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दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
गुरुदेव का आदेशपालन करने के लिए हमने कांग्रेस के सत्याग्रह आंदोलन में भाग तो लिया, पर प्रारंभ में असमंजस ही बना रहा कि जब चौबीस वर्ष का एक संकल्प दिया गया था, तो 5 और 19 वर्ष के दो टुकड़ों में क्यों विभाजित किया। फिर आंदोलन में तो हजारों स्वयंसेवक संलग्न थे, तो एक की कमी-बेशी से उसमें क्या बनता-बिगड़ता था।
हमारे असमंजस को साक्षात्कार के समय ही गुरुदेव ने ताड़ लिया था। जब बारी आई, तो उनकी परावाणी से मार्गदर्शन मिला कि, “युगधर्म की अपनी महत्ता है। उसे समय की पुकार समझकर अन्य आवश्यक कार्यों को भी छोड़कर उसी प्रकार दौड़ पड़ना चाहिए, जैसे अग्निकांड होने पर पानी लेकर दौड़ना पड़ता है और अन्य सभी आवश्यक काम छोड़ने पड़ते हैं।’’ आगे संदेश मिला कि, ‘‘अगले दिनों तुम्हें जनसंपर्क के अनेकों काम करने हैं। उनके लिए विविध प्रकार के व्यक्तियों से संपर्क साधने और निपटने का दूसरा कोई अवसर नहीं आने वाला है। यह उस उद्देश्य की पूर्ति का एक चरण है, जिसमें भविष्य में बहुत-सा श्रम व समय लगना है। आरंभिक दिनों में, जो पाठ पढ़े थे; पूर्वजन्मों में जिनका अभ्यास किया था, उनकी रिहर्सल का अवसर भी मिल जाएगा। यह सभी कार्य निजी लाभ की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। समय की माँग तो इसी से पूरी होती है।’’
“व्यावहारिक जीवन में तुम्हें चार पाठ पढ़ाए जाने हैं। 1— समझदारी, 2— ईमानदारी, 3— जिम्मेदारी, 4— बहादुरी। इनके सहारे ही व्यक्तित्व में खरापन आता है और प्रतिभा-पराक्रम विकसित होता है। हथियार भोंथरे तो नहीं पड़ गए; कहीं पुराने पाठ विस्मृत तो नहीं हो गए, इसकी जाँच-पड़ताल नए सिरे से हो जाएगी। इस दृष्टि से एवं भावी क्रियापद्धति

10 जून 2025 को 3 दिवसीय कार्यक्रम हेतु छत्तीसगढ़ राज्य से आए 600 युवा स्वयंसेवकों का देव संस्कृति विश्वविद्यालय और शांतिकुंज में स्वागत किया गया। यह एक प्रेरणादायी पहल थी, जो युवा मानसिकता को एक नई दिशा देने के लिए आयोजित की गई।
विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति एवं युवाओं के प्रेरणा स्रोत, आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी ने इन नवयुवकों से आत्मीयता से संवाद करते हुए उनके जिज्ञासापूर्ण प्रश्नों का उत्तर दिया। यह संवाद केवल शंकाओं का समाधान नहीं था, बल्कि युवा मनों को उद्देश्यपूर्ण मार्गदर्शन देने का एक अनमोल प्रयास था।
“अपनों से अपनी बात” कार्यक्रम ने युवाओं को नैतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से सशक्त बनाने का एक बेहतरीन मंच दिया।
शिविर में पधारे हुए समस्त युवाओं का आभार व्यक्त करते हुए देव संस्कृति परिवार की तरफ से सभी को उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएँ!












