ घरवाले दे जाते, उसी को खाकर गुजारा करता। इतने पर भी मेहतरानी की सेवा छोड़ी नहीं। यह पंद्रह दिन चली और वह अच्छी हो गई। वह जब तक जीवित रही, मुझे भगवान कहती रही। उन दिनों 13 वर्ष की आयु में भी अकेला था। सारा घर और सारा गाँव एक ओर। लड़ता रहा, हारा नहीं। अब तो उम्र कई वर्ष और अधिक बड़ी हो गई थी। अब क्यों हारता?
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

ध्यान भूमिका की साधना में शरीर को ढीला और मन को खाली रखना चाहिए। इसके लिए शिथिलीकरण मुद्रा तथा उन्मनी मुद्रा का अभ्यास करना पड़ता है। शिथिलीकरण का स्वरूप यह है कि देह को मृतक-निष्प्राण मूर्छित, निद्रित, निश्चेष्ट स्थिति में किसी आराम कुर्सी या किसी अन्य सहारे की वस्तु से टिका दिया जाय और ऐसा अनुभव किया जाय मानो शरीर प्रसुप्त स्थिति में पड़ा हुआ है। उसमें कोई हरकत हलचल नहीं हो रही है। यह मुद्रा शरीर को असाधारण विश्राम देती और तनाव दूर करती है। ध्यानयोग के लिए यही स्थिति सफलता का पथ प्रशस्त करती है।
मन मस्तिष्क को ढीला करने वाली उन्मनी मुद्रा यह है कि इस समस्त विश्व को पूर्णतया शून्य रिक्त अनुभव किया जाय। प्रलय के समय ऊपर नील आकाश, नीचे नील जल स्वयं अबोध बालक की तरह कमल पत्र पर पड़े हुए तैरना अपने पैर का अँगूठा अपने मुख से चूसना, इस प्रकार का प्रलय चित्र बाज़ार में भी बिकता है। मन को शान्त करने की दृष्टि से यह स्थिति बहुत ही उपयुक्त है संसार में कोई व्यक्ति, वस्तु , हलचल, समस्या, आवश्यकता है ही नहीं, सर्वत्र पूर्ण नीरवता ही भरी पड़ी है- यह मान्यता प्रगाढ़ होने पर मन के लिए भोगने, सोचने, चाहने का कोई पदार्थ या कारण रह ही नहीं जाता।
अबोध बालक के मन में कल्पनाओं की घुड़दौड़ की कोई गुँजाइश नहीं रहती। अपने पैर के अँगूठे में से निसृत अमृत का जब आप ही परमानन्द उपलब्ध हो रहा है तो बाहर कुछ ढूँढ़ने खोजने की आवश्यकता ही क्या रही? इस उन्मनी मुद्रा में आस्था पूर्वक यदि मन जमाया जाय तो उसके खाली एवं शान्त होने की कोई कठिनाई नहीं रहती। कहना न होगा कि शरीर को ढीला और मन को खाली करना ध्यानयोग के लिए नितान्त आवश्यक है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि ध्यानयोग का चुम्बकत्व ही आत्मा और परमात्मा की प्रगाढ़ घनिष्ठता को विकसित करके द्वैत को अद्वैत बनाने में सफल होता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग जितना गहरा होगा उतना ही परस्पर लय होने की-सम्भावना बढ़ेगी इस एकता के आधार पर ही बिन्दु को सिन्धु बनने का अवसर मिलता है। जीव के ब्रह्म बनने का अवसर ऐसे ही लय समर्पण पर एकात्म भाव पर निर्भर रहता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मार्च 1973 पृष्ठ 50

आध्यात्मिकता के साथ योग और तप। योग और तप की दो धाराएं। योग और तप की दो धाराएं, और दोनों मिली हुई हैं। दोनों में से हम किसी को अलग नहीं कर सकते।
योग किसे कहते हैं? योग, बेटे, ध्यान को कहते हैं।
योग किसे कहते हैं? भावना की दृष्टि से आत्मा और परमात्मा को जो हम मिलाने का संकल्प करते हैं, उस वृत्ति का नाम योग है। हम दोनों को मिलाते हैं — अपनी आत्मा को परमात्मा से मिलाते हैं, शरणागत होते हैं, समर्पण करते हैं, भक्ति भावना से ओतप्रोत हो जाते हैं।
"यह क्या चीज़ कह रहे हैं आप?"
