आत्मचिंतन के क्षण
तुम्हीं हमारे इहकाल हो और तुम्हीं परकाल हो, तुम्हीं परित्राण हो और तुम्हीं स्वर्गधाम हो, शास्त्रविधि और कल्पतरू गुरु भी तुम्हीं हो; तुम्हीं हमारे अनन्त सुख के आधार हो। हमारे उपाय, हमारे उद्देश्य तुम्ही हो, तुम्हीं स्त्राष्टा, पालनकर्ता और उपास्य हो, दण्डदाता पिता, स्नेहमयी माता और भवार्णव के कर्णधार भी तुम्हीं हो।"
जो यथार्थ त्यागी हैं वे सर्वदा ईश्वर पर मन रख सकते हैं; वे मधुमक्खी की तरह केवल फूल पर बैठते है; मधु ही पीते हैं। जो लोग संसार में कामिनी-कांचन के भीतर है उनका मन ईश्वर में लगता तो है, पर कभी कभी कामिनी-कांचन पर भी चला जाता है; जैसे साधारण मक्खियाँ बर्फि पर भी बैठती हैं और सडे़ घाव पर भी बैठती हैं, विष्ठा पर भी बैठती हैं।
ईश्वर की बात कोई कहता है, तो लोगों को विश्वास नहीं होता। यदि कोई महापुरुष कहे, मैंने ईश्वर को देखा है, तो कोई उस महापुरुष की बात ग्रहण नहीं करता। लोग सोचते हैं, इसने अगर ईश्वर को देखा है तो हमें भी दिखाये तो जाने। परन्तु नाडी़ देखना कोई एक दिन में थोडे़ ही सीख लेता है! वैद्य के पीछे महीनों घूमना पड़ता है। तभी वह कह सकता है, कौन कफ की नाडी़ है, कौन पित्त की है और कौन वात की है। नाडी़ देखना जिनका पेशा है, उनका संग करना चीहिए।
"माँ, आनन्दमयी होकर मुझे निरानन्द न करना। मेरा मन तुम्हारे उन दोनो चरणों के सिवा और कुछ नहीं जानता। मैं नहीं जानता, धर्मराज मुझे किस दोष से दोषी बतला रहे हैं। मेरे मन में यह वासना थी कि तुम्हारा नाम लेता हुआ मैं भवसागर से तर जाऊँगा। मुझे स्वप्न में भी नहीं मालूम था कि तुम मुझे असीम सागर में डुबा दोगी। दिनरात मैं दुर्गानाम जप रहा हूँ, किन्तु फिर भी मेरी दुःखराशि दूर न हुई। परन्तु हे हरसुन्दरी माता, यदि इस बार भी मैं मरा तो यह निश्चय है कि संसार में फिर तुम्हारा नाम कोई न लेगा।"
रामकृष्ण परमहंस
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