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तृष्णाओं ने सारी हमारी इच्छाशक्ति, सारी हमारी आकांक्षाएं, सारा हमारा मनोबल इस तरीके से चूसा — ऐसे चूसा, ऐसे चूसा कि अगर वही इच्छा, वही इच्छा जो धन कमाने के लिए, वासना के लिए काम कर रही थी — अगर वही इच्छा, वही इच्छा अगर थोड़ी सी, उसका एक मीटर बदल गया होता और रेडियो का एक स्टेशन बदल गया होता, तो सीलोन की जगह पर से विविध भारती आ गई होती।
पर वह तो सीलोन के गाने सुनाती। कौन सी? जब देखो तब वही फिल्मी गाना। जब देखो तब फिल्मी गाना। सीलोन वही बोलता रहता है — "6, 3 के नंबर घुमा देना।"
"नहीं साहब, ये नंबर नहीं घुमाए जा सकते।"
हमारे दिमाग की, अक़ल की सुई हमेशा तृष्णा के ऊपर लगी रही — बड़प्पन, अमीरी, बड़प्पन, अमीरी, बड़प्पन, अमीरी, बड़प्पन, अमीरी।
जमाखोरी? जमाखोरी तो नहीं हो सकी।
हम गरीब देश में रहते हैं बेटे, कहाँ से अमीर हो जाएगा तू?
राम मनोहर लोहिया के हिसाब से तीन आने रोज, नेहरू के हिसाब से बारह आने रोज — जिस मुल्क की आमदनी हो, उस आदमी से तू क्या उम्मीद करता है? अमीर बन जाऊँगा?
बेटे, कैसे अमीर बन जाएगा?
सारी जनता भूखी मरी जा रही है। किसी के पास पहनने को नहीं है, कपड़े नहीं हैं। लाखों-करोड़ों आदमी किसी तरीके से ज़िंदगी काट रहे हैं।
तू क्या चाहता था?
"मैं तो लग्ज़री चाहता था, विलासिता चाहता था, अमीरी चाहता था, ठाठ।"
अरे अभागे, बाकी लोगों को देख। औरों को देख। किसके लिए अमीर बनना है?
"नहीं साहब, मैं तो मालदार बनूँगा।"
बेटे, तेरी ये ख़्वाहिशें रहेंगी, और तू खाली हाथ मरेगा।
तड़प-तड़प के मरेगा।
इन्हीं तृष्णाओं में मरेगा।
खाली हाथ मरेगा।
सिकंदर खाली हाथ चला गया था।
रावण खाली हाथ चला गया था।
कंस खाली हाथ चला गया था।
ऐसे-ऐसे दौलतमंद खाली चले गए।
दुष्ट, तू कहाँ से अमीर बन जाएगा?
"नहीं साहब, बड़ा मालदार बनूँगा। और 6 मकान बनाऊँगा। और 6 बेटों को 6 मकान बनाऊँगा। और 6 बेटों को 6 मकान बनाऊँगा। भाड़ बनाएगा। इतना जेवर बनाऊँगा कि तीनों बहुओं के लिए 21-21 तोले का जेवर बनवाऊँगा। यह बनाऊँगा।"
यही ताने-बाने, यही ताने-बाने, यही ताने-बाने, यही ताने-बाने।
और तब हमारी अक़्ल — यह कैसी कीमती अक़्ल थी।
यह कितना बड़ा कंप्यूटर था हमारे पास।
इस कंप्यूटर का हमने ठीक तरीके से इस्तेमाल किया होता तो गज़ब कर देता — यह कंप्यूटर, हमारी अक़्ल।
और हमारी अक़्ल को सब चूस गई — यह चुड़ैल।
सब चूस गई।
चुड़ैल कौन?
