एकान्त सेवन करो
मनुष्य वास्तव में अकेला है। अकेला ही आया है और अकेला ही जायगा। इच्छा करके वह अकेला बहुत हो जाता है। एकोऽहं बहुस्याम। एकान्त मय इसका जीवन है। जीवन में जो सुख दुख प्राप्त होते हैं वह अकेले को ही होते हैं कोई दूसरा उसमें भागीदार नहीं होता। जिस समय हम रोगी होते हैं किसी पीड़ा से व्यथित होते हैं क्या उस समय का कष्ट कोई बाँट लेता है? कोई प्रेमी बिछुड़ गया है, किसी के द्वारा सताये जा रहे हैं, अपनी वस्तुऐं नष्ट हो गई हैं, परिस्थितियों में उलझ गये हैं उस समय जो घोर मानसिक वेदना होती है उसका अनुभव अपने को ही करना पड़ता है दूसरे लोगों की सहानुभूति और कभी २ सहायता भी मिल जाती है पर वह बाह्य उपचार मात्र है। किसी भौतिक अभाव का कष्ट हुआ और बाहर की मदद मिल गई तब तो दूसरी बात है अन्यथा उन दैवी विपत्तियों में जिनमें मनुष्य का कुछ वश नहीं चलता, मनुष्य को एकांत कष्ट ही भोगना पड़ता है। सुख भी एकान्त ही मिलता है। मैं मिठाई खा रहा हूँ, मैं ऐश्वर्य भोग रहा हूं, मैं सम्पत्तिशाली हूँ, इसमें तुम्हारी क्या समझ? मैं विद्वान हूँ इसका फल तुम्हें किस प्रकार मिल सकता है? परस्पर सहयोग और दान, त्याग दूसरी बात है। इससे धर्म के अनुसार किसी को भिक्षा दी जा सकती है किन्तु वास्तविक सुख उसी को होता है जिसके पास साधन एकत्रित हैं।
मनुष्य का सारा धर्म कर्म एकान्त मय है। उसे अपनी परिस्थितियों पर स्वयं विचार करना पड़ता है अपने लाभ हानि का निर्णय स्वयं करना पड़ता है अपने उत्थान पतन के साधन स्वयं उपलब्ध करने पड़ते हैं। इस संघर्षमय दुनिया में जो अपने पाँवों पर खड़ा होकर अपने बलबूते पर चलता है वह कुछ चल लेता है बढ़ जाता है और अपना स्थान प्राप्त करता है। किन्तु जो दूसरों के कन्धे पर अवलंबित है, दूसरों की सहायता पर आश्रित है, वह भिक्षुक की तरह कुछ प्राप्त करलें तो सही अन्यथा निर्जीव पुतले या बुद्धि रहित कीड़े मकोड़ों की तरह ज्यों त्यों करके अपनी सांसें पूरी करते हैं, मनुष्य के वास्तविक सुख- दुःख, हानि- लाभ, उन्नति पतन, बन्ध, मोक्ष का जहां तक संबंध है वह सब एकान्त के साथ जुड़ा हुआ है। खेलने की वस्तुओं के साथ मोह बन्धन में बंधकर वह खुद खिलौना बन गया है। वस्त्रों और औजारों पर मोहित होकर उसने अपने की वही समझ लिया है परन्तु वास्तव में वह ऐसा है नहीं।
रुपया, पैसा, जायदाद, स्त्री, कुटुंब आदि हमें अपने दिखाई देते हें पर वास्तव में हैं नहीं। यह सब चीजें शरीर की सुख सामग्री हैं, शरीर छूटते ही इनसे सारा संबंध क्षण मात्र में छूट जाता है फिर कोई किसी का नहीं रहता। हर एक वस्तु का अपना स्थान है और अपने कार्यक्रम के अनुसार व्यावहारित होती रहती है। वह न तो किसी को ग्रहण करती है और न किसी को छोड़ती है। भ्रमवश मनुष्य अपना मान कर उनमें तन्मय होता है। धातुओं के टुकड़े किसी आदमी के पेट में नही धँस सकते और न शरीर में चिपट सकते हैं। वे एक के हाथ में से दूसरे के हाथ में घूमते हैं और अन्त में घिस गल कर इसी भूमि में मिल जाते हैं जिससे उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार ईट, पत्थर लोहा, लकड़ी, पशु, कुटुंबी, मित्र आदि की बात है। सब अपनी निश्चित धुरी पर घूम रहे हैं, अपने कार्यक्रमों को पूरा कर रहे हैं। उनके जीवन का कुछ भाग हमारे जीवन के साथ संबंधित हो जाता है तो हम समझते हैं कि वे हमारे और हम उनके हो गये पर वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। सूर्य की धूप और चन्द्रमा की चाँदनी में बैठकर उन्हें हम अपना बताते हैं। चार खेतों को जोत कर किसान उन पर अपना आधिपत्य जमाता है। दार्शनिक विज्ञानी इन मूर्खों से कहता है। बच्चो तुम भूल रहे हो यह संपूर्ण वस्तुएँ एक महान लाभ पर अवलंबित हैं और अपना जीवन क्रम पूरा कर रही है। तुमसे उनका केवल उतना ही संबंध है जितना कि उनसे संबंध रखते हो। असल में वे सब स्वतंत्र हैं। और तुम स्वतंत्र। हर चीज अकेली है
