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Magazine - Year 1940 - Version 2

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तुम ईश्वर को पूजते हो या शैतान को?

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(पं॰ गोविन्द, रघुनाथ दांडे, पूना)

जीव की युगों पुरानी यह प्यास अभी तृप्त नहीं हो पाई है कि वह ईश्वर को प्राप्त करे। किसी धन कुबेर पिता का पुत्र भटक कर दूर देश चला जाय और तरह-तरह के कष्टों से दुखी हो तो वह बड़ी उत्सुकता पूर्वक यह बात चाहेगा कि मैं अपने पिता के पास पहुँच जाऊँ और उस अपार संपदा को प्राप्त करूं जिसका मैं अधिकारी हूँ। जीव, ईश्वर का पुत्र और उसका उत्तराधिकारी है। अपने पिता के अतुलित वैभव प्राप्त करने का उसकी उत्कृष्ट अभिलाषा का होना स्वाभाविक ही है।

जीव, वासनाओं के जाल में बुरी तरह जकड़ गया है, किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वह ऐसी दशा को प्राप्त हो गया है जहाँ से उसे कुछ ठीक-ठीक सूझ नहीं पड़ता है कि वह क्या है? कहाँ है? और किस प्रकार है? इस भ्रमपूर्ण अवस्था में वह सब वस्तुओं का स्वरूप ठीक तौर से समझने में असमर्थ हो रहा है। ईश्वर के संबंध में भी यही बात है।

मनुष्य, शरीर को ‘मैं” समझता है उसके एक जन श्रुति ऐसी अवश्य सुन रखी होती है कि आत्मा शरीर से भिन्न है परन्तु इस पर उसका विश्वास नहीं होता। हम सब शरीर को ही यदि आत्मा न मानते होते तो यह भारत भूमि दुराचारी का केन्द्र न बन गई होती। गीता में भगवान कृष्ण ने अपना उपदेश आरम्भ करते हुए अर्जुन को यही दिव्य ज्ञान दिया है “तू, देह नहीं है।” आत्म स्वरूप को जिस प्रकार विस्मरण कर दिया गया है उसी प्रकार ईश्वर को भी दृष्टि से ओझल कर दिया गया है। हमारे चारों ओर जो घोर अज्ञानाँधकार छाया हुआ है उसके तम तोम में कुछ और ही वस्तुएं हमारे हाथ लगी हैं और उन्हें ही ईश्वर मान लिया है। रस्सी का साँप मान लेने का उदाहरण प्रसिद्ध है। रस्सी का स्वरूप कुछ कुछ सर्प से मिलता जुलता है। अंधेरे के कारण ज्ञान ठीक प्रकार काम नहीं करता, फलस्वरूप भ्रम सच्चा मालूम होता है। रस्सी सर्प का प्रतिनिधित्व भली प्रकार करती है। इस गड़बड़ी के समय में ईश्वर के स्थान पर शैतान विराजमान हो गया है और उसी को हम लोग पूजते हैं।

आत्मा पंच तत्वों से सूक्ष्म है। पंच तत्वों के रसों को इन्हीं तत्वों से बना हुआ शरीर भोग सकता है। आत्मा तक कडुआ मीठा कुछ नहीं पहुँचता। वह तो केवल इन्द्रियों की तृप्ति अतृप्ति को अपनी तृप्ति मानती भर है। मायाजाल, या गाँठ जो कुछ है यह मानना भर है। मिठाई से जीभ सन्तुष्ट होती है पेट पचाता है और मल रूप उसे बाहर निकाल फेंका जाता है। पंच तत्व आत्मा की गहराई तक नहीं पहुँच सकते और क्योंकि तत्व स्थूल और आत्मा सूक्ष्म है। ईश्वर आत्मा से भी सूक्ष्म है। जीव और ईश्वर का मिलन, चुम्बन, आलिंगन एक विशेष प्रकार का है। यह आनन्द ऐसा नहीं है जैसा रंडी का नाच देखने या पकौड़ियों की चाट खाने में आता है। जैसे दो भैंसों के लड़ पड़ने से हमारे शरीर को कोई आघात नहीं पहुंचता उसी प्रकार बाहरी स्थूल पदार्थ जीव तक अपनी अनुभूति नहीं पहुँचा सकते।