तृष्णा।
और हमारी जीवात्मा — जीवात्मा के जो भीतर था, जो हमारे भीतर से कोई कहता था, भगवान कहता था —
"श्रेष्ठ बन, ऊँचा उठ। ऊँचा उठ। आगे बढ़। आगे बढ़। ऊँचा उठ, ऊँचा उठ। आगे बढ़।"

परेशानी, निराशा, आपत्ति अथवा जीवन के निविड़ अंधकार में वह पत्नी के सिवाय कौन है जो अपनी मुस्कानों से उजाला कर दिया करे अपने प्यार तथा स्नेह से हृदय नवजीवन जगाकर आश्वासन प्रदान करती रहे। पत्नी का सहयोग पुरुष के सुख में चार चाँद लगा देता और दुःख में वह उसकी साझीदार बनकर हाथ बँटाया करती हैं दिन भर बाहर काम करके और तरह-तरह के संघर्षों से थककर आने पर भोजन स्नान तथा आराम-विश्राम की व्यवस्था पत्नी के सिवाय और कौन करेगा।
पुरुष एक उद्योगी उच्छृंखल इकाई है। परिवार बसाकर रहना उसका सहज स्वभाव नहीं हैं यह नारी की ही कोमल कुशलता है जो इसे पारिवारिक बनाकर प्रसन्नता की परिधि में परिभ्रमण करने के लिये लालायित बनाये रखती है। पत्नी ही पुरुष को उद्योग उपलब्धियों की व्यवस्था एवं उपयोगिता प्रदान करती हैं पुरुष पत्नी के कारण ही गृहस्थ तथा प्रसन्न चेता बनकर सामाजिक भद्र जीवन बिताया करता पत्नी रहित पुरुष का समाज में अपेक्षाकृत कम आदर होता है। परिवारों में सामाजिकता के आदान-प्रदान उन्हीं के बीच होता हैं पारिवारिकता तथा पत्नी की परिधि पुरुष को अनेक प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों से बचाये रहती है।
पत्नी के रूप में नारी का यह महत्व कुछ कम नहीं है। यदि आज संसार में नारी का सर्वथा अभाव हो जाये तो कल से ही पुरुष पशु हो उठे, सारी समाज व्यवस्था उच्छृंखल हो उठे, और सृष्टि का व्यवस्थित स्वरूप अस्त-व्यस्त हो जाये।
नारी को अर्धांगिनी ही नहीं सह-धारिणी भी कहा गया है। पुरुष का कोई भी धर्मानुष्ठान पत्नी के बिना पूरा नहीं होता। बड़े-बड़े राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों में भी यजमानों को अपनी पत्नी के साथ ही बैठना पड़ता था और आज भी षोडश संस्कारों से लेकर तीर्थ स्नान तक का महत्व तभी पूरा होता है जब गृहस्थ पत्नी को साथ लेकर पूरा करता है। किसी भी गृहस्थ का सामान्य दशा में अकेले धर्मानुष्ठान करने का निषेध हैं इतना ही नहीं भारतीय धर्म में तो नारी को और भी अधिक महत्व दिया गया है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे देवताओं का क्रिया-कलाप भी उनकी सह-धर्मियों, सरस्वती, लक्ष्मी तथा पार्वती के बिना पूरा नहीं होता।
.... क्रमशः जारी
अखण्ड ज्योति 1995 अगस्त पृष्ठ 25
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

तीन चुड़ैलें ऐसी हैं। दो तो ये थे भूत, कौन से? बताएँ — भूत आलस्य और प्रमाद। और तीन चुड़ैलें ऐसी, छुप के बैठ जाती हैं। पता ही नहीं चलता है इनका। तो ये भूत तो भी दिखाई पड़ जाते हैं। शरीर में दिखाई पड़ते हैं और अक़ल में दिखाई पड़ते हैं। इनका तो पता भी लगा सकते हैं। इनका तो पता ही नहीं चलता है कहाँ बैठी हैं। ऐसी बैठी रहती हैं और ऐसी बैठी रहती हैं, बस आँखें चमकाती रहती हैं और खट — गायब हो जाती हैं। आँखें चमकाती और गायब हो जाती हैं। पर हैं ऐसी कि बस खून पी जाती हैं।
