आत्मचिंतन के क्षण
शरीर से सत्कर्म करते हुए, मन में सद्भावनाओं की धारण करते हुए जो कुछ भी काम मनुष्य करता है वे सब आत्मसन्तोष उत्पन्न करते हैं। सफलता की प्रसन्नता क्षणिक है, पर सन्मार्ग पर कर्तव्य पालन का जो आत्म-सन्तोष है उसकी सुखानुभूति शाश्वत एवं चिरस्थायी होती है। गरीबी और असफलता के बीच भी सन्मार्ग व्यक्ति गर्व और गौरव अनुभव करता है।
यदि आत्म-निरीक्षण करने में, अपने दोष ढूँढने में उत्साह न हो, जो कुछ हम करते या सोचते हैं सो सब ठीक है, ऐसा दुराग्रह हो तो फिर न तो अपनी गलतियाँ सूझ पडेगी और न उन्हें छोडनें को उत्साह होगा। वरन् साधारण व्यक्तियों की तरह अपनी बुरी आदतों का भी समर्थन करने के लिए दिमाग कुछ तर्क और कारण ढूँढता रहेगा जिससे दोषी होते हुए भी अपनी निर्दोषिता प्रमाणित की जा सके।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उन्नति के अनेक अवसर आते हैं, पर भाग्यवादी अपनी ओर से कुछ भी प्रयत्न नहीं करता। भाग्य के विपरीत होने का ही झूठ बहाना किया करता है। अपने को कमजोर मानने की वजह से वह दैनिक कार्य भी आधे मन से करता है। अवसर आते है और उसके पास से होकर चुपचाप निकल जाते हैं, पर वह उनका सदुपयोग नहीं कर पाता।
चरित्र को उज्ज्वल रखने के लिए आवश्यक चिन्तन को ही तत्त्व-दर्शन कहते हैं। ईश्वर,कर्मफल, परलोक आदि का ढाँचा मनीषियों ने इसी प्रयोजन के लिए खडा किया है कि व्यक्ति का स्वभाव और व्यवहार शालीनता से सुसम्पन्न बना रहे। व्यक्ति की गरिमा इसी एक तथ्य पर निर्भर है कि वह कुत्साओं और कुण्ठाओं पर काबू पाने वाला आन्तरिक महाभारत अर्जुन की तरह निरन्तर लड़ता रहे।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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