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गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा:—
उनसे तो हमें चट्टियों पर दुकान लगाए हुए पहाड़ी दुकानदार अच्छे लगे। वे भोले और भले थे। आटा, दाल, चावल आदि खरीदने पर वे पकाने के बरतन बिना किराया लिए— बिना गिने ऐसे ही उठा देते थे; माँगने-जाँचने का कोई धंधा उनका नहीं था। अक्सर चाय बेचते थे। बीड़ी, माचिस, चना, गुड़, सत्तू, आलू जैसी चीजें यात्रियों को उनसे मिल जाती थीं। यात्री श्रद्धालु तो होते थे, पर गरीब स्तर के थे। उनके काम की चीजें ही दुकानों पर बिकती थीं। कंबल उसी क्षेत्र के बने हुए किराए पर रात काटने के लिए मिल जाते थे।
शीत ऋतु और पैदल चलना, यह दोनों ही परीक्षाएँ कठिन थीं। फिर उस क्षेत्र में रहने वाले साधु-संन्यासी उन दिनों गरम इलाकों में गुजारे की व्यवस्था करने नीचे उतर आते हैं। जहाँ ठंड अधिक है, वहाँ के ग्रामवासी भी पशु चराने नीचे के इलाकों में उतर आते हैं। गाँवों में— झोपड़ियों में सन्नाटा रहता है। ऐसी कठिन परिस्थितियों में हमें उत्तरकाशी से नंदनवन तक की यात्रा पैदल चलकर पूरी करनी थी। हर दृष्टि से यह यात्रा बहुत कठिन थी।
स्थान नितांत एकाकी; ठहरने-खाने की कोई व्यवस्था नहीं; वन्य पशुओं का निर्भीक विचरण, यह सभी बातें काफी कष्टकर थीं। हवा उन दिनों काफी ठंडी चलती थी। सूर्य ऊँचे पहाड़ों की छाया में छिपा रहने के कारण दस बजे के करीब दीखता है और दो बजे के करीब शिखरों के नीचे चला जाता है। शिखरों पर तो धूप दीखती है, पर जमीन पर मध्यम स्तर का अँधेरा। रास्ते में कभी ही कोई भूला-भटका आदमी मिलता। जिन्हें कोई अति आवश्यक काम होता; किसी की मृत्यु हो जाती, तो ही आने-जाने की आवश्यकता पड़ती। हर दृष्टि से वह क्षेत्र अपने लिए सुनसान था। सहचर के नाम पर थे, छाती में धड़कने वाला दिल या सोच-विचार उठाने वाले सिर में अवस्थित मन। ऐसी दशा में लंबी यात्रा संभव है या असंभव, यह परीक्षा अपनी ली जा रही थी। हृदय ने निश्चय किया कि जितनी साँस चलनी है, उतने दिन अवश्य चलेगी; तब तक कोई मारने वाला नहीं। मस्तिष्क कहता, वृक्ष-वनस्पतियों में भी तो जीवन है। उन पर पक्षी रहते हैं। पानी में जलचर मौजूद हैं। जंगल में वन्य पशु फिरते हैं। सभी नंगे बदन, सभी एकाकी। जब इतने सारे प्राणी इस क्षेत्र में निवास करते हैं, तो तुम्हारे लिए सब कुछ सुनसान कैसा? अपने को छोटा मत बनाओ। जब ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात मानते हो, तब इतने सारे प्राणियों के रहते, तुम अकेले कैसे? मनुष्यों को ही क्यों प्राणी मानते हो? यह जीव-जंतु क्या तुम्हारे अपने नहीं? फिर सूनापन कैसा?