कौन-कौन सी हैं तीन? जिसको मैंने आपसे बताया था — वासना एक, तृष्णा दो, अहंता तीन। यह हमारी ज़िंदगी के मूल्यवान रस को सब पी गईं। तीन चीज़ों पर सब हमने निछावर कर दिया। जो कुछ भी था, कुछ बचा नहीं बेटे। हमारा सब छूछ हो गया और हम खाली हो गए।
हमारे पास सामर्थ्य थी, शरीर था। हमारे पास बल था, पराक्रम था। और हमारी वासना ने खा लिया। जीभ ने खा लिया, कामेन्द्रिय ने खा लिया, आँखों ने खा लिया और विलासों ने खा लिया। और हम बिलकुल छूछ हैं और हमारे पास कुछ नहीं है। शरीर में केवल लिफाफा लिए बैठे हैं। ये चुड़ैलें हमारा खून चूस गईं और हम अब किसी काम के नहीं। ज़िंदा तो हैं, पर मरे हुए से भी ज़्यादा हैं।
इसको क्या करना पड़ेगा, बेटे? इसके लिए वही करना पड़ेगा जैसे वह करता है ना जादूगर। क्या करता है? भूतनी को पकड़ता है। कैसे पकड़ता है? वह गुर्दे खिलाता है। मिट्टी का एक कुल्हड़ पकड़ता है, भूत फिर क्या करता है? उसको बंद कर देता है — किसको? भूतनी को। फिर क्या करता है? चारों तरफ से इसको ढक्कन बंद करता है। फिर क्या करता है? चौराहे पे ले जाता है। चौराहे पे क्या करता है फिर? फिर गड्ढा खोदता है। फिर क्या करता है? गड्ढे में मुर्गी का अंडा और वो रख करके, और उसमें दीया रखता है। और वो रखता है — दाल उड़द की। रखता है, गड्ढे में गाड़ देता है — किसको? भूतनी को।
नहीं महाराज जी, भूतनी को अगर वैसे करेगा — हाथ जोड़ेगा — "भूतनी जी, तुम क्षमा कर दो", तो करेगी नहीं बेटे। बिना कुल्हड़ में गाड़े बिना मानेगी नहीं। गाड़ी भूतनी, वह ज़िंदा नहीं रह सकती।
ये कौन सी हैं भूतनी? जिन्होंने हमारे शरीर को खा लिया है। हमारे शरीर में कोई जान नहीं है। हमारे शरीर में बेजान है। सारा हमारा पेट खा लिया, सब चीज़ खाली इन वासनाओं ने। अगर हमने इंद्रियों के सुराखों में से अपने शक्तियों को खर्च न किया हो तो मज़ा आता।
हमारी आँखें चमकती होतीं प्रकाश जैसी। और हमारी वाणी कड़कती होती बिजली जैसी। और हमारे हाथ फड़कते होते — ऐसे फड़कते होते कि जैसे कोई तलवार फड़कती है।

आज जिस नारी को हमने घर की वंदनीय, परदे की प्रतिमा और पैरों की जूती बनाकर रख छोड़ा है और जो मूक पशु की तरह सारा कष्ट, सारा क्लेश, विष घूँट की तरह पीकर स्नेह का अमृत ही देती है उस नारी के सही स्वरूप तथा महत्व पर निष्पक्ष होकर विचार किया जाये तो अपनी मानवता के नाते सहधर्मिणी होने के नाते, राष्ट्र व समाज की उन्नति के नाते उसे उसका उचित स्थान दिया ही जाना चाहिये। अधिक दिनों उसके अस्तित्व, व्यक्तित्व तथा अधिकारों का शोषण राष्ट्र का ऐसे गर्त में गिरा सकता है जिससे निकल सकना कठिन हो जाएगा। अतः कल्याण तथा बुद्धिमत्ता इसी में है कि समय रहते चेत उठा जाये और अपनी इस भूल को सुधार ही लिया जाय।