"यह, बेटे, मैं वह कह रहा हूं — योग की बात कह रहा हूं तुझसे, जिसको मैंने अपनी शिक्षण पद्धति में ब्रह्मविद्या के नाम से कहा है।"
योग यह भावनात्मक उछाल है, भावनात्मक उबाल है। भावनाओं को हम परिष्कृत करेंगे, श्रेष्ठ करेंगे, भावनाओं को उज्ज्वल बनाएंगे, भावनाओं को पवित्र बनाएंगे, भावनाओं को कोमल बनाएंगे, भावनाओं को संवेदनशील बनाएंगे — ताकि हमारी भावनाएं वैसी हो जाएं, जिसमें कि हम ब्रह्म से मिल सकने के लायक जीवात्मा को मिला सकें। हम इसलिए इतना कोमल अपने आप को बनाएंगे कि जितना दम, और हम अपने आप को इतना गर्म करेंगे कि जितना ब्रह्म। दोनों को एक ही क्वालिटी का मिलाकर के, हम साथ-साथ मिला देंगे और हम दोनों जुड़ने की कोशिश करेंगे।
पानी, पानी मिल सकता है दूध में।
"नहीं साहब, यह मिला दीजिए।"
"क्या मिला दें?"
"यह पत्थर का चूरा?"
"यह नहीं मिलेगा। यह पत्थर का चूरा नहीं मिल सकता। हाँ, दूध में कुछ मिलाना है तो पानी मिल सकता है। लिक्विड, लिक्विड भी मिल सकता है।"
"नहीं साहब, ऐसे ही कुछ मिला दीजिए। आप तो यह मिट्टी का तेल मिला दीजिए।"
"बेटे, मिट्टी के तेल की परत आ जाएगी ऊपर, पानी नीचे रह जाएगा।"
"नहीं साहब, मिला दीजिए।"
"नहीं मिल सकता। पानी भारी और मिट्टी का तेल हल्का है — दोनों नहीं मिल सकते।"
ब्रह्म और जीव को मिलाने के लिए अपनी संवेदनाओं को, अपनी विचारणाओं को, अपनी मन:स्थिति को हम कोमल बनाते हैं, नम्र बनाते हैं, शीलवान बनाते हैं, चरित्रवान बनाते हैं, दिव्य बनाते हैं — जिसका नाम योग है।
"तो फिर महाराज जी, योग से सिद्धि मिल जाएगी?"
"नहीं, योग से सिद्धि नहीं मिलेगी। योग का एक और भाई है। भाई को लेकर के तू नहीं चलेगा, तो सिद्धि नहीं मिलेगी। मैं बताये देता हूं तुझे।"
"महाराज जी, मैं खूब समाधि लगाया करूंगा, ध्यान लगाया करूंगा।"
"बेटे, तो नहीं मिलेगी। हम कह रहे तुझसे — उसका एक और सहायक है, उसको लेके चल।"
"सहायक कौन सा?"