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

यूरोप प्रवास के क्रम में देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी लिथुआनिया पहुँचे, जहाँ उन्होंने कौनेस स्थित प्रतिष्ठित Vytautas Magnus University (VMU) के कुलपति महोदय से शिष्टाचार भेंट की। इस अवसर पर देव संस्कृति विश्वविद्यालय के Baltic Center और VMU के मध्य सहयोग के विस्तार को लेकर विस्तृत विचार-विमर्श हुआ।
संवाद के दौरान दोनों संस्थानों के मध्य अनुसंधान सहयोग, विशेष क्षेत्रों में संयुक्त अध्ययन, तथा अकादमिक आदान-प्रदान को लेकर संभावनाएँ तलाशी गईं। VMU के कुलपति महोदय ने देव संस्कृति विश्वविद्यालय की विशिष्ट कार्यप्रणाली एवं परम पूज्य गुरुदेव की प्रेरणाओं पर आधारित उसके उद्देश्य एवं दृष्टिकोण की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उन्होंने मूल्यों पर आधारित, भविष्यद्रष्टा शिक्षा की इस संकल्पना के प्रति अपनी गहरी सहमति एवं समर्थन प्रकट किया।
यह संवाद वैश्विक शिक्षा जगत में भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं एवं मानवीय मूल्यों पर आधारित शिक्षा मॉडल को समर्पित एक सार्थक पहल सिद्ध हुआ। इस ऐतिहासिक भेंट ने दोनों विश्वविद्यालयों के बीच आने वाले समय में अधिक सशक्त एवं उपयोगी शैक्षणिक सहयोग का मार्ग प्रशस्त किया।
आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी ने इस सौहार्दपूर्ण संवाद एवं संयुक्त प्रतिबद्धता हेतु कुलपति महोदय के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की।

रामचंद्र जी थे अकेले ही थे, लड़ने के लिए गए थे। बेचारे किससे गए थे? रावण के, जिसके ढेरों के ढेरों आदमी थे, जो इतनी बड़ी ताकत थी, बड़े हथियार थे, उससे लड़ने गए थे। हमको भी लड़ने के लिए इन सब मुसीबतों से लड़ना है, नहीं तो फिर इंसानियत जिंदा नहीं रहेगी। इंसानियत जिंदा नहीं रहेगी, यह जमीन भी जिंदा नहीं रहेगी।
कहीं ऐसा भी हो सकता है कि एटम बमों की लड़ाई शुरू हो और जमीन का मट्टी धूल हो जाए और धूल कहीं आसमान में उड़ी उड़ी फिरे, फिर आपको तलाश करना पड़े कि यह जमीन थी। कोई मालूम नहीं साहब, सुना तो हमने भी है कि जमीन भी थी, सुई की नोक के बराबर भी जमीन नहीं थी। ऐसी ही मुसीबत आ सकती है।
ऐसी मुसीबत के वक्त पर हमको अपना जद्दोजहद करनी है, हमको कुछ बनाना भी है। बनाना का मतलब क्या है? रामचंद्र जी ने केवल रावण को मारा ही नहीं था, रामराज्य भी स्थापित किया था। और श्री कृष्ण भगवान ने महाभारत में मारकाट ही नहीं मचाई थी, बल्कि महाभारत, महान भारत जो कि ग्रेट इन इंडिया, बहुत बड़ा भारत वर्ष बना करके रख दिया था।
बहुत छोटा रह गया था, तब हमको बनाना भी है, बिगाड़ना भी है। बनाना भी है, बिगाड़ना भी है। बिगाड़ना है और बनाना है, दोनों कामों के लिए हमारे ऊपर बहुत अधिक दबाव आ गया है। इसलिए आप लोगों से क्षमा मांगनी पड़ी और बड़ा छाती पर पत्थर रखना पड़ा।
आप लोगों से बातचीत न भी हम कर सकें, तो भी हम आप सब के साथ तो रहेंगे, पर अलग रहना पड़ेगा। आप यह मत ख्याल कीजिए कि हम आपके साथ-साथ रहते हैं, बातचीत करते हैं और अपनी बात कहते हैं तो अच्छे लगते हैं। न उससे क्या बनता-बिगड़ता है?