नारी का सबसे बड़ा महत्व उसके जननी पद में निहित हैं यदि जननी न होती तो कहाँ से इस सृष्टि का सम्पादन होता और कहाँ से समाज तथा राष्ट्रों की रचना होती! यदि माँ न हो तो वह कौन-सी शक्ति होती जो संसार में अनीति एवं अत्याचार मिटाने के लिये शूरवीरों को धरती पर उतारती। यदि माता न होती तो बड़े-बड़े वैज्ञानिक, प्रचण्ड पंडित, अप्रतिम साहित्यकार, दार्शनिक, मनीषी तथा महात्मा एवं महापुरुष किस की गोद में खेल-खेलकर धरती पर पदार्पण करते। नारी व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र की जननी ही नहीं वह जगज्जननी हैं उसका समुचित सम्मान न करना, अपराध है पाप तथा अमनुष्यता है।
नारी गर्भ धारण करती, उसे पालती, शिशु को जन्म देती और तब जब तक कि वह अपने पैरों नहीं चल पाता और अपने हाथों नहीं खा पता उसे छाती से लगाये अपना जीवन रस पिलाती रहती है। अपने से अधिक संतान की रक्षा एवं सुख-सुविधा में निरत रहती है। खुद गीले में सोती और शिशु को सूखे में सुलाती है। उसका मल-मूत्र साफ करती है। उसको साफ-सुथरा रखने में अपनी सुध-बुध भूले रहती है। इस सम्बन्ध में हर मनुष्य किसी न किसी नारी का ऋणी हैं। ऐसी दयामयी नारी का उपकार यदि तिरस्कार तथा उपेक्षा से चुकाया जाता है तो इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है।
पत्नी के रूप में उसका महत्व कुछ कम नहीं हैं नारी पुरुष की अर्धांगिनी हैं पत्नी के बिना पति का व्यक्तित्व पूरा नहीं होता। उसी की महिमा के कारण पुरुष गृहस्थ होने का गौरव पाता है और पत्नी ही वह माध्यम है जिसके द्वारा किसी की वंश परम्परा चलती है। यह पत्नी की ही तो उदारता है कि वह पुरुष के पशुत्व को पुत्र में बदल कर उसका सहारा निर्मित कर देती है। पुरुष के प्यार, स्नेह तथा उन्मुक्त आवेगों को अभिव्यक्त करने में पत्नी का कितना हाथ है इसे सभी जानते है।
.... क्रमशः जारी
अखण्ड ज्योति 1995 अगस्त पृष्ठ 25
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
मनोरंजन के लिए एक पन्ना भी कभी नहीं पढ़ा है। अपने विषयों में मानो प्रवीणता की उपाधि प्राप्त करनी हो, ऐसी तन्मयता से पढ़ा है। इसलिए पढ़े हुए विषय मस्तिष्क में एकीभूत हो गए। जब भी कोई लेख लिखते थे या पूर्व में वार्त्तालाप में किसी गंभीर विषय पर चर्चा करते थे, तो पढ़े हुए विषय अनायास ही स्मरण हो आते थे। लोग पीठ पीछे कहते हैं— ‘‘यह तो चलता-फिरता एनसाइक्लोपीडिया है।’’ अखण्ड ज्योति पत्रिका के लेख पढ़ने वाले उसमें इतने संदर्भ पाते हैं कि लोग आश्चर्यचकित होकर रह जाते हैं और सोचते हैं कि एक लेख के लिए न जाने कितनी पुस्तकों और पत्रिकाओं से सामग्री इकट्ठी करके लिखा गया है। यही बात युगनिर्माण योजना, युगशक्ति पत्रिका के बारे में है। पर सच बात इतनी ही है कि हमने जो भी पढ़ा है, उपयोगी पढ़ा है और पूरा मन लगाकर पढ़ा है। इसलिए समय पर सारे संदर्भ अनायास ही स्मृतिपटल पर उठ आते हैं। यह वस्तुतः हमारी तन्मयता से की गई साधना का चमत्कार है।