इसलिये ‘‘तूम भी अकेले, बिल्कुल अकेले हो।’’
पाठक विश्वास करें, कुछ भ्रम हो तो उसे उठा दें, इन पंक्तियों में मैं उन सब तर्कों का समाधान नहीं कर सकता। परन्तु मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तुम्हें सच्ची बात बता रहा हूं। तुम अकेले हो, बिल्कुल अकेले। न तो कोई तुम्हारा है और न तुम किसी के। हाँ, लौकिक धर्म के अनुसार सांसारिक और कर्तव्य कर्म हैं जो तुम्हें शरीर रखने पर पालने पड़ेंगे उनसे छुटकारा नहीं हो सकता। कर्म किये बिना शरीर नहीं रह सकता यह उसका धर्म है। परन्तु है, इके के घोड़े! वह सब वस्तुऐं तेरी नहीं है, जिन्हें तू सारे दिन ढोता है तू अकेला है। वे सवारियां तेरी कोई नहीं हैं जिन्हें अपने ऊपर बिठाकर तू सरपट तेजी से दौड़ रहा था।
उपरोक्त पंक्तियों से कोई भ्रम में पड़े। संन्यास या निवृत्त का वह पाठ हम किसी को नहीं पढ़ा रहे हैं जिसके अनुसार लोग कपड़े फाड़कर भिखारी बन जाते हैं और कायरों की भाँति लड़ाई से डरकर जंगलों में अपनी जान बचाना चाहते हैं। कर्म योग किसी से कम नहीं है। हम अपने कर्तव्यों का ठीक तरह से पालन करते हुए पक्के संन्यासी बने रहे सकते हैं। यहाँ तो हमारा अभिप्राय यह है कि तुम अपनी वास्तविक स्थिति का अनुभव करते रहो। यदि इसे पकड़े रहोगे तो तुम इतने नहीं पाओगे और एक दिन सही रास्ते पर जा पहुंचोगे।
अपने साधकों को हमारी शिक्षा है कि वे नित्य कुछ दिन एकान्त सेवन करें। इसके लिये यह जरूरी नहीं है कि वे किसी जंगल, नदी या पर्वत पर ही जावें। अपने आसपास ही कोई प्रशान्त स्थित चुन लो। कुछ भी सुविधा न हो तो अपने कमरे के सब किवाड़ बन्द करे अकेले बैठो। यह भी न हो सके तो सारे गुल से रहित स्थान में बैठकर आँखें बन्द करली या चारपाई पर लेटकर हलके कपड़े से अपने को ढकलो। और शान्त चित होकर मन ही मन जप करो—मैं अकेला हूँ‘—मैं अकेला हूँ। अपने मन को यह अच्छी तरह अनुभव करने दो कि मैं एक स्वतंत्र, बन्धु और अविनाशी सत्ता हूँ। मेरा कोई नहीं और न में किसी का हूं। आधे घण्टे तक अपना सारा ध्यान इसी क्रिया पर एकत्रित करो। अपने को बिलकुल अकेला अनुभव करो। अभ्यास के कुछ दिनों बाद एकान्त में ऐसी भावना करो ।। ‘मैं मर गया हूँ।’ मेरा शरीर और दूसरी संपूर्ण वस्तुऐं मुझसे दूर पड़ी हुई हैं।
उपरोक्त छोटे से साधन को हमारे प्राणप्रिय अनुयायी आज से ही आरंभ करें। वे यह न पूछे कि इससे क्या लाभ होगा? मैं आज बता भी नहीं रहा हूँ कि इससे किस प्रकार क्या हो जायगा। किन्तु शपथ पूर्वक कहता हूँ कि जो सच्चे आत्मज्ञान की ओर बढ़ जायगा, सांसारिक चोर, पाप, दुष्ट दुष्कर्म, बुरी आदतें, नीच वासनायें, और नरक की ओर घसीट ले जाने वाली कुटिलताओं से उसे छुटकारा मिल जायगा। हम पापमयी पूतनाओं को छोडऩे के लिए साधक अनेक प्रयत्न करते हैं पर वे छाया की भांति पीछे पीछे दौड़ती रहती है पीछा नहीं छोड़तीं। यह साधन उस झूठे ममत्व को ही छुड़ा देगा जिसकी सहचरी में पाप वृत्तियाँ होती हैं।
अपने को अकेला अनुभव करो। नित्य अभ्यास करो। शरीर को निच्चेष्ट पड़ा रहने दो। मन को पूरी योग्यता, तर्क, बुद्धि के साथ यह समझा दो कि मैं अकेला हूँ। केवल बुद्धिमान सोच लेना ही पर्याप्त न होगा किन्तु यह भावना गहरी गहरी गहरी मन के ऊपर अंकित हो जानी चाहिये। अभ्यास इतना बढ जाना चाहिए कि जब अपने बारे में सोचो, तो सोचो कि ‘मैं अकेला हूँ।’ हर घड़ी अपने को संसार की समस्त वस्तुओं से—कमल पत्र ऊपर उठा हुआ समझो।
मैं कहता हूँ कि यह साधन तुम्हें मनुष्य से देवता बना देने में पूरी तरह समर्थ है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जून 1940 Page 2
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