जुएं होते हैं न, सिर में बैठ जाते हैं और खाते रहते हैं और खून पीते रहते हैं। आपके लिए कुछ फायदेमंद है? खटमल चारपाई में बने रहते हैं और रात भर काटते रहते हैं। पास रहने से कोई फायदा है? चूहे घर में रहते हैं, ढेरों के ढेरों अनाज खा जाते हैं। कोई फायदा है? छिपकलियाँ घर में रहती हैं, नमक पर पेशाब कर जाती हैं, जहरीला बना जाती हैं।
कुछ फायदा है नजदीक रहने से? कोई खास फायदा हो, ऐसी बात नहीं है। और दूर रहने से कोई आदमी नुकसान में रहता हो, आप यह भी मत सोचिए।

उस रात विन्दुमती को एकाएक ज्वर हो गया। चौलिया उनकी देख-भाल के लिए नियुक्त की गई। एक दिन-दो दिन और क्रमशः कई दिन बीत गए, ज्वर सन्निपात में परिवर्तित हो गया। चिकित्सकों ने ज्यों-ज्यों चिकित्सा की स्थिति त्यों-त्यों बिगड़ती गयी। इस बीच घर के सब लोगों ने अपनी दैनिक क्रियाएँ यथावत् निबटाए। किन्तु चौलिया को किसी ने न स्नान करते देखा न शयन करते।
अपनी सगी माँ की कोई क्या सेवा करेगा, चौलिया ने जैसी सेवा विन्दुमती की की। लेकिन दैवयोग भला किसके टाले टलता है। एक रात विन्दुमती की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ उसने आँखें खोली-सामने चौलिया खड़ी थी। अनंग को बुलाया बिन्दु की आँखें छलक पड़ी, कुछ कहना चाहा पर निकले कुल दो शब्द -”बेटी चौलिया ......और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। विन्दुमती का देहावसान हो गया।
इधर अर्थी जा रही थी श्मशान को उधर चौलिया किसी नए आश्रय की खोज में। अनंगपाल ने समझाया-बेटी! यह घर तेरा घर है तू कहाँ जा रही हैं? तो चौलिया बोली- “माँ थी जब तक, तब उसकी सेवा के लिए मेरी आवश्यकता थी और मुझे भी अपनी सहनशीलता का अभ्यास करने के लिए उनकी आवश्यकता थी। अब वे नहीं रही तो मुझे अन्यत्र वैसी ही परिस्थिति ढूँढ़ने के लिए जाना चाहिए। जहाँ मेरा रहना सार्थक हो सके।”
अनंगपाल देखते ही रह गए और चौलिया वैसी ही स्थिति वाला कोई और दूसरा स्थान ढूँढ़ने के लिए आगे बढ़ गई।
समाप्त
अखण्ड ज्योति 1995 अगस्त पृष्ठ 2
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा:—
इस यात्रा से गुरुदेव एक ही परीक्षा लेना चाहते थे कि विपरीत परिस्थितियों में जूझने लायक मनःस्थिति पकी या नहीं। सो यात्रा अपेक्षाकृत कठिन ही होती गई। दूसरा कोई होता, तो घबरा गया होता; वापस लौट पड़ता या हैरानी में बीमार पड़ गया होता, पर गुरुदेव यह जीवनसूत्र व्यवहार में सिखाना चाहते थे कि मनःस्थिति मजबूत हो, तो परिस्थितियों का सामना किया जा सकता है; उन्हें अनुकूल बनाया या सहा जा सकता है। महत्त्वपूर्ण सफलताओं के लिए आदमी को इतना ही मजबूत होना पड़ता है।
ऐसा बताया जाता है कि जब धरती का स्वर्ग या हृदय कहा जाने वाला भाग देवताओं का निवास था, तब ऋषि गोमुख से नीचे और ऋषिकेश से ऊपर रहते थे, पर हिमयुग के बाद परिस्थितियाँ एकदम बदल गईं। देवताओं ने कारणशरीर धारण कर लिए और अंतरिक्ष में विचरण करने लगे। पुरातनकाल के ऋषि गोमुख से ऊपर चले गए। नीचे वाला हिमालय अब सैलानियों के लिए रह गया है। वहाँ कहीं-कहीं साधु बाबा जी की कुटियाँ तो मिलती हैं, पर जिन्हें ऋषि कहा जा सके, ऐसों का मिलना कठिन है।