जन्मभूमि के गाँव में प्राथमिक पाठशाला थी। सरकारी स्कूल की दृष्टि से इतना ही पढ़ा है। संस्कृत हमारी वंशपरंपरा में घुली हुई है। पिताजी संस्कृत के असाधारण प्रकांड विद्वान थे; भाई भी। सबकी रुचि भी उसी ओर थी। फिर हमारा पैतृक व्यवसाय पुराणों की कथा कहना तथा पौरोहित्य रहा है, सो उस कारण उसका भी समुचित ज्ञान हो गया। आचार्य तक के विद्यार्थियों को हमने पढ़ाया है, जबकि हमारी स्वयं की डिग्रीधारी योग्यता नहीं थी।
इसके बाद अन्य भाषाओं के पढ़ने की कहानी मनोरंजक है। जेल में लोहे के तसले पर कंकड़ की पेंसिल से अँगरेजी लिखना आरंभ किया। एक दैनिक अंक ‘लीडर’ अखबार का जेल में हाथ लग गया था। उसी से पढ़ना शुरू किया। साथियों से पूछताछ कर लेते। इस प्रकार एक वर्ष बाद जब जेल से छूटे, तो अँगरेजी की अच्छी-खासी योग्यता उपलब्ध हो गई। आपसी चर्चा से हर बार की जेलयात्रा में अँगरेजी का शब्दकोश हमारा बढ़ता ही चला गया एवं क्रमशः व्याकरण भी सीख ली। बदले में हमने उन्हें संस्कृत एवं मुहावरों वाली हिंदुस्तानी भाषा सिखा दी। अन्य भाषाओं की पत्रिकाएँ तथा शब्दकोश अपने आधार रहे हैं और ऐसे ही रास्ता चलते अन्यान्य भाषाएँ पढ़ ली हैं। गायत्री को बुद्धि की देवी कहा जाता है। दूसरों को वैसा लाभ मिला या नहीं, पर हमारे लिए यह चमत्कारी लाभ प्रत्यक्ष है। अखण्ड ज्योति की संस्कृतनिष्ठ हिंदी ने हिंदी प्राध्यापकों तक का मार्गदर्शन किया है। यह हम जब देखते हैं, तो उस महाप्रज्ञा को ही इसका श्रेय देते हैं। अतिव्यस्तता रहने पर भी विज्ञ की— ज्ञान की विभूति इतनी मात्रा में हस्तगत हो गई, जिसमें हमें परिपूर्ण संतोष होता है और दूसरों को आश्चर्य।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

तप का अर्थ क्या है? तप का अर्थ है अनुशासन। प्रत्येक चीज़ के ऊपर, अपनी हर चीज़ के ऊपर अनुशासन — उसका नाम है तप। तप में हम तपते हैं और प्रत्येक चीज़ को हम चैलेंज करते हैं। चैलेंज करते हैं सोने को, चैलेंज करते हैं जागने को। मौन रहते हैं, ज़मीन पे सोने की कोशिश करते हैं। जाने कितनी बार तो उपवास करते हैं। मन में क्या सोचते रहते हैं? फलानी बात कहते हैं — यह क्या बात है? यह अपने आप से लड़ाई है और क्या बात है? अपने आप से लड़ाई। अपने आप से। शरीर कहता है — कपड़ा दीजिए। नहीं, हम नहीं देंगे। तो आप ऐसे ही तंग करेंगे शरीर को? नहीं बेटे, हम तंग नहीं करेंगे। तंग क्यों करेंगे? तंग हम उतने समय तक करेंगे, जब तक घोड़ा तांगे में चलना नहीं सीखता। तंग हम उतने समय तक करेंगे, जब तक बैल हमारा कहना नहीं मानता। तंग हम उतने समय तक करेंगे, जब तक कि हमारा रीछ तमाशा दिखाना नहीं सीखता। तब तक हम तंग करेंगे उसको, जब तक कि हमारा बंदर हमारी डुगडुगी के सामने उछलना नहीं शुरू कर देता। बस, इतने समय तक तंग करेंगे। फिर क्या करेंगे? फिर बंदर को मिठाई खिलाएंगे। फिर बंदर को रोटियां खिलाएंगे। फिर