"उसका नाम है तप।"

जन जागरण के लिए उप्र की धरती पर पहुँचेगा अखंड दीप का संदेश
हरिद्वार 6 जून।
परम वंदनीया माता भगवती देवी शर्मा की जन्मशताब्दी वर्ष 2026 के उपलक्ष्य में अखिल विश्व गायत्री परिवार द्वारा निकाली जा रही ज्योति कलश रथ यात्रा की श्रृंखला में आज शांतिकुंज से उत्तर प्रदेश के ३२ जनपदों हेतु दो रथों को रवाना किया गया। यह यात्रा देशभर में आध्यात्मिक चेतना, संस्कृति संवर्धन एवं युग निर्माण का संदेश लेकर घर-घर पहुँचेगी।
इन रथों को देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति युवा आइकॉन डॉ. चिन्मय पण्ड्या जी तथा शांतिकुंज के व्यवस्थापक श्री योगेन्द्र गिरि जी ने हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। कार्यक्रम का आयोजन श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या जी एवं श्रद्धेया शैलदीदी के मार्गदर्शन में सम्पन्न हुआ।
युवा आइकॉन डॉ. चिन्मय पण्ड्या जी ने कहा कि यह रथयात्रा श्रद्धालुओं में आत्मिक जागृति, सामाजिक सद्भाव एवं राष्ट्र निर्माण के संकल्प को सुदृढ़ करेगी। वंदनीया माताजी के जीवनदर्शन और अखंड दीपक की प्रेरणा को जन-जन तक पहुँचाना इस अभियान का उद्देश्य है।
इन रथों में से एक आंवलखेड़ा (आगरा) जोन के 16 जिलों में भ्रमण करेगा, जबकि दूसरा मुरादाबाद-बिजनौर जोन के 16 जनपदों में व्यापक जनजागरण करेगा। ये रथ गाँव-गाँव, नगर-नगर जाकर परम वंदनीया माताजी के जीवन-संदेश, सिद्ध अखंड दीप की आभा तथा पवित्रता, सद्भावना व दिव्यता की प्रेरणा लेकर जनमानस से सीधे संवाद करेंगे।
इससे पूर्व भारत के गुजरात, मध्य प्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़, दक्षिण भारत, बिहार, झारखंड आदि सहित कनाडा सहित अनेक देशों में यह अभियान अत्यंत प्रभावशाली ढंग से चलाया जा रहा है। ज्योति कलश रथ यात्रा माताजी की जन्मशताब्दी और अखंड दीपक की स्थापना की शताब्दी वर्ष को लक्ष्य बनाकर देश विदेश में नवचेतना का संचार कर रही है।

गायत्री जयंती तथा गंगा दशहरा के पुण्यपर्व पर शांतिकुंज, हरिद्वार से उत्तर प्रदेश हेतु दो ज्योति कलश रथयात्राओं को विधिवत विदाई दी गई। यह रथयात्राएँ जन-जन में आध्यात्मिक जागरण, संस्कृति-संवर्धन, युग निर्माण के संदेश के साथ 2026 में अखंड दीपक की शताब्दी एवं परम वंदनीया माताजी की जन्म शताब्दी के लिए संकल्प दिलाकर प्राणपण से कार्य करने के लिए श्रद्धावानों का आवाहन भी करेगी।
प्रथम रथ आंवलखेड़ा जोन’ में 16 जनपदों में व्यापक जनजागरण यात्रा करेगा, जबकि द्वितीय रथ ‘मुरादाबाद-बिजनौर जोन’ में 16 जनपदों का प्रवास करेगा।
इस अवसर पर देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी, शांतिकुंज के व्यवस्थापक आदरणीय श्री योगेंद्र गिरि जी, डॉ. ओ. पी. शर्मा जी के साथ शांतिकुंज के कार्यकर्ता भाई बहनों की गरिमामयी उपस्थिति में रथों का पूजन एवं मंगल प्रस्थान सम्पन्न हुआ।
यह रथयात्रा केवल वाहन नहीं, अपितु एक युग-संदेश है—जिसका उद्देश्य है जनमानस को पवित्रता, सद्भावना एवं दिव्यता की ओर प्रेरित करना।





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दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