हमने यह भी सुन रखा था कि हिमालय की यात्रा में मार्ग में आने वाली गुफाओं में सिद्धयोगी रहते हैं। वैसा कुछ नहीं मिला। पाया कि निर्वाह एवं आजीविका की दृष्टि से वह कठिनाइयों से भरा क्षेत्र है। इसलिए वहाँ मनमौजी लोग आते-जाते तो हैं, पर ठहरते नहीं। जो साधु-संत मिले, उनसे भेंट-वार्त्ता होने पर विदित हुआ कि वे भी कौतूहलवश या किसी से कुछ मिल जाने की आशा में ही आते थे। न उनका तत्त्वज्ञान बढ़ा-चढ़ा था, न तपस्वी जैसी दिनचर्या थी। थोड़ी देर पास बैठने पर वे अपनी आवश्यकता व्यक्त करते थे। ऐसे लोग दूसरों को क्या देंगे, यह सोचकर सिद्धपुरुषों की तलाश में अन्यों द्वारा जब-तब की गई यात्राएँ मजे की यात्राएँ भर रहीं, यही मानकर अपने कदम आगे बढ़ाते गए। यात्रियों को आध्यात्मिक संतोष-समाधान तनिक भी नहीं होता होगा, यही सोचकर मन दुःखी रहा।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

यूरोप प्रवास के अंतर्गत देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी लिथुआनिया के मारिजामपोल (Marijampolė) नगर पहुँचे, जहाँ भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु एक विशेष वैदिक यज्ञ का आयोजन संपन्न हुआ। इस अवसर ने बाल्टिक क्षेत्र में भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं के विस्तार को एक नई दिशा प्रदान की।
यह यज्ञ शांति, सौहार्द एवं पर्यावरणीय संतुलन जैसे सार्वभौमिक मूल्यों को समर्पित रहा। प्राचीन वैदिक विधि-विधानों के अनुसार संपन्न इस यज्ञ में स्थानीय समुदाय, आध्यात्मिक साधकगण एवं संस्कृति-प्रेमी नागरिकों ने श्रद्धा एवं उत्साहपूर्वक भाग लिया। मंत्रोच्चार, आहुतियाँ एवं साधना के माध्यम से वातावरण आध्यात्मिक ऊर्जा से आलोकित हो उठा।
यह आयोजन ‘ वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना को साकार करते हुए वैश्विक समुदाय को सनातन धर्म के मूल्यों—एकता, आंतरिक शांति एवं प्रकृति-संतुलन—से जोड़ने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। लिथुआनिया सहित सम्पूर्ण यूरोपीय क्षेत्र में वैदिक संस्कृति एवं भारतीय अध्यात्म के प्रति निरंतर बढ़ती रुचि को दृष्टिगत रखते हुए आगामी समय में भी अनेक आयोजनों की योजना बनाई जा रही है।
इस पावन अवसर पर आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी ने अपने प्रेरणाप्रद उद्बोधन द्वारा उपस्थित जनसमूह को भारतीय ज्ञान परंपरा, यज्ञ के वैज्ञानिक महत्व एवं मानवीय उत्थान में उसकी भूमिका से अवगत कराया। उनके सान्निध्य ने सम्पूर्ण आयोजन को विशेष गरिमा प्रदान की।






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अनादि काल की, प्राचीन काल की भारतीय परंपरा और भारतीय संस्कृति का नवीनतम संस्करण — हम अपने ढंग से, अपने युग की आवश्यकता अनुसार, अपने ज़माने के व्यक्ति की अक्ल को देखते हुए, अपने समय की परिस्थितियों को देखते हुए, अपने समय के उदाहरणों को प्रस्तुत करते हुए — जिस तरह से प्रत्येक स्मृति का हमने अपने-अपने समय पर कहा है, 24 स्मृतियों की हमने व्याख्या की है।
आप पढ़ लीजिए, पढ़ लीजिए — संविधान हमारे देश में 24 बार, 24 बार बने हैं।
पहली बार संविधान मनु का है।
मनु ने पहला, सबसे पहला दुनिया का मनुष्य जाति के लिए संविधान बनाया — मनुस्मृति के रूप में।
बदलते चले गए, बदलते चले गए, बदलते चले गए।
अंतिम जो है, इस समय का संविधान जो आजकल लागू होता है — यह याज्ञवल्क्य स्मृति है।
याज्ञवल्क्य स्मृति का टीका — यह हमारे वकीलों को पढ़ाया जाता है।
कानून में पढ़ाया जाता है — दाय भाग और उत्तराधिकार भाग।
हिंदू का सारा का सारा कानून उस पर टिका हुआ है।
काहे पर?