बंदर को सब काम करेंगे। बंदर को सब काम करेंगे। फिर आप मारेंगे तो नहीं? नहीं बेटे, फिर नहीं मारेंगे। जब बंदर कहना मान लेगा, तो फिर क्यों मारेंगे? इससे हमें कोई बैर है? कोई दुश्मनी है बंदर से कि आप पिटाई करें? पिटाई करेंगे तो आप उससे कमाई कैसे खाएंगे? इसलिए हम पिटाई नहीं करेंगे। कमा के खिलाएगा यह हमको। कमा के खिलाने वाला है — इसको हम प्यार करेंगे, मोहब्बत करेंगे। लेकिन जब तक इसकी यह परिस्थिति बनी हुई है कि हमारे मन को और हमारी जीवात्मा को और हमारे सिद्धांतों को चैलेंज करता रहेगा — तब तक हम इसकी पिटाई करेंगे, और इसकी मारकाट करेंगे, और इसको ठीक करेंगे। यह क्या चीज़ है? तप। तप किसे कहते हैं? तड़प को कहते हैं। तप किसे कहते हैं? जीवट को कहते हैं। तप किसे कहते हैं? हिम्मत को कहते हैं। तप किसे कहते हैं? संघर्ष को कहते हैं। किससे संघर्ष करना पड़ता है? अपने आप से संघर्ष करना पड़ता है बेटे। यही तो है। यही तो है संघर्ष। इसी का नाम तो आध्यात्मिक जीवन है। बहिरंग जीवन में अपनी मनोवृत्तियों से हमको संघर्ष करना पड़ता है।
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सूर्य की बिखरी किरणें मात्र गर्मी और रोशनी उत्पन्न करती हैं। किन्तु जब उन्हें छोटे से आतिशी शीशे द्वारा एक बिन्दु पर केन्द्रित किया जाता है। तो देखते-देखते चिनगारियाँ उठती हैं और भयंकर अग्नि काण्ड कर सकने में समर्थ होती है। बिखरी हुई बारूद आग लगने पर भक् से जलकर समाप्त हो जाती है, किन्तु उसे बन्दूक की नली में सीमाबद्ध किया जाय तो भयंकर धमाका करती है और गोली से निशाना बेधती है। भाप ऐसे ही जहाँ-तहाँ से गर्मी पाकर उठती रहती है, पर केन्द्रित किया जा सके तो प्रेशर कुकर पकाने और रेलगाड़ी चलाने जैसे काम आती है।
अर्जुन मत्स्य बेध करके द्रौपदी स्वयंवर इसीलिए जीत सका था कि उसने एकाग्रता की सिद्धि कर ली थी। इसी के बलबूते विद्यार्थी अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होते, निशानेबाज लक्ष्य बेधते और सरकस वाले एक से एक बढ़कर कौतूहल दिखाते हैं। संसार के सफल व्यक्तियों की, एक विशेषता अनिवार्य रूप से रही है, कि वे अपने मस्तिष्क पर काबू प्राप्त किये रहे हैं। जो निश्चय कर लिया उसी पर अविचल भाव से चलते रहे हैं, बीच में चित्त को डगमगाने नहीं दिया है। यदि उनका मन अस्त-व्यस्त डाँवाडोल रहा होता तो कदाचित ही किसी कार्य में सफल हो सके होते।
योगाभ्यास में मनोनिग्रह को आत्मिक प्रगति की प्रधान भूमिका बताया गया है। इन्द्रिय संयम वस्तुतः मनोनिग्रह ही है। इन्द्रियां तो उपकरण मात्र हैं। वे स्वामिभक्त सेवक की तरह सदा आज्ञा पालन के लिए प्रस्तुत रहती हैं। आदेश तो मन ही देता है। उसी के कहने पर ज्ञानेन्द्रियां, कर्मेन्द्रियां ही नहीं, समूची काया भले बुरे आदेश पालन करने के लिए तैयार रहती है। अस्तु संयम साधना के लिए मन को साधना पड़ता है। संयम से शक्तियों का बिखराव रुकता है और समग्र क्षमता एक केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित होती है। फलतः उस मनःस्थिति में जो भी काम हाथ में लिया जाय, सफल होकर रहता है।