अपना मुँह एक— सामने वाले के सौ। किस-किस को, कहाँ तक जवाब दिया जाए? अंत में हारकर गांधी जी के तीन गुरुओं में से एक को अपना भी गुरु बना लिया। मौन रहने से राहत मिली। ‘भगवान की प्रेरणा’ कह देने से थोड़ा काम चल पाता; क्योंकि उसे काटने के लिए उन सबके पास बहुत पैने तर्क नहीं थे। नास्तिकवाद तक उतर आने या अंतःप्रेरणा का खंडन करने लायक तर्क उनमें से किसी ने भी नहीं सीखे-समझे थे। इसलिए बात ठंडी पड़ गई। मैंने अपना संकल्पित व्रत इस प्रकार चालू कर दिया, मानो किसी को जवाब देना ही नहीं था; किसी का परामर्श लेना ही नहीं था। अब सोचता हूँ कि उतनी दृढ़ता न अपनाई गई होती, तो नाव दो-चार झकझोरे खाने के उपरांत ही डूब जाती। जिस साधनाबल के सहारे आज अपना और दूसरों का कुछ भला बन पड़ा, उसका सुयोग ही नहीं आता। ईश्वर के साथ वह नाता जुड़ता ही नहीं, जो पवित्रता और प्रखरता से कम में जड़ें जमाने की स्थिति में होता ही नहीं।
इसके बाद दूसरी परीक्षा बचपन में ही तब सामने आई, जब कांग्रेस का असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ। गांधी जी ने सत्याग्रह आंदोलन का बिगुल बजाया। देशभक्तों का आह्वान किया और जेल जाने— गोली खाने के लिए घर से निकल पड़ने के लिए कहा।
मैंने अंतरात्मा की पुकार सुनी और समझा कि यह ऐतिहासिक अवसर है। इसे किसी भी कारण चुकाया नहीं जाना चाहिए। मुझे सत्याग्रहियों की सेना में भरती होना ही चाहिए। अपनी मरजी से उस क्षेत्र के भरती-केंद्र में नाम लिखा दिया। साधनसंपन्न घर छोड़कर नमक सत्याग्रह के लिए निर्धारित मोर्चे पर जाना था। उन दिनों गोली चलने की चर्चा बहुत जोरों पर थी। लंबी सजाएँ— काला पानी होने की भी। ऐसी अफवाहें सरकारी पक्ष के— किराए के प्रचारक जोरों से फैला रहे थे, ताकि कोई सत्याग्रही बने नहीं। घरवाले उसकी पूरी-पूरी रोक-थाम करें। मेरे संबंध में भी यही हुआ। समाचार विदित होने पर मित्र, पड़ोसी, कुटुंबी, संबंधी एक भी न बचा, जो इस विपत्ति से बचाने के लिए जोर लगाने के लिए न आया हो। उनकी दृष्टि से यह आत्महत्या जैसा प्रयास था।
बात बढ़ते-बढ़ते जवाबी आक्रमण तक की आई। किसी ने अनशन की धमकी दी, तो किसी ने आत्महत्या की। हमारी माता जी अभिभावक थीं। उन्हें यह पट्टी पढ़ाई गई कि लाखों की पैतृक संपत्ति से वे मेरा नाम खारिज कराकर अन्य भाइयों के नाम कर देंगी। भाइयों ने कहा— “घर से कोई रिश्ता न रहेगा और उसमें प्रवेश भी न मिलेगा।” इसके अतिरिक्त भी और कई प्रकार की धमकियाँ दीं। उठाकर ले जाया जाएगा और डाकुओं के नियंत्रण में रहने के लिए बाधित कर दिया जाएगा।
इन मीठी-कड़ुवी धमकियों को मैं शांतिपूर्वक सुनता रहा। अंतरात्मा के सामने एक ही प्रश्न रहा कि समय की पुकार बड़ी है या परिवार का दबाव? अंतरात्मा की प्रेरणा बड़ी है या मन को इधर-उधर डुलाने वाले असमंजस की स्थिति? अंतिम निर्णय किससे कराता? आत्मा और परमात्मा दो को ही साक्षी बनाकर और उनके निर्णय को ही अंतिम मानने का फैसला किया।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
गायत्री जयंती तथा गंगा दशहरा के पुण्यपर्व पर शांतिकुंज, हरिद्वार से उत्तर प्रदेश हेतु दो ज्योति कलश रथयात्राओं को विधिवत विदाई दी गई। यह रथयात्राएँ जन-जन में आध्यात्मिक जागरण, संस्कृति-संवर्धन, युग निर्माण के संदेश के साथ 2026 में अखंड दीपक की शताब्दी एवं परम वंदनीया माताजी की जन्म शताब्दी के लिए संकल्प दिलाकर प्राणपण से कार्य करने के लिए श्रद्धावानों का आवाहन भी करेगी।
प्रथम रथ आंवलखेड़ा जोन’ में 16 जनपदों में व्यापक जनजागरण यात्रा करेगा, जबकि द्वितीय रथ ‘मुरादाबाद-बिजनौर जोन’ में 16 जनपदों का प्रवास करेगा।
इस अवसर पर देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी, शांतिकुंज के व्यवस्थापक आदरणीय श्री योगेंद्र गिरि जी, डॉ. ओ. पी. शर्मा जी के साथ शांतिकुंज के कार्यकर्ता भाई बहनों की गरिमामयी उपस्थिति में रथों का पूजन एवं मंगल प्रस्थान सम्पन्न हुआ।