याज्ञवल्क्य स्मृति के ऊपर।
यह स्मृति आज की है।
हाँ, पुराने ज़माने की स्मृति — वह स्मृति, बेटे, पुरानी हो गई।
वह तो हो गई आउट ऑफ डेट।
तो उसको अपमान करेंगे?
मारेंगे बेटे?
मारेंगे कैसे?
यह हमारे पिता का चित्र है।
यह हमारे बाबा का चित्र है।
यह हमारे परबाबा का चित्र है — जिसको हम अपमानित नहीं होने दे सकते।
उन्होंने अपने ज़माने में कोई बात कही होगी।
पर पत्थर की लकीर उन्होंने नहीं कही।
यह नहीं कहा कि यही विधान हमेशा चलेगा।
बदल दिया हमने विधान।
और अब हम याज्ञवल्क्य स्मृति का विधान चलाते हैं।
मित्रों, आज के युग के अनुरूप, आज के व्यक्ति के अनुरूप, आज की समस्याओं के अनुरूप, आज की आवश्यकता के अनुरूप —
हम उन प्राचीनतम, प्राचीनतम दो धाराओं का, जिनको हम गंगा-यमुना कह सकते हैं —
ब्रह्म और क्षत्र, ब्रह्मविद्या और ब्रह्मतेज — इन दोनों के समन्वयात्मक प्रभाव और शैली के हिसाब से,
हम यह शिक्षण की नई धारा प्रवाहित करते हैं।
नया संगम शुरू करते हैं,
नया समन्वय शुरू करते हैं — ब्रह्मवर्चस के रूप में,
जिसको कि आप अगले दिनों और भी विकसित रूप में देखेंगे।

“तुम्हारा साहस प्रशंसनीय है पुत्री! फिर भी मुझे सन्देह है कि तुम यहाँ टिक पाओगी।” जागरूकता के नगर सेठ अंबपाली ने चुहिया को स्नेह वत्सल दृष्टि से निहारते हुए कहा। उनका स्वभाव जितना मृदुल और सौम्य था। उनकी भार्या बिन्दु मति उतनी की कर्कश और कुटिल थी। कोई भी परिचारिका उनकी गृह सेवा में आज तक एक महीने से अधिक न टिक पायी थी। नगर के सेठ निराश हो चुके थे। और उन्होंने निश्चय कर लिया था कि विन्दुमति को कितने ही कष्ट क्यों न उठाने पड़ें अब और किसी को परिचारिका नियुक्त नहीं करेंगे।
फिर भी एक दिन उनके एक सेवक ने एक निर्धन कन्या को उनके सामने ला खड़ा किया। चौलिया नाम की इस कन्या के माता-पिता स्वर्ग वासी हो चुके थे। आश्रय की खोज में भटक रही इस बालिका को देखते ही उनकी करुणा छलक आयी। उन्होंने उसके सिर पर प्रेम पूर्ण हाथ फेरा और कहा-बेटी! सेविका तो क्या तुम मेरी पुत्री के समान इस घर में रह सकती हो। किन्तु दैवयोग से गृह स्वामिनी का स्वभाव बहुत तीखा और कर्कश है। उसे सहन करना ............अपना वाक्य अधूरा छोड़कर नगर सेठ अनंगपाल उसकी ओर देखने लगे।
आपने मुझे पुत्री कहा-आर्य आपकी यह शालीनता और सज्जनता इतनी बड़ी है कि उसके सम्मुख कोटि कर्कशताएँ भुलाई जा सकती है। यह कहते हुए चौलिया के चेहरे पर एक अद्भुत स्थिरता और शान्ति थी। वह कह रही थी - “सेवा का सच्चा अधिकार भी तो उन्हें ही है जो ऊबे उत्तेजित और संसार से खीझे व निराश जैसे हैं। माताजी के स्वभाव की चिन्ता न न करें। मुझे सेवा का सौभाग्य प्रदान करें।”