ध्यानयोग सांसारिक सफलताओं में भी आश्चर्यजनक योगदान प्रस्तुत करता है। उसके आधार पर अपना भी भला हो सकता है और दूसरों का भी किया जा सकता है।
~ समाप्त
अखण्ड ज्योति 1986 नवम्बर पृष्ठ 5
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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दिए गए कार्यक्रमों का प्राणपण से निर्वाह:—
इस संदर्भ में प्रह्लाद का फिल्म-चित्र आँखों के आगे तैरने लगा। वह समाप्त न होने पाया था कि ध्रुव की कहानी मस्तिष्क में तैरने लगी। इसका अंत न होने पाया कि पार्वती का निश्चय उछलकर आगे आ गया। इस आरंभ के उपरांत महामानवों की— वीर बलिदानियों की— संत-सुधारक और शहीदों की अगणित कथागाथाएँ सामने तैरने लगीं। उनमें से किसी के भी घर-परिवारवालों ने— मित्र-संबंधियों ने समर्थन नहीं किया था। वे अपने एकाकी आत्मबल के सहारे कर्त्तव्य की पुकार पर आरूढ़ हुए और दृढ़ रहे। फिर यह सोचना व्यर्थ है कि इस समय अपने इर्द-गिर्द के लोग क्या करते और क्या कहते हैं? उनकी बात सुनने से आदर्श नहीं निभेंगे। आदर्श निभाने हैं, तो अपने मन की ललक-लिप्साओं से जूझना पड़ेगा। इतना ही नहीं, इर्द-गिर्द जुड़े हुए उन लोगों की भी उपेक्षा करनी पड़ेगी, जो मात्र पेट-प्रजनन के कुचक्र में ही घूमते और घुमाते रहे हैं।
निर्णय आत्मा के पक्ष में गया। मैं अनेकों विरोध और प्रतिबंधों को तोड़ता— लुक-छिपकर निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा और सत्याग्रही की भूमिका निभाता हुआ जेल गया। जो भय का काल्पनिक आतंक बनाया गया था, उसमें से एक भी चरितार्थ नहीं हुआ।
छुटपन की एक घटना इन दोनों प्रयोजनों में और भी साहस देती रही। गाँव में एक बुढ़िया मेहतरानी घावों से पीड़ित थी; दस्त भी हो रहे थे; घावों में कीड़े पड़ गए थे; बेतरह चिल्लाती थी, पर कोई छूत के कारण उसके घर में नहीं घुसता था। मैंने एक चिकित्सक से उपचार पूछा। दवाओं का एकाकी प्रबंध किया। उसके घर नियमित रूप से जाने लगा। चिकित्सा के लिए भी— परिचर्या के लिए भी— भोजन-व्यवस्था के लिए भी। यह सारे काम मैंने अपने जिम्मे ले लिए। मेहतरानी के घर में घुसना; उसके मल-मूत्र से सने कपड़े धोना आज से 65 वर्ष पूर्व गुनाह था। जाति बहिष्कार कर दिया गया। घरवालों तक ने प्रवेश न करने दिया। चबूतरे पर पड़ा रहता और जो कुछ घरवाले दे जाते, उसी को खाकर गुजारा करता। इतने पर भी मेहतरानी की सेवा छोड़ी नहीं। यह पंद्रह दिन चली और वह अच्छी हो गई। वह जब तक जीवित रही, मुझे भगवान कहती रही। उन दिनों 13 वर्ष की आयु में भी अकेला था। सारा घर और सारा गाँव एक ओर। लड़ता रहा, हारा नहीं। अब तो उम्र कई वर्ष और अधिक बड़ी हो गई थी। अब क्यों हारता?
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य