यह रथयात्रा केवल वाहन नहीं, अपितु एक युग-संदेश है—जिसका उद्देश्य है जनमानस को पवित्रता, सद्भावना एवं दिव्यता की ओर प्रेरित करना।

विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) के पावन अवसर पर अखिल विश्व गायत्री परिवार के मुख्यालय शांतिकुंज, हरिद्वार में पंचवटी के पाँच पौधों सहित सिल्क फ्रॉस्टी एवं स्वामी प्रजाति के कुल 21 पौधों का रोपण सम्पन्न हुआ।
इस अवसर पर देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी द्वारा इन पौधों का रोपण कर पर्यावरण संरक्षण एवं संतुलित जीवन शैली की दिशा में प्रेरणादायक संदेश प्रदान किया गया।
शांतिकुंज व्यवस्थापक श्री योगेंद्र गिरी जी, श्याम बिहारी दुबे जी एवं अनेक कार्यकर्तागण इस अवसर पर उपस्थित रहे। यह आयोजन न केवल वृक्षारोपण की क्रिया था, अपितु भावी पीढ़ियों के लिए एक समर्पित संकल्प भी था—स्वस्थ पर्यावरण, संतुलित प्रकृति एवं सजीव पृथ्वी की ओर।



DSVV & National Innovation Foundation has collaborated under which few machines from NIF have arrived and the installations and training are ongoing. The machines are indigenous innovations and shall be used to train individuals to produce organic, cow dung based and eco friendly articles such as Flower pots, Deepaks, Sambrani Cups etc within DSVV campus.
The unit was inaugurated by Resp. Dr. Chinmay Pandya ji on the occasion of World Environment Day. He conveyed it is high time we understand that long term sustainable solutions must be the focus of innovations and also acknowledged the efforts made by the NIF in this area.
On this occasion Dr. Mahesh Patel from NIF & the innovator Shri Arvindbhai also received blessings and shared their ideas. The training centre was made open and offered for public to receive training on the occasion of Gayatri Jayanti and to celebrate World Environment Day as we will be introducing eco friendly products.












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गायत्री जयंती महापर्व के अवसर पर जहां एक ओर शांतिकुंज परिसर में विविध आध्यात्मिक कार्यक्रमों की गूंज रही, वहीं दूसरी ओर गायत्री विद्यापीठ शांतिकुंज के स्काउट-गाइड के बच्चों ने अपनी निःस्वार्थ सेवा से श्रद्धालुओं का दिल जीत लिया। देश-विदेश से पधारे हजारों श्रद्धालुओं के स्वागत व सत्कार में जुटे इन बाल सेवकों ने दिनभर ठंडा जल पिलाकर न केवल अपनी जिम्मेदारी निभाई, बल्कि अतिथि देवो भवः की भारतीय परंपरा को भी जीवंत किया।
बच्चों ने कहा कि ये सभी हमारे अतिथि हैं, तो उनकी सेवा व सहयोग हमारा दायित्व है। उनके इस भावपूर्ण उत्तर ने कई श्रद्धालुओं की आँखें नम कर दीं। श्रद्धालुओं ने बच्चों की अनुशासनप्रियता, विनम्रता और सेवा भाव की सराहना करते हुए कहा कि ऐसे ही संस्कार भारत को पुनः विश्वगुरु बनने की दिशा में ले जाएंगे।
गायत्री विद्यापीठ व्यवस्था मण्डल की प्रमुख श्रीमती शैफाली पण्ड्या ने बताया कि बच्चों को यह शिक्षा प्रारंभ से दी जाती है कि सेवा में विद्यार्थियों की सक्रिय सहभागिता देखकर युगऋषि की शिक्षा ‘हम बदलेंगे, युग बदलेगा’ की सार्थकता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है