वह अब इस घर की परिचारिका बन गयी। घर की एक-एक वस्तु की व्यवस्थित किया उसने। गन्दी-भद्दी-टूटी-काली-कलूटी-बेढंगी वस्तुओं को साफ-सुथरा ठीक किया, सजाया उसने। प्रातः चार बजे जब दूसरे लोग सो रहे होते वह जागती और सायंकाल सबको सुला कर रात गए सोती। एक क्षण भी उसने निरर्थक नहीं खोया, किन्तु बदले में मिला क्या? विनदुमती की फटकार अपमान और मार।
एकान्त पाकर एक दिन अनंगपाल ने उससे कहा-” बेटी! तू मुझसे निर्वाह साधन लेकर कहीं सानन्द रह। इस नारकीय यंत्रणा में क्यों प्राण दे रही है।” चौलिया ने उत्तर दिया-तात! यदि मैंने माँ विन्दुमती की कोख से जन्म लिया होता तो क्या आप मुझे यों हटाते।। मुझसे भूल होती होगी तभी तो माँ जी डाँटती और मारती है, इसमें बुरा मानने की क्या बात!” अनंगपाल चुप हो गए।
... क्रमशः जारी
अखण्ड ज्योति 1995 अगस्त पृष्ठ 2
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

दुबई में आध्यात्मिक ऊर्जा का महोत्सव – दीपयज्ञ एवं ज्योति कलश पूजन
गायत्री परिवार द्वारा आयोजित दीपयज्ञ कार्यक्रम में देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी एवं गायत्री विद्यापीठ की चेयरपर्सन आदरणीय शेफाली पंड्या जी की गरिमामयी उपस्थिति में श्रद्धालुजन एकत्र हुए। एवं इस कार्यक्रम में आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार हुआ और समाज के उत्थान का नवसंकल्प लिया गया।
आदरणीया शेफाली पंड्या जी ने अपने प्रेरणादायक उद्बोधन में परम वंदनीया माताजी के त्यागमय जीवन की झलक प्रस्तुत की और युग निर्माण मिशन की महत्ता को मार्मिक प्रसंगों के माध्यम से समझाया। उन्होंने कहा – “गुरुदेव-माताजी ने प्रेम की डोर से सबको एक सूत्र में बांधा है।”
आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी ने भी गायत्री परिवार के सदस्यों, युवाओं तथा विशिष्ट अतिथियों से आत्मीय संवाद करते हुए 2026 में आने वाले अखंड दीपक के 100 वर्ष और परम वंदनीया माताजी की जन्मशताब्दी के महत्त्व को रेखांकित किया। साथ ही कलश यात्रा का विस्तार से वर्णन करते हुए उन्होंने बताया कि आगामी 3 माह तक प्रत्येक 15 दिन में दीपयज्ञ द्वारा यह यात्रा UAE के ओमान, दुबई, शारजाह, आबू धाबी, अजमान आदि क्षेत्रों में आगे बढ़ेगी। एवं यूएई के घर घर में यह कलशयात्रा पहुंचेगी।