उपरोक्त पंक्तियों का तात्पर्य यह है कि ईश्वर अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण भौतिक पदार्थों के देने लेने में हस्तक्षेप नहीं करता। एक निश्चय क्रम के अनुसार भौतिक तत्व आपस में मिलते और टूटते रहते हैं। उनकी भिन्न-भिन्न मात्राओं की स्फुरणा भिन्न-भिन्न होती है। तत्वों की मूल शक्ति भी ईश्वर में ही निहित है। परन्तु वह लोगों को प्रसन्न अप्रसन्न करने के लिए अपनी एकरसता में अन्तर नहीं आने देता। प्रकृति का पहिया घूमता रहता है। बिजली का संचालक यंत्र चलता रहता है। उसमें आटा पीसना और कुट्टी कूटना लोगों की इच्छा पर निर्भर है। जानकारी और सावधानी होने पर सफलता और इसके विपरीत दशा में असफलता प्राप्त करने का भार लोगों के ऊपर छोड़ा गया है, बिजली की धारा इस झमेले से कुछ परे रहना चाहती है।

ईश्वर एक अखण्ड चेतना है। जीव उसका पुत्र है। दोनों एक दूसरे से मिल सकते हैं, एक दूसरे की सत्ता का उपयोग कर सकते हैं। जीव ईश्वर को शक्ति प्राप्त करके अपने को भौतिक वेदनाओं से छूटने की योग्यता प्राप्त कर सकता है। बिना इस योग्यता का तात्विक स्फुरणा रोक रखना या बदल देना नहीं हो सकता। बिना जानकारी के प्राप्त किये जो बिजली की मशीन को रोकने के लिए हाथ डालेगा वह असफल होगा और खतरा उठायेगा। विद्युत यंत्र के सम्मुख नाक रगड़ कर यह कहने से कि श्रीमान जी आप चल पड़िये और मेरा अमुक काम कर दीजिए कुछ भी प्रयोजन न निकलेगा। उसे रिश्वत का लालच देना भी वैसा ही होगा। क्योंकि बिजली जिस प्रकार की चेतना है उसे उसी जाति के पदार्थों की प्राप्ति हो सकती है। लड्डू और मालपुओं का भोग उसे चलाने में असमर्थ है। हाँ, उत्तम कोटि के यंत्र लगा देने से अधिक फल प्राप्त किया जा सकता है।

