
जब से है यह चला काफिला (kavita)
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मरुथल तुझको रौंदा सबने । छाये छेरे तुझ पर सबने ।
देखे सुख के सपने सबने ।
उखड़ गये पर खेमे सब के बाकी तुझ पर बेल न बूटा।
जब से है यह चला काफिला अब तक इसका तार न टूटा॥
सौदागर सौदा करने को ।
चले लाद सामान नफे को ।
सोने से मुट्ठी भरने को ।
खाली हाथों गये यहाँ से-फिर भी उनका स्वप्न न टूटा।
जब से है यह चला काफिला-अब तक इसका तार न टूटा॥
क्यों आया है कहाँ चला है।
किसको इसका पता चला है।
इसमें किसको मोद मिला है।
किये पड़ाव अनेकों लेकिन-मंजिल का उपहार न लूटा।
जब से है यह चला काफिला-अब तक इसका तार न टूटा॥
सौदा तो तू कर सौदागर।
फूल न पर सौदे को पाकर।
लेकर देना सीख यहाँ पर।
भटकर जायगा पथ से राही- यदि माया से मोह न छूटा।
जब से है यह चला काफिला- अब तक इसका तार न टूटा॥
वही-जिसे कहते ध्रुव तारा।
लिये काफिला जाता सारा।
छाने दो- छाया अंधयारा।
उस पर यदि विश्वास रहा तो सौदागर का भाग न फूटा।
जब से है यह चला काफिला अब तक इसका तार न टूटा॥
*समाप्त*
(श्री. रज्जनलाल प्रधान, एम. ए. मन्दसौर)