कार्यक्रम में भारतीय संस्कृति पर आधारित मनोहारी सांस्कृतिक प्रस्तुतियों ने सभी के हृदयों को भावविभोर कर दिया। साथ ही UAE में एक GCC ज़ोन बनाने का प्रस्ताव भी सामने आया, जिस पर विस्तार से चर्चा हुई। कार्यक्रम के अंत में प्रश्नोत्तर सत्र में डॉ. पंड्या जी ने उपस्थितजनों की जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए कहा: “हर व्यक्ति को आत्मविकास और समाज सेवा से जुड़ना ही सच्चे आध्यात्म का मार्ग है।”
यह आयोजन केवल एक यज्ञ नहीं, समाज में नवचेतना का दीप प्रज्वलन था।











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गुरुदेव का प्रथम बुलावा— पग-पग पर परीक्षा:—
पूरा एक वर्ष होने भी न पाया था कि बेतार का तार हमारे अंतराल में हिमालय का निमंत्रण ले आया। चल पड़ने का बुलावा आ गया। उत्सुकता तो रहती थी, पर जल्दी नहीं थी। जो नहीं देखा है, उसे देखने की उत्कंठा एवं जो अनुभव हस्तगत नहीं हुआ है, उसे उपलब्ध करने की आकांक्षा ही थी। साथ ही ऐसे मौसम में, जिसमें दूसरे लोग उधर जाते नहीं, ठंड, आहार, सुनसान, हिंस्र जंतुओं का सामना पड़ने जैसे कई भय भी मन में उपज उठते, पर अंततः विजय प्रगति की हुई। साहस जीता। संचित कुसंस्कारों में से एक अनजाना डर भी था। यह भी था कि सुरक्षित रहा जाए और सुविधापूर्वक जिया जाए, जबकि घर की परिस्थितियाँ ऐसी ही थीं। दोनों के बीच कौरव-पांडवों की लड़ाई जैसा महाभारत चला, पर यह सब 24 घंटे से अधिक न टिका। ठीक दूसरे दिन हम यात्रा के लिए चल दिए। परिवार को प्रयोजन की सूचना दे दी। विपरीत सलाह देने वाले भी चुप रहे। वे जानते थे कि इसके निश्चय बदलते नहीं।
कड़ी परीक्षा देना और बढ़िया वाला पुरस्कार पाना, यही सिलसिला हमारे जीवन में चलता रहा है। पुरस्कार के साथ अगला बड़ा कदम उठाने का प्रोत्साहन भी। हमारे मत्स्यावतार का यही क्रम चलता आया है।
प्रथम बार हिमालय जाना हुआ, तो वह प्रथम सत्संग था। हिमालय दूर से तो पहले भी देखा था, पर वहाँ रहने पर किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, इसकी पूर्व जानकारी कुछ भी नहीं थी। वह अनुभव प्रथम बार ही हुआ। संदेश आने पर चलने की तैयारी की। मात्र देवप्रयाग से उत्तरकाशी तक उन दिनों सड़क और मोटर की व्यवस्था थी। इसके बाद तो पूरा रास्ता पैदल का ही था । ऋषिकेश से देवप्रयाग भी पैदल यात्रा करनी होती थी। सामान कितना लेकर चलना चाहिए, जो कंधे और पीठ पर लादा जा सके, इसका अनुभव न था। सो कुछ ज्यादा ही ले लिया। लादकर चलना पड़ा, तो प्रतीत हुआ कि यह भारी है। उतना हमारे जैसा पैदल यात्री लेकर न चल सकेगा। सो सामर्थ्य से बाहर की वस्तुएँ रास्ते में अन्य यात्रियों को बाँटते हुए केवल उतना रहने दिया, जो अपने से चल सकता था एवं उपयोगी भी था।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य