हम में स्वयं अनेक विकार भरे हैं। अपना मुँह ही दर्पण में भी देखते हैं। ईश्वर को भी अपने ही जैसा विकारी मानते हैं। जो हमारी बहुत खुशामद और तारीफ करता है उससे हम प्रसन्न हो जाते हैं और कुछ चीजें कृपापूर्वक दे देते हैं, जो भिखारी हमारे दरवाजे पर अड़कर बैठ जाता है उसे कुछ दाने डाल कर बला टाल देते हैं। जो हमें रिश्वत दे देता है उसका काम खुशी खुशी चला देते हैं। इन्हीं आदतों को ईश्वर में देखना चाहते हैं ईश्वर पूजा का भी आज यही रूप है। मुकदमा जीत जावें, लड़ाई में विजय हो, या मिल जाय, बीमारी दूर हो जाय, पुत्र उत्पन्न हो, परीक्षा में पास हो जायँ, विवाह हो जाय, बैकुण्ठ मिल जाय, मुक्त हो जायँ, आदि इच्छाओं की पूर्ति ईश्वर से चाही जाती है। अपने तक ही यह कामना सीमित नहीं रहती वरन् अपने बेटे, पोतों, कुटुम्बी, रिश्तेदारों, यार दोस्तों के लिए भी यही चीजें चाही जाती हैं। स्तोत्र-पाठ करते समय ईश्वर की तारीफ करते हैं कि तुम ऐसे हो तुम वैसे हो। तुमने रावण मारा, तुमने कंस मारा, तुमने सुदामा को सोने के महल दिये, नरसी को हुंडियां दीं, अमुक को अमुक चीज दी। सो तुम मुझे भी वह सब वस्तुएँ दे दो। मानो हम भाई हैं और ईश्वर कोई जमींदार है, जिसको प्रशंसा के कवित्त सुना-सुना कर इस बात के लिए रजामंद किया जा रहा है कि वह प्रसन्न होकर इसके बदले में कुछ धन दौलत दे दे। रिश्वत देने में भी हम क्यों चूकने लगे। तुम्हारी कथा कहलवायेंगे, तुम्हारा प्रसाद बाँटेंगे, तुम्हारे अमुक तीर्थ में दर्शन करेंगे, तुम्हारा मंदिर बनवाएंगे, छत्र चढ़ायेंगे, ब्राह्मण भोजन करावेंगे, मानों ईश्वर कोई बे घर बार का और भूखा प्यासा घूम रहा है जिसके लिये आप कृपापूर्वक घर बनवाएंगे और खाना खिलावेंगे। ऐसा कहते समय, ईश्वर को हम रिश्वतखोर हाकिम की तरह देखते हैं जिससे ऐसी आशा की जाती है कि भेंट पूजा कर देने पर जुर्मों को माफ कर देगा और कष्टों में पड़ने से बचा लेगा।

कुछ लोग डर के मारे ईश्वर को पूजते हैं। वे देखते हैं कि जबरदस्त का काम ही छोटों को सताना है। उस गाँव का जमींदार बात की बात में जूतों से पिटवा देता है। दरोगा जी नाराज होते ही किसी मामले में फँसा देते हैं। इसलिए उनका विरोध न करके हाँ हुजूरी करनी चाहिए जिससे सब राग बवाल से बचे रहे। ईश्वर को वे बहुत बलवान सुनते हैं। दरोगा जमींदार, शेर आदि से भी बलवान!! तो डर के मारे वे ईश्वर के सामने गिड़गिड़ाते रहते हैं कि ‘हे महाबली ईश्वर महाराज! अपने बल की आज़माइश मुझ पर मत कर बैठना जिसमें में बेचारा निर्दोष कुचल जाऊँ।’ डर के मारे वे तरह तरह से पूजा पत्री कर के उसे रिझाते हैं और फुसलाकर किसी प्रकार काम निकाल लेने की बात सोचते हैं। जो अपने को कुछ अधिक ज्ञानी समझते हैं कि रुपया, पैसा, औरतें आदि तो नहीं माँगते पर जन्म मृत्यु के डर के मारे उसके पाँव पलोटते हैं। मोक्ष की दरख्वास्त लेकर ईश्वर की कचहरी के चक्कर काटते हैं।

खुले शब्दों में कहने पर यह बातें बहुत कड़वी लगेंगी परन्तु आपको सोचना होगा कि आपकी पूजा सचमुच कहीं ऐसी ही तो नहीं है। आप को ईश्वर के नाम पर पूजा, भक्ति, यज्ञ, जप, तप, व्रत, दान, त्याग आदि करते हैं कि ईश्वर को फुसलाकर भौतिक वस्तुएं माँगने के लिए? अपनी कमजोरी को बारीकी के साथ पहचानिये यदि उपरोक्त बातें या उन से मिलती जुलती कोई भौतिक भावना से भजन हो रहा है तो वह स्थूल है, भौतिक है, ईश्वर तक उसकी पहुँच नहीं हो सकती। बदले का सौदा शैतान के यहाँ होता है। पैसे लेकर वेश्या आनंद प्रदान कर सकती है सती साध्वी नहीं। बदले पाने के लिए आप कुछ धार्मिक लेन देन करते हैं। कीजिए, फल मिलेगा। पर इतना स्मरण रखिये, यह खरीद फरोख्त ईश्वर की दुकान से नहीं हो